कुकब्रिट फसलों: इतिहास और खेती | Read this article in Hindi to learn about the history and cultivation of cucurbit crops.

कद्दूवर्गीय सब्जियाँ कुकुर्बिटेसी कुल के अंतर्गत आती हैं जिसका विश्व भर में मुख्य रूप से खाने में प्रयोग करते हैं । इस कुल के अंर्तगत लगभग 118 जेनेरा एवं 825 स्पेशीज आती हैं ।

इस कुल की सब्जियों में आनुवंशिक विभिन्नता बहुत अधिक होती है, परिणामस्वरूप इन सब्जियों की अनुकूलता सर्वव्यापी है जिससे इसकी खेती शितोष्ण, सम-शितोष्ण उपोष्ण एवं रेगिस्तान जैसे सुदूर क्षेत्रों में सफलतापूर्वक करते हैं ।

कद्‌दूवर्गीय सब्जियों के अंतर्गत अनेक प्रकार की सब्जियों का निर्यात होता हैं । कद्‌दूवर्गीय सब्जियों का भारतवर्ष में कुल सब्जी उत्पादन में योगदान लगभग 5.6% है एवं एफ.ए.ओ. के अनुसार कद्‌दूवर्गीय सब्जियों की संभावित खेती लगभग 4,290,000 हैक्टेयर क्षेत्रफल में एवं उत्पादकता 10.52 टन प्रति हैक्टेयर तक की संभावना है ।

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एक अनुमान के अनुसार भारत में सब्जी की उपलब्धता एवं पोषक तत्वों से भरपूर फिर वह चाहे अकेला हो या फिर बड़े समूह में सन् 2015 तक कद्दूवर्गीय सब्जियों का उत्पादन 215000 टन तक करना अत्यंत आवश्यक है ।

इतिहास एवं उत्पत्ति स्थल:

कद्‌दूवर्गीय या कुकर्बिटेसी कुल के पौधे ग्रीष्मकालीन सब्जियों का सबसे बडा समूह बनाते है । इस कुल के 90 वंशों और लगभग 700 जातियों में से काफी बडी संख्या का उपयोग आहार के रूप में किया जाता है । विश्व के प्रायः सभी उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी देशों में कद्‌दूवर्गीय सब्जियां उगाई और खाई जाती हैं । कुछ जातियों को शोभाकार पौधों की भांति भी उगाया जाता है ।

इस कुल की खेती योग्य जातियों के विकास की कहानी कदाचित नई और पुरानी दुनिया के उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों में कृषि के विकास की ही कहानी होगी । कुकर्बिटेसी कुल के एक वर्षीय पौधों के उत्पत्ति स्थल के बारे में सदा विवाद रहा है ।

एक अध्ययन से पता चलता है कि इस कुल के लगभग 2/5 वंश अफ्रीकी उद्‌भव के 2/5 अमेरिकी उद्‌भव के तथा शेष 1/5 एशियाई उद्‌भव के प्रतीत होते हैं । संभवतः इसी भू-प्रात में कुकर्बिटसी कुल के विभिन्न वंशों की उत्पत्ति हुई होगी और यहाँ से ही कुछ वंशों का प्रसार एशियाई क्षेत्रों में हुआ होगा ।

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पुरातात्विक प्रमाणों से यह बात प्रमाणित होती है कि कद्‌दूवर्गीय सब्जियों की खेती 4000 ईसा पूर्व वर्ष से की जा रही है । केन्डोल (1882) के अनुसार इस बात के बहुत सारे प्रमाण मिलते हैं कि तरबूज का मूल उत्पत्ति स्थल अफ्रीका का उष्ण क्षेत्र है, जहां पर भूमध्य रेखा के दोनों ओर यह आज भी जंगली अवस्था में पाया जाता है ।

भूमध्य सागर के तटवर्ती निवासी तरबूज की खेती अनेक शताब्दियों से करते चले आ रहे हैं । उत्तरी अफ्रीका की बर्बर जाति के लोग मिस्री तथा स्पेनी लोग बहुत पहले से इसकी खेती करते चले आ रहे हैं और इसे विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है ।

