जैव उर्वरकों का वर्गीकरण | Classification of Biofertilizers in Hindi

तकनीकी रूप से Bio-Fertilizers उनकी कार्यिकी के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं:

(1) अविकल्पी ऑक्सीजीवी (Obligate Aerobes) – ऐसे सूक्ष्मजीव (Micro-Organisms) आक्सीजन (Oxygen) की उपस्थिति में ही अपनी क्रियाविधि अर्यरत रखते हैं जैसे एजोटोबेक्टर (Azotobacter) ।

(2) अविकल्पी अनाक्सीजीवी (Obligate Anaerobes) – ऐसे सूक्ष्मजीवी ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही अपना क्रियाविधि रखते हैं ।

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(3) विकल्पी अनाक्सीजीवी (Facultative Anaerobes) – ऐसे सूक्ष्मजीवी साधारणतः ऑक्सीजन की उपस्थिति में अपने क्रियाकलापों का वहन करते हैं, लेकिन इसकी अनुपस्थिति में भी सुचारू रूप से कार्य करते हैं ।

बायोफर्टीलाइजर को तीन भागों में सूक्ष्मजीव के अनुसार बाँटा गया है:

(A) जीवाणु एवं जैव उर्वरक (Bacteria and Bio-Fertilizers),

(B) सायनो बेक्टीरिया एवं जैविक खाद (Cyanobacteria and Bio-Fertilizers),

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(C) माइकोराइजा एवं जैव उर्वरक (Mycorrhiza and Bio-Fertilizers) ।

(A) जीवाणु एवं जैव उर्वरक (Bacteria and Bio-Fertilizers):

जीवाणु जैव उर्वरक खेती एवं कृषि कार्यों के लिए लाभदायक होते हैं, अत: इनका प्रयोग किया जाता है । कुछ जीवाणु वायुमण्डलीय नाइट्रोजन (N2) का स्थिरीकरण करके पौधों को देते हैं ।

वायुमण्डल में लगभग 79% नाइट्रोजन पायी जाती है। यह नाइट्रोजन विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तनों द्वारा नाइट्रोजन यौगिकों के रूप में बदल जाती है, जो पौधों को प्राप्त होती है । इस क्रिया को नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहते हैं ।

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जब वर्षा होती है तथा बिजली चमकती है तथा वायुमण्डल की नाइट्रोजन, ऑक्सीजन से क्रिया करके नाइट्रोजन के ऑक्साइड बनाती है जो पानी में घुलकर नाइट्रेट (No3) के रूप में वर्षा के पानी के साथ मिट्टी में पहुंच जाते है । जिसका अवशोषण पौधों की जडों द्वारा होता है ।

कुछ मृतोपजीवी जीवाणु जैसे एजोटोबैक्टर (Azotobacter) तथा क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium) मिट्टी के अन्दर पाये जाते हैं, जो वायुमण्डल की नाइट्रोजन को अमोनिया (NH3) में बदलते रहते हैं ।

इसके अतिरिक्त कुछ जीवाणु जैसे बेसीलस रैडीसीकोला (Bacillus Radicicola), राइजोबियम (Rhizobium), चना, मटर, अरहर तथा सैम आदि की जडों की मूल ग्रन्थियों (Root Nodules) में पाये जाते हैं जो सहजीवी जीवाणु (Symbiotic Bacteria) कहलाते हैं । सहजीवी जीवाणु नाइट्रोजन को अमोनियम यौगिकों में बदलकर मूल ग्रन्थियों में एकत्रित रखते हैं जो पौधों को प्राप्त होती रहती हैं ।

मूल ग्रन्थियों द्वारा जैविक उर्वरक (Bio Fertilizer) प्राप्त करने के लिए लैग्यूमिनस पौधों (Leguminous Plants) को जमीन से ऊपर काट लिया जाता है, किन्तु उनकी मूल ग्रन्थियों (Root Nodules) सहित जडों (Root) को जमीन के अन्दर ही छोड़ दिया जाता है, जो कुछ समय के बाद सड़ गल जाती हैं और दूसरी फसलों (Crops) के लिए लाभदायक उर्वरक की भाँति प्रयोग में लाई जाती हैं ।

व्यापारिक उत्पादन एवं अनुप्रयोग (Commercial Production and Application):

