भारत में उगाए जाने वाले बागान फसलों की सूची | Read this article in Hindi to learn about the plantation crops grown in India.

बागाती खेती सबसे पहले ब्रिटिश सरकार न अमेरिका तथा वेस्ट में आरंभ की थी उसके पश्चात् दक्षिण पूर्वी एशिया तथा दक्षिणी एशिया के देशों में खेती आरंभ की गई । अमेरिका के कटिबंधीय प्रदेश में प्रकार की खेती अफ्रीका के नीग्रो द्वारा आरंभ की गई थी ।

भारत से श्रमिकों को मलेशिया, मॉरीशस, वेस्ट इंडीज, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में जाया गया । मुख्य बागाती फसलों में रबड़, चाय, कॉफी, कोको, तेल-ताड़ सुपारी, नारियल, मनीला-हेम्प, कपास, गन्ना तथा वनीला सम्मिलित हैं ।

1. चाय (Tea or Camellia Sinensis):

विश्व की लगभग 50% चाय का पेय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । चीन, जापान, भारत, श्रीलंका, ब्रिटेन तथा रूस में चाय को राष्ट्रीय पेय का स्थान मिला हुआ है ।

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भारत में लगभग 45 लाख हेक्टेयर भूमि पर चाय के बगीचे हैं । इसका उत्पादन करने वाले राज्यों में असम (53%), पश्चिम बंगाल (24%), तमिलनाडु (11%) तथा केरल (8%) सम्मिलित हैं । इनके अतिरिक्त चाय का उत्पादन त्रिपुरा, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, बिहार, मणिपुर, नागालैंड तथा अरुणाचल प्रदेश में भी किया जाता है ।

भारत में चाय की खेती लगभग 160 वर्ष पुरानी है, जिससे वार्षिक रु 6000 करोड़ से अधिक की आय होती है । इसकी कृषि में चालीस लाख से अधिक लोग काम करते हैं । चाय के बगीचों में काम करने वाले श्रमिकों में 50% महिलाएँ हैं । वर्ष 1947 में चाय का उत्पादन 250 मिलियन किलो था जो वर्ष 2011 में 755 मिलियन किलो हो गया ।

चाय सबट्रोपिकल एशिया का मूल-पौधा है । इसकी झाड़ियों की निरंतर कटाई-छटाई की जाती है, ताकि नई पंक्तियाँ निकलती रहें । नई पंक्तियाँ ही वास्तव में अच्छी चाय के लिए उपयुक्त होती हैं । चाय की झाड़ी एक सदाबहार पौधा है । उसके उत्पादन के लिए 20C से 27C जडों में पानी ठहरना चाहिए ।

पानी ठहरने से पौधे की जडें गल जाती हैं और झाड़ी नष्ट हो जाती है । इसलिए इसके बगीचे ढालदार जमीन पर विकसित किए जाते हैं, ताकि जल अपवाह होता रहे । इसकी खेती के लिए ढलानों पर गहरी उपजाऊ जलोढ मिट्टी की आवश्यकता होती है ।

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दार्जिलिंग चाय 600 मीटर से 2000 मीटर की ऊँचाई तक उगाई जाती है जहाँ शीत ऋतु में तापमान (5-6C) तक गिर जाता है । दक्षिण भारत में भी पहाड़ी ढलानों पर चाय के बगीचे हैं ।

चाय का बगीचा विकसित करने के लिए सुरक्षित स्थान पर नर्सरी तैयार की जाती है । साल भर की पौध को उखाड़कर खेत में लगा दिया जाता है । पौध लगाने के छ: वर्ष बाद अधिकतम उत्पादन प्राप्त होता है । चाय की पंक्तियाँ तोड़ने के पश्चात् उनको छाया में सुखाया और फैक्ट्री में तैयार किया जाता है, ताकि डब्बों में बद करके बाजार में भेजा जा सके ।

चाय के बगीचों में सिरस के पेड बीच-बीच में लगाए जाते हैं, ताकि सूर्य की बैंगनी किरणें पत्तों पर सीधी न पड़े बैंगनी किरणों से चाय की पत्तियों को हानि पहुँचती है इन वृक्षों से मिट्टी से वाष्पीकरण की प्रक्रिया भी धीमी पड़ जाती है । भारत चाय का उत्पादन तथा निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है । भारत के पश्चात् चीन, श्रीलंका, जापान, केन्या, इंडोनेशिया, बंगलादेश तथा तुर्की का स्थान है ।

