बैंक फंड: स्रोत और प्रबंधन | Read this article in Hindi to learn about:- 1. बैंक कोषों का परिचय (Introduction to Bank Funds) 2. बैंक कोषों का स्रोत (Sources of Bank Funds) 3. प्रबन्ध (Management).

बैंक कोषों का परिचय (Introduction to Bank Funds):

बैंक अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्थाएँ है । वे छोटी-छोटी बचतों में जनता से एकत्रित करके ऐसे क्षेत्रों में वित्तीय संसाधन प्रदान करते हैं जहां उनकी आवश्यकता होती है । इसलिये गिजबर्ट ने बैंकों का पूंजी अथवा मुद्रा का व्यापारी कहा है । किसी भी अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान की भाँति एक बैंकिंग उपक्रम का उद्देश्य भी लाभ कमाना होता है परन्तु बैंकिंग उपक्रम के लाभ कमाना के साथ उसका सामाजिक उत्तरदायित्व जुड़ा होता है ।

किसी बैंक की कार्यक्षमता का मापदण्ड उसकी लाभदायकता ही है, अतः बैंकों द्वारा प्राप्त निधियों ये इस प्रकार नियोजित किया जाना आवश्यक है जिससे वे लाभदायक हो सकें । किसी बैंक की प्राप्त निधियों, उसके दायित्व और निवेश उसकी सम्पत्तियां (Assets) होते हैं ।

बैंकों के कुल कोषों में लगभग 85 प्रतिशत भाग जनता के जमा द्वारा होता है । बैंक, जमा एवं अग्रिमों का प्रबन्धन इसी आधार पर करता है । जमाकर्ताओं की जमा निकलने की माँग में पूरा करने के लिए बैंक अपने साधनों का कुछ भाग नकद रूप में रखते हैं ।

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इस नकद धन को नकद कोष कहते हैं और इस धन का बैंक की समस्त जमा से जो अनुपात होता है उसे नकद कोष अनुपात कहते हैं । कभी-कभी कोष का कुछ भाग केन्द्रीय बैंक के पास रख दिया जाता है जो आवश्यकता पड़ने पर वापस लिया जा सकता है । बैंक नकद कोष के बारे में निर्णय स्वतंत्र रूप से लिया करते हैं और प्रयत्न करते हैं कि कोष एक निश्चित अनुपात से कम न होने पाए ।

नकद कोष अनुपात निश्चित करते समय बैंक निम्नलिखित बातों पर ध्यान देता है:

(1) वैधानिक आवश्यकता:

नकद कोष का समस्त जमा से क्या अनुपात होना चाहिए इस संबंध में कुछ वैधानिक नियम बनाए जा सकते हैं जिनके अनुसार प्रत्येक बैंक के लिए समस्त जमा का एक निश्चित प्रतिशत न्यूनतम नकद कोष के रूप में रखना आवश्यक होता है । इस न्यूनतम कोष अनुपात में समय-समय पर संशोधन भी किया जा सकता है । यह संशोधन केन्द्रीय बैंक साख नियंत्रण की दृष्टि से किया करता है ।

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(2) जनता में बैंकिंग का प्रचलन:

यदि जनता बैंकिंग सुविधाओं का प्रयोग करने की आदी है तो बैंक को नकद धन रखने की आवश्यकता कम होती है । जमाकर्ता जो भी धनादेश (चैक) किसी व्यक्ति को देते हैं वह बैंक के पास नकद भुगतान के लिए जल्दी उपस्थित नहीं किया जाता बल्कि वह एक पक्ष से दूसरे पक्ष को हस्तांतरित होता रहता है । पर यदि समाज में नकद लेन-देन ही अधिक होते हैं तो बैंक के पास से जमा धन जल्दी-जल्दी निकाला जाता है और बैंक को नकद कोष अधिक रखना पड़ता है ।

(3) जमा की प्रकृति:

नकद कोष की आवश्यकता ऐसी जमा के संबंध में अधिक होती है जो जल्दी- जल्दी निकली जा सकती है । पर ऐसी जमा के लिए, जो एक निश्चित अवधि तक नहीं निकली जा सकती, नकद कोष की आवश्यकता कम होती है । दूसरे शब्दों में, यदि बैंक की समस्त जमा में सावधिक जमा का अनुपात अधिक है और माँग जमा का अनुपात कम है तो कोष का अनुपात कम होगा पर यदि इसके विपरीत मांग जमा का अनुपात अधिक है और सावधिक जमा का कम तो नकद कोष अधिक रखना होगा ।