पेगालो (1930) के अनुसार इसकी सिट्रलस वल्गेरिस नामक जाति मूलतः भारतीय पौधा है, पर इस बारे में अभी विवाद है । उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत तरबूज की उत्पत्ति का द्वितीयक केन्द्र अवश्य रहा होगा ।

खरबूज (कुकमिस मेली) की उत्पत्ति के बारे में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । डि कन्डोल के अनुसार एक पादप संकलक ने सर जोसेफ हूकर को गाइना में नाइजर नदी के तटवर्ती क्षेत्र में इसके कुछ पौधे लाकर दिए जिसके फल वहाँ के मूल निवासी खाया करते थे । इससे अफ्रीका में इसकी उत्पत्ति का प्राथमिक केन्द्र होने की पुष्टि होती है ।

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इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि खरबूज की उत्पत्ति का द्वितीयक केन्द्र सम्भवतः भारत, चीन, दक्षिणी रूस तथा पर्सिया भी रहे होंगे । चूर्णी फफूँद रोग के लिए रोधी इसके सभी जीन का पता केवल भारत में उग रहे पौधों में ही चला है ।

डि कन्डोल के अनुसार खीरा (कुकुमिस सेटाइवस) का मूल उत्पत्ति स्थान भारत है । इसकी पुष्टि हिमालय की तराई से खीरे के समान पाये जाने वाले पौधे (कुकुमिस हार्डविसकी) से होती है । भारत में खीरे की खेती 3 हजार वर्षों से किए जाने के प्रमाण मिलते हैं ।

विश्व के समस्त उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र में या तो तोरई की खेती की जा रही है या इसके खाने-योग्य पौधे प्राकृतिक रूप से उगते हुए पाए जाते हैं । फलतः इसके उत्पत्ति स्थल के बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना अत्यंत मुश्किल है ।

उपलब्ध प्रमाणों से यही सकेत मिलता है कि घिया तोरई (लूफा सिलिन्ड्रीका) की उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय एशिया सम्भवतः भारत में हुई थी । उपलब्ध पुरातात्विक प्रमाणों और वानस्पतिक अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि लौकी (लेगनेरिया सिसरेरिया) का उत्पत्ति स्थान दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप है ।

व्हाइटेकर तथा बर्ड (1949) के अनुसार पेरू का उत्तरी तट पर स्थित हुआका प्रिएटा नामक स्थल से खुदाई के दौरान ऐसे कई पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं जिनसे लौकी के वहाँ 4000-3000 ईसा.पूर्व. वर्ष से ही उगाए जाने की पुष्टि होती है ।

इन प्रमाणों में लौकी के सूखे फलों से बने जार, जल कुंड प्लेटें, कंडियाँ आदि सम्मिलित हैं । उत्तर अमेरिका में ओकेम्पों, टैमोलियाज तथा मैक्सिको की गुफाओं से भी इसी तरह की पादप सामग्री मिली है जो ईसा से 5000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन समझी जाती है ।

डि कन्डोल के अनुसार लैजीनेरिया सिसरेरिया के भारत में मालाबार के तट और देहरादून के आर्द्र जंगलों में जंगली रूप में उगते हुए पाए जाने के पर्याप्त सबूत एवं सूचनाएँ उपलब्ध हैं । कद्‌दू वंश-कुकर्बिटा का मूल उत्पत्ति स्थल अमेरिका है । इनकी बीस में से अधिकांश जातियाँ उत्तरी अमेरिका की देशज हैं जबकि कुकुर्बिटा मैक्सिका एवं कुकुर्बिटा एन्ड्रीना दक्षिण अमरिका की मूल जातियाँ समझी जाती है ।

