बटन मशरूम के जीवाणु रोगों को कैसे नियंत्रित करें? | Read this article in Hindi to learn about how to control bacterial diseases of button mushroom.
(1) सूखा बुलबुला रोग:
साधारण नाम:
वर्टीसीलियम रोग, भूरा धब्बा, सूखा बुलबुला, ला मोल
लक्षण:
ADVERTISEMENTS:
यदि रोग प्रारंभिक अवस्था (पिन हेड) में लगा हो तो विशिष्ट प्याज के आकार की खुंभी उत्पन्न होती है । इस बीमारी से खुंभी की टोपी की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के धब्बे बनते हैं । पास वाले धब्बे आपस में एक दूसरे से मिलकर अनियमित भूरे धब्बे बनाते हैं जिनके बीच में छोटे-छोटे गड्ढे से बन जाते हैं ।
रोगित खुंभी की टोपी तथा डंठल टेढे-मेंढ़े आकार के हो जाते हैं । तना फूल जाता है और तनों से छिलके या रेशे निकलने लगते हैं । अत्याधिक रोगित खुंभी अनियमित आकृति के प्याज के समान बिना डंठल वाली होती है ।
इनमें विकास नहीं होता और ये सूखे चमड़े के समान अनियमित फूले ऊतकों के देर में बदल जाते हैं । इस प्रकार की खुंभी को बुलबुला या सूखा बुलबुला कहते हैं । इनमें खुंभी की विशिष्ट गंध नहीं होती ।
अगेरिकस बाइटोरकस में वर्टीसीलियम फंजीकोला किस्म एलियोफिलम द्वारा बनने वाले भूरे क्षतिस्थल का मध्य भाग धूसर रंग के कवकजाल की एक परत से ढका रहता है । बीमारी गंभीर होने पर प्रायः क्षतिस्थल या टोपी की पूरी चौड़ाई में दरारे पायी जाती हैं ।
ADVERTISEMENTS:
रोगकारक:
बर्टीसीलियम फंजीकोला कवक अनेकों एक कोशीय, पतली दीवाले वाले, अंडाकार या बेलनाकार काचाभीय बीजाणु पार्श्व या शीर्ष बीजाणुधरों पर लगते है । बीजाणुधर तुलनात्मक रूप से बेलनाकार व लंबे होते है । बीजाणु पुज में एकत्रित होते हैं और चिपचिपे श्लेष्मक से घिरे रहते हैं ।
रोगचक्र:
संक्रमित फंफूद मुख्त: आवरक एवं हवा के द्वारा आती है और इसके बाद फोरिड व सेकेरिड मक्खियों, बरूथियों (माइट्स), छिडकाव वाले पानी, हवा और काटने वाले चाकू द्वारा फैलती है ।
ADVERTISEMENTS:
यह खाद में नहीं पायी जाती अधिक नमी, गलत वायु संचरण, देर से तुडाई और 16 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर यह बीमारी और अधिक तेजी से फैलती है । जब फसल 60 दिन से ज्यादा समय तक ली जाती है तब यह बीमारी पायी जाती है ।
प्रबंधन:
1. स्वच्छता अभियान जिसमें रोगित खुंभी को 5 प्रतिशत फार्मेलिन में डुबोकर नष्ट करना, औजारों और दूसरे उपकरणों का निर्जीवीकरण, फसल कक्ष में बरूथियों एवं मक्खियों का नियंत्रण, अनुउपयोगी खाद को सही जगह फेंकना आदि इस बीमारी को रोकने में सहायक रहते हैं ।
2. इस रोग के नियंत्रण के लिये 0.25 प्रतिशत डाइथेन एम 45 या 0.05 प्रतिशत बेनलेट फंफूदनाशक के घोल का 10-10 दिन के अंतराल पर तीन छिडकाव करना चाहिए ।
