बैंकों द्वारा साख निर्माण (गुण और दोष) | Read this article in Hindi to learn about:- 1.साख का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Credit) 2. बैंक द्वारा साख मुद्रा का निर्माण (Process of Credit Creation by the Bank) 3. क्या बैंक वास्तव में साख का निर्माण करता हैं? (Do Banks Really Create Credit) 4. बैंक साख मुद्रा का निर्माण नहीं करते हैं (Bank do not Really Create Credit) 5. लाभ एवं दोष (Merits and Demerits).
हिन्दी भाषा का साख शब्द अंग्रेजी के क्रेडिट (Credit) शब्द एवं लेटिन भाषा के क्रेड़ो (Credo) शब्द से बना है । लेटिन भाषा में क्रेडिट शब्द का अर्थ ”विश्वास” से है । इस शब्द का हिन्दी रूपान्तर ‘साख’ होता है, जिसका प्रयोग उधार देने या लेने के अर्थ में किया जाता है । संस्कृत भाषा में एक शब्द ‘क्रेड’ है जिसका अर्थ है ”मैं विश्वास कर रहा हूँ” होता है । इस प्रकार साख का अर्थ विश्वास होता है ।
आधुनिक बैंकें केवल मुद्रा में ‘लेन-देन’ ही नहीं करतीं, वरन् ”साख निर्माण” का महत्वपूर्ण कार्य भी करती हैं । यही कारण है कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. सेयर्स (Sayers) ने लिखा है कि ”बैंक केवल मुद्रा जुटाने वाली संस्था नहीं हैं, वरन् मुद्रा की निर्माण करने वाली संस्था भी है ।”
साख का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Credit):
विभिन्न विद्वानों ने साख शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है:
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(1) प्रो. केन्ट के अनुसार- ”साख तुरन्त हस्तांतरित वस्तु के बदले भविष्य में या माँग पर भुगतान प्राप्त करने का अधिकार है ।”
(2) प्रो. चीड़ के अनुसार- ”साख एक ऐसा विनिमय कार्य है जो कुछ समय पश्चात भुगतान करने पर पूरा हो जाता है ।”
(3) प्रो. विंगफील्ड स्ट्राट फोर्ड के अनुसार- ”साख का अभिप्राय केवल विश्वास से ही होता है ।”
(4) प्रो. वालरस के अनुसार- ”साख का अर्थ पूँजी उधार देना है ।”
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(5) प्रो. जेक्स के अनुसार- ”साख शब्द का अर्थ भुगतान को स्थगित करना है ।”
इस प्रकार साख एक प्रकार का विनिमय कार्य है जिसमें कोई ऋणदाता किसी ऋणी को वर्तमान समय में कुछ वस्तुएँ या मुद्रा इस विश्वास पर प्रदान करता है कि कुछ समय बाद वह उसे वापस कर देगा । बैंक जिस मुद्रा का निर्माण करती है, उसे बैंक मुद्रा या साख मुद्रा कहा जाता है और इस मुद्रा का संचालन बैंकों द्वारा ही किया जाता है ।
सामान्यतः साख मुद्रा म मुख्य आधार जन-साधारण की वह ‘जमा’ होती है जिसके आधार पर लिखे गए चैकों का प्रयोग मुद्रा के रूप में होता है । व्यापारिक लेन-देन में जिन चैकों का प्रयोग होता है, वे बैंकों में जमा मुद्रा क प्रतिनिधित्व करते हैं । इसीलिए बैंक मुद्रा या साख मुद्रा को ”जमा मुद्रा” (Deposit Money) भी कहा जाता है ।
प्रो. न्यूलन ने साख निर्माण को परिभाषित करते हुए लिखा है – ”साख निर्माण से अभिप्राय व्यापारिक बैंकों की उस शक्ति से है जिसके द्वारा वे ऋण देकर या प्रतिभूतियों में विनियोग करके गौण जमा का विस्तार करते हैं ।” सिंह प्रकार प्रो. हाम (Halm) के अनुसार – ”गौण जमा का निर्माण ही साख निर्माण कहलाता है ।”
बैंक द्वारा साख मुद्रा का निर्माण (Process of Credit Creation by the Bank):