आधुनिक युग में जीवाणु राइजोबियम (Rhizobium) का कल्चर (Culture) व्यापारिक स्तर पर किया जाता है ।

इसी कल्चर हेतु यीस्ट सत्व मेनीटोल (Medium) मीडियम को प्रयोग में लाते हैं, जिसका संगठन (Composition) निम्न प्रकार होता हैं:

यीस्ट एक्सट्रेक्ट मेनीटोल (YEM) मीडियम (Medium):

(1) यीस्ट एक्सट्रेक्ट (Yeast Extract) = 1.0 तय

(2) मेनीटोल (Mannitol) = 10.0 ग्राम

(3) पोटेशियम हाइड्रोजन फॉस्फेट (K2HPO4) = 0.5 ग्राम

(4) मेगनीशियम सल्फेट (MgSo4) = 0.2 ग्राम

(5) सोडियम क्लोराइड = 0.1 ग्राम

(6) आसुत जल (Distilled Water) = 1.0 लिटर

जीवाणु खाद के लिए राइजोबियम मेलीलोटी तथा रा॰ जापोनीकम (Rhizobim Meliloti and R. Japonicum) का प्रयोग अमेरिका (America) तथा अन्य देशों में किया जाता है । इन जीवाणुओं का कल्चर (Culture) बड़े पैमाने पर यीस्ट एक्सट्रेक्ट मेनीटॉल, मीडियम (Medium) पर किया जाता है ।

भारत में भी जीवाणु कल्चर के लिए YEM को प्रयोग में लाते हैं । इस मीडियम (Medium) को बड़े आकर के फलास्कों (Flasks) में भरकर कई घण्टों तक शेकर (Shaker) की सहायता से हिलाते हैं और फिर CaCO3 से उपचारित करके फ्लास्कों में रुई का प्लग (Plug) लगाकर ओटोक्लेव (Autoclave) करते हैं ।

इसके पश्चात् मीडियम को ठण्डा होने देते हैं और फिर ब्रोथ (Broth) मिला देते हैं । इसके पश्चात् ट्रे (Tray) में इसे सुखाते हैं । तत्पश्चात् पोलीथीन के थैलों (Polythene Bags) में भरकर किसानों को वितरित कर देते हैं ।

इसके अतिरिक्त अन्य मीडिया (Media) भी काम में लाये जाते हैं, जिनके ऊपर एजोटोवेक्टर क्रूकीकम (Azotobacter Chroococum) तथा ब्रेसीलस मैगाथीरियम (Bacillus Megatherium) उगाया जाता है । भारत में इन जीवाणुओं द्वारा भी व्यापारिक स्तर पर खाद बनाई जाती हैं ।

(B) सायनोबेक्टीरिया एवं जैविक खाद (Cyanobacteria and Bio-Fertilizers):

नील हरित जीवाणुओं (Cyanobacteria) में नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen Fixation) की अभूतपूर्व क्षमता होती है । अपने प्रयोगों के आधार पर वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि हिटत्रोसिस्ट (Heterocyst) धारण करने वाले तन्तुवत (Filamentous) साइनोबेक्टीरिया की जातियाँ जैसे ओलोसीरा (Aulosira), टोलीपोथ्रिक्स (Tolypothrix), एनाबीना (Anabaena), सिण्लेड्रोस्परमम (Cylindrospermum) नॉस्टाक (Nostoc), समेस्टीगोक्लेडस (Mastigocladus) आदि धान (Paddy) के खेतों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं ।

इनमें नाइट्रोजन स्वांगीकरण नाइट्रोजिनेज (Nitrogenase) एन्जाइम की उपस्थिति में होता है । यह देखा गया है कि जब इन जीवों (Organisms) की मृत्यु हो जाती है तब इनके शरीर से अमोनिया (NH3) प्राप्त होती है जो नाइट्रीफाइंग (Nitrifying Bacteria) जीवाणुओं द्वारा नाइट्रेटस (No3) में बदल जाती है ।

