भारतीय बैंकिंग उद्योग (समाधान के साथ) से पहले चुनौतियां | Read this article in Hindi to learn about the challenges before Indian banking industry along with its solution.
भारतीय बैंकों की चुनौतियों (Challenges before Indian Banking Industry):
किसी भी देश के आर्थिक विकास में बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । भारत इसका जीता-जागता उदाहरण है । कृषि, उद्योग, ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आर्थिक प्रगति बैंकों के सीधे योगदान के कारण ही सम्भव हो सकी है । सकल घरेलू उत्पाद, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उत्पादन आदि से संबंधित आकड़ों पर नजर डालें तो भारत की विकासशील स्थिति स्वतः ही स्पष्ट होती है ।
देश के विकास के लिये किये जा रहे आर्थिक सुधारों के बीच भारतीय बैंकों ने स्वयं भी प्रगति की है । विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् तो भारतीय बैंकों की प्रगति की मिसाल विश्व में कही भी मिलना मुश्किल है ।
आँकड़ों पर नजर डालें तो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 19 जुलाई 1969 को 8321 थी जो मार्च 2013 के अंत में 109811 हो गई है । इन बैंकों में जमा एवं ऋण की राशि भी 4338.2 करोड़ एवं 3396.3 करोड़ रुपये से बढ़कर मार्च 2013 में क्रमशः 67504.54 बिलियन एवं 52604.59 बिलियन हो गई है ।
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भारतीय बैंकों की उक्त प्रगति, संवृद्धि और विकास, जिसके माध्यम से देश के दूरस्थ कोने तक आम लोगों के लिए बैंकिंग सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं, बिना लागत के नहीं हुआ है । प्रतिस्पर्धा के मापदंड से देखें तो भारतीय बैंक जहाँ एक ओर बढ़ती लागत तथा घटते मार्जिन के कारण कम लाभप्रदता की समस्या से ग्रस्त है, वहीं दूसरी ओर, गैर-निष्पादक अस्तियों की बढ़ती मात्रा भी चिता का विषय बन गई है । अंतराष्ट्रीय मानकों की तुलना में भारतीय बैंकों का पूंजी आधार भी कम है ।
कई बैंक तो अपनी घटती आय के कारण लागत की भरपाई कर पाने तथा ऋण हानि के लिए पर्याप्त प्रावधान कर पाने में भी कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं । उक्त कमियों को दूर करने की दृष्टि से भारतीय बैंकों में सुधार कार्यक्रम वर्ष 1991-92 में प्रारंभ कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप भारत में बैंकों में भी परिवर्तित होना शुरू हो गया है ।
बैंकिंग प्रणाली में अधिकाधिक प्रतिस्पर्धी क्षमता भरने के लिए शुरू किये गए नीतिगत सुधारों के कारण बैंकिंग एक प्रतिस्पर्धी चरण में प्रवेश कर गई है । न केवल बैंकिंग प्रणाली के अंदर से प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुई है अपितु, बैंकों को गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है ।
प्रवेश संबंधी अवरोधों में कमी करने, ब्याज देश के अधिनियमन और ग्राहकों की सेवा संबंधी बढ़ती माँग ने कमोबेश बैंकिंग को आज ग्राहक सेवा में सुधार करने हेतु मजबूर कर दिया है । साथ ही, पूंजी पर्याप्तता एवं अन्य विवेकपूर्ण मानदंडों को प्रारंभ किये जाने, नए क्षेत्रों में प्रवेश करने की स्वतंत्रता और बैंकों तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के बीच के कार्यकलापों के अंतर की कमी ने बैंकों को अपने सीमित दायरे से बाहर निकलने और भावी बैंकिंग पर विचार करने हेतु बाध्य किया है ।