2. कॉफी अथवा कहवा (Coffee):

कॉफी इथोपिया का मूल-पौधा है यह एक प्रेरण एवं उत्तेजन पेय है । चाय की तुलना में कॉफी एक महँगा पेय है । इस प्रेरक एवं उत्तेजन पैदा करने वाली पेय का पता एक अरोबाई मूल के मुस्लिम सूफी ने लगाया था । उसने पाया कि जब उसकी बकरियाँ कॉफी की पंक्तियाँ तथा बेर खाकर जंगल से आती हैं तो वह रात को बैचेन रहती हैं, ठीक से आराम नहीं कर पातीं ।

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उसने कॉफी के बेरों को पानी में उबालकर स्वयं पिया तो वह रात को ठीक से सो नहीं पाया । उसने अनुभव किया कि उसकी नींद काफी पीने से खराब हुई है । तब से काफी पीने का चलन आरंभ हुआ ।

17वीं शताब्दी में कॉफी के बीज एक मुसलमान-सूफी भारत में लेकर आया जिसका नाम बाबा-बुद्दन था । उसने कर्नाटक के चिकमगलूर जिले में इसकी खेती आरंभ कर दी । इस समय भारत में लगभग 34 लाख हेक्टेयर भूमि पर काफी की खेती की जाती है, जिसका 56 प्रतिशत क्षेत्रफल कर्नाटक में, 25% केरल में तथा 9% तमिलनाडु में है । शेष 10% क्षेत्रफल आंध्र प्रदेश, ओडिशा तथा भारत के उत्तरी पूर्वी राज्यों में फैला हुआ है ।

कॉफी की प्रमुख दो किस्में हैं:

(i) कॉफी अरेबिका तथा

(ii) कॉफी रोबस्ता ।

कॉफी अरेबिका के बगीचे पहाड़ियों पर विकसित किए जाते हैं । यह कॉफी उत्तम प्रकार की होती है तथा यमन की पर्वतीय भागों में उगाई जाती है जहाँ इसको कॉफी-मखा के नाम से जाना जाता है । इस उत्तम प्रकार की कॉफी में बीमारी अधिक लगती है ।

रोबस्ता कॉफी मैदानी भागो में लगाई जाती है । यह बीमारी को सहन करने की अधिक क्षमता रखती है । रोबस्ता कॉफी के मुख्य क्षेत्रों में सिरालीयोन, लाइबेरिया, आयवरी-कोस्ट, घाना, बेनिन, केमरून तथा नाइजीरिया सम्मिलित हैं ।

कॉफी उत्पादन करने वाले देश अवरोही क्रम में ब्राजील, कोलंबिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, आयवरी-कोस्ट, मैक्सिको, घाना, केमरून तथा भारत हैं ।

भारत में कॉफी का उत्पादन मुख्यतः कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश में होता है । कॉफी का सबसे अधिक निर्यात ब्राजील से होता है । ब्राजील के सबसे बडे नगर साव-पालो को विश्व की कॉफी राजधानी के नाम से भी जाना जाता है ।

3. कोको (Cocoa or Cacao):

कोको एक महत्वपूर्ण पेय है जिसका उपयोग मुख्यतः सॉफ्ट ड्रिंक में उपयोग किया जाता है । आधुनिक कन्फेक्शनरी में इसका उपयोग होता है । इसको बुद्धिजीवियों का पेय भी कहा जाता है ।

कोको ट्रोपिकल अमेरिका का मूल-पौधा है । उत्तरी अमेरिका के पनामा से लेकर वेनेजुएला के ओरिनिको नदी बेसिन इसका पौधा प्रकृति में पाया गया था । स्पेन के लोग इसको अफ्रीका में लाए और इसकी बागाती खेती आरंभ की ।

कोको उत्पादन के लिए 18C से 35C तथा लगभग 100 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । इसकी खेती मैदानी भागो में की जाती है । छोटे किसान इसकी खेती का उचित प्रबंध करते हैं । इसके वृक्ष तीन मीटर की दूरी पर लगाए जाते हैं । चाय और कॉफी के पेड़ों की भांति इनकी कटाई-छटाई नहीं की जाती । समय-समय पर खरपतवार को निकाला जाता और खाद लगाया जाता है ।