जापान में टोलीपोथिक्स टेनुयस (Tolypothrix) तथा भारत में ओलोसीरा फटीलिसीमा (Aulosira Fertillissima) नामक नील हरित शैवालों पर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये गये हैं और यह स्पष्ट किया जा चुका है कि धान के खेतों में इन शैवालों को उगाने से चावल (Rice) की 30% पैदावार अधिक हो जाती है । राजस्थान में एनाबिनोप्सिस (Anabaenopsis) तथा स्पायरूलाइना (Spirulina) का प्रयोग उर्वरक के रूप में किया जा रहा है ।

लिंगवया (Lyngbya) तथा अन्य सायनोबेक्टीरिया प्रतिजैवी पदार्थ (Antibiotics) स्त्रावित करते हैं जो स्युडोमोनाज (Pseudomonas) तथा माइकोबेक्टीरियम (Mycobacterium) को नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त अन्य सदस्यों में मच्छरों के लारवा (Larva) नष्ट करने का भी गुण होता है और इन्हें लारवानाशी (Larvicide) के रूप में प्रयोग किया जाता है ।

व्यापारिक उत्पादन एवं अनुप्रयोग (Commercial Production and Application):

आधुनिक युग में प्रयोगशालाओं में व्यापारिक स्तर (Commercial Level) पर नील हरित जीवाणुओं जैसे एनाबिना (Anabena), टोलीपोथ्रिक्स (Tolypothrix), ऑलोसीरा (Aulosira), नॉस्टाक (Nostoc) तथा प्लेक्टोनिमा (Plectonema) आदि को कल्चर (Culture) किया जाता है, जिसे जैविक खाद (Biofertilizer) के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ।

कल्चर (Culture) तैयार करने के लिए लोहे की ट्रे (Tray) को प्रयोग में लाया जाता है, जिनकी लम्बाई 9 इंच, चौड़ाई 6 इंच तथा गहराई 3 इंच होती है । जिस शैवाल (Algae) का कल्चर करना होता है उसे शुद्ध रूप से मिट्टी सहित ट्रे (Tray) में रखते हैं और इसमें 10 किलोग्राम मिट्टी तथा 200 ग्राम सुपर फास्फेट (Super Phosphate) डाल देते हैं और फिर ट्रे (Tray) में 2 से 2.5 इंच तक पानी भर देते हैं ऐसा करने से मिट्टी तली में बैठ जाती है ।

तत्पश्चात् ट्रे में भरे पानी के ऊपर लकड़ी का बुरादा (Saw Dust) छिड़ककर धूप (Sunlight) में रख देते हैं । एक या दो सप्ताह बाद नील हरित जीवाणु (Cyanobacteria) वृद्धि करके पानी की सतह पर तैरने लगते हैं ।

सावधानीपूर्वक इन्हें एकत्रित करके पोलीथीन थैलियों (Polythene Bags) में भरकर बाजारों में भेज दिया जाता है । जहाँ से कृषक इन्हें खरीद कर अपने खेतों में उर्वरक के रूप में प्रयोग करते हैं । यह उर्वरक बहुत सस्ता होता है । अनुमानतया एक हेक्टर भूमि के लिए 30 रुपये का उर्वरक पर्याप्त होता है ।

साइनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria) के उत्पादन के लिए सक्षम स्ट्रेन (Efficient Strain) का चयन करके उन्हें खुले टंकों (Open Tanks) में संवर्धित (Culture) करते हैं । टैंकों में भरे जाने वाले पानी (Water) खनिज तत्व (Mineral Elements) जैसे मोलीब्डनम (Mo) तथा फॉस्फेट (Po4) प्रचुर मात्रा में मिला दिये जाते हैं ।

इसके पश्चात् सायनोबेक्टीरिया की वृद्धि होने देते हैं और अन्त में पानी की सतह बाहर निकालकर धूप में सुखाते (Dry) हैं तथा इसका चूर्ण (Powder) बनाकर वाहक (Carrier) में मिलाते हैं । इस मिश्रण को पोलीथीन की थैलियों में पैक (Pack) करके कृषकों में वितरित कर दिया जाता है, जिन्हें खोलकर कृषक खेती की मिट्टी में फैला देते हैं जो उर्वरक की भाँति कार्य करता है ।

