आलू में कीट और रोग प्रबंधन | Read this article in Hindi to learn about the integrated programmes for pest and disease management in potatoes.
आलू की फसल पर कीटों एवं बीमारियों की समस्या से निवारण के लिए समेकित कार्यक्रम आर्थिक दृष्टि से किसानों के लिए काफी उपयुक्त तथा सरल है । अत: इनके समेकित प्रबंधन हेतु क्रमश: उन्नत कृषिगत क्रियाएँ, यांत्रिक क्रियायें, जैव नियंत्रण क्रियाएँ एवं रासायनिक क्रियाएँ अपनायी जाय ।
1. कृषिगत क्रियायें:
i. गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें । ऐसा करने पर मिट्टी के भीतर कीट के विभिन्न अवस्थायें जैसे अण्डे, पिल्लू इत्यादि, रोगकारक व सूत्रकृमि के जीवाणु बाहर आ जायेंगें जो सूर्य की तेज धूप पड़ने पर नष्ट हो जाएगें अथवा परभक्षी उन्हें खाकर नष्ट कर देंगे ।
ii. खेत की मेड़ों पानी की नालियों आदि के आस-पास खरपतवरों को न उगने दें ।
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iii. खेत में सालराइजैशन (पालीथीन की सफेद पारदर्शी चादर 10 – 15 दिनों तक ढक कर) क्रिया से खरपतवारों तथा मिट्टी जनित रोगों, कीटों की सुसुप्त अवस्थायें एवं सूत्रकृमियों आदि का नियंत्रण हो जाएगा ।
iv. बीजों को बोने से पूर्व जीवाणु खाद (पी०एस०वी० या एजीटीबैक्टर (2 कि०ग्रा०/हे०) द्वारा भूमि को उपचारित कर लेना चाहिए जिससे फसलों की पैदावार में वृद्धि होती है तथा भूमि में विद्यमान हानिकारक फफूँद आदि की नष्ट करने में सहायता मिलती हैं ।
v. समय पर बुआई, उचित दूरी, स्वस्थ बीज, खरपतवार निकालना तथा अन्य सस्य क्रियाओं पर ध्यान देना चाहिए ।
vi. नत्रजन फॉस्फोरस एवं पोटाश की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए ।
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vii. चूहे के बिलों को नष्ट करें । इसके लिए खेत की भेड़ों पर उग आई घास-पात की सफाई करें ।
viii. बीज उपचार- यदि नये बीज का प्रयोग किया जा रहा हो तो बीज को जिबरैलिक एसिड नामक रसायन सं शोधित करके अंकुरित बीज का प्रयोग करना चाहिए ।
ix. बीज कन्द मिट्टी से बाहर न रहे । इसके लिए मेंड़े ऊँची-ऊँची बनायें ताकि बीज कन्द मिट्टी से पूरी तरह ढक जाय ।
x. प्रत्येक वर्ष के बाद यह ध्यान देना चाहिए कि खुले हुए आलू कन्दीं को मिट्टी से ढक दिए जाए। यदि आकाश में बादल दिखाई दें, तो सिंचाई नहीं करना चाहिए ।
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xi. खेत में अनावश्यक पानी निकालने की सुविधा होनी चाहिए ।
xii. प्रकाश प्रपंच लगाकर माहू एवं जैसिड के वयस्क कीटों की नष्ट कर देना चाहिए जिससे वे पत्तियों में अण्डा न दे पाये ।
xiii. विभिन्न रोगों की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करना चाहिए ।
जो इस प्रकार है:
a. पिछेती झूलसा प्रतिरोधी किस्में:
कुफरी बादशाह, कुफरी ज्योति, कुफरी सतलज, कुफरी आनन्द, कुफरी गिरिराज, कुफरी मेघा, कुफरी कंचन, कुफरी थनामलाई ।
b. सूत्रकृमि प्रतिरोध किस्में:
कुफरी स्वर्ण एवं कुफरी थनामलाई ।
c. मस्सा रोग प्रतिरोधक किस्में:
कुफरी ज्योति और कुफरी कंचन:
(a) आलू की बुआई व खुदाई के समय को इस तरह समायोजित करें ताकि कीटों और रोंगों का प्रभाव कम पड़े । तना विगलन, फ्यूजोरियम विल्ट, माहु, जैसिड तथा कटवर्म जैसे रोगों व कीटों से बचाव हेतु जल्दी खुदाई करें ।
(b) मिट्टी एवं कन्द जनित रोगों पर नियंत्रण पाने के लिए नॉन सोलेनेसियस फसलें (बिना आलू परिवार) उगाकर फसल-चक्र अपनाएं ।
(c) आलू के कन्द को मिट्टी से बाहर निकालने के एक सप्ताह पहले सिंचाई बन्द कर देना चाहिए । जिससे मिट्टी शुष्क हो जाय ।
(d) तना काटने के 10 – 15 दिन के उपरान्त फसल की खुदाई करना चाहिए ।
(e) खुदाई के समय रोगग्रस्त कन्दों को छांटकर उन्हें गढ्ढे में दबा देना चाहिए ।
(f) रोग मुक्त बीजों को भण्डारण से पूर्व वोरिक ऐसिड (3 प्रतिशत) से उपचारित कर भण्डारण करना चाहिए ।