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मुद्रा की पूर्ति की व्याख्या करने पर यह पता चलता है कि मुद्रा की पूर्ति में विधिग्राह्य मुद्रा के अतिरिक्त साख मुद्रा या बैंक मुद्रा को शामिल किया जाता है । विधिग्राह्य मुद्रा का निर्माण तो सरकार द्वारा तथा केन्द्रीय बैंक द्वारा किया जाता है, लेकिन साख मुद्रा का निर्माण बैंकों द्वारा किया जाता है ।
इस सन्दर्भ में मेयर्स का कथन है कि – ”बैंक केवल मुद्रा जुटाने वाली संस्थाएँ नहीं हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण अर्थ में वह मुद्रा की निर्माता भी हैं ।”
साख मुद्रा अथवा बैंक मुद्रा का सम्बन्ध बैंकों के पास जमा की गई उस राशि से होता है जिसे चैक के द्वारा निकाला जा सकता है । चूँकि यह माँग पर देय होती है इसलिये इसे माँग जमा अथवा जमा मुद्रा कहते है । इस प्रकार की बैंक जमा बढ़ने पर ही मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है ।
बैंक जमा दो प्रकार की होती है- ‘प्रारम्भिक जमा’ तथा ‘व्युत्पन्न जमा’ ।
प्रारम्भिक जमा से आशय उन जमा राशियों से है जो नगदी अथवा वास्तविक मुद्रा के रूप में जमाकर्ताओं द्वारा बैंक में जमा की जाती है । इस तरह की नकद जमा का निर्माण बैंक नहीं करती । अतः इसे निष्क्रिय जमा या प्रत्यक्ष जमा कहते हैं ।
इसके विपरीत, जब कोई बैंक किसी से ऋण अथवा अग्रिम देता है या प्रतिभूतियों को खरीद कर अपने धन का विनियोग करता है तो ऋण विनियोग की रकम नकद साख खाते में लिख दी जाती है जिसे चैक द्वार निकाला जा सकता है । इस प्रकार उत्पन्न होने वाली जमा राशियाँ व्यूत्पन्न जमा या साख कहलाती हैं ।
नकद जमा की वह आधार है, जिसके द्वारा साख जमा का आकार निर्धारित होता है । बैंकों द्वारा जमा अथवा व्यूत्पन्न जमा का निर्माण करने से माँग जमा का आकार बढ़ जाता है और अर्थव्यवस्था में साख मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है । इस तरह व्यूत्पन्न जमा का निर्माण ही साख मुद्रा का निर्माण है ।
यद्यपि कोई एक बैंक व्यक्तिगत रूप से अपनी कुल प्रारम्भिक जमा का केवल कुछ ही प्रतिशत भाग ऋणों एवं विनियोगों में लगा सकता है, लेकिन अर्थव्यवस्था में सम्पूर्ण बैंकिंग प्रणाली कुल प्रारम्भिक जमाओं की राशि से ऋणों तथा विनियोगों के आकार में कई गुना अधिक हो सकता है । यह आधिक्य ही साख निर्माण कहलाता है ।
क्या बैंक वास्तव में साख का निर्माण करता हैं? (Do Banks Really Create Credit):
बैंक साख मुद्रा का निर्माण करता हैं या नहीं इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद है । प्रो. हार्टले विदर्स, प्रो. क्राउथर और प्रो. सेयर्स का मत है कि बैंक साख मुद्रा का निर्माण करते हैं । जबकि प्रो. केलन और प्रो. वाल्टरलिफ यह मानते है कि बैंक साख का निर्माण नहीं करते हैं ।
इनके विचार का विस्तृत अध्ययन निम्न प्रकार है:
प्रो. हार्टले विदर्स, प्रो. क्राउथर और प्रो. सेयर्स आदि का मत है कि साख मुद्रा का निर्माण अपने आप नहीं होता बल्कि बैंक की जमायें साख के निर्माण में योगदान देती है ।
बैंक की जमायें साख निर्माण में निम्न प्रकार से सहायक होती हैं:
(a) जमाकर्ता बैंक पर विश्वास करते हैं ।
(b) जमाकर्ता अपनी रकम बैंक में जमा कराते हैं और उसके प्रयोग के लिए चैक का उपयोग करते हैं ।
(c) जनता अथवा जमाकर्ता विनियोग के लिए ऋण लेते हैं ।
इस प्रकार बैंक जमायें साख का निर्माण करती हैं ।
प्रो. हर्टले विदर्स के अनुसार- ”ऋण जमा को जन्म देते है और उनकी उत्पत्ति का श्रेय बैंक में ही है ।”
प्रो. क्राउथर के अनुसार- ”बैंक साख का निर्माण करते हैं ।”