व्हाइटेकर एवं साथियों (1957) के अनुसार चप्पन कद्‌दू (कुकर्बिटा पेपो) के प्राचीनतम पुरातात्विक अवशेष उत्तरी अमेरिका के औकेम्प, टैमोलिपाज एवं मैक्सिको की गुफाओं से प्राप्त हुए, जो कि 3000-2500 ईसा पूर्व वर्ष के समझे जाते हैं ।

वहाँ इन्फरमिल्ली की खुदाई से ईसा पूर्व 7000-5500 वर्ष पुराने कुछ बीज एवं छिलके के कवच का एक टुकड़ा प्राप्त हुआ है । जो कि चप्पन कद्‌दू का छिलका समझा जाता है । कोलम्बस के आगमन से पूर्व सीताफल (कुकर्बिटा मॉस्चाटा) के उत्तरी तथा दक्षिण अमेरिका में व्यापक रूप से वितरित होने के पर्याप्त पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैं ।

बुकासैव (1930) के अनुसार सीताफल की खेती योग्य दो किस्में या कल्टीवार में से सफेद या हल्के रग के बीज वाला कल्टीवार मैक्सिको से और भूरा या गहरे रग के बीज वाला कल्टीवार पनामा एवं दक्षिणी और उत्तरी अमेरिका मूल का है ।

हुहाका प्रिएटा (पेरू) में इसके 4000-3000 वर्ष ईसा पूर्व के अवशेष प्राप्त हुए है । विलायती कद्‌दू (कुकर्बिटा मैक्सिमा) दक्षिण अमेरिका मूल का है और नई दुनिया की खोज से पहले तक यह किस्म केवल दक्षिण अमरीका तक ही सीमित थी । पेरू में सैन निकोलस से इसके बीज 1200 ईसा पूर्व वर्ष की खुदाई में मिले हैं ।

असकस या चयोट (सेक्यिम एड्युल) दक्षिण मैक्सिको एवं मध्य अमरीका मूल का पौधा है । पेठा एवं ककोड़ को मलेशिया का, परवल, चिचिंडा, टिंडा एवं ककड़ी को भारतीय उपमहाद्वीप का तथा करेला को उष्णकटिबंधीय अफ्रीका का मूल पौधा समझा जाता है ।

उपादेयता की दृष्टि से कुकर्बिटेसी कुल के पौधे मनुष्य के लिए एक महत्वपूर्ण पादप समूह हैं । मानव जाति के लिए इसकी खेती योग्य किस्मों का महत्व उतना ही है जितना कि अनाज, दाल एवं तिलहन का । भारतवर्ष में ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में ककड़ी-वर्गीय सब्जियों की ही बहुतायत रहती है ।

किसी एक कुल के पौधों में से जितने अधिक का प्रयोग मनुष्य द्वारा सब्जियों के रूप में किया जाता है, उनमें कुकर्बिटेसी कुल कदाचित सर्वोपरि है । सब्जी के रूप में इस कुल के पौधों का मुख्यतः अपरिपक्व फल खाया जाता है । काशीफल, परवल एवं कुंदरू जैसी कुछ सब्जियों को पकाकर सब्जी के रूप में प्रयोग करते हैं ।

कद्‌दू के फूल और शाखाओं के अग्रभाग भी सब्जी में खाए जाते हैं । तरबूज खरबूजा, सेए व फूट को फल के रूप में खाया जाता है । खीरा एवं ककड़ी से सलाद बनाया जाता है अथवा इनकी कच्चा भी खाया जाता है । इनसे आचार भी बनाए जा सकते हैं ।

लौकी से बर्फी एवं खीर तथा परवल से भरवा मिष्ठान बनाए जाते हैं । पेठे का प्रयोग पेठा नामक लोकप्रिय मिठाई बनाने में व्यापक स्तर पर किया जाता है । इस कुल की कुछ जातियों का प्रयोग शोभाकार पौधों के रूप में भी किया जाता है, जैसे कोक्सीनिया वंश की जातियाँ, कुकुमिस डिप्सेसिपस है जहाँ गर्गोड, सिकोना ओडीफेरा से कैसा बनाना इत्यादि ।