यह देखा गया है कि सायनोबेक्टीरिया को चावल (Rice) के खेतों में डालने से नाइट्रोजन उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती है तथा साइनोबेक्टीरिया के अवशेषों से दूसरी फसल को लाभ होता है । साइनोबेक्टीरिया में हिटरोसिस्ट चावल (Rice) के उत्पादन में 10 से 30 प्रतिशत तक वृद्धि होती है । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि साइनोबेक्टीरिया उर्वरक के प्रयोग करने से प्रति हेक्टर 25 kg. नाइट्रोजन (N2) की पूर्ति की जा सकती है ।

नील-हरित शैवाल जैव उर्वरक को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Effected on Cyanobacteria Bio-Fertilizers):

(1) प्रकाश (Light) – प्रकाश संश्लेषी प्रजातियों के लिए प्रकाश अति आवश्यक है ।

(2) तापमान (Temperature) – वर्धन के लिए अनुकूल तापमान 32°.5° से 35°C तक माना जाता है ।

(3) pH- pH Value 6.0 से 7.5 के मध्य वृद्धि अच्छी तरह होती है । 6.0 से कम pH पर वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है ।

(4) आद्रता (Humidity)- रुके हुए निर्मल जल में इसका वर्धन तीव्र गति से होता है शुष्क अवस्थाओं में निष्क्रिय अवस्था (Rosting Stages) में चली जाती है ।

(5) ऑक्सीजन (Oxygen) – ऑक्सीजीवी प्रजातियों के लिए आवश्यक है ।

(C) माइकोराइजा एवं जैविक खाद (Mycorrhiza and Bio-Fertilizers):

फ्रेन्क के अनुसार माइकोराइजा (Mycorrhiza, Mycos = Fungus, Rhiza = Root) का अर्थ कवक मूल होता है । उच्च श्रेणी के पादपों में जो अपना जीवन मृतोपजीवी की भाँति व्यतीत करते हैं, उनकी जडों (Roots) में अनेक कवक (Fungi) पाये जाते हैं जो पादपों में कार्बनिक पदार्थों के अवशोषण (Absorption) में सहायक होते हैं जैसे मोनोट्रोपा (Monotropa) तथा नियोटिया (Neottia) आदि कवकों (Fungi) का पादप मूलों से विशिष्ट (Specific) सम्बन्ध नहीं होता है ।

एक ही पादप मूल (Root) पर कवकों की कई जातियाँ (Species) पायी जाती हैं या फिर एक ही जाति की कवक (Fungus) अनेक पादप जातियों (Species) की मूलों (Roots) पर पाया जाता है ।

माइकोराइजा के प्रकार (Types of Mycorrhiza):

यह निम्न प्रकार के होते हैं:

(i) एक्टोट्रोपिक माइकोराइजा (Ectotrophic Mycorrhiza):

इसमें कवक तन्तु (Fungus Hyphae) पोषक पौधे की जड़ (Root) की सतह (Surface) पर एक पर्त (Hyphae) या मेण्टल (Mantle) बना लेते हैं । पोषक पौधे की जड़ की एपीब्लेमा (Epiblema) पर स्थित कवक तन्तु (Hyphae) प्रवेश करके जाल (Net) सा बना लेते हैं ।

जो कवक तन्तु जड़ की सतह पर फैले रहते हैं उनमें से अधिकतर तन्तु कार्बनिक पदार्थ युक्त मिट्टी में प्रवेश करते हैं, जो कुछ एन्जाइम्स (Enzymes) का स्त्रावरण (Secretion) करके कार्बनिक पदार्थों (Organic Matters) को घुलनशील (Souble) बना लेते हैं तथा उनका अवशोषण करते हैं ।

इस प्रकार अवशोषित कार्बनिक पदार्थ जड़ की कोशिकाओं में स्थित कवक तन्तु (Hyphae) में पहुँच जाता है जिसके द्वारा पोषक पौधे का पोषण होता है । इस प्रकार के पौधों की जड़ों की एपीब्लेमा पर मूल रोम (Root Hairs) नहीं पाये जाते हैं, जैसे- कोनीफरेसी उदाहरण पाइनस (Pinus), फेगेसी उदाहरण ओक (Oak) तथा बीज (Beech), बेटूलेसी जैसे बिर्च (Birch) ।