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(4) जमा या निक्षेपों का आकार:

यदि बैंक के अधिकतर ग्राहक ऐसे हैं जिन्होंने छोटे-छोटे खाते खोल रखे है तो बैंक को अधिक नकद कोष रखना होता है । इसके विपरीत, यदि बैंक के अधिकांश ग्राहक ऐसे हैं जो बड़े-बड़े खाते रखते है तो बैंक के लिए अधिक नकद कोष रखने की आवश्यकता नहीं होती ।

(5) निकासी गृहों का होना:

एक बैंक के ग्राहक बहुत-सी ऐसी चैकें जमा किया करते हैं जिनका भुगतान दूसरे बैंकों से मिलना होता है । इसी प्रकार एक बैंक के ग्राहक भुगतान में जो चैक देते है वे चैक पाने वाले अपने खातों में जमा कर देते है । इन व्यवहार, के फलस्वरूप एक बैंक को बहुत-सी चैकों का भुगतान दूसरे बैंकों को करना होता है और साथ ही दूसरी चैकों का भुगतान वसूल भी करना पड़ता है ।

निकासी गृह में यह व्यवहार बैंक आसानी से निपटा देते है और भुगतान की कुल चैकों और कुल प्राप्य चैकों का अंतर ही बैंकों के बीच लिया-दिया जाता है । निकासी या समाशोधन गृहों के न होने पर एक बैंक को दूसरे बैंकों द्वारा अपने ऊपर उपस्थित की गई सभी चैकों का भुगतान करना पड़ेगा और इसलिए उसे अपने पास नकद कोष अधिक रखना पड़ेगा ।

(6) जमाकर्त्ताओं के व्यवसाय की प्रकृति:

जमाकर्त्ताओं की जमा निकालने की आवश्यकता का संबंध उनके व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर करता है । अतः बैंक की नकद कोष की आवश्यकता का संबंध भी जमाकर्त्ताओं के व्यवसाय की प्रकृति से है ।

(7) बैंक के निवेशों और ऋणों की प्रकृति:

कुल जमा का उपयोग बैंक किस प्रकार के अग्रिमों, ऋणों और निवेशों के लिए करता है यह भी नकद कोष अनुपात के निर्धारण में महत्वपूर्ण विचार होता है । यदि बैंक के समस्त निवेशों और ऋणों में काफी भाग अंतराल निवेशों और ऋणों का है तो बैंक को अपने पास नकद कोष अधिक रखना पड़ता है पर यदि निवेश और ऋण काफी तरल है तो नकद कोष की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती है ।

(8) अन्य बैंकों की नकद-कोष-नीति:

किसी भी बैंक के लिए उस क्षेत्र के अन्य बैंकों की नकद कोष की नीति एक निर्देश का काम करती है । अनुभव के अभाव में नए बैंक खे अपने कोष अनुपात का निर्धारण करने में दूसरे बैंकों का कोष अनुपात बहुत सहायक होता है ।

बैंक कोषों का स्रोत (Sources of Bank Funds):

आधुनिक युग में बैंकों का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है । आज देश का आर्थिक विकास बैंकिंग प्रणाली पर निर्भर करता है । बैंक किसी भी राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक स्तर को ऊपर उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । राष्ट्र द्वारा निर्धारित नीतियों एवं लक्ष्यों को परिपूर्ण करने में बैंकों की भूमिका प्रशंसनीय है ।

बैंक से आशय उस संस्थान से है जो जनता के निक्षेप (Deposits) स्वीकार करने का एवं ऋण (Loans) प्रदान करने का कार्य करते है । बैंकों में कोष प्राप्त करने का मुख्य स्रोत निक्षेप होते हैं । एक अनुमान के अनुसार, बैंकों के कुल कोषों में लगभग 85 प्रतिशत भाग जनता के निक्षेपों द्वारा प्राप्त किया जाता है ।

साधारणतः बैंकों के कोषों के स्रोतों में बैंक कई दत्त पूँजी (Paid Up Capital), जनता के निक्षेप (Deposits) तथा अन्य बैंकिंग संस्थाओं से ऋण (Borrowing from Other Banks), सम्मिलित किये जाते हैं । इन स्रोतों में सर्वाधिक योगदान जनता के निक्षेपों का होता है । समस्त बैंकिंग पद्धति इसी पर आश्रित करती है ।