कोको उत्पादन करने वाले देशों में घाना, आइवरी-कोस्ट, नाइजीरिया, केमरून (अफ्रीका) विश्व में प्रमुख हैं । इनके अतिरिक्त ब्राजील, कोलंबिया, कोस्टा-रिका, अल-सेल्वाडोर, होन्ड्रस, इक्वेडोर, मैक्सिको, निकारगुआ, पनामा तथा वेनेजुएला, मलेशिया, इंडोनेशिया, पापुआ-निकारगुआ आदि सम्मिलित हैं ।

कोको की विश्व के सभी देशों में माँग है । आयात करने वाले देशों में पश्चिमी यूरोप रूस संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, जापान, आस्ट्रेलिया, भारत तथा चीन इत्यादि सम्मिलित हैं ।

4. प्राकृतिक रबड़ (Rubber Hevea Brailiensis):

रबड़ के दूध से रबड़ तैयार की जाती है । यह ब्राजील मूल का वृक्ष है । ब्राजील से इसकी खेती का प्रसारण इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपाइन, थाइलैंड तथा वियतनाम में हुआ । रबड के बगीचों के लिए 22C से 30C तापमान तथा 200 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । यदि लंबे समय तक वर्षा न हो तो रबड़ के बगीचों पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है । इसकी सफल खेती के लिए सस्ते मजदूरों की जरूरत होती है ।

रबड़ के बगीचे ढालदार भूमि पर विकसित किए जाते हैं ताकि जड़ों में पानी न रुकने पाए । रबड़ के बीज नर्सरी में बोए जाते हैं । नर्सरी से पौध को उखाड़कर पंक्तियों में लगा दिया जाता हैं ।

रबड़ के बगीचे दक्षिण पूर्वी एशिया, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन एवं निकटवर्ती प्रदेश में पाए जाते हैं वर्तमान समय में रबड़ उत्पादन करने वाले देशों में थाइलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, श्रीलंका, वियतनाम (एशिया); घाना, लायबेरिया, नाइजीरिया, जायरे, केमरून (अफ्रीका) तथा ब्राजील, वेनेजुएला (दक्षिण अमेरिका) प्रमुख हैं ।

भारत में रबड की बागाती कृषि अरणाकुलम, कौलम, कोटयाम, कोजीकोड्रे (केरल), कोयंबटूर, कन्याकुमारी, मदुरई, नीलगिरी, सलेम, जनपद (तमिलनाडु) में की जाती है । इनके अतिरिक्त अंडमान निकोबार द्वीप समूह, असम, महाराष्ट्र, मणिपुर, त्रिपुरा, नागालैंड एवं ओडिशा में इसके बगीचे विकसित किए गए हैं । भारतीय रबड़ बोर्ड इसकी खेती का क्षेत्रफल बढाने का प्रयास कर रहा है ।

5. तेल-ताड़ (Oil Palm):

तेल-ताड, सदाबहार वृक्षों में सबसे अधिक तेल का उत्पादन करता है । इसका इस्तेमाल पाक्य तथा औद्योगिक उत्पादनों के लिए किया जाता है । तेल-ताड़ के वृक्षों से 4-6 टन तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है । यह एक पर्यावरण मित्र वृक्ष है ।

भारत में लगभग आठ लाख हेक्टेयर भूमि पर तेल-ताड के बगीचे स्थापित किए जा चुके हैं । इसकी खेती आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, असम, गुजरात, गोआ, केरल महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल में की जाती है ।

तेल-ताड़ ऊष्ण-आर्द्र जलवायु का वृक्ष है इसके लिए औसत तापमान 24C-25C तथा औसत वार्षिक वर्षा 250-400 सेमी॰ की आवश्यकता होती है । इसके बगीचे 900 मीटर की ऊँचाई तक लगाए जाते हैं । यदि वर्षा का अभाव हो तो सिंचाई की आवश्यकता होती है ।

तेल-ताड़ का पेड़ पाँच साल के पश्चात लगभग 20-25 टन तेल प्रति हेक्टेयर उत्पादन होने लगता है अच्छी गुणवत्ता के तेल उत्पादन के लिए इसके फलों को तोड़कर 24 घंटे के अंदर तेल निकालना चाहिए ।