3. स्थानीय संक्रमण को रोकने के लिये प्रभावित भाग पर 2 प्रतिशत फार्मेलिन के घोल का छिडकाव करना चाहिए । रोगग्रस्त खुंभी को तोड़कर प्लास्टिक की थैलियों में रखकर यथाशीघ्र हटा लेना चाहिए ।
(2) वैट बबल:
सधारण नाम माइकोगोन रोग, सफेद मोल्ड बबल, ला मोल
लक्षण:
रोगित खुंभी अनियमित आकृति के हो जाते हैं जिसका डंठल फूल जाता है । पहले ये ठोस रहते हैं कुछ दिन बाद ये नरम हो जाते हैं और इनमें खराब गंध नहीं आती । खुंभी की टोपी पर सफेद कवकजाल की वृद्धि दिखाई देती है जो बाद में लाल रग की हो जाती है ।
रोगग्रस्त खुंभी अंदर ही अंदर सड़कर गल जाता है । इनके ऊपर भूरी या हल्के लाल रग की पानी की बुंदे सी नजर आती है । छोटे आकार की खुंभी और फूला डंठल माइकोगोन का संक्रमण दर्शाते हैं ।
जब बड़े आकार की खुंभी प्रभावित होती है तब डंठल का केवल आधार भूरे रंग का हो जाता है और इस पर सफेद रूई के समान कवक जाल दिखाई देता है । प्रायः प्रथम फसल पर लक्षण आना यह दर्शाता है कि आवरण अवस्था में संदूषण हो गया है ।
रोग कारक:
माइकोगोन पर्नीसिओसा
पूर्णावस्था में हाइफोमाइसिस पर्नीसिओसा का कवक जाल शाखित सफेद, पटयुक्त, गुंथा हुआ और 2 प्रकार के बीजाणु उत्पन्न करने वाला होता है । यह छोटे, एक कोशीय बीजाणु उत्पन्न करता है जो छोटे-छोटे शाखित वृतों पर व्यवस्थित होते हैं ।
इसके अलावा कवकजाल पर चपटे आधार वाली चिकनी पीला कोशिका पर मोटी दीवार वाले, भूरे तुलनात्मक रूप से बड़े, गोल, उभार वाले क्लेमाइडोबीजाणु के कारण से रोगित खुंभी का रंग लाल दिखायी देता है ।
रोगचक्र:
केसिंग मिश्रण, हवा, पुरानी खाद और कर्मचारियों द्वारा रोग फैल जाता है । क्लेमाइडो बीजाणु केसिंग मिश्रण या पुरानी खाद पर 3 साल तक जिंदा रहता है । रोगित खुंभी की सतह पर उत्पन्न बीजाणु का पुन: प्रसार हवा, पानी का छिडकाव, मक्खी, बरूथीयों तथा कर्मचारियों द्वारा होता । अधिक नमी (90 प्रतिशत) तथा 160 डिग्री से अधिक ताप पर यह रोग तेजी से फैलता है ।
प्रबंधन:
i. अच्छी साफ-सफाई रखना चाहिये ।
ii. केसिंग मिश्रण का 50 डिग्री सेल्सियस पर 4 घण्टे तक निर्जीविकरण करने या फार्मेल्डिहाइड द्वारा उपचार करने से रोगजनक मर जाता है ।
iii. खाद पर बीमारी के धब्बे दिखायी देने पर नमक के घोल या फार्मेल्डिहाइड के घोल से उपचार करें ।
iv. बीमारी दिखाई देने पर डाइथेन एम 45 (0.25 प्रतिशत) का 2-3 छिडकाव 7 से 10 दिन के अंतराल से करें ।
(3) कॉब वेब रोग:
साधारण नाम:
मिल्डयू, मृदु गलन, हाइफोमाइसीज मिल्डयू रोग
लक्षण:
यह रोग में केसिंग मिट्टी व खुंभी पर विशिष्ट रूई के समान सफेद या लाल रंग का कवकजाल टुकड़ा में दिखाई देता है । जिसके कारण खुंभी बेचने योग्य नहीं रहती । यह नये निकलने वाले पिनहेड व बटन को नष्ट करता है, जिससे ये सड़ने लगते हैं । कभी-कभी टोपी पर भूरे या गुलाबी भूरे रंग के धब्बे दिखायी देते हैं ।
रोग कारक:
क्लेडोबॉट्रियम डेन्ड्रोइड्स (डेक्टाइलियम डेन्ड्रोइड्स)
यह हाइफोमाइसस रोजीलस की अपूर्ण अवस्था है । वंध्य कवकजाल एक मोटी रचना बनाते हैं जो आधारवत, शाखित, पटयुक्त, काचाभीय और विपरीत शाखाओं वाली होती है और ऊपर विभाजित होकर तीन नुकीली उपशाखाएं बनाती हैं । कोनीडियोघर बेलनाकार, साधारण या शाखित, वर्टीसिलेट, अकेले या छोटे-छोटे झुण्डों में थोडे लंबे स्पोरोजीन्स शाखाओं पर लगे रहते हैं । जो कि काचाभीय, 3 या अधिक कोशिका वाले, पट के पास थोडा दबे हुए और 20-30 से लेकर 10-12.5 मिली माइक्रान आकार के होते हैं ।
रोगचक्र:
अधिक नमी तथा तापक्रम बीमारी को बढ़ाते है । केसिंग मिट्टी, अपाश्चुरीकृत खाद व हवा आदि संक्रमण के स्त्रोत हैं । कवक मुख्त: बीजाणु के रूप में कर्मचारियों के हाथों, कपडे व छिडकाव वाले पानी द्वारा फैलती हैं ।
जहाँ पर केसिंग मिश्रण बीजाणु से संदूषित रहता है वहाँ फसल के अंत में रोग लगता है । जहाँ केसिंग कवकजाल के टुकड़ो से संदूषित रहता है, तब रोग पिन हेड बनने के समय लगता है और बहुत हानि करता है ।
प्रबंधन:
i. रोग की संभावना को कम करने के लिये फसल कक्ष का पहले फार्मेलिन (पाँच प्रतिशत) द्वारा विसंक्रमित करना आवश्यक है ।
ii. नमी को 80 प्रतिशत तक रखने, कमरें व छिडकाव के ठीक बाद पंखे चलाने से रोग में कमी आती है ।
iii. प्रथम बार फसल तोडने के बाद कटी खुंभी के तने तथा नवजात अर्द्धमृत खुंभीयों को निकाल लेना चाहिए ।
iv. केसिंग की सतह पर फफूँदनाशक दवा का छिडकाव करना चाहिए । बेनोमाइल, कार्बेन्डाजिम, टी.बी.जेड. प्लोक्लोरेज मेंगनीज (स्पोरोगॉन) और क्लोरोथेलोनिल आदि का छिडकाव केसिंग मिश्रण पर शुरू में या खुंभी की तोडाई के बाद करना चाहिए । कार्बेन्डाजिम और टी.एम.टी.डी. का 0.6 ग्राम प्रति वर्ग मीटर का छिड़काव प्रभावी पाया गया । खुंभी की विभिन्न तोडाइयों के बीच सप्ताह में एक बार मेन्कोजेब के चूर्ण का 100 ग्राम/वर्ग मीटर या फार्मेलिन (0.2 से 0.3 प्रतिशत) के घोल का छिडकाव भी प्रभावी पाया गया ।
v. काब वेब कवक के छोटे धब्बों का उसी समय नमक या फार्मेल्डीहाइड से उपचार करना चाहिए ।
(4) हरी प्रत्याशी कवक:
साधारण नाम:
ट्राइकोडरमा ब्लॉंच, ट्राइकोडरमा मिल्ड्यू ट्राइकोडरमा धब्बा
लक्षण:
ट्राइकोडरमा की विभिन्न प्रजातियों खाद, केसिंग मिश्रण, स्पान की शीशी तथा थैलियों में बीजाई के बाद दानों पर पायी जाती है । ट्राइकोडरम विरिडी तने पर ऊतकों को नष्ट करके लाल भूरे रंग के विक्षत बनाती हैं । टोपी पर धंसे हुए विक्षत बनते हैं ।
ट्रा. कोनिगंजी रूई के जाले की तरह बढकर गीली सडन पैदा करता है । यह ऊपरी सतह पर पीला भूरा धब्बा बनाती है जिसकी सतह दरार वाली होता है । तोडाई के पश्चात खाद में बची खुंभी के मृत ऊतकों से भी संक्रमण प्रारंभ होती है । रोगित टोपी एक तरफ से भूरे रंग की हो जाती है और बेरंग भाग उठा हुआ बना रहता है ।