कुछ पौधों जैसे मोनोट्रोपा (Monotropa) तथा सारकोड्स (Sarcodes) की जडों में पूर्ण मृतोपजीवी (Total Saprophyte) माइकोराइजा (Mycorrhizia) पाया जाता है । इनकी जडें, पूर्णतया कवक की मेण्टल (Mantle) से घिरी रहती हैं और पौधों के लिए यह कवक (Fungi) सम्पूर्ण पोषण (Nutrition) अवशोषित करती हैं । इन पौधों में पर्णहरित क्लोरोफिल (Chlorophyll) का अभाव होता है ।

अनेक वन वृक्षों (Forest Trees) जैसे सेलिक्स (Salix), यूकेलिप्टस (Eucalyptus), देवदार (Cadrus Deodara), पिसिया (Picea) तथा पोपुलस (Salix) आदि की जड़ों (Roots) में भी एक्टोट्रोफिक माइकोराइजा संलग्न होता है, जिससे जडों की आकारिकी बदल जाती है तथा मूल रोम (Root Hairs) भी विकसित नहीं हो पाते हैं ।

इस प्रकार पोषक (Host) एवं कवकों (Fungi) का सम्बन्ध बहुत लाभदायक होता है, क्योंकि माइकोराइजा वाले पादपों में खनिज लवणों (Mineral Salt) को अवशोषित करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है ।

(ii) एण्डोट्रोफिक माइकोराइजा (Endotrophic-Mycorrhiza):

इस प्रकार में कवक तन्तु (Hyphae) पोषक पौधे की जड़ (Root) पर पर्त (Layer) नहीं बनाते हैं, अपितु जड़ की सतह पर फैली रहती है । इन कवक तन्तुओं में से कुछ तो मिट्टी (Soil) में प्रवेश कर जाते हैं और कुछ कवक तन्तु जड़ (Root) की कार्टेक्स (Cortex) की कोशिकाओं (Cells) में भीतर तक प्रवेश कर जाती है और अन्तराकोशिकीय अवकाशों (Intercellular Spaces) में पड़ी रहती हैं तथा वृद्धि करती रहती है ।

कवकों (Fungi) को पोषक पौधे (Host Plant) से शर्कराएँ (Sugars) तथा विटामिन्स (Vitamins) प्राप्त होते हैं । कवकों से पौधे को कोई हानि नहीं होती हैं । यह कवक तन्तु (Hyphae) मृदा (Soil) से कार्बनिक पदार्थों, खनिजों तथा नाइट्रोजनी पदार्थों का अवशोषण करके पोषक पौधे को पहुंचाते हैं ।

जैसे हरे आर्किड (Orchids) के ट्यूबर (Tuber) आदि । प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि यदि पोषक पौधे को तथा इनमें मिलने वाले कवकों को अलग-अलग विकसित किया जाय तो दोनों की वृद्धि अत्यधिक धीमी हो जाती है ।

इस सम्बन्ध में कवक पोषक पौधे से शर्करा विटामिन्स (Biotin and Thiamine) एवं अमीनो अम्ल प्राप्त करता है । कवक जड़ों की अवशोषण करने की सतह को बढ़ाने में सहायक होता है एवं पौधे में पोषक तत्व इकाई क्षेत्रफल में एकत्रित करने में सहायक होता है ।

यह देखा गया है कि हरे आर्किड्स (Green Orchids) के बीज (Seeds) जब तक किसी कवक (Fungus) से संक्रमित (Infected) नहीं होते हैं भली-भाँति अंकुरण नहीं कर पाते हैं ऐसा अनुमान है कि शिशु नवोद्‌भिद (Seedling) इन कवकों द्वारा अपना पोषण (Nutrition) अवशोषित करते हैं, जैसे K, P, N आदि किन्तु पौधों के परिपक्व होने पर इन कवकों का कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं होता है ।

ऐसे आर्किड्स (Orchids) जो हरे नहीं होते हैं जैसे कोरेलोराइजा (Corallorhiza), नियोटिया (Neottia) तथा एपीपोगोन (Epipogon) आदि पूर्ण मृतोपजीवी (Total Saprophytes) हैं ।

अत: इनके राइजोम्स (Rhizomes), पाइन वनों (Pine Forests) के अधिक ह्यूमस (Humous) में शाखित हो जाते हैं, किन्तु इनमें जडें नहीं पायी जाती हैं के अधिक ह्यूमस कवकों द्वारा राइजोम संक्रमित (Infected) हो जाता है । इस प्रकार के माइकोराइजल कवक प्राय: टेरीडोफाइट्स में पाये जाते हैं ।