तोराई के रेशों का उपयोग ऊष्मा रोधी तथा भराई सामग्री के रूप में किया जाता है । इसके सूखे फलों का स्पंज की भांति देह या बर्तन आदि साफ करने में किया जाता है । लौकी एवं कुछ प्रकार के कद्दूओं का उपयोग वाद्‌य यंत्र तथा कुछ प्रकार के बर्तन बनाने में किया जाता है ।

कद्‌दू वर्गीय सब्जियों के महत्व का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । परवल, करेला, खीरा, खरबूजा, तरबूज, टिन्डा, करेला इत्यादि ऐसी सब्जियां होती हैं जिनका बाजार भाव सदा बहुत अच्छा रहता है । वर्तमान समय में इस वर्ग की अन्य सब्जियों को भी दैनिक आहार में प्राथमिकता दी गई है ।

इन सब्जियों में प्रति इकाई क्षेत्रफल, पौधों की संख्या बहुत कम होने के कारण केवल पौधों की जड़ों में ही पानी देने से काम चल जाता है और संपूर्ण खेत को सींचने की आवश्यकता नहीं होती है । इस वर्ग की बहुत सी सब्जियाँ खरीफ एवं जायद दोनों मौसम में आसानी से उगाई जा सकती हैं । जिसके परिणामस्वरूप वर्षभर में कम से कम 9 महीने तक इन फसलों से आमदनी प्राप्त की जा सकती है ।

भारत में बरसाती नदियों के किनारे का भाग ग्रीष्म ऋतु में खाली रहता है, जिसमें अन्य फसलें उगाना संभव नहीं है । अतः ऐसे क्षेत्रों में कद्‌दूवर्गीय सब्जियों को उगाकर कृषक न केवल अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, बल्कि खाद्‌य समस्या का काफी हद तक समाधान किया जा सकता है एवं बेकार पड़ी जमीन का सदुपयोग भी कर सकते हैं ।

नदियों के तट पर या बड़ी नदियों के बीच में वर्षा ऋतु के बाद जब पानी नहीं होता उस समय बालू में नालियां बनाकर इनकी खेती आसानी से की जा सकती है । ऐसे क्षेत्र में खेती करने के स्थान को दियारा का क्षेत्र कहा जाता है । इनको रीवर बेड या नदी का बेड भी कहा जाता है ऐसे क्षेत्र में खेती करने की विधि को रीवर बेड कल्टीवेशन भी कहा जाता है ।

ऐसे क्षेत्रों में जहां पानी की कमी होती है एवं पीने के पानी की समस्या रहती है वहाँ पर तरबूज की फसल उगाकर बहुत हद तक प्यास बुझाने की समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है । उपरोक्त विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए एवं कृषकों की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए भारतवर्ष में कद्‌दूवर्गीय सब्जियों का क्षेत्रफल बढाए जाने की बहुत अधिक संभावना बनती है ।

आनुवंशिकी उन्नयन:

पादप आनुंवशिकी का अध्ययन:

कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में आनुवांशिक विभिन्नता प्रचुर मात्रा में दिखाई देती है, खासतौर से जंगली एवं उगाने वाली स्पेशीज में जैसे-लौकी, तरबूज, खीरा, कुंदरू एवं परवल इत्यादि प्रमुख सब्जियाँ हैं । लूफ्का स्पेशीज की प्रचुर मात्रा उत्तर-पूर्वी भारत में प्राकृतिक रूप में मिलती है ।

लूफ्का एक्यूटेनगेला किस्म अमारा भारतीय उपमहाद्वीप में मिलते हैं एवं लूफ्का ऐकीनाटा हिमालय के उत्तर में एवं गंगा के तटीय इलाकों में दिखाई देते हैं । ट्राइकोसेन्थस (परवल) की 21 स्पेशीज मालाबार से लेकर उत्तर तटीय इलाके एवं उत्तरी-पूर्वी क्षेत्रों में बहुतायत में पाये जाते हैं । खीरा में कूकुमिस हार्डविकी एवं कुकुमिस ट्राईगोनस (कुकुमिस मेलो) का फैलाव हिमालय के क्षेत्रों में बहुतायत में है । सिटुलस कोलोसिन्थीस की अधिकता उत्तर-पूर्वी मैदानी भागों में अधिक है ।

