भारत में बैंकों का संगठनात्मक ढांचा | Organizational Structure of Banks in India.
भारत में बैंकिंग उद्योग, जो एक सेवा-उद्योग है, के संचालन हेतु कम्पनी संगठन अपनाया गया है । अधिकांश बैंकों की स्थापना भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत एक कम्पनी (Joint Stock Company) के रूप में की गई है । कुछ बैंक विशिष्ट अधिनियमों के अन्तर्गत भी स्थापित किए गए हैं ।
उदाहरण के लिए स्टेट बैंक की स्थापना ‘स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया अधिनियम’ स्टेट बैंक के सहायक बैंच्चें की स्थापना, ‘स्टेट बैंक (सहायक बैंक) अधिनियम’ तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना ‘क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अधिनियम’ के अन्तर्गत हुई है ये बैंक भी कम्पनियों के रूप में कार्य करते हैं ।
इन सभी व्यापारिक बैंकों पर भारतीय कम्पनी अधिनियम, बैंकिंग नियमन अधिनियम तथा कुछ मामलों में ‘रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया अधिनियम’ के प्रावधान लागू होते हैं ।
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प्रबन्ध:
शाखा प्रणाली के अन्तर्गत बैंकों के प्रबन्ध एवं संगठन के लिए ‘लाइन एवं स्टॉफ’ (Line and Staff Organization) संगठन प्रणाली प्रयोग में लाई जाती है जिसके अन्तर्गत अधिकों का प्रत्यायोजन (Delegation) ऊपर से नीचे की ओर विभिन्न प्रबन्ध स्तरों पर होता है । विभिन्न बैंकों का प्रबन्ध-संगठन एवं उनकी कार्यप्रणाली अलग-अलग है, उसमें एकरूपता नहीं पाई जाती ।
प्रायः अधिकांश बैंकों में संगठन की त्रि-स्तरीय (Three-Tier) प्रणाली है जिसके अन्तर्गत प्रथम स्तर पर संचालक मण्डल, उसके अधीन महाप्रबन्धक, उप-महाप्रबन्धक एवं प्रबन्धक हैं । द्वितीय स्तर पर क्षेत्रीय प्रबन्धक तथा तीसरे एवं अन्तिम स्तर पर शाखा-प्रबन्धक कार्यरत हैं ।
कुछ बैंकों में पाँच-स्तरीय व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत डिवीजनल तथा एरिया प्रबन्धक के दो स्तर और है । प्रधान कार्यालय के स्तर पर महाप्रबन्धक की सहायता के लिए कुछ समितियाँ भी गठित कर दी जाती है । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अपने प्रधान कार्यालय से सीधे सम्बद्ध हैं । उनके यहाँ द्वि-स्तरीय संगठन पाया जाता है ।
प्रधान कार्यालय की संगठन व्यवस्था (Organization Set-Up of Head Office):
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प्रायः अधिकांश बैंकों के प्रधान कार्यालयों में दो शाखाएँ होती हैं:
(1) परिचालन या संचालन शाखा (Operational Wing) तथा विकास-शाखा (Development Wing) । इनके अन्तर्गत अनेक विभाग होते हैं जिनमें से प्रत्येक विभाग एक अलग प्रबन्धक के अधीन कार्य करता है ।
प्रमुख विभाग निम्नानुसार हैं:
(a) परिचलान या संचालन शाखा (Operational Wing):
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1. ऋण एवं अग्रिम विभाग ।
2. लेखा विभाग ।
3. निरीक्षण विभाग ।
4. विधि विभाग ।
5. जनसम्पर्क विभाग ।
6. कृषि वित्त विभाग ।
7. लघु उद्योग विभाग ।
8. औद्योगिक वित्त विभाग ।
9. विदेशी विनिमय विभाग ।
