भारत में खेती की जा रही प्रथाओं | Farming Practices Adopted in India. Read this article in Hindi to learn about the farming practices adopted in India. They are: 1. Jhoom Cultivation 2. Sustainable Farming 3. Commercial Farming 4. Intensive Farming 5. Extensive Farming 6. Eco-Farming 7. Ranching Farming 8. Corporate Farming 9. Co-Operative Farming 10. Organic Agriculture 11. Zero Farming 12. E-Agriculture 13. Contract Farming 14. Dry Farming.
1. झूम कृषि (Jhoom Cultivation):
इसे स्थानांतरणशील कृषि भी कहते हैं । इस कृषि में पहले भूमि के वन को जलाकर साफ कर लिया जाता है और फिर प्रथम वर्ष के बाद उस राखयुक्त मिट्टी में मोटे अनाज बिखेर कर बो दिया जाता है । इस खेती से दो या तीन वर्ष तक फसलें प्राप्त की जाती है इसे ‘काटो और जलाओ’ अथवा ‘बुश फेलो कृषि’ भी कहते हैं ।
स्थानीय रूप से इस कृषि को पूर्वी राज्यों में झूम, आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा में ‘पौद’, केरल में ‘ओनम’, मध्य प्रदेश तथा छतीसगढ़ में ‘बीवर’, ‘मशान’, ‘पेडा’ तथा बीरा और दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में ‘वालरा’ कहा जाता है । विश्व के उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय जंगलों में इस प्रकार की कृषि बड़ी अनुकूलता से की जाती है ।
2. निर्वाहक कृषि (Sustainable Farming):
भारत में अनादि काल से कृषि की यह पद्धति प्रचलित है । इसमें खाद्य फसलों की प्रधानता होती है तथा वर्ष में दो या तीन फसलें सघन रूप में उगाई जाती है । मानव तथा पशु बल का प्रयोग कर पुराने ढंग के उपकरणों की सहायता से घरेलू माँग की पूर्ति करने के लिए कृषि की जाती है ।
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इस कृषि में सिंचाई सुविधाओं की कमी, सूखा तथा बाढ़ की क्षति, उन्नत बीज उर्वरकों एवं कीटनाशकों का न्यून प्रयोग होता है ।
3. वाणिज्यिकी कृषि (Commercial Farming):
यह पूर्णतः व्यापारिक उद्देश्य से की जाने वाली कृषि है, जिसमें नकदी फसलों का उत्पादन किया जाता है । इस कृषि में सिंचाई, उन्नत किस्म के अधिक उपज वाले बीज, रासायनिक उर्वरक, पीड़कनाशी, फार्म मशीनरी पर विशेष बल दिया जाता है । इसके अन्तर्गत बड़े-बड़े फार्मों की स्थापना करके उद्योगों की भांति किसी एक ही प्रकार की फसल विशेष की कृषि की जाती है ।
यह एक पूँजी सघन कृषि है जिसमें फसलों का अधिशेष उत्पादन बाजार में लाभ कमाने के लिए किया जाता है । इस कृषि का विस्तार उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक सीमित है ।
4. गहन कृषि (Intensive Farming):
यह कृषि भूमि की प्रत्येक इकाई पर अधिक मात्रा में पूँजी एवं श्रम का उपयोग कर एक निश्चित समयावधि में फसलों का अधिकतम संभव उत्पादन किया जाता है । सामान्यतः 200 प्रतिशत से अधिक सस्य गहनता वाला क्षेत्र सघन कृषि क्षेत्र माना जाता है ।
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वास्तव में अधिक जनसंख्या घनत्व तथा कम भूमि उपलब्धता वाले क्षेत्रों में रासायनिक उर्वरकों, उन्नत बीजों, कीटनाशक दवाइयों, सिंचाई, फसल परिवर्तन आदि के अधिकतम प्रयोग से यह कृषि की जाती है । भूमि की उपलब्धता के आधार पर दो प्रकार की खेती होती है गहन तथा विस्तृत खेती ।
5. विस्तृत खेती (Extensive Farming):
बड़े-बड़े जोत आकार वाले खेतों पर यांत्रिक विधियों से की जाने वाली कृषि को विस्तृत कृषि कहते हैं । इस कृषि में श्रमिक का उपयोग कम होता है किंतु प्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा अधिक होती है ।
कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में इस प्रकार की कृषि की जाती है, क्योंकि कृषि भूमि की उपलब्धता अधिक होती है । यद्यपि प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होता है किंतु कुल उत्पादन काफी अधिक होता है ।
6. पारिस्थितिकी कृषि (Eco-Farming):
इस कृषि प्रणाली में पारिस्थितिकी सम्पदा को बिना हानि पहुँचाये कृषि की जाती है । रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों और कीटनाशकों को वरीयता दी जाती है । कृषि की इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य प्रकृति से उसकी सामर्थ्य तक उत्पादन लेना और पारिस्थितिकी गतिविधियों में न्यून हस्तक्षेप करना तथा भूमि को क्षति पहुँचाए बिना है ।
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पारिस्थितिकी तत्वों को प्राकृतिक पोषकों से ही लौटाना हैं । इसमें वर्मी कम्पोस्ट, कीटनाशक के रूप में नीम खाद का प्रयोग तथा टिश्यू कल्चर पर जोर दिया जाता है ।
7. रेचिंग खेती (Ranching Farming):
इस प्रकार की कृषि में प्राकृतिक वनस्पति पर विभिन्न प्रकार के पशुओं जैसे भे, बकरी आदि को चराया जाता है । अतः इस खेती में फसल का उत्पादन नहीं किया जाता है । यह कृषि अधिकांश उन देशों में की जाती ,। आस्ट्रेलिया, अमेरिका, तिब्बत तथा भारत के पर्वतीय या पठारी क्षेत्रों में यह खेती की जाती है ।
8. निगमित खेत (Corporate Farming):
कृषि की इस प्रणाली में खेती का प्रबंध एक निगम द्वारा किया जाता है । निगम के सदस्यों का दायित्व सीमित होता है और संपूर्ण व्यवस्था संचालक मंडल द्वारा की जाती है । अधिक मात्रा में भूमि और पूँजी की आवश्यकता होती है । हमारे देश में महाराष्ट्र, तमिलनाडु और चेन्नई के कुछ क्षेत्रों में भी खेती की यह प्रणाली प्रचलित है ।
कई फर्मों को समेकित कर केन्द्रीय सरकार के अधीन भारतीय राज्य फर्म निगम लिमिटेड के अन्तर्गत व्यापारिक दृष्टि से खेती की जाती है । राष्ट्रीय किसान आयोग ने कृषि के व्यावहारिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की खेती को बढ़ावा देने का सुझाव दिया है ।
9. सहकारी खेती (Co-Operative Farming):
इस खेती को अपनाने के पीछे दो मुख्य आधार है- खेती के छोटे तथा बिखरे होने की समस्या का समाधान तथा भूमि का समाजीकरण कर भूमिहीनों, छोटे किसानों तथा कृषि श्रमिकों के साथ न्याय करना है ।
खेती की इस प्रणाली में किसान परस्पर लाभ के उद्देश्य से स्वेच्छापूर्वक अपनी भूमि, श्रम और पूँजी को एकत्र करके सामूहिक रूप से खेती करते हैं । भूमि के उपविभाजन से जनित समस्याओं का समाधान इस कृषि पद्धति से किया जा सकता है ।
10. ऑर्गेनिक कृषि (Organic Agriculture):
यह कृषि उत्पादन की एक ऐसी विधि है, जिसमें रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है । 1930-40 के दशक में शुरू की गई इस प्रकार की कृषि के जनक ‘अल्बर्ट हावर्ड’ माने जाते हैं ।
भारत में भी 10वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम चरण में आर्गेनिक खेती के उत्पादन, प्रोत्साहन और बाजार विकास हेतु ‘राष्ट्रीय आर्गेनिक खेती परियोजना’ शुरु की गई, जिसमें फलों और सब्जियों के कचरे के लिए कम्पोस्ट इकाइयाँ जैव-उर्वरक उत्पादन, कृमि-पालन के लिए अंडज उत्पत्ति शालाएँ आदि हेतु वित्तीय प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया ।