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भारतीय वित्तीय प्रणाली वर्तमान में क्रांतिकारी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है । वित्तीय क्षेत्र के सुधारों का प्रभावशाली ढंग से अनुपालन जारी है तथा नरसिंहम समिति (प्रथम) की सिफारिशों के लागू होने के परिणामस्वरूप वित्तीय क्षेत्र में पारदर्शिता व दक्षता जाहिर हो रही है । नरसिंहम समिति (द्वितीय) की वित्तीय क्षेत्र में सुधार संबंधी सिफारिशों को लागू किया जा रहा है ।
इससे यह प्रक्रिया और तेज होगी । एक तरफ बैंकों और विकासोन्मुख वित्तीय संस्थाओं तथा दूसरी ओर बैंकों व निवेशक बैंकों के बीच अतर अस्पष्ट होता जा रहा है । इस सबका परिणाम यह हो रहा है कि बैंकों के समक्ष कई चुनौतियाँ उत्पन्न हो गई हैं ।
इनमें से कुछ चुनौतियों का विवरण नीचे दिया जा रहा है:
(i) बैंकिंग उद्योग में बढ़ रही प्रतिस्पर्धा से निपटने हेतु संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से सेवा प्रदान करने अधिक ग्राहकों तक पहुँच बनाई जा रही है । कई विदेशी बैंक ‘नेट बैंकिग’, ‘पी.सी. बैंकिंग’, ‘कभी भी कही भी बैंकिंग’, ‘निरंतर बैंकिंग’, टेली बैंकिंग’ एवं ए टी एम बैंकिंग’ के माध्यम से बैंकिंग सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे हैं ।
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नई तकनीकी के विकास से ‘ब्रांच बैंकिंग’ का युग शायद समाप्त होने के कगार पर पहुंच रहा है क्योंकि अब विदेशों में ग्राहक के लिए दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर अपने खाते का संचालन करना संभव हो रहा है । इससे भारतीय बैंकों के धनी ग्राहक विदेशी बैंकों की ओर आकर्षित हो रहे हैं ।
(ii) अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न बैंकों के बीच विलयन एवं अधिग्रहण करके वित्तीय सेवा उद्योग का समेकन किया जा रहा है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने हेतु बैंकों का इस प्रकार विकास किया जा रहा है ताकि वे संचार एवं सूचना क्षेत्र की नई प्रौद्योगिकी को अपनाकर अपने व्यापार को बढा सकें ।
इन बैंकों को वित्तीय सुपर बाजार के रूप में उभारा जा रहा है जो एक ही स्थान पर विभिन्न वित्तीय सेवाएं जैसे- बैंकिंग, प्रतिभूति व्यपार, बीमा एवं निवेश बैंकिंग आदि उपलब्ध करा सकें । सही अर्थों में इस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बड़े बैंक ही वैश्विक बैंकों की भूमिका निभा रहे हैं । भारतीय बैंकों ने अभी इस दिशा में कार्य प्रारंभ नहीं किया है ।
(iii) कई विदेशी बैंक नए-नए उत्पादों का विकास करके एवं ग्राहक सेवा स्तर में सुधार करके बड़े ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो रहे हैं । साथ ही, विश्वव्यापीकरण के बाद से ग्राहक की सतुष्टि इन विदेशी बैंकों में मूलमंत्र की तरह उभरी है । प्रौद्योगिकी विकास ने भी विदेशी बैंकों का इस क्षेत्र में काम आसान कर दिया है ।
(iv) कई बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करके बडी-बडी परियोजनाओं हेतु लंबी अवधि के सावधि ऋण प्रदान करने में विशेषज्ञता हासिल कर ली है जिससे सरकारी क्षेत्र के भारतीय बैंकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है ।
(v) अविनियमित परिवेश ने बैंकिंग प्रणाली के समक्ष नये जोखिम उत्पन्न किये है जिनमें से कुछ हैं- ब्याज दर जोखिम, विनिमय दर जोखिम, आस्ति देयता में मेल न होने का जोखिम । ऐसे जोखिमों के पूरे वर्ग की अभिव्यक्ति ‘बाजार जोखिम’ के रूप में की जाती है । बैंकों की समझ में ‘ऋण जोखिम’ की अवधारणा में भी बुनियादी परिवर्तन आ रहा है ।