ट्री. हेमेटम स्पान के फैलने के समय दिखायी देती है परंतु अधिक नमी में टोपी के ऊपर भी भूरा धब्बा बनाती है । नवजात पिन हेड पर धब्बे बड़े हो जाते हैं । टोपी पर दरारें स्पष्ट हो जाती हैं । खाद, भूसे के ढ़ेर, दाना स्पान और केसिंग मिट्टी पर प्राय: पेनीसीलियम की अनेकों प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं ।
रोगकारक:
ट्राइकोइरमा प्रजाति, ट्रा. विरडी, ट्रा. हमेटम, ट्रा. कोनिगंजी, पेनीसीलियम साइक्लोपियम, एस्परजिलस प्रजाति ।
कवक तंतु काचाभीय, पटयुक्त, शाखित रहता है । बीजाणु घर काचाभीय, अत्याधिक शाखित, फाइलिड अकेले या झुण्डों में, फिलोबीजाणु काचाभ, एक कोशीय, अण्डाकार शिखर पर छोटे झुण्डों में लगते है ।
इन्हें हरे रंग के धब्बे व तेजी से बढवार द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता है । ट्रा. हेमेटम बीजाणु गहरे रंग के 2.5-7.5 मिली माइक्रान आकार के ट्रा. हार्जीएनम बीजाणु पीले हरे रंग के 4-6.5×3.5 मिली माइक्रोन आकार के ।
रोगचक्र:
हरी प्रत्याशी फफूँद प्रायः अधिक कार्बोहाइड्रेट व कम नत्रजन वाली खाद में पायी जाती है । अनुपयुक्त पाश्चुरीकरण, और खाद को प्रानुकुलन (कडीशनिंग) के समय व अधिक सांद्रता वाली फार्मेनिल के उपयोग से ट्राइकोडरमा निकल आती हैं ।
अधिक नमी तथा और कम पी.एच. वाली केसिंग मिट्टी में भी हरी फफूँद तेजी से फैलती है । हवा, मिट्टी व कार्बनिक पदार्थ संक्रमण के मुख्य स्त्रोत है । क्यारियों में मृत खुंभी के ऊतक और कटे डंठल भी जल्दी रोग पकडते हैं । अनिर्जर्मीकृत सप्लीमेंट भी रोग बढाते हैं ।
प्रबंधन कवक:
हरी कवक से बचाव के लिये अच्छी साफ सफाई, उचित पाश्चुरीकरण, खाद के प्रानुकूलन (कंडीशनिंग) सप्लीमेंट का उपयोग से पहले निजर्मीकरण करना और स्पान के फैलाव के बाद ठीक प्रकार से मिलाना, उचित सांद्रता (0.2 प्रतिशत) वाली फार्मेलिन का उपयोग, बेविस्टिन (0.1 प्रतिशत) या टीबी. जेड (0.2 प्रतिशत) का साप्ताहिक छिडकाव या जिनेव धूलि या कैल्शियम हाइपोक्लोराइड (15 प्रतिशत) से उपचार प्रभावी पाया गया ।
(5) प्रतिस्पर्धी/सांकेतिक/प्रत्याशी कवक:
प्रत्याशी कवक वे कवक हैं जिनकी कार्यिकी अवस्था प्रायः सफेद कवकजाल की बहुतायत के कारण संदूषित दिखायी पडती है । ये अधीस्तर में प्रवेश करके संवर्धित कवक के साथ आक्सीजन, पोषण तथा स्थान के लिये स्पर्धा करते हैं । हालांकि परजीवी संदूषक भी प्रतिस्पर्धी व्यवहार दर्शाती है परंतु ये संदूषक तुलना में खुंभी के फलनकाय व कवक तंतु को ही क्षतिग्रस्त करती हैं और मारक नहीं रहती ।
प्रतस्पर्धी कवक ही संदूषक है जो कि अवांछनीय है । ये बहुत तेजी से वृहत रूप में फैलती हैं । इनको सांकेतिक संदूषक भी कहते हैं । जो कि फसल के बढने के समय सही क्रिया न अपनाने के कारण उत्पन्न होती हैं ।
ये निम्न है:
(अ) जैतुनी हरा संदूषण- कीटोमियन ग्लोबोसम एवं अन्य प्रजातियों ।
(आ) इंक कैप- कोप्राइनस रेटीरयूगिस, को. स्र्टक्यूलिनस, कोप्राइनस प्रजाति ।
(इ) हरी संदूषक- एस्परजिलस नाइजर, ए. फ्लेक्स, ए. फ्यूमीगेटस, पेनीसीलियम प्रजाति, ट्राइकोडरमा विरिडी ।
इनके अलावा अन्य कवक जैसे आर्थोबोट्राइस प्रजाति, अल्टरनेरिया अल्टरनेटा, सिफेलोस्पोरियम एस्परमम, सि. एक्रीमोनियम, क्लेडोस्पोरियम क्लोडोस्पोरायड, कॉक्लियोबोलस स्पेसिफर, डेस्चलेरा बाइकलर, फ्यूजेरियम मोनिलीफार्मी, फ्यू. मोनिलीफार्मी उपजाति फरबीकलूटिनस, फ्यू. मोनिलीफार्मी प्रजाति सबग्लूटिनन्स, फ्यू. ग्रेमीनिएरम, मेमनोलिएला इकाइनेटा, म्यूकर, राइजोपस, रा. स्टोलोनीफर, स्टेकीब्राटायास चारटेरम, स्टिलबन नेनेम, स्टीसेनस मीडियस, स्क्लीरोशियम रोल्फसाई, सॉरडेरिया फिमिकोला, ऊडोसिफेलम ग्लेबेरूलोसम, उ. लिनिएटम, ट्राइकोथीसियम रोरियम, टाइकुरस टेरेफिलस और फाइलोस्पोरा प्रजाति आदि खाद पर पायी जाती है । इन संदूषक कवकों के कारण उपज में 70 प्रतिशत तक हानि देखी गयी है ।
नियंत्रण:
अधिकांश संदूषक कवकों को बेनोमाइल (50 पीपीएम), या कार्बेन्डाजिम + ब्लीटाक्स (प्रत्येक का 100 पीपीएम) या थाइरम (100 पीपीएम) के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है)
(6) आभासी ट्रफल:
साधारण नाम:
ट्रफल रोग
लक्षण:
यह हमारे देश में अगेरिकस बाइटॉरकस की खेती का यह सबसे महत्वपूर्ण अवरोधक है । अगरिकस बाइस्पोरस की ठंड वाली फसल में प्रायः अंतिम फरवरी या मार्च की शुरुआत के समय दिखायी पडता है ।
इसका सफेद उठा हुआ कवक जाल बाद में हल्के पीले रग का हो जाता है, जो कि आवरण मृदा और खाद के बीच दिखायी देता है । बाद में यह कवकजाल मोटे, झुर्रीदार रूप में बदल जाता है जो कि मस्तिष्क के समान दिखायी देता है ।
प्रौढ होने पर ये गुलाबी, सूखे लाल और अतः में पाउडर के समान विखण्डित हो जाते है । जिसमें से क्लोरीन के समान गंध आती है । यह कवक खुंभी के कवकजाल को बढने नहीं देती और खाद को मटमेला कर देती है । प्रभावित भाग में स्पान अदृश्य हो जाता है ।
रोगकारक:
डाइलियोमाइसिस माइक्रो स्पोरस का मासल, एस्कोकार्प पहले सफेद बाद में भूरा और अंत में लाल भूरा हो जाता है । इसमें असंख्य थैले के समान एसाई रहते हैं जो कि अंडाकार या अर्द्धवृताकार, छोटे या लंबे मृत वाले व 3-8 एस्कोबीजाणु वाले, 19-27 x 10.5-15 माइक्रान आकार वाले होते है । एस्कोबीजाणु सल्फर के रंग के, तैलीय बूंद वाले और आकार में 6.5 माइक्रान के होते हैं । क्लेमाइडो बीजाणु एस्कोबीजाणु के कवकजालीय रचना में रहते हैं ।
रोगचक्र:
द्रफल के विखण्डित होने पर एस्वगेबीजाणु स्वतंत्र होते हैं । पुरानी फसल की लकडी के ट्रे और आवरण मृदा पर एस्कोबीजाणु व कवकजाल जिंदा रहकर संक्रमण का मुख्य स्त्रोत रहते हैं ।