अनेक प्रकार की कद्‌दूवर्गीय सब्जियाँ जिनमें चो-चो (सिकियम इड्‌युल) प्रमुख है यह बहुत सीमित क्षेत्रों में ही पाई जाती है खासतौर से मिजोरम में । मीठा करेला (मोमोरडिका कोचिचाईनेनसिस) त्रिपुरा, असम एवं पश्चिम बंगाल में प्रमुख रूप से उगते हैं एवं परवल (ट्राइकोसेन्थस डायोका) की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में प्रमुख है ।

भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी में विगत वर्षों में देश भर से कद्‌दूवर्गीय सब्जियों के जननद्रव्य एकत्रित करके इनमें प्रमुख रूप से जनद्रव्यों की क्षमता, एकत्र करना, गहन अध्ययन करना, उनको एक रूप से समान रखना, उनकी उत्पादन क्षमता जनन क्षमता एवं वितरण इत्यादि का कार्य किया गया ।

अनेक कद्‌दूवर्गीय जननद्रव्यों का अध्ययन करने के उपरान्त कुछ खास गुण दिखाई दिए जिनको चिन्हित किया गया एवं इनका पंजीकरण भी किया गया था । राष्ट्रीय पादप अनुसंधान संस्थान (एन.बी.पी.जी.आर.) नई दिल्ली द्वारा देश के विभिन्न भागों में परिचय कराया गया एवं जंगली व बोई जाने वाली किस्मों को बांटा गया ।

विदेशों से भी अनेक प्रकार की स्पेशीज मंगाकर टेस्ट किया गया, इनमें प्रमुख रूप से तरबूज की 18 लाईन यू.एस.ए. से खरबूज (25 लाईन फ्रांस एवं जापान की), खीरा (35 लाइन जापान एवं यू.एस.ए.) कुकुमिस एनयूरिया (94 लाईन यू.एस.ए. से) कुकुरबिटा पेपो (22 लाइन यू.एस.ए. से) कुकुरबिटा मॉस्चाटा (4 अल्जीरिया से एवं जापान से, 6 यू.एस.ए. से) लूफ्का सिलेन्ड्रीका (1 जापान से) एवं लौकी (1 जापान से) इन सभी जननद्रव्यों को एन.बी.पी.जी.आर. नई दिल्ली द्वारा ग्रहण किया गया एवं इनको व्यावसायिक स्तर पर देश भर में प्रचलित किया गया ।

किस्मों का विकास:

देशी एवं विदेशी जननद्रव्यों को मूल्यांकित करना एवं उनका परिचय करना । इन जननद्रव्यों को आपस में संकरित करने के उपरान्त फिर उन्हें चयन द्वारा 112 बेहतर किस्मों को प्रचलित किया गया । इन विभिन्न किस्मों के अंतर्गत समस्त कद्दूवर्गीय सब्जियाँ शामिल थीं जिनमें प्रमुख किस्में हरा मधू खरबूज की, कल्याणपुर बारामासी करेले की, शुगर बेबी एवं अर्काजीत तरबूज की, पूसा नवीन लौकी की, पूसा विश्वास कुम्हड़ की एवं जापानी लांग ग्रीन खीरा की प्रचलित किस्में हैं ।

इन किस्मों की उत्पादन क्षमता अधिक होने से इनको ग्रहण अथवा खपत करना प्राथमिकता होती है । अखिल भारतीय समन्वित सब्जी उन्नयन योजना द्वारा देशभर में इनको मूल्यांकित करके कुल 48 उन्नत किस्मों को कुल 8 प्रमुख कद्‌दूवर्गीय सब्जियों को पहचान करके उनको अग्रसारित किया गया इनको उगाने एवं प्रस्तुत करने के लिए देश के विभिन्न कृषि क्षेत्र में कार्य किया गया ।