(g) रोग तथा कीट रहित आलू कन्दों को गृह भण्डार में रखने से पूर्व सूखी नीम की पत्तियों के पाउडर या पत्तियों को भण्डार के तहों में नीचे-उपर से बिछाकर आलू का भण्डारण करना चाहिए ।
(h) सेक्सफेरोमोन्स तथा चिपकने वाले ट्रैप लगाकर कीटों के नर पतंगों को एकत्रित करके नष्ट कर देना चाहिए ।
2. यांत्रिक क्रियायें:
(अ) सफेद गिडार एवं कटुआ कीट के पिल्लूओं को एकत्रित करके नष्ट कर दें ।
(आ) भण्डारगृह में रखे बीज कन्द से आगामी फसल को क्षति न हो इसके लिए पिछेती झुलसा से ग्रसित कन्दों तथा सफेद गिडार व कटवर्म के पिल्लूओं से बचाव करें । समय-समय पर रोग ग्रसित कन्दों की छंटाई करते रहें ।
3. जैविक नियंत्रण क्रियायें:
हानिकारक कीटों के प्राकृतिक शत्रु कीटों का संरक्षण करके इनका प्रयोग करना चाहिए जैसे भृगों, ततैया, क्राइसोपाइडस, मकडे इत्यादि परभक्षियों तथा एपैन्टेलेस ब्रकोन आदि परजीवियाँ ।
4. रासायनिक नियंत्रण क्रियायें:
कीट नियंत्रण के उपाय:
(अ) बुआई के समय सफैद गिडार, कटवर्म व अन्य भूमिगत कीटों तथा लाही के नियंत्रण के लिए फोरेट (10 गाजी) या डर्सवान (10 जी) या केलडान (4 जी) की 10 किलोग्राम या कार्बोफ्यूरान (3 जी) की 25 कि॰ ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर की दर से मेड़ बनाते समय मिट्टी में अच्छी तरह मीला दें ।
(आ) फसल वृद्धि/बढ़वार के समय पाद फूदका (लाही जैसिड) एवं ऐपीलकना वीट्ल के नियंत्रण के लिए फेनीट्रोथियान (50 ई० सी०) 1.5 मि०ली०/लीटर पानी की दर से मेंड़ों पर छिड़काव करें ।
(इ) फसल वृद्धि/वढवार के समय कटवर्म एवं सफेद गिडार के नियंत्रण हेतु क्लोरपायरीफोस (20 ई०सी०) 2 मि०ली०/लीटर पानी की दर से घोल बनाकर भेड़ों पर छिड़काव करें ।
(ई) कन्द बनने की प्रारम्भिक अवस्था में सफेद गिडार व सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु 10 कि०ग्रा० फोरेट (10 जी०) या 25 कि०ग्रा० कार्बोफ्यूरान (3जी) का प्रयोग मेंड़ों की मिट्टी में करें ।
रोग नियंत्रण के उपाय:
(i) अगेती झुलसा का नियंत्रण हेतु मेंकोंजेब (75 डब्लू० पी०) या डायथन जेड- 78 की 25 ग्राम/लीटर पानी की मात्रा जबकि (लीफ स्पॉट) पत्ती पर काले धब्बे पड़ने वाले रोग का नियंत्रण पाने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लाराइड (50 डब्लू० पी०) की 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की मात्रा या क्लासेथैलानिल (50 डब्लू० पी०) की 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की मात्रा का प्रयोग कर ।
(ii) पिछेती झूलसा रोग आगमन से पूर्व संरक्षी प्रोटेक्टेन फफूँदनाशक जैसे कॉपर ऑक्सीक्लीराइड मेंकीजेब क्लोरोथेलोनिल प्रोपीनेव आदि का छिड़काव प्रभावी है ।
(iii) पिछेती झुलसा रोग ही जाने या मौसम, पिछेती झुलसा रोग फैलने के अनुकूल अर्थात् आकाश बादलों से घिरा ही तथा रूक-रूक कर वर्षा ही रही हो तो मैटालैक्सिल 8 प्रतिशत + मेंकौंजब 64 प्रतिशत की 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों पर छिड़काव करना चाहिए । यदि मौसम अनुकूल हो तो प्रत्येक 7 – 10 दिनों के अन्तराल पर मेंकोजब या प्रोपीनेव (2.5 ग्रा०/लीटर पानी) का छिडकाव कर ।
(iv) मुरझान (काला गलन) का प्रति वर्ष प्रकोप होने पर इनके नियंत्रण हेतु प्रति हेक्टेयर 12 किलोग्राम की दर से ब्लीचिंग पाउडर आलू की बुआई के समय प्रयोग करना चाहिए ।
चूहा नियंत्रण के उपाय:
खेत में या खेत के मेढ़ी में चूहे का बिल या सुरंग दिखाई दे तो प्रत्येक बिल में सेलफास की गोली डाल कर बिल का अच्छी तरह से बंद कर दें अथवा जिंक फास्फाइड को गेहूँ के आटा या सत्तू में मिलाकर ( 1 : 10) बिल में प्रयोग करें ।
इस प्रकार आलू उत्पादक समय रहते उपयुक्त पौध संरक्षण प्रणाली अपनाएं तो आलू की फसल की बर्वाद होने से बचा सकते हैं । शोधपरक सफलता बताती है कि आलू की फसल को समेकित कीट एवं रोग प्रबंधन प्रणाली अपनाकर बचाया जा सकता है तथा गुणवत्तायुक्त अधिक फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है ।