वस्तुतः इस प्रकार की कृषि का मुख्य उद्देश्य मृदा की प्राकृतिक गुणवत्ता को बनाए रखने के साथ-साथ लघुस्तरीय कृषि व सतत् कृषि की ओर कदम बढ़ाना है । उत्तराखंड के नैनीताल जिले के माकंदपुर गाँव में शत-प्रतिशत ऑर्गेनिक खेती होने के कारण उसे ‘ऑर्गेनिक गाँव’ की संज्ञा दी गई है ।
यहाँ के किसान खेतों में रसायनिक खाद का प्रयोग नहीं करते हैं । कृषि क्षेत्र में ‘बायोटिक पार्क’ बनाने वाला भारत का पहला राज्य पंजाब है ।
11. जीरो फार्मिंग (Zero Farming):
बढ़ती खाद्य जरूरतों को देखते हुए फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के तीव्र प्रयास किए जा रहे हैं । इस हेतु विभिन्न उर्वरकों, कीटनाशकों और नवीन तकनीकों का प्रयोग हो रहा है । इससे भूमि की प्राकृतिक उर्वरता में कमी आ रही है जो सतत् कृषि विकास के लिए नुकसानदेह है । इस समस्या से निपटने के लिए अब किसान ‘जीरो इनपुट फार्मिंग’ तकनीक अपना रहे हैं ।
डसके अन्तर्गत जमीन में बाहर से उर्वरक, खाद्य कीटनाशक आदि नहीं डाले जाते हैं, जिससे फसलें अधिक पोषणयुक्त होती हैं । ऐसी कृषि प्रारंभ करने से पहले तीन साल तक जैविक खेती की प्रक्रिया अपनाई जाती है । जैविक खेती में रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है । इससे मृदा धीरे-धीरे जीरो फार्मिंग के अनुकूल हो जाती है ।
12. ई-खेती (E-Agriculture):
ई-एग्रीकल्चर या ई-खेती इन्टरनेट पर आधारित सूचना व संचार तकनीक से सम्बंधित जानकारी के आधार पर विकसित कृषि है । इसमें कृषि विकास हेतु नए उभरते तकनीकों का अनुप्रयोग तथा विभिन्न समाधान के माध्यम से कृषि विकास को बढ़ावा देने का लक्ष्य है ।
किसानों को माँग आधारित कृषि सम्बंधित सूचना उपलब्ध कराना इसका मूल उद्देश्य है, ताकि वे उत्पादों के मूल्य, जुताई के विभिन्न तरीकों, फसल सुरक्षा एवं उत्पादों के सही मूल्य हेतु सक्षम खरीद्दारों से सीधा सम्बंध स्थापित कर सकें ।
13. संविदा या अनुबंध कृषि (Contract Farming):
संविदा कृषि के अंतर्गत केला, आम, आलू, लहसुन, प्याज जैसे फसलों के विशेष किस्मों का उत्पादन किया जाता है । उदाहरण के लिए टमाटर के उत्पादन में पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान, सूर्यमुखी के उत्पादन में आंध्र प्रदेश व कर्नाटक, फलों और सब्जियों के उत्पादन में तमिलनाडु व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में संविदा कृषि हो रही है ।
14. शुष्क कृषि (Dry Farming):
110 सेमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में की जाने वाली कृषि पद्धति को ‘शुष्क कृषि’ कहा जाता है । चूँकि इन क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा कम होती है । इसलिए मृदा की नमी को बनाए रखा जाता है, ताकि कृषि के लिए आवश्यक नमी (आर्द्रता) प्राप्त की जा सके ।
परंपरागत शुष्क कृषि के अंतर्गत पहली वर्षा के पूर्व खेतों में गहरी व गहन जुताई कर दिया जाता था तथा वर्षा के पश्चात् भूमि को समतल कर दिया जाता था, जिससे मिट्टी में नमी बनी रहती थी ।
इस प्रकार इन क्षेत्रों में 45-60 दिनों में उपज दे सकने वाली मोटे अनाज (मक्का), दलहन वाली फसलें (मसूर, चना, मूँग) आदि की उपज संभव हो पाती थी, परंतु छठी योजना से शुष्क कृषि में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसका सातवीं योजना तक व्यापक विसरण हो गया ।
वर्तमान समय में शुष्क कृषि क्षेत्र में विश्व बैंक की मदद से दो योजनाएँ चलाई जा रही हैं । ये हैं- शुष्क कृषि पर पायलट प्रोजेक्ट एवं वाटरशेड विकास कार्यक्रम । केन्द्र सरकार भी ‘राष्ट्रीय वाटरशेड विकास कार्यक्रम’ पर काफी बल दे रही है ।