इसके अतिरिक्त एरीकेसी (Ericaceae) तथा जेन्सियनेसी (Gentianacfeae) कुलों के सदस्यों में भी इस प्रकार के माइकोराइजा का सम्बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप जड़ों की आकारिकी (Morphology) बदल जाती है अर्थात्‌ जडें फूलकर द्विशाखित हो जाती हैं किन्तु मूलरोम (Root Hairs) संलग्न रहते हैं ।

वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि पौधों के साथ ड्यूटेरोमाइसिटीज (Deuteromycetes) अथवा फाइकोमाइसिटीज (Phycomycetes) के सदस्यों का सम्बन्ध होता है, जो पोषक (Host) से सरल कार्बनिक यौगिकों तथा कुछ विटामिन्स जैसे थाइमीन (Thiamin), बायोटीन (Biotin) का अवशोषण करते हैं तथा मृदा (Soil) से नाइट्रोजन (N) फास्फोरस (P) तथा पोटेशियम (K) आदि का अवशोषण कर पोषक पौधों को देते हैं ।

यह कवक लाभदायक आक्जिन्स (Auxins) भी स्त्रावित करते हैं । गोबर के ढेर में रखे हुए खाद का नाइट्रीकरण नहीं होता है, किन्तु खेतों में डाले जाने पर खाद नाइट्रीकरण शीघ्रता से होने लगता है । ढ़ेरों, में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है तथा वायु (Air) की कमी होती है । अत: नाइट्रीकरण (Nitrification) नहीं हो पाता है ।

डि-नाइट्रीकरण (De-Nitrification):

मृदा (Soil) में नाइट्रेट्‌स (NO3) अवकरण (Reduction) तथा नाइट्रेट (NO3) परिपचन (Assimilation) की अनेकों, विधियों द्वारा नाइट्रेट्स (Nitrates) लुप्त हो जाते हैं और यह क्रिया विनाइट्रीकरण (Denitrification) कहलाती है ।

जैसे- नाइट्रेट्‌स – नाइट्राइट – नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स – नाइट्रोजन (N2) गैस – अमोनिया (NH3) कम्पोस्ट अथवा ढेर की खाद में विनाइट्रीकरण बहुत कम होता है ।

खनिज पदार्थों में परिवर्तन (Changes in Mineral Compounds):

गोबर अथवा मल पदार्थ में फास्फोरस (Phosphorus) अधिकतर कार्बनिक अथवा अकार्बनिक रूपों कार्बोनिक फास्फोरस (Carbonic Phosphorus) जो पौधों को अप्राप्त होता है, प्राय: अकार्बनिक (Inorganic) फास्फोरस (P) में बदल जाता है ।

अधिकतर मूत्र (Urine) में पोटाश (K) पाया जाता है, जो आसानी से लवणों (Salts) के रूप में अथवा घुलनशील (Soluble) अवस्था में पाया जाता है । पोटाश (K) का कुछ भाग पोटेशियम कार्बोनेट (Potassium Carbonate) में बदल जाता है, जो कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates) के विच्छेदन से उत्पन्न हुए अम्लों (Acids) को उदासीन करता है ।

अविलेय केल्शियम (Ca), मैग्नीशियम (Mg) तथा पोटेशियम (K) के लवण (Salts) विच्छेदन के बाद घुलनशील (Soluble) अवस्था में बदल जाते हैं, जो पौधों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं ।

गोबर की खाद का खाद मान (Manural Value):

सामान्य रूप से खेत में डालने के लिए तैयार एक औसत दर्जे के गोबर की खाद में 0.5 प्रतिशत नाइट्रोजन (N2) 0.25% फास्फोरस पेण्टाऑक्साइड (P2O5) तथा 5% पोटेशियम ऑक्साइड की मात्रा पायी जाती है ।

गोबर की खाद में नाइट्रोजन (Nitrogen), फास्फोरस (Phosphorus) तथा पोटाश (Potash) अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं । उगाई जाने वाली फसलों को प्रथम वर्ष गोबर की खाद से 30 से 40 प्रतिशत नाइट्रोजन (N2) 20 से 25 प्रतिशत फास्फोरस (P) तथा 50 से 70 प्रतिशत पोटाश (K) प्राप्त होता है ।