10. भवन एवं निर्माण विभाग ।
11. सेविवर्गीय विभाग ।
12. सेविवर्गीय प्रशिक्षण विभाग ।
13. शोध एवं सांख्यिकीय विभाग ।
14. स्टेशनरी एवं फर्श विभाग ।
(B) विकास शाखा (Development Wing):
1. अन्तर्राष्ट्रीय बैंकिंग विभाग ।
2. ग्राहक-सेवा विभाग ।
3. परामर्श सेवा (Consultancy) विभाग ।
4. अग्रणी बैंक (Lead Bank) विभाग ।
5. प्रबन्ध विज्ञान विभाग ।
6. प्रबन्ध-सूचना प्रणाली विभाग ।
7. निष्पादन बजटन (Performance Budgeting) विभाग ।
8. मर्चेण्ट बैंकिंग विभाग ।
9. नवोन्मेषमुखी बैंकिंग (Innovative Banking) विभाग ।
10. ग्रामीण बैंकिंग (Rural Banking) विभाग ।
11. विकास बैंकिंग (Development Banking) विभाग ।
बैंकों का प्रबन्ध (Management of Banks):
व्यावसायिक प्रबन्ध (Professional Management):
स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना से पूर्व बैंकों में व्यावसायिक प्रबन्ध (Professional Management) का सर्वथा अभाव था । स्टेट बैंक अधिनियम में संचालक मण्डल के गठन में व्यावसायिक-प्रबन्ध को महत्व दिया गया । अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि बैंक का एक पूर्णकालिक अध्यक्ष (Full Time Chairman) होगा ।
केन्द्रीय सरकार द्वारा रिजर्व बैंक के परामर्श से जो संचालक नियुक्त किए जाएंगे उनमें से कम-से-कम दो संचालक ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सहकारिता, वाणिज्य, उद्योग, बैंकिंग एवं वित्त विषयों के विशेषज्ञ होंगे ।
1968 में बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण (Social Control) की व्यवस्था लागू करते समय इस पक्ष पर विशेष ध्यान दिया गया तथा बैंकिंग अधिनियम में संशोधन करके यह व्यवस्था कर दी गई कि प्रत्येक बैंक का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (संचालक मण्डल का अध्यक्ष) एक पूर्णकलिक व्यक्ति होगा जिसकी नियुक्ति रिजर्व बैंक की पूर्व-सहमति द्वारा की जायेगी तथा ऐसे व्यक्ति के पास बैंकिंग, अर्थशास्त्र, वित्त या व्यवसाय प्रशासन का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान होना आवश्यक होगा ।
इसी प्रकार बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन करके धारा 10-A के अन्तर्गत यह प्रावधान कर दिया गया है कि प्रत्येक बैंक को संचालकों में से कम-से-कम 51 प्रतिशत संचालक ऐसे व्यक्ति रखने होंगे जो लेखांकन, ग्रामीण-वित्त, सहकारिता, अर्थशास्त्र, विधि, लघु उद्योगों, बैंकिंग आदि के विशेषज्ञ हों । संक्षेप में, कहा जा सकता है कि अब बैंकों के प्रबन्ध में व्यावसायिक प्रबन्ध को उच्च महत्व दिया जाने लगा है ।
संचालक मण्डल (Board of Directors):
स्टेट बैंक, स्टेट बैंक के सहायक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के संचालक मण्डलों का गठन सम्बन्धित अधिनियमों के अन्तर्गत किया जाता है । स्टेट बैंक के केन्द्रीय संचालक मण्डल में 20 सदस्य तथा स्थानीय मण्डल में 11 सदस्य होते है । इसके अतिरिक्त केन्द्रीय संचालक मण्डल की सहायता के लिए केन्द्रीय समितियाँ भी होती हैं ।