इस संदर्भ में बैंकों को दो प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है- एक तो सुदृढ़ पूँजी आधार की आवश्यकता और दूसरे वित्तीय जोखिम का प्रबंध करने हेतु उच्च क्षमता के कौशल विकसित करने की आवश्यकता ।
(vi) वित्तीय बाजार के बढ़ते विश्वव्यापीकरण के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में वाणिज्यिक, उपभोक्ता एवं आधारिक संरचना वाले ऋणों का प्रतिभूतिकरण तथा कारोबार प्रारंभ हो गया है । जबकि भारतीय बैंकों को इस प्रकार के व्यवसाय में अनुभव की कमी के कारण विदेशी बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है ।
(vii) वित्तीय बाजार में नई-नई संस्थाओं के पदार्पण के कारण बड़ी-बड़ी कम्पनियों में बाजार से सीधे उधार लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । बडी कंपनियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वित्त बाजार से सीधे ही जीडीआर/एडीआर/ईसीबी आदि नये-नये उत्पादों के माध्यम से विदेशी मुद्रा में ऋण उगाहे जा रहे हैं । इससे बैंकों के ऋण प्रदान करने संबंधी कार्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है ।
(viii) जमाराशि पर बढ़ती ब्याज लागत एवं ऋणों पर घटती ब्याज आय के कारण ब्याज के फैलाव पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है । इससे बैंकों की लाभप्रदता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है और भारतीय बैंकों में लाभप्रदता कम होती जा रही है ।
(ix) आज बैंकों से न केवल जमाराशि प्राप्त करने हेतु बल्कि ऋण प्रदान करने हेतु भी अच्छी कंपनियों के पीछे भागना पड़ रहा है । क्योंकि विदेशी बैंकों एवं निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा नई प्रौद्योगिकी के साथ बैंकिंग सेवाएँ प्रदान कई जा रही है ।
(x) संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति एवं वित्तीय बाजारों के एकीकरण के फलस्वरूप भी विदेशी बैंकों द्वारा ग्राहक सेवा में तीव्र सुधार किया जा रहा है । जबकि भारतीय बैंक अभी इस दिशा में प्रगति की ओर अब अग्रसर हो रहे है । अतः विदेशी बैंकों से प्रतिस्पर्धी होने में भारतीय बैंकों को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है ।
चुनौतियों का सामना करने हेतु उपाय (Suggestions to Deal with the Challenges):
उपर्युक्त विभिन्न चुनौतियों का सामना करने हेतु भारतीय बैंकों को विशेष उपाय करने की आवश्यकता है ।
साथ ही, भारतीय बैंकिंग में निम्नलिखित सामान्य उपाय करने की भी आवश्यकता महसूस की जा रही है:
(i) बैंकों को और अधिक स्वायत्ता प्रदान किया जाना आवश्यक हो गया है । आज बैंकों के कार्य की देखरेख भारतीय रिजर्व बैंक तथा सरकार, वित्त मंत्रालय, बैंकिंग प्रभाग आदि द्वारा की जाती है जबकि यह कार्य किसी एक एजेन्सी को सौंपने से कई संस्थाओं के अंतरभूतिकरण को रोका जा सकता है ।
(ii) बैंकों के प्रबंधन-तंत्र को पेशेवर बनाये जाने की आवश्यकता है । प्रबंधन-तंत्र में सूचना-तंत्र एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ ही निदेशक बोर्ड में अर्थशास्त्रियों, उद्योग एवं कृषि आदि क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाना आवश्यक हो गया है । इससे बैंकों के प्रबंधन को नया स्वरूप प्राप्त होगा ।
(iii) उच्च-मूल्य ग्राहकों के साथ बैंकों का संबंध ‘बैंकिंग व्यवस्था लेन-देन आधारित बैंकिंग’ न होकर ‘सम्बन्ध आधारित बैंकिंग’ में परिवर्तित होना आवश्यक हो गया है । क्योंकि, ग्राहक आधार को विस्तारित करने और इसे बनाये रखने हेतु सम्बन्ध बैंकिंग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है । उच्च-मूल्य ग्राहकों को बैंकिंग सुविधाएँ देने हेतु विशेषीकृत शाखाओं की स्थापना सना भी आवश्यक होता जा रहा है ।