1. संकर किस्मों का विकास:

तरबूज का प्रथम एफ-1 हाइब्रीड सन् 1930 में विकसित किया गया था । संकर किस्मों का चयन करके इनको व्यावसायिक स्तर पर कुछ चुनी हुई कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में लगाया गया जिनमें उपज बढ़ाने की क्षमता पर विशेष ध्यान दिया गया था ।

2. प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए प्रजनन:

कददूवर्गीय सब्जियों में अनेक प्रकार की बीमारियाँ रोग एवं कीट के लगने की संभावना बनी रहती है । अतः इनके प्रतिरोधक क्षमता से भरपूर जंगली किस्में एवं स्थानीय किस्मों की पहचान करके प्रस्तुत किया गया परिणामस्वरूप यह शोध कार्य सराहनीय रहा है ।

अनेक प्रकार की प्रतिरोधक किस्मों के विकास में इन सामान्य चयन इत्यादि को विकसित करने में विशेष योगदान रहा है । करेला की एम डी यू- 1 एवं धारीदार तोरई की पी.के.एम- 1 किस्मों का विकास एंड ब्रीडिंग द्वारा किया गया । इसी तरह से तरबूज की बीज रहित किस्म पूसा बेदाना का भी विकास इसी तरह की प्रजनन विधि द्वारा किया गया ।

3. बेमौसम कद्दूवर्गीय सब्जियों का उत्पादन:

बेमौसम सब्जी उत्पादन हेतु पौधशाला का उचित प्रबंधन, संरक्षित खेती इत्यादि करना अत्यंत आवश्यक है । जिसके फलस्वरूप किसान भाई को बहुत फायदा मिलता है । संकर किस्मों के लिए मल्चिंग की प्रक्रिया बहुत प्रभावी सिद्ध होती है इसके द्वारा मृदा के तापमान पर नियंत्रण पाया जाता है ।

गरमी एवं बरसात में पुवाल की मल्चिंग ज्यादा प्रभावकारी होती है । पादप वृद्धि नियामक का प्रयोग करने से समय से पहले, गुणवत्ता युक्त एवं ज्यादा उत्पादन प्राप्त होता है । इथेफोन (100-150 मि.ग्रा./ली.), जिब्रेलिक एसिड (10 मि.ग्रा/ली.) मैलिक हाइड्राजाईड (50-150 मि.ग्रा./ली.) एवं टीबा (25-50 मिग्रा/लीं.) का कद्‌दूवर्गीय सब्जियों पर छिडकाव करने से उत्पादन में वृद्धि होती है ।

(सोनकर 2003) यदि कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में बांस अथवा डंडे का सहारा दिया जाए तो प्रभावी रूप से अधिक उपज प्राप्त होती है एवं गुणवत्तायुक्त फल एवं सब्जियाँ प्राप्त होती हैं । (पांडेय एट आल, 2001) में अपने शोध कार्य द्वारा यह परिणाम पाया ।

इस दृष्टि से कटाई-छटाई द्वारा भी उत्पादन वृद्धि में लाभकारी है खासतौर से खीरा में सिंगल स्टेम को बढ़ाकर अन्य को काट करके 2-3 शाखाओं को छोड़ देते हैं जिन पर फल लगते हैं । इसी प्रकार से खरबूज में लताओं को काट देते हैं, लगभग 6-9 नोड तक, 2-3 फल वाली शाखाओं के उत्पादन लेने हेतु छोड देते हैं ।

4. क्लोनल स्लेक्शन:

परवल, कुंदरू, मीठा करेला, खेखसा एवं बनकुमारी इत्यादि की बुवाई वानस्पतिक भाग द्वारा की जाती है । क्लोन द्वारा तैयार किये गये पौधों में आनुवंशिकी एवं दिखाई देने वाले गुणों में समानता होनी चाहिए एवं इनमें पाये जाने वाले विभिन्नता वाले जीन को क्लोनल तकनीक द्वारा नियमित एवं नियंत्रित किया जा सकता है ।