प्रो. क्राउथर के विचारे का समर्थन करते हुए प्रो. सेलिगमन का कथन है कि – ”पहले बैंक नकद जमाओं का व्यवसाय करते थे । वर्तमान समय में बैंक मुख्य रूप से साख जमाओं का व्यवसाय करते हैं ।”
प्रो. सेयर्स का मत है कि – ”बैंक केवल मुद्रा जुटाने वाली संस्था ही नहीं वरन् एक महत्वपूर्ण मुद्रा का निर्माता भी है ।”
बैंक साख मुद्रा का निर्माण नहीं करते हैं (Bank do not Really Create Credit):
डॉ. वाल्टरलिफ एवं प्रो. केनन आदि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि – ”बैंक साख मुद्रा का निर्माण नहीं करते हैं ।”
डॉ. वाल्टरलिफ के शब्दों में- ”यह कहना गलत है कि बैंक जमा राशियों को जन्म देते हैं ।”
डॉ. लिफ ने अपने मत के समर्थन में इंग्लैण्ड के 5 बड़े बैंकों का उदाहरण देते हुये बताया कि 1926 के स्थिति विवरणों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि इन बैंकों के ऋणों में वृद्धि तो हुई परन्तु जमा राशियाँ कम हो गयीं ।
प्रो. केनन ने बैंकिंग प्रणाली की तुलना एक अमानती समान ग्राहक से की है । वे उदाहरण देते हुए कहते है कि यदि किसी रात्रि क्लब के 100 सदस्य अपना-अपना छाता अमानत-गृह में जमा कस देते है । उसका प्रबन्धक यह जानता है कि एक घन्टे में 10 से ज्यादा छाता जमाकर्ताओं के द्वारा नहीं माँगे जायेंगे ।
ऐसी दशा में यदि वह 10 छाते एक रात्रि के लिए किराये पर देता है और कुछ कमा लेता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रबन्धक ने 10 छातों का निर्माण किया है । यही स्थिति बैंक की होती है । बैंक जमाकर्ताओं के द्वारा जमा किये गये धन को ही ऋण के रूप में ऋणी के देते हैं । इससे वे किसी भी प्रकार की मुद्रा का निर्माण नहीं करते ।
यद्यपि सैद्धांतिक दृष्टि से प्रो. लीफ और प्रो. केनन के विचार सही है कि बैंक साख का निर्माण नहीं करते । फिर भी जमाकर्ता यह मानते हैं कि वे जब चाहेंगे तब बैंक से सम्पूर्ण या आशिक मात्रा में रुपया निकल सकते है इसलिये लोग बैंक में अपनी मुद्रा जमा करते हैं और इस दृष्टिकोण से वास्तव में बैंक साख मुद्रा का निर्माण करते हैं ।
साख निर्माण के लाभ एवं दोष (Merits and Demerits of Credit Creation):
साख के लाभ अथवा गुण (Merits of Credit Creation):
साख निर्माण के लाभ और गुण निम्न प्रकार से हैं:
(i) साख विनिमय के लिए मुद्रा के पूरक के रूप में काम करती हैं ।
(ii) इससे पूँजी निर्माण तथा विनियोग का प्रोत्साहन मिलता है ।
(iii) देशवासियों के उपभोग में वृद्धि होती है ।
(iv) आंतरिक भुगतान में सरलता आती है ।
(v) अंतर्राष्ट्रीय भुगतान सरल होता है ।
(vi) मूल्यों में स्थिरता आती है ।
(vii) आर्थिक साधनों का अधिकतम उपयोग होता है ।
(viii) आर्थिक संकटों के समय यह अधिक उपयोगी होती है ।
(ix) साख से पूँजी अधिक गतिशील हो जाती है ।
(x) साख से रोजगार की मात्रा बढ़ती है ।
(xi) साख आर्थिक विकास में सहयोग देती है ।
साख के दोष (Demerits of Credit Creation):
साख निर्माण की मात्रा यदि आवश्यकता से अधिक हो जाती है तो उसका सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ने लगता है ।
संक्षेप में, साख निर्माण के प्रमुख दो निम्न प्रकार हैं:
(i) साख से मुद्रा प्रसार को प्रोत्साहन मिलता है ।
(ii) आर्थिक साधनों पर एकाधिकार को प्रोत्साहन मिलता है ।
(iii) धन एवं आय का असमान वितरण होता है ।
(iv) अकुशल व्यवसाय को प्रोत्साहन मिलता है ।
(v) व्यापार चक्रों की जटिलताएँ उत्पन्न होती है ।
(vi) सट्टे की प्रवृत्ति बढ़ती है ।
(vii) लोगों में अपव्यय की मात्रा बढ़ती है ।
(viii) अति उत्पादन का भय बना रहता है ।