मिट्टी व उपयोग में लायी गयी खाद पर एस्कोबीजाणु बहुत लंबे समय तक जिंदा रहते हैं, अत: प्राथामिक निवेश द्रव्य के मुख्य स्त्रोत की तरह कार्य करते हैं । कवक जाल की अधिकतम वृद्धि 26-28° डिग्री से. पर होती है ।
यह मुख्यतः अगेरिकस बाइटारकस का रोग है जहाँ पर फसल 250 डिग्री सेल्सियस पर उगायी जाती है परंतु यह अ. बाइस्पोकस पर भी बहुत तेजी से फैलती है, जहाँ प्राकृतिक वातावरण में इसे उगाया जाता है और जहां फसल उगाने के समय तापक्रम 20 डिग्री सेल्सियस के ऊपर हो जाता है ।
प्रबंधन:
i. खाद को कच्ची जमीन के बजाय हमेशा कंक्रीट फर्श पर ही बनाना चाहिए ।
ii. स्पान के फैलाव और केसिंग के बाद तापक्रम 26-270 डिग्री से. से अधिक नहीं होना चाहिए ।
iii. उत्पादन के समय तापक्रम 180 डिग्री से. से नीचे रखना चाहिए ।
iv. ट्रफल के फलनकाय के भूरे पडने और बीजाणु के पकने के पहले नवजात ट्रफल को उठाकर जमीन में गहरा दबा देना चाहिए ।
v. फसल के अंत में लकडी की ट्रे या शेल्फ बेड के किनारे बोर्ड को फसल के बाद सोडियम पेन्टाक्लोरीफीनोलेट के घोल से धोना चाहिए ।
vi. खाद पकाने से (70 डिग्री से. ताप पर 12 घण्टे खाद रखना) खाद में उपस्थित कवक जाल व बीजाणु मर जाते हैं । बीमारी की प्राथमिक अवस्था में प्रभावित भाग को फार्मेल्डिहाइड के घोल (2 प्रतिशत) से उपचारित करना चाहिए ।
(7) जैतूनी हरी कवक:
साधारण नाम:
कीटोमियम ओलीवेसियस, की. ग्लोबोसम
लक्षण:
अगेरिकस बाइस्पोरस में इस रोग के कारण 10-15 प्रतिशत तक हानि होती है । बीजाई के 10 दिन बाद सतह पर अस्पष्ट मटमैला सफेद रंग का, बारीक कवकजाल दिखायी देता है । प्रभावित खाद के डंठली पर एकल धब्बों में स्पान की वृद्धि धीमी पड जाती है और 1/6 इंच व्यास वाली छोटी खुंभी हरे काकलबर्न के समान दिखायी देते हैं । खाद से खराब गंध निकलती है ।
रोगचक्र:
संक्रमण प्राय: हवा, खाद और आवरण मृदा के द्वारा होता है । शुद्ध हवा की अनुपस्थिति में अधिक तापक्रम के साथ फेज द्वितीय में अनुपयुक्त पाश्चुरीकरण करने से यह दिखायी पड़ता है ।
पाश्चुरीकरण कक्ष में हवा के अनुपयुक्त बहाव या कक्ष में अधिक बहाव के कारण अत्याधिक संघनन हो जाता है । जिसके कारण से खाद विशिष्ट नहीं रह पाती और इसमें कीटोमियम और दूसरे प्रत्याशी कवक उत्पन्न हो जाती हैं । बीजाणु तापरोधी रहते हैं, और पाश्चुकरीकरण के दौरान आसानी से नष्ट नहीं होते । एस्कोबीजाणु हवा के बहने, कपड़े और खुंभी फार्म में उपयोगी अन्य उपकरणों के द्वारा फैलते हैं ।
प्रबंधन:
i. खाद की किण्वीकरण अवधि छोटी नहीं रहना चाहिए ।
ii. खाद बहुत गीली और क्रियाशील नहीं होना चाहिए ।
iii. खाद भरने के समय नाइट्रोजन, अमोनियम सल्फेट, युरिया, मुर्गी की खाद या इसी तरह के पदार्थ नहीं मिलाना चाहिए ।
iv. पाश्चुरीकरण के समय ताजी हवा की पर्याप्त मात्रा और पीक हीटिंग के लिये पर्याप्त समय होना चाहिए ।