केन्द्रीय संचालक मण्डल, स्थानीय मण्डल तथा केन्द्रीय समितियाँ- इन सबका अध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है जिसकी नियुक्ति 5 वर्ष तक की अवधि के लिए की जा सकती है । स्टेट बैंक के सहायक बैंकों के संचालक मण्डल में 10 सदस्य होते हैं ।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के संचालक मण्डल में 9 सदस्य होते हैं जिनमें से 4 केन्द्रीय सरकार द्वार 2 राज्य सरकार द्वारा तथा 3 प्रायोजक बैंक (Sponsor) द्वारा नियुक्त किए जाते हैं । सदस्यों की संख्या 15 तक बढाई जा सकती है । अध्यक्ष 5 वर्षों के लिए नियुक्त किया जाता है, किन्तु कार्यकाल समाप्त होने पर उसे पुनर्नियुक्त किया जा सकता है ।
अ-राष्ट्रीयकृत बैंक, जो एक कम्पनी के रूप में कार्य करते है, अपने संचालक मण्डल का गठन भारतीय कम्पनी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार करते हैं जिसके अनुसार कम-से-कम 3 संचालक होने चाहिए किन्तु सामान्यतः इनके संचालक मण्डल में 5 से 11 सदस्य तक रहते हैं ।
राष्ट्रीयकृत बैंकों का संचालक मण्डल (Board of Nationalized Banks):
स्वामित्व की दृष्टि से राष्ट्रीयकृत बैंकों का ढाँचा अन्य निजी बैंकों तथा स्टेट बैंक एवं उसकी सहायक बैंकों से भिन्न है । निजी बैंकों की पूँजी अंशधारियों के पास होती है जबकि स्टेट बैंक की पूँजी का बहुत बडा भाग रिजर्व बैंक के पास है । राष्ट्रीयकृत बैंकों की समस्त पूंजी भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई है ।
इन बैंकों में सामान्य अंशधारी (General Body of Shareholders) न होने के कारण तथा इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि इन बैंकों को जन-हित का पोषण करना है, यह अनुभव किया गया कि इन राष्ट्रीयकृत बैंकों के संचालक मण्डल में केन्द्रीय सरकार द्वारा रिजर्व बैंक के परामर्श से नामांकित व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाए ।
बैंकिंग कम्पनीज (संस्थानों के अधिग्रहण एवं हस्तान्तरण) अधिनियम, 1970 में यह प्रावधान है कि राष्ट्रीयकृत बैंक का सामान्य पर्यवेक्षण तथा उसके मामलों का निर्देशन एवं प्रबन्ध संचालक मण्डल में निहित होगा जो ऐसे समस्त अधिकारों का प्रयोग करने तथा ऐसे समस्त कार्यों को करने के लिए अधिकृत होगा जिन्हें प्रयोग में लाने एवं करने के लिए बैंक अधिकृत है ।
यह भी प्रावधान किया गया कि प्रत्येक राष्ट्रीयकृत बैंक के संचालक मण्डल में निम्नलिखित सम्मिलित किए जाएंगे:
(a) (i) श्रमिकों,
(ii) सम्बन्धित बैंक के जमाकर्त्ता के प्रतिनिधि तथा
(b) ऐसे अन्य व्यक्ति जो कृषकों, श्रमिकों एवं कारीगरों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हों ।
उपर्युक्त प्रावधानों को कार्यान्वित करने हेतु भारत सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के परामर्श से राष्ट्रीयकृत बैंक (प्रबन्ध एवं विविध प्रावधान) योजना 1970 तैयार की जिसके अन्तर्गत यह प्रावधान है कि भारत सरकार राष्ट्रीयकृत बैंक के संचालक मण्डल का गठन करेगी जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित होंगे:
(a) पूर्णकालिक संचालक दो से अधिक नहीं जिनमें से एक प्रबन्ध संचालक होगा ।
(b) सम्बन्धित बैंक के श्रमिकों में से एक संचालक ।