क्लोनल स्लेक्शन की मदद से कुछ किस्में परवल में एवं कुछ किस्म, कुंदरू में विकसित की गई हैं । भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान द्वारा क्लोनल विधि द्वारा परवल की बीज रहित किसे निकाली गई हैं जिनमें प्रमुख किस्म, परवल एवं कुंदरू की हैं ।

जैसे सर्वणा अलौकिक, सर्वणा रेखा, राजेन्द्र परवल-I, राजेन्द्र परवल-II, नरेन्द्र परवल-260, नरेन्द्र परवल-307, नरेन्द्र परवल-604, आई.आई.वी. आर.पी.जी.-1, आई.आई.वी.आर.पी.जी.-2, आईआई. वी.आर.पी.जी.- 105 एवं कुंदरू की आई.आई.वी.आर.आई.जी.-1 क्लोन द्वारा विकसित प्रमुख किस्में हैं । समाकेतिक रोग प्रबंधन-कद्दूवर्गीय सब्जियों में अनेक प्रकार के रोग पाए जाते हैं ।

जिनमें प्रमुख रूप से चूर्णी फफूँद, रोमिल फफूंद, गुमोसिस, एन्थ्रेकनोज, फल विगलन, झुलसा रोग, मूल-ग्रंथि रोग, पर्णदाग, फ्यूजेरियम ग्लानि, जीवाण्विक मृदु विगलन जीवाण्विक पर्णदाग एवं वायरस या विषाणु रोग प्रमुख हैं ।

इन रोगों में से राष्ट्रीय स्तर पर समस्या बनकर दिखाई देने वाले रोग प्रमुख रूप से अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं । ये प्रमुख रोग गुमोसिस, एन्थ्रेकनोज, झुलसा, मूल-ग्रंथि, नेकरोसिस एवं विषाणु रोग हैं जो कि कद्‌दूवर्गीय सब्जियों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं ।

अखिल भारतीय समन्वित शोध योजना के अंतर्गत कुछ प्रमुख सिफारिश की गयी है जिसके फलस्वरूप खरबूज एवं खीरे में पाये जाने वाले रोग रोमिल फफूँद एवं चूर्णी फफूँद एवं तरबूज में बेकनोज पर नियंत्रण पाया जा सकता है ।

 

तरबूज:

ऐन्थ्रेकनोज पर नियंत्रण पाने के लिए बिनोमाईल एवं बाविस्टीन (0.2%) को 15 दिनों के अंतराल पर बंगलौर क्षेत्रों में छिड़काव करने की संस्तुति की गई है । मिलटॉक्स या डाईथेन एम-45 (0.2%) का तीन छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करने से अल्टरनेरिया झुलसा रोग पर नियंत्रण करने की संस्तुति की गई है । पहला छिड़काव जैसे ही रोग के लक्षण दिखाई देते हैं तुरंत करना चाहिए ।

खीरा:

डाईथेन एम-45, डाईथेन जेड-78 एवं एलाइट (0.3%) का पाँच छिड़काव 10 दिन के अंतराल पर करने की संस्तुति की गई है खासतौर से बंगलौर में ।

समाकेतिक कीट प्रबंधन:

कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में अनेक प्रकार के कीट पाये जाते हैं । ये कीट प्रारंभिक अवस्था से लेकर फसल पकने एवं तुडाई तक इन सब्जियों में विद्यमान रहते हैं । ये कीट सीधे तौर पर सब्जियों को नुकसान पहुँचाते हैं इसके अलावा ये कीट अनेक प्रकार के विषाणु रोगों के जनक एवं वाहक होते हैं ।

कुछ प्रमुख कीट जिनमें लाल भृगु कीट कद्‌दू, फल मक्खी, एफिड, माइट्स इत्यादि हैं । लाल कद्‌दू मृग का आक्रमण खासतौर से तब होता है जब पौधे नये एवं कोमल अवस्था में होते हैं । जब पौधों में नये पत्ते निकल रहे होते हैं उस समय इस कीट का प्रभाव बहुत अधिक होता है ।