गोबर की खाद का महत्व (Importance of Yard Manure) खेतों में गोबर की खाद लगाने से निम्न लाभ होते हैं:

(1) इस खाद से पौधों को पोषक तत्व (Nutrients) धीरे-धीरे प्राप्त होते हैं और इस प्रकार गोबर की खाद का प्रभाव भूमि में कई वर्षों तक बना रहता है ।

(2) अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद को छोटे-छोटे पौधों (Plants) में बिना किसी हानि के दिया जा सकता है ।

(3) गोबर की खाद में फास्फोरिक अम्ल (Phosphoric Acid) तथा पोटाश (K) पर्याप्त मात्रा में उपस्थित होते हैं ।

(4) नाइट्रोजन (N2), पोटाश (K) तथा फास्फोरस (P) के अतिरिक्त गोबर की खाद में अन्य पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते है ।

(5) इस खाद के द्वारा खेत की मिट्टी में कैल्शियम (Ca) की मात्रा बढ़ जाती है, जिसके कारण मृदा (Soil) की भौतिक अवस्था (Physical State) सुधर जाती है ।

(6) जीवांश पदार्थों (Living Matter) के विच्छेदन से कोलाइडल ह्यूमस (Collodial Humous) मिलता है जो रेतीली मृदाओं (Sandy Soil) की जलधारण क्षमता (Water Holding Capacity) को बढ़ाता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी (Spongy) बनाता है ।

(7) यह खाद पानी (Water) को धीमे-धीमे छोड़ती है, जिससे जल (Water) पौधों को बहुत समय तक मिलता रहता है ।

(8) गोबर की खाद में कुछ ऐसे नाइट्रोजनी (Nitrogenous) लाभदायक पदार्थ पाये जाते हैं, जो पौधों की वृद्धि (Growth) करने में सहायक होते हैं ।

एजोला जैव उर्वरक (Azolla Bio-Fertilizer):

एजोला (Azolla) स्वच्छ पानी में तैरती हुई अवस्था में पाया जाने वाला एक निम्न वर्गीय पादप है । इसकी Species ए॰ केरोलिनि आना, ए॰ फिलीकुलोइडस, ए॰ मैक्सीकाना, ए॰ माइक्रोफिला, ए॰ निलोरिका ए॰ पिन्नेटा तथा ए॰ रुब्रा है ।

एजोला (Azolla) की पृष्ठीय सतह (Dorsal Surface) पर एक गर्त (Cavity) पायी जाती है, जिसमें एजोला के साथ सहजीवी के रूप में जीवन यापन करने वाली Blue-Green Algae Anabanea Azolle पायी जाती है ।

इसकी उपयोगिता नाइट्रोजन (Nitrogen) यौगिकीकरण के लिए होती है । उदाहरण 10 टन Azolla पादप का उपयोग करने से 40 कि॰ग्राम जैविक रूप से यौगिकीकृत Nitrogen,Soil को प्राप्त होती है । चावल की फसल में Azolla का उपयोग हरी खाद (Green Manure) के रूप में, विश्व के कई भागों में होता है ।

Azolla वर्ग Teridophyta का सदस्य है, जिसके प्रकन्द (Rhizome) पर कई एकांतर शाखाएँ पाई जाती है जो कि Lateral Branches से जुड़ी रहती है । Azolla का वर्धन सामान्यत: वर्ष भर होता है तथा सर्दी के मौसम में इसका वर्धन अधिक तीव्र होता है ।

Azolla जैव उर्वरक को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Effecting Azolla Bio-Fertilizer):

(1) तापमान (Temperature)- 32°C अधिकतम एवं 20°C न्यूनतम तापमान इसकी वृद्धि के लिए अनुकूल होता है ।

(2) मृदा पी॰एच॰ (Soil pH)- एजोला (Azolla) का जीव चक्र 3.5 से 10.0 pH मान तक चलता है परंतु नाइट्रोजन यौगिकीकरण के लिए अनुकूल pH का मान 6.0 है ।