भारतवर्ष में अनुसूचित बैंक के कुल निक्षेप लगभग 4 लाख करोड़ रुपये के लगभग है । बैंक जनता के निक्षेप विभिन्न प्रकार के खातों (Accounts) में स्वीकार करते हैं, उदाहरणार्थ- बचत खाता (Saving Account), चालू खाता (Current Account), सावधि जमा खाता (Term Deposit Account) आदि ।

इसके अतिरिक्त, बैंक रिजर्व बैंक अथवा राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक अथवा औद्योगिक विकास बैंक से पुनर्वित्त की सुविधायें प्राप्त करके, अन्य बैंकों से ऋण प्राप्त करके, जमा प्रमाण पत्र (Certificate of Deposits) जारी करके, रिजर्व बैंक से ऋण प्राप्त करके, पूजी जारी करके, अर्जित आय रोक कर तथा व्यापारी बिलों को अन्य बैंकों से पुनः भुनाकर आदि विभिन्न साधनों से कोष प्राप्त करने का कार्य करते हैं ।

बैंक कोषों का प्रबन्ध (Management of Bank Funds):

बैंक का मुख्य कार्य जनता से निक्षेप स्वीकार करके ऋण प्रदान करना है । बैंक उन संसाधनों से निक्षेप स्वीकार करते हैं जिनमें धन की तुरन्त आवश्यकता नहीं होती है तथा इस धन का प्रयोग उन संसाधनों में करते है जिसमें धन की आवश्यकता अनुभव की जाती है ।

बैंकों को जमाकर्ताओं द्वारा धन की माँग पर तुरत धन की अदायगी करनी होती है तथा साथ ही साथ बचे धन का लाभकारी क्षेत्रों में विनियोजन करना होता है । इसी का उचित सामंजस्य कुशल कोष प्रबन्ध समझा जाता है ।

बैंक ऋण प्रदान करने का कार्य पूर्ण सावधानी ध्यान में रखते हुये करते है तथा यह कार्य सुनिश्चित सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुये किया जाता है । बैंकों के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि बैंक कोषों का प्रबन्ध निर्धारित नियमों के अधीन करें ।

बैंक कोषों के प्रबन्ध की आवश्यकता निम्न कारणों (Reasons) से अनुभव की जाती है:

(1) बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत जनता को ऋणस्वरूप धन प्रदान करके उस पर ब्याज (Interest) प्राप्त करना होता है । अतः बैंक आय प्राप्त करने के दृष्टिकोण से अपने कोषों का प्रबन्ध करते हैं ।

(2) बैंक जनता के धन के ट्रस्टी (Trustee) समझे जाते हैं । जनता के निक्षेप मांग पर देय होते हैं तथा बैंकों का माँग पर रुपया भुगतान करने का प्रमुख उत्तरदायित्व होता है । इस दृष्टिकोण से बैंकों को कोषों की तरलता एवं सुरक्षा (Liquidity and Safety) के विशेष प्राथमिकता प्रदान करनी पड़ती है ।

इसके लिये आवश्यक है कि बैंकों द्वारा कोषों का उचित प्रबन्ध किया जाये । तरलता के दृष्टिकोण से, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा भी बैंकों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है कि प्रत्येक बैंक का अपनी कुल मांग एवं सावधि देयताओं (Demand and Time Liabilities) न्यूनतम 25 प्रतिशत भाग तरल कोषों में रखना अनिवार्य है ।

(3) बैंकों को कोषों के प्रबन्ध की आवश्यकता कोषों की कमी (Deficit of Funds) के कारण भी अनुभव होती है । बैंकों के पास सीमित मात्रा में कोष उपलब्ध होते हैं तथा कोषों की माँग (Demand) अत्यधिक होती है । अतः बैंकों को माँग की पूर्ति उचित सीमा तक पूरा करने के लिये कोषों के प्रबन्ध की आवश्यकता अनुभव होती है ।

(4) बैंकों का सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibility):

दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा है । बैंकों को अपने कुल ऋण योग्य कोषों का 40 प्रतिशत भाग प्राथमिक क्षेत्र (Priority Sector) में लगाना अनिवार्य होता है । प्राथमिक क्षेत्र में कृषि (Agriculture), लघु स्तरीय उद्योग (Small Scale Industries) आदि सम्मिलित किये जाते है ।

अन्य प्राथमिक क्षेत्र में सेवा क्षेत्र (Service Sector) भी सम्मिलित किये जाते हैं । अतः बैंकों को सामाजिक न्याय प्राप्त करने के दृष्टिकोण से कोषों का प्रबन्ध करना आवश्यक होता है ।

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