(c) बैंक के ऐसे कर्मचारियों में से जो श्रमिक नहीं है, एक संचालक ।
(d) एक संचालक जो जमाकर्ताओं के हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु सक्षम है ।
(e) तीन संचालक जो केन्द्रीय सरकार के मतानुसार कृषकों, श्रमिकों तथा कारीगरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु सक्षम है ।
(f) पाँच से अधिक नहीं ऐसे संचालक जिनकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से की जाएगी जो बैंक के क्रियाकलापों के लिए उपयोगी एक या अधिक मामलों का विशिष्ट ज्ञान एवं व्यावहारिक अनुभव रखते हों ।
(g) एक संचालक जो रिजर्व बैंक का अधिकारी हो ।
(h) एक संचालक जो केन्द्रीय सरकार का अधिकारी हो ।
प्रबन्ध संचालक (Managing Director):
प्रबन्ध संचालक बैंक का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officers) होता है तथा एक ही व्यक्ति को अध्यक्ष एवं प्रबन्ध संचालक (Chairman and Managing Director) दोनों पदों पर एक साथ नियुक्त किया जा सकता है ।
अध्यक्ष एवं प्रबन्ध संचालक के दो प्रकार के कार्य होते हैं- एक ओर वह संचालक मण्डल के अन्य सदस्यों के साथ नीतियां बनाता है, दूसरी ओर वह उन नीतियों के कार्यान्वयन के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होता है । उसे संचालक मण्डल के मार्गदर्शन में कार्य करना होता है तथापि उसे पर्याप्त अधिकार प्राप्त होते है ।
वह बैंक के कुशल संचालन के लिए इन अधिकारों का प्रयोग कर सकता है किन्तु उसे समस्त महत्वपूर्ण मामलों का विवरण संचालक मण्डल की स्वीकृति के लिए समय-समय पर प्रस्तुत करना पड़ता है । राष्ट्रीयकृत बैंक का प्रबन्ध संचालक बैंक का पूर्णकालिक कर्मचारी होता है तथा एक समय में उसका कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक का नहीं होगा ।
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया तथा भारत सरकार द्वारा नामांकित संचालकों के अलावा अन्य संचालक जो विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते है, 3 वर्ष तक अपने पद पर कार्य करेंगे तथा पुनर्नियुक्ति के भी पात्र होंगे ।
संचालकों का अधिकार (Director’s Powers):
बैंकों की प्रबन्ध व्यवस्था में संचालक मण्डल शीर्ष स्थान पर होता है जिसे बैंक के प्रबन्ध सम्बन्धी समस्त अधिकार प्राप्त होते हैं । संचालक मण्डल भारत सरकार की बैंकिंग नीति तथा समय-समय पर रिजर्व बैंक द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों के अनुसार बैंक की नीतियाँ निर्धारित करते हैं तथा उनके कार्यान्वयन की व्यवस्था करते हैं ।
समितियाँ (Committees):
राष्ट्रीयकृत बैंक (प्रबन्ध एवं विविध प्रावधान) योजना, 1970 के अनुसार राष्ट्रीयकृत बैंक के लिए निम्नलिखित समितियों का गठन किया जाता है:
(a) प्रबन्ध समिति (Management Committee) में निम्नलिखित होंगे:
(i) अध्यक्ष एवं प्रबन्ध संचालक ।
(ii) रिजर्व बैंक तथा भारत सरकार द्वारा नियुक्त संचालक ।
(iii) भारत सरकार द्वारा नियुक्त संचालकों में से अधिक से अधिक चार संचालक ।
(b) परामर्शदात्री समिति (Advisory Committee):
इस समिति का गठन संचालक मण्डल द्वारा ऐसे मामलों में परामर्श देने के लिए किया जा सकता है जो उसे (समिति को) संदर्भित किए जाएं ।