6. काजू (Cashew-Nut):

काजू के बगीचे विश्व भर में ऊष्णकटिबंध में लगाए जाते हैं । भारत में इसके बगीचे कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में लगाये जाते हैं । सबसे अधिक काजू का उत्पादन महाराष्ट्र में 1.5 टन प्रति हेक्टेयर पाया गया है ।

यूँ तो काजू विभिन्न प्रकार के कृषि जलवायु प्रदेशों में उगाया जा सकता है, परंतु तापमान 20C से कम नहीं होना चाहिए । इसका अधिकतम उत्पादन 400 मीटर की ऊँचाई पर होता है । वैसे 900 मीटर की ऊँचाई तक भी काजू के बगीचे लगाए जाते हैं । लेटेराइट मिट्टी इसके लिए अनुकूलतम है ।

काजू उत्पादन करने वाले देशों में कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में की जाती है । सबसे अधिक उत्पादकता महाराष्ट्र में काजू का उत्पादन लगभग 1.5 टन प्रति हेक्टेयर है ।

वैसे तो काजू विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में उगाया जा सकता है, परंतु इसका उत्तम उत्पादन 700 मीटर से कम ऊँचाई पर होता है । इसके बगीचों के प्रदेश में तापमान 20C से कम नहीं होना चाहिए । बढ़िया किस्म का काजू 400 मीटर की ऊँचाई पर उगाया जाता है ।

दिसंबर से मई तक कम-से-कम 9 घंटे दिन का प्रकाश होना चाहिए । यदि फूल-फल की अवस्था में तापमान 35C को पार कर जाए तो फसल का उत्पादन काफी घट जाता है । इसकी जड़ों में पानी नहीं ठहरना चाहिए आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई की जानी चाहिए ।

काजू के पेड़ पर तीन वर्ष के पश्चात फल आने लगते हैं, परंतु सबसे अधिक उत्पादन दस वर्ष की आयु के पश्चात होता है । इसके फलों को फरवरी से मई तक के महीनों में तोड़ा जाता है । तीन से पाँच साल के पेड़ से लगभग दो किलो छ: से दस वर्ष के वृक्ष से पाँच से दस किलो तथा दस से पंद्रह वर्ष पुराने वृक्ष से नौ से दस किलो काजू प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता है ।

7. सुपारी/पूगी (Areca Nut):

सुपारी को पान के पत्ते के साथ कच्ची या पक्की (सूखने के बाद) उपयोग किया जाता है । केरल, तमिलनाडु, असम पश्चिम बंगाल तथा उत्तरी भारत में खुशबू मिलाकर स्वादिष्ट बनाई जाती है । इसका उपयोग दवाइयों में भी किया जाता है । रंगाई तथा धार्मिक कर्मकांड में भी इसका उपयोग किया जाता है । कपडों की रंगाई में भी सुपारी का उपयोग किया जाता है ।

8. जूट (Jute or Corchorus Capsularis):

जूट भारत की महत्त्वपूर्ण फसलों में से एक है । इसका उत्पादन मुख्यतः पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, ओडिशा, त्रिपुरा तथा मेघालय में किया जाता है ।

जूट के उत्पादन का 95 प्रतिशत भाग उद्योगों में कच्चे माल के तौर पर किया जाता है तथा 5% का घरेलू उपयोग होता है । जूट की बनी 72% उत्पादकों का उपयोग देश में ही होता है, जबकि 18 प्रतिशत उत्पादन को निर्यात किया जाता है । जूट की वस्तुओं का निर्यात मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका ब्रिटेन, जापान, दक्षिण पश्चिमी एशिया के देशों चीन, दक्षिण कोरिया, कनाडा, ब्राजील, अर्जेटीना, रूस, मध्य एशिया, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड को किया जाता है ।

जूट की कृषि के लिए 25C से 35C तक तापमान की आवश्यकता होती है । इसके लिए अनुकूलतम तापमान 34C होता है । लगभग 100 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । जूट के खेत में पानी नहीं ठहरना चाहिए, क्योंकि जूट को निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है, इसलिए वर्षा के बीच में वर्षा रहित समय की आवश्यकता रहती है ताकि जूट की फसल से खरपतवार निकाला जा सके ।