v. लंबे समय तक खाद को अधिक तापक्रम (600 डिग्री से.) पर नहीं रखना चाहिए ।
vi. प्रयोगशाला में बेनोमाइल, थायोफेनेट मिथाइल, टीबी जेड, वीटावेक्स, डाइथेन एम-45, थाइरम और केप्टान प्रभावशाली पाये गये ।
(8) भूरी प्लास्टर प्रत्याशी कवक:
अगेरिकस बाइस्पोरस में भूरी प्लास्टर प्रत्याशी कवक के कारण 90 प्रतिशत और ढीगरी खुंभी में इसके कारण पूरी फसल नष्ट हो जाती हैं । खाद की खुली सतह, और ट्रे में उपस्थित आवरण मृदा पर थैलियों के किनारे पर नमी के जमने के कारण सफेद कवकजाल की वृद्धि दिखायी पडती है ।
यह आगे विकसित होकर बडे धब्बे बनाते हैं जो धीरे-धीरे रंग बदलकर पहले हल्के भूरे से लाल भूरे और अंत में जंग रंग हो जाते हैं । जहां प्लास्टर कवक पायी जाती है वहां खुंभी का कवकजाल विकसित नहीं होता ।
रोगकारक:
पापुलोस्पोरा बाइसिना कवकजाल भूरे रंग का, पटयुक्त और छोटी कोशिका वाले ठोस झुण्ड या बलबिल्स बनाता है । बलबिल्स स्केलेरोशिया के समान होते हैं और कवक को जिंदा रखने का कार्य करते है ।
रोगचक्र:
संक्रमण प्रायः हवा जनित बलबिल्स, बर्तन, खाद, आवरण मृदा और मनुष्यों द्वारा होता है । गीले, पानी वाले और अनुपयुक्त खाद के कारण इसका विकास होता है । स्पान के फैलाव और फसल के समय अधिक तापक्रम होने से बीमारी का प्रसार होता है । जिप्सम की कम मात्रा मिलाने और अधिक चिपचिपापन बीमारी के विकास में सहायक होते हैं ।
प्रबंधन:
i. खुंभी की फसल को इस रोग से बचाने के लिये फार्म पर अत्यधिक स्वच्छता रखनी चाहिये ।
ii. खाद बनाते समय जिप्सम की सही मात्रा और पानी की कम मात्रा उपयोग में लाना चाहिए ।
iii. पीक हीटिंग के पहले व बाद में खाद ज्यादा गीली नहीं होना चाहिए ।
iv. प्रभावित भाग पर स्थानीय रूप से 2-4 प्रतिशत फार्मेलिन का उपयोग प्रभावशाली पाया गया ।
v. दैहिक फफूँदनाशी जैसे बेनोमाइल, कारबेन्डाजिम, थायोफेनेट मिथाइल या वीटावेक्स का 1 प्रतिशत छिडकाव प्रभावशाली पाया गया ।
(9) पीली प्रत्याशी कवक:
साधारण नाम:
चटाई बीमारी, वर्ट डी ग्रिस
लक्षण:
ये कवक के सिंग परत के नीचे एक परत बनाती हैं और खाद पर गोलाकार कालोनियों बनाती हैं या पूरे खाद पर बिखरी रहती हैं । यह खाद और केसिंग मिश्रण के बीच पीले भूरे रंग की चटाई जैसी रचना बनाती हैं ।
रोगकारक:
माइसीलियोप्थोरा ल्यूटिया, क्राइसोस्पेरियम ल्यूटियम, क्रा. सल्फ्यूरियम ।
कवकजाल पहले सफेद और बाद में पीला भूरा हो जाता है । यह सीमित वृद्धि वाला, दूधिया या मटमेला सफेद बीजाणु वाला होता हैं । कवकजाल पतला, पटयुक्त और शाखित होता है ।
यह तीन प्रकार के बीजाणु उत्पन्न करता है:
(अ) शिखर पर चिकने अण्डाकार, अकेला कोनीडिया,
(ब) शिखर पर या बीच में चिकने, मोटी दीवार वाले क्लोमाइडो बीजाणु
(स) मोटी दीवार वाले कांटे युक्त क्लेमाइडों बीजाणु ।
रोगचक्र:
प्राथमिक निवेश द्रव्य का मुख्य स्त्रोत हवा, मुर्गी की खाद, अवशेष खाद, दोषपूर्ण निर्जीवीकृत लकडी की ट्रे आदि हैं । द्वितीयक प्रसार मुख्यतः माइट्स इसके बाद मक्खी. पानी की छींटे, तोड़ाई के समय और उपकरणों द्वारा होता है । कवक मोटी दीवार वाले क्लोमाइडो बीजाणुओं द्वारा जिंदा रहता है । खाद में 70 प्रतिशत नमी और 19-200 डिग्री से तापक्रम पर बीमारी और बढ़ जाती है ।
प्रबंधन:
i. इसी बीमारी की रोकथाम के लिये केसिंग मिश्रण का सही पास्तुरीकरण और बेनोमाइल (400-500 पीपीएम) या ब्लीटाक्स (400 पीपीएम) का छिडकाव प्रभावशाली पाया गया ।
ii. प्रत्याशी कवक का उन्मूलन करने के लिये केल्शियम हाइपोक्लोराइड (15 प्रतिशत) का छिड़काव प्रभावी है ।
(10) सीपीडोनियम पीली प्रत्याशी करक:
लक्षण:
खाद में यह कवक पहले सफेद रंग की होती है जो कि बाद में पीली भूरी हो जाती है । यह प्राय: खाद की निचली परत या थैली की पेंदी पर पायी जाती है । प्रायः फलनकाय में विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ पायी जाती हैं । इस कवक द्वारा उत्पन्न टाक्सिन स्पान के फैलाव को रोकता है और अतः में खाद से खुंभी का कवकजाल अदृश्य हो जाता है ।
रोगकारक:
सिपीडोनियम, क्राइसोस्पोरियम, सी माहेश्वरेनियम (हारपोमाइसिस क्राइसोस्पोरियम)
कवकजाल पहले सफेद रहता है परंतु उम्र बढने के साथ-साथ पीले भूरे रंग का हो जाता है । कवकजाल पटयुक्त, शाखित, काचाभ, 3-5 मिली माइक्रान चौडा रहता है । कोनिडियोधर आसीमित रहते हैं और कवकजाल की शाखाओं से ज्यादा भिन्न नहीं रहते । ये साधारण या शाखित, रहते हैं ।
जिन पर कोनिडिया अकेले या झुण्डों में, काचाभ या गहरे पीले रंग के, अण्डाकार एक कोशिका वाले, टयूबरकुलेट रहते है । दूसरे प्रकार के कोनिडिया (एल्युरियोस्पोर) क्लेमाइडो बीजाणु की तरह रहते हैं जो कि अण्डाकार, उभार वाले, गहरे पीले, मोटी दीवार वाले और 13-21 मिलीमाइक्रान व्यास वाले होते हैं ।
रोगचक्र:
निवेशद्रव्य का प्राथमिक स्त्रोत, मिट्टी उपयोग में लायी खाद, हवा, अपूर्ण रूप से निर्जीवीकृत लकडी की ट्रे आदि है । बटन खुंभी की खेती के लिये अनुकूल वातावरण प्रत्याशी कवक की वृद्धि के लिये भी अनुकूल रहता है । मुर्गी की खाद के रूप में नाइट्रोजन की अधिक मात्रा भी प्रत्याशी कवक की वृद्धि में सहायक होती है ।
नियंत्रण:
i. खाद के पाश्चुरीकरण के समय तापक्रम उचित रखना चाहिए ।
ii. फसल समाप्त होने के बाद खुंभी भवन में रखी गयी पेटियों या शैलों को 700 डिग्री से तापमान पर 10-12 घंटे तक क्वथनित्र द्वारा भाप देकर गर्म करने से सब हानीकारक कीट व बीमारी खत्म हो जाती हैं ।
iii. खाद में 0.5 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम मिलाना ।
iv. मुर्गी की खाद को 2 प्रतिशत फार्मेलिन या 0.5 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम से निर्जीवीकृत करना ।