(3) जैविक कारक (Biological Factors)- ए॰ पिन्नेटा की वृद्धि पर विभिन्न प्रकार के लार्वा (Larva) विशेष कर लेपीडीपटेरा (Lepideptera) तथा Diptera वर्ग के कीटों (Insect) लार्वा के प्रति ये अति संवेदनशील होता है ।

(4) मृदा एवं स्कुर- Azolla नर्सरी में एकल सुपर फास्फेट (Single Super Phosphate) डालना लाभदायक रहता है । ये उर्वरक इसकी वृद्धि पर प्रतिकूल असर डालता है ।

(5) प्रकाश (Light)- विभिन्न Species में प्रकाश सहिष्णुता भिन्न-भिन्न होती है । अत्यधिक प्रकाश, सामान्यतः नाइट्रोजन (Nitrogen) यौगिकीकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है ।

(6) लवणता (Salinity)- लवणता में वृद्धि के साथ-साथ एजोला का संवर्धन भी धीमा हो जाता है तथा लगभग 1.3 प्रतिशत लवणता होने पर इसकी वृद्धि रुक जाती है ।

नील हरित शैवाल एवं एजोला जैव उर्वरक की उत्पादन प्रौद्योगिकी (Production Technology of Blue Green Algae and Azolla Bio-Fertilizers):

नील हरित शैवाल के मृदा आधारित जैव उर्वरक (Biofertilizers) का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन भारत के कई हिस्सों में किया जा रहा है ।

इसके Production की तीन प्रमुख विधियाँ हैं:

(i) खुले में मृदा आधारित संवर्ध (Trough Method),

(ii) खड्ड विधि (Pit Method),

(iii) खेत विधि (Field Method) ।

खुले में मृदा आधारित संवर्ध (Glavanized):

(1) लोहे की 15 से॰मी॰ × 7.5 cm. × 22.5 cm. ट्रे (Tray) में 10 kgm.उपजाऊ मिट्टी, जिसमें 200 gm. Single Super Phosphate डाला हो, भर दें ।

(2) मृदा का pH Value Neutral होना चाहिए ।

(3) अब Tray में 5-15 सेमी॰ ऊँचाई तक पानी भर दें । मृदा के कण पेंदें में बैठ जाने पर Blue Green Algae संवर्ध Starter Culture of BGA छिड़क दे तथा ट्रे को खुले प्रकाश में छोड़ दें ।

(4) जब शैवाल (Algae) की वृद्धि संतोषजनक लगे तो Tray में जल डालना बंद कर दें तथा ट्रे को खुले प्रकाश में सूखने के लिए छोड़ दें ।

(5) नील हरित (Blue Green Algae) की सूखी पपड़ियों को उतार कर पैकेट में भर लें ।

(6) Tray में पुन: पानी भर कर थोड़ा सा प्रारंभिक संवर्ध डाल दें तथा इस प्रकार 3-4 परतें उतारने के बाद Tray की Soil को बदल देना चाहिए ।

(7) पानी में कीटों के लार्वा (Insect Larva) की वृद्धि रोकने के लिए फीलीडॉल (0.001 ppm) या Malathion (0.00075 ppm) या Carbofuran 3% कण डाले जा सकते हैं ।

खड्ड विधि (Pit Method):

उपयुक्त विधि के समान है, किंतु इसमें Tray के स्थान पर खेत में क्यारियाँ बनाकर उसमें Polyethylene की Sheet बिछा दी जाती है । इससे पानी जमीन के अंदर नहीं जा पाती है । शेष प्रक्रिया समान ही होती है । इसमें केवल खेत के चारों ओर मेड बांध कर पानी भर दिया जाता है ।

कवक मूल का उत्पादन (Production of Mycorrhiza):

माइकोराइजा (VAM – Vesicular Arbuscular Mycorrhiza) का प्रयोग वानिकी कृषि में किया जाता है । VAM Soil में पाया जाता है । अत: इसे मृदा से पृथक कर लिया जाता है । इसे पौधों की जड़ों के प्रभावी क्षेत्र (Rhizo Sphere) से पृथक किया जा सकता है ।

Primary Inoculum के रूप में इसके बीजाणु (Spores) कवक जाल, संक्रमिक जडों का उपयोग किया जा सकता है । इस प्रकार पृथक किये गये प्रारंभिक संवधों को संवहनी परपोषी पादप के साथ गमलों में बर्धित किया जा सकता है ।