जूट दो प्रकार का होता है:

(i) सफेद जूट तथा

(ii) तोशा जूट ।

सफेद जूट अधिक जल को सहन कर सकता है, परंतु तोशा जूट के अधिक जल में नष्ट होने की संभावना बड़ी रहती है । जूट की अच्छी खेती जलोढ मिट्टी में अच्छी होती है । खेत का जल अपवाह अच्छा होना चाहिए । इनके अतिरिक्त स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है जिससे फसल को काटने के पश्चात् उसको पानी में डुबोकर लकड़ी से जूट के रेशे को अलग किया जा सके ।

9. मेस्टा (Mesta):

मेस्टा को पटुआ एवं केनाफ के पौधों से प्राप्त किया जाता है । इसकी 400 किस्में हैं जिनमें से 36 प्रकार का मेस्टा पौधा, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं म्यांमार में पाया जाता है ।

विश्व में इसका उत्पादन विशेष रूप से भारत, चीन, थाइलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलिपाइन, मिस, श्रीलंका, ब्राजील एवं उत्तरी आस्ट्रेलिया में होता है । ऊष्ण आर्द्र जलवायु के इस पौधे को 20C से 30C तापमान तथा 50 से 75 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है ।

भारत में 0.15 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर मेस्टा की खेती होती है । इसका वार्षिक उत्पादन लगभग है । भारत में इसका सबसे अधिक उत्पादन आंध्र प्रदेश में होता है, जिसके पश्चात् महाराष्ट्र, ओडिशा, बिहार तथा पश्चिम बंगाल का स्थान आता है ।

यदि मेस्टा का बीज बिखेरकर बोना हो तो 10 से 12 किलो बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है । दो वर्ष तक इसके पौधों में से कुछ पौधों को उखाड़ देना होता है तथा इसके पौधों की दूरी बढ जाये और एक-से दूसरे की दूरी लगभग 15 से 18 सेमी॰ हो जाए । पौधों की इस प्रकार छटाई में बहुत समय लगता है । लगभग 140 से 150 दिन के पश्चात् मेस्टा की फसल को काट लिया जाता है । जूट की भांति इसके रेशों को भी पानी में डालकर अलग किया जाता है ।

10. सनहेम्प अथवा सनी (Sun Hemp):

सनहेम्प, फेबेसिया परिवार का सदस्य है । यह जूट की भांति रेखा उत्पन्न करने तथा भूमि की उर्वरकता बढ़ाने के लिए उगाया जाता है । इसकी रेखा पीले रंग की होती है । मुख्यतः इसका इस्तेमाल कागज बनाने के काम में आता है । गाँव में इससे रस्सी, जाल तथा टाट-पट्टी बनाने के काम में किया जाता है ।

सनहेम्प की सफल खेती के लिए 20 से 30C तापमान तथा 40 से 50 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । अच्छे अपवाह वाली जलोढ़ मिट्टी में इसका उत्पादन अधिक होता है । इसको वर्षा ऋतु अथवा खरीफ के मौसम में उगाया जाता है ।

सनहेम्प की खेती में 60 किलो बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है । यह 50 से 60 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर खेत में वृद्धि करता है । दो या तीन महीने के पश्चात इसकी खेत में जुताई कर दी जाती है ।

इसका प्रयोग कागज बनाने के काम में किया जाता है । इसके अतिरिक्त रस्सी बनाने के लिए भी सनहेम्प का इस्तेमाल किया जाता है ।

11. रेमी (Ramie (Boehmeria Genus):

रेमी एक अर्थ-बारहमासी फसल है वाविलो महोदय के अनुसार रेमी की खेती सबसे पहले चीन में आरंभ की गई थी । यह चीन मूल का पौधा है । रेमी की खेती असम, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश (कांगड़ा घाटी) तथा तमिलनाडु के नीलगिरी क्षेत्र में की गई है ।

रेमी की खेती के लिए उचित जल अपवाह वाली जलोढ़ मिट्‌टी की आवश्यकता होती है । इसको मई तथा सितंबर के महीनों में उगाया जाता है । इसका उपयोग कागज बनाने में भी किया जाता है । इससे कपडा भी तैयार किया जाता है ।

12. सीसल (Sisal):