नई बैंकों ने तो विशेषीकृत वैयक्तिक शाखाएँ, विशेषीकृत कारपोरेट शाखाएँ, हाय-टेक कृषि विकास शाखाएँ, लघु उद्योग वित्त शाखाएँ आदि की स्थापना शुरू कर दी है । ये शाखाएँ पूर्णतः कम्प्यूटरीकृत रहती हैं । इनका रखरखाव भी काफी उच्च स्तर का होता है तथा इन शाखाओं में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त स्टाफ को पदस्थ किया जाता है ।
(iv) बैंकों को ग्राहक की माँग के अनुसार नये-नये उत्पादों का विकास करना भी आवश्यक होता जा रहा है । इस संबंध में, कुछ बैंकों ने काफी अच्छी पहल की है । यथा- क्रेडिट कार्ड व्यवसाय की शुरुआत, किसान क्रेडिट कार्ड की शुरुआत, आवास वित्तपोषण, स्वर्ण बैंकिंग आधारित संरचना का वित्तपोषण आदि नवोन्मेष उत्पादों को विकसित किया गया है ।
बैंकिंग उद्योग अब बीमा व्यवसाय में उतरने की तैयारियाँ भी कर रहा है क्योंकि हमारे देश में बीमा व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा का अभाव है तथा ग्रामीण एवं अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में एक बहुत बडा बाजार उपलब्ध है ।
(v) भारतीय बैंकों को विश्व बाजारों सहित पूँजी बाजारों को पूँजी पर्याप्तता संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बार-बार दोहन करना होगा । अतः भारतीय बैंकिंग उद्योग को मुख्य रूप से यू. एस. जी. ए. ए. पी. मानकों के अनुसार अधिक पारदर्शिता दर्शाने वाले मानके में अपनाना होगा इससे भारतीय बैंकिंग प्रणाली के प्रति विश्वव्यापी निवेशकों का विश्वास बढ़ेगा ।
(vi) बैंकों की लाभप्रदता बढ़ाने हेतु गैर-निधि आधारित व्यवसाय में वृद्धि करना आवश्यक हो गया है । विदेशी बैंकों में उनकी कुल आय का लगभग 40 प्रतिशत भाग गैर-निधि आधारित व्यवसाय से प्राप्त आय का रहता है जबकि भारतीय बैंकों में यह अनुपात लगभग 15 प्रतिशत है । इस अनुपात को बढाना आवश्यक है । लागत में कमी एवं उत्पादकता बढाने हेतु प्रयास करना भी आवश्यक है ।
(vii) अलाभकारी आस्तियों में कमी करना आवश्यक है । इसके लिए कानूनी संरचना में भी सुधार करना होगा क्योंकि देश में कई कानून, जो लगभग 100 वर्ष पूर्व लागू किए गये थे, उसी स्थिति में आज भी लागू है जबकि, बैंकिंग क्षेत्र में इस बीच कई परिवर्तन हुए है । अमेरिकी कानून की तरह ही भारत में भी आर्थिक चूक को गंभीर चूक की श्रेणी में माना जाना चाहिए ताकि बैंकिंग क्षेत्र में ऋणियों द्वारा समय पर शशि के भुगतान की प्रवृत्ति को बढ़ाया जा सके ।
बैंक कर्मचारियों को बदलते हुए बैंकिंग स्वरूप में ढालने हेतु प्रशिक्षण के माध्यम से उपयुक्त बनाना आवश्यक हो गया है । मानव संसाधन प्रबंधन का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है । कर्मचारियों के ज्ञान में वृद्धि करना, उनके कौशल का विकस करना और उनकी अभिवृत्ति करना भी आवश्यक हो गया है ।
देश में तेजी से हो रहे प्रौद्योगिकी विकास एवं विश्वव्यापीकरण की स्थिति प्राप्त करने के कारण भारतीय बैंकिंग उद्योग में भी विभिन्न बदलावों के अपने आप में, बडी तेजी से, आत्मसात करना होगा अन्यथा बैंकिंग उद्योग को नित नयी चुनौतियों से जूझना होगा । भविष्य में भारतीय बैंकिंग आज की बैंकिंग से काफी भिन्न होगी । अतः हमें इस बदलाव हेतु न केवल तैयार रहना होगा बल्कि इस बदलाव को आसान बनाने हेतु अभी से प्रयास करना होगा ।