(c) क्षेत्रीय सलाहकार समितियाँ (Regional Consultative Committee):
इन समितियों का गठन अपने क्षेत्र में बैंकिंग विकास (Banking Development) की समीक्षा करने तथा भारत सरकार के विचारार्थ आवश्यक अनुशंसाएँ करने हेतु निम्नानुसार किया जाता है:
(i) अधिकतम 3 व्यक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा नामांकित ।
(ii) राज्यों अथवा संघ क्षेत्रों के 2 प्रतिनिधि जिन्हें उस क्षेत्र की राज्य सरकारों या संघ क्षेत्रों (Union Territories) तथा बैंकों के प्रतिनिधियों में से नामांकित किया जाता है ।
मुख्य प्रबन्धक (General Manager):
मुख्य प्रबन्धक संचालकों तथा प्रशासकीय अधिकरियों (Executives) के मध्य प्रत्यक्ष एवं प्रमुख सम्पर्क सूत्र होता है । वह प्रशासन के कुशल संचालन तथा ऋण एवं अग्रिम सहित सभी बैंकिंग विभागों पर प्रभावी नियन्त्रण रखने के लिए उत्तरदायी होता है ।
बैंक व्यवसाय के सभी पहलुओं के लिए मुख्य प्रबन्ध समग्र रूप से उत्तरदायी होता है । मुख्य प्रबन्धक को बैंक प्रबन्ध का विस्तृत अनुभव तथा आर्थिक मामलों तथा बैंकिंग से सम्बन्धित विषयों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ।
मुख्य प्रबन्धक अपने कार्यों के लिए उप-महाप्रबन्धकों या सहायक-प्रबन्धकों से सहायता ले सकता है तथा अपने अधिकार एवं उतरदायित्व उन्हें सौंप सकता है ।
बैंकों के प्रबन्धकों की नियुक्ति, पदमुक्ति, अयोग्यताओं, अध्यक्ष द्वार त्याग-पत्र आदि के सम्बन्ध में बैंकिंग नियमन अधिनियम की धारा 10 के प्रावधान लागू होते हैं । इस अधिनियम के अन्तर्गत रिजर्व बैंक को भी व्यापक अधिकार दिए गए हैं जिनके द्वारा रिजर्व बैंक बैंकों की प्रबन्ध व्यवस्था का दिशा-निर्देशन कर सकता है ।
शाखा प्रबन्धक (Branch Manager):
शाखा कार्यालय बैंक संगठन की एक महत्वपूर्ण इकाई है । शाखा के प्रमुख अधिकारी के रूप में शाखा-प्रबन्धक एक महत्वपूर्ण अधिकारी है जो एक ओर मुख्य कार्यालय से तथा दूसरी ओर ग्राहकों से जुड़ा होता है तथा दोनों ही के प्रति उसके अत्यन्त महत्वपूर्ण कर्तव्य होते हैं ।
शाखा-प्रबन्धक प्रधान कार्यालय या क्षेत्रीय कार्यालय के नियंत्रण एवं देख-रेख में कार्य करता है तथा उसे इनसे प्राप्त निर्देशों का पालन करना पड़ता है । प्रधान कार्यालय क्षेत्रीय कार्यालय द्वारा समय-समय पर माँगी गई सूचनाओं एवं निर्धारित विवरणों आदि को समय पर भेजना या शाखा-प्रबन्धक का प्रमुख कर्तव्य होता है ।
दूसरी ओर शाखा-प्रबन्धक अपनी शाखा का मुख्य अधिकारी होता है तथा बैंक के ग्राहकों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आता है । अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यों पर नियंत्रण रखना, बैंक कर्मचारियों एवं ग्राहकों के मध्य सौजन्य स्थापित करना, ग्राहकों को शीघ्र एवं श्रेष्ठ सेवाएं उपलब्ध करना, शाखा के धन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा आदि उसके मुख्य कर्तव्य होते हैं । वास्तव में शाखा-प्रबन्धक की कुशलता पर ही ग्राहकों की सन्तुष्टि एवं बैंकिंग व्यवसाय की सामान्य छवि निर्भर करती है ।