सीसल मैक्सिको का पौधा है । इसकी पंखुडी तलवार के आकार की होती है । इसकी मोटी पखड़ी होती है तथा इसका तना छोटा होता है । इसकी पंक्तियों को पीटकर रेशा तैयार किया जाता है, इसलिए इसको कठोर/कड़ा धागा भी कहते हैं ।

विश्व में सीसल का उत्पादन ब्राजील, कीनिया, तंजानिया, मेडागास्कर, अंगोला, हैती, चीन तथा भारत में किया जाता है । भारत में सीसल का उत्पादन ओडिशा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार तथा पश्चिमी बंगाल में किया जाता है ।

सीसल ऊष्ण आर्द्र जलवायु का पौधा है । इसको 20C से 30C तापमान तथा 100 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । इसको पर्याप्त मात्रा में धूप की भी जरूरत होती है । यह विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में उग सकता है । इससे रस्सियाँ, तथा कालीन आदि तैयार किए जाते हैं ।

13. फलैक्स/अलसी/खूबकला (Flax):

अलसी एक बहुउद्देशीय फसल है । पौधे के तने से इसका रेशा प्राप्त किया जाता है । इसका रेशा (धागा) पानी ग्रहण नहीं करता । इसमें लचक कम लचक होती है । पानी में भिगोकर और भी मजबूत हो जाता है । रेशा मजबूत एवं टिकाऊ होता है । इसका रेशा (धागा) पानी ग्रहण नहीं करता ।

इसमें लचक कम होती है । पानी में भीगकर और भी मजबूत हो जाता है । इसलिए इसकी रस्सियों को जलपोतों एवं नवगमन में किया जाता है । इससे मजबूत धागा तैयार किया जाता है ।

अलसी की खेती के लिए ठंडी शीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है । तापमान 10C से 20C वर्षा 15 से 20 सेमी॰ तथा सापेक्षिक आर्द्रता 65% से अधिक रहनी चाहिए । भारत में हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी इसके लिए अनुकूलतम भौगोलिक परिस्थितियाँ हैं । उपजाऊ जलोढ़ मिट्‌टी में इसकी खेती अच्छी होती है । यह रबी की फसल है । अक्टूबर या नवंबर में बोकर अप्रैल में काट ली जाती है ।

14. तंबाकू (Tobacco):

तंबाकू, भारत की नकदी फसल है । भारत में इसकी खेती की शुरूआत 1508 में पुर्तगालवासियों ने की थी । धीरे-धीरे तंबाकू की खेती देश के अन्य भागों में फैल गई । भारत व विश्व में तंबाकू एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है । तंबाकू का उपयोग सिगरेट, बीड़ी, सिगार, हुक्का खैनी पान-पराग इत्यादि में किया जाता है ।

कीटाणुनाशक दवाइयों के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है । भारत में तंबाकू की खेती आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा पश्चिम बंगाल में की जाती है ।

तंबाकू विभिन्न परिस्थितियों में उगाया जाता है इसकी खेती 16C से 35C तापमान में की जाती है, परंतु अनुकूलतम तापमान 18C-25C होता है । इसको 100 से 250 सेमी॰ वर्षा की आवश्यकता होती है । मिट्‌टी का जल अपवाह अच्छा होना चाहिए । खेत में पानी ठहरने से फसल खराब हो जाती है ।

भारत में तंबाकू की दो किस्में उगाई जाती हैं:

1. निकोटियाना टोबेकम:

यह उत्तम किस्म का तंबाकू है, जिसका प्रयोग सिगरेट एवं सिगार बनाने के काम में आता है । भारत का 90 प्रतिशत तंबाकू इसी प्रकार का है ।

2. निकोटिनिया रस्टीका (Nicotiana Rustica):

ठंडी जलवायु के उत्तरी भारत में इसकी खेती की जाती है । इसका उपयोग हुक्का के तंबाकू के तौर पर किया जाता है । इस तंबाकू को चबाने एवं सूँघने के काम में भी लाया जाता है ।

लगभग 80 प्रतिशत तंबाकू का देश में ही उपयोग किया जाता है जबकि 20% का निर्यात किया जाता है । तंबाकू का निर्यात रूस, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, मिस्र, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, दक्षिण एशिया, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा फिलिपाइन को किया जाता है ।