प्रारम्भिक अवस्था में यदि काबार्रिल (0.1%) या मैलाथियन (0.1%) का छिड़काव किया जाये तो नुकसान से बचा जा सकता है । एक अन्य प्रमुख कीट फल मक्खी (बैक्टीसेरा कुक्रबिरा) है जो कद्‌दूवर्गीय सब्जियों को बहुत नुकसान पहुँचाता है । इस कीट के वाहक पौधे जैसे-करेला, मेलन (खरबूज), तरोई (चिकनी तरोई), पेठा आदि प्रमुख सब्जियाँ हैं ।

किसान भाई इस कीट पर नियंत्रण पाने के लिए कीटनाशक का अंधाधुंध प्रयोग करते है जिसके परिणामस्वरूप इन सब्जियों के फल सीधे रूप से प्रभावित हो जाते हैं । इस संदर्भ में फल मक्खी पर नियंत्रण पाने के लिए उचित प्रबंधन तकनीक अपनाकर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है ।

इस प्रबंधन में मोलेसस (10%) कीटनाशक (0.2%) एवं यीस्ट हाइड्रोसेट (0.1%) का मिश्रित छिड़काव करते हैं । यह विधि लागत एवं सुरक्षा की दृष्टि से लाभदायक है । इसके प्रयोग से रासायनिक प्रभाव भी सब्जियों पर कम होता है ।

कद्दूवर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती:

कद्दूवर्गीय सब्जियों का भारतवर्ष में विशेष स्थान है । देश में उगाई जाने वाली कुल सब्जियों में इस कुल की भागीदारी सबसे अधिक है एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से भी इस कुल की सब्जियों का अधिक योगदान है ।

कद्दूवर्ग की सब्जियों के अंतर्गत 25 से भी अधिक सब्जियां आती हैं, जिनको उपयोग के आधार पर वर्गीकृत किया गया है; उदाहरणस्वरूप कच्चे सलाद के रूप में (खीरा, ककडी) सब्जी के रूप में (पेठा, परवल, लौकी) एवं पके हुए फल के रूप में (खरबूज, तरबूज) पाए जाते हैं ।

इस वर्ग की सब्जियों का इसलिए भी विशेष महत्व है कि इनके एक या दो पौधों को खेत के किनारे अथवा मचान इत्यादि के सहारे चढ़ा दिया जाता है । इसका उत्पादन इतना ज्यादा होता है कि किसान भाई इसका घरेलू उपयोग करने के साथ-साथ इसका व्यावसायिक उपयोग भी कर सकते हैं एवं अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते किसान भाई वैज्ञानिक विधि से खेती करें ।

इस वर्ग की सब्जियों की माँग वर्षभर बनी रहती है, अतः इसको पूरा करने के लिए उन्नत किस्मों उन्नत तकनीक एवं उन्नत विधि अपनाना अत्यंत आवश्यक है । कद्‌दूवर्गीय सब्जियों की खेती किसान भाई नदी के किनारे अथवा मध्य में भी कर सकते हैं इस प्रकार की खेती को ”दियारा खेती” के नाम से भी जाना जाता है ।

इसके अंतर्गत खीरा ककड़ी खरबूजा एवं तरबूज इत्यादि की खेती की जाती है । कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में पोषक तत्वों की मात्रा भरपूर होती है अतः इसका पोषक मूल्य भी अधिक है । कद्‌दूवर्गीय सब्जियों से मिठाइयाँ भी बनाई जाती हैं अतः परवल पेठा इत्यादि की माँग भी बहुत अधिक है ।

किसान भाई कद्‌दूवर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती करके अपना जीवनस्तर सुधार सकते हैं एवं अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं । किसान भाई इस के माध्यम से बहुमूल्य जानकारी प्राप्त कर सकेंगे एवं अपना जीवन खुशहाली की दिशा में बढ़ा सकेंगे ।