आरबीआई द्वारा क्रेडिट नियंत्रण (उपाय के साथ) | Read this article in Hindi to learn about the effective and ineffective credit control policies by RBI along with its measures.
गुणात्मक साख नियंत्रण (Effective Credit Control by RBI):
जब केन्द्रीय बैंक कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सदस्य को साख प्रदान करने के आदेश देता है तो ऐसे साख नियंत्रण को गुणात्मक साख नियंत्रण कहा जाता है । रिजर्व बैंक को देश के अन्य बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋणों की मात्रा, उद्देश्य व ढंग को निर्धारित करने का अधिकार है ।
गुणात्मक साख नियंत्रण के सम्बन्ध में रिजर्व बैंक की निम्न क्रियाएं रही हैं:
(i) अनुमति की आवश्यकता:
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ऋण की सीमा बाँधने पर उस निश्चित सीमा से अधिक ऋण देने पर रिजर्व बैंक से पूर्व अनुमति लेना पड़ती थी । उदाहरणार्थ खाद्यान्न की जमानत पर ऋण देने से पूर्व रिजर्व बैंक की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था ।
(ii) मूल्यांतर निश्चित करना:
गुणात्मक साख नियंत्रण का प्रयोग 1956 में किया गया । 17 मई, 1950 को रिजर्व बैंक ने अनुसूचित बैंकों को यह आदेश दिए कि किसी भी संस्था को 50 हजार रुपए से अधिक राशि उधार न दी जाए और इनकी जमानत के मार्जिन को 10% बढा दिया जाए । 1963 में चीनी की जमानत पर दिए गए ऋण पर 45% मार्जिन लगा दिया गया । वनस्पति घी के विरुद्ध अग्रिम देने के लिए मार्जिन 50% कर दिया ।
(iii) ऋण पर प्रतिबन्ध:
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रिजर्व बैंक ने 1946, 1957 व 1958 में व्यापारिक बैंकों को अंशों की जमानत पर ऋण न देने के आदेश दिए, 11 मार्च, 1960 को कम्पनी के अंशों की जमानत पर दिए जाने वाले ऋण पर 50% मार्जिन निश्चित किया गया ।
अभी हाल ही में रिजर्व बैंक ने अपनी साख नीति में और सुविधाएं प्रदान की हैं । व्यापारिक बैंक अब खाद्य निगम तथा अन्य राज्य एजेंसियों के खाद्यान्न की मात्रा के 80% तक रिजर्व बैंक से पुनर्वित्त की सुविधाएँ प्राप्त कर सकते हैं ।
इस घोषणा से निर्यात हेतु अग्रिम राशि एवं कृषि के लिए प्रत्यक्ष ऋण व्यवस्था के अतिरिक्त समस्त पुनर्वित्त सुविधाओं से वापस ले लिया गया है । यह सुविधा इसलिए प्रदान की गई है कि खाद्यान्न की वित्त व्यवस्था के लिए स्टेट बैंक 100 करोड़ रुपए से अधिक सहायता देने में असमर्थ था ।
अप्रभावी साख नियंत्रण नीति (Ineffective Credit Control by RBI):
भारत में रिजर्व बैंक साख नियंत्रण नीति में बहुत सफल नहीं हो पाया है, जिसके प्रमुख कारण निम्न हैं:
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(1) संगठित मुद्रा एवं बिल बाजार का अभाव:
भारत में मुद्रा बाजार का संगठन दोषपूर्ण है जिससे विभिन्न अंगों में सम्पर्क का अभाव पाया जाता है जिससे बैंक दर में परिवर्तन होने पर ब्याज दर में परिवर्तन नहीं हो पाता । इसी कारण से प्रभावशाली बैंक दर नीति के लिए संगठित बिल बाजार का होना आवश्यक है जो देश में अविकसित अवस्था में है जिससे रिजर्व बैंक की साख नियंत्रण की क्रियाएँ सीमित मात्रा में ही सफल हो सकी हैं ।
(2) लोच का अभाव:
देश में आर्थिक ढाँचा लोचदार होने पर बैंक दर में परिवर्तन होने से ब्याज दरों में भी परिवर्तन होना चाहिए, परन्तु भारत में ब्याज, मूल्यों एवं मजदूरी पर अनेक नियंत्रण लगाए गए जिससे देश की अर्थव्यवस्था में लोच का अभाव पाया गया व रिजर्व बैंक की साख नीति सफल नहीं हो पाई ।
(3) स्वदेशी बैंकर पर नियंत्रण का अभाव:
भारत में वित्त की व्यवस्था स्वदेशी बैंकर द्वारा की जाती है, परन्तु उन पर रिजर्व बैंक किसी भी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं रख सका है जिससे वे आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था से पृथक रहते हैं । इस प्रकार स्वदेशी बैंकर पर नियंत्रण के अभाव में साख नियंत्रण नीति सफल नहीं हो पाई है ।
(4) बैंकों पर नकद कोष की अधिकता:
युद्धोत्तर काल में बैंकों पर मुद्रा प्रसार के कारण का मात्रा में नकद कोष एकत्रित होने से वे स्वयं बड़ी मात्रा में साख का निर्माण कर लेते हैं, जिससे रिजर्व बैंक साख नियंत्रण नीति में सफल नहीं हो पाता ।
(5) खुले बाजार की सीमित शक्ति:
रिजर्व बैंक खुले बाजार में स्वतंत्र रूप से कार्य न कर सका जिससे साख नियंत्रण नीति अधिक सफल न हो सकी ।
सफलता के उपाय (Measures for Successful Credit Control):
साख नियंत्रण नीति को सफल बनाने के लिए रिजर्व बैंक ने जो उपाय अपनाए हैं, उन्हें निम्न प्रकार रखा जा सकता है:
(1) नकद कोषों में परिवर्तन:
1956 में अधिनियम में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई कि कल दायित्व का प्रतिशत 2 से बढाकर 8% तक तथा माँग दायित्व का प्रतिशत 5 से बढाकर 20% तक कर दिया जाये । इसके अतिरिक्त अधिक जमा कोष रखने के भी अधिकार मिले । 1962 में संशोधन करके माँग एवं काल दायित्व की सीमा 3% से 15% तक कर दी गई ।
(2) बैंक दर व खुले बाजार की क्रियाएँ:
रिजर्व बैंक ने समय-समय पर बैंक दर में वृद्धि की जो 6% तक हो गई इससे साख की मात्रा में संकुचन हुआ । इसी प्रकार 1951 में यह घोषणा की गई कि रिजर्व बैंक अब सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय नहीं करेगा । इससे भी साख की मात्रा में संकुचन हुआ ।
(3) साख सूचना प्राप्त करना:
1962 में अधिनियम में संशोधन करके रिजर्व बैंक को यह अधिकार मिला कि वह बैंकों से सूचना प्राप्त करें और इसके लिए साख सूचना विभाग की स्थापना भी की गई है । इस प्रकार की प्राप्त सूचनाएँ उन बैंकों को प्रदान की जाती हैं, जो उन्हें प्राप्त करना चाहें ।
(4) गैर-बैंकिंग संस्थाओं पर नियंत्रण:
1963 के संशोधन से रिजर्व बैंक को व्यापारिक बैंकों पर साख नियंत्रण रखने एवं गैर-बैंकिंग संस्थाओं से समस्त वित्तीय जानकारी प्राप्त करने के अधिकार प्राप्त हो गये हैं ।
(5) बिल बाजार योजना:
मुद्रा एवं साख की मात्रा में अधिक नियंत्रण करने के उद्देश्य से 16 जनवरी, 1952 को रिजर्व बैंक ने बिल बाजार योजना में लोच उत्पन्न की ।
(6) चुना साख नियंत्रण:
नीति 1949 के बैंकिंग कम्पनी अधिनियम के आधार पर रिजर्व बैंक को व्यापक अधिकार प्राप्त हो गए, जिसके आधार पर वह ऋणों सम्बन्धी प्रतिबंध लगा सकता है, परन्तु इस नीति से भारत को सीमित मात्रा में ही सफलता प्राप्त हुई है ।
(7) इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण:
यह बैंक व्यापारिक बैंक की भाँति कार्य कर रहा था तथा इसके निजी साधन काफी प्रचुर मात्रा में थे, परन्तु इसकी साख नीति रिजर्व बैंक की नीति के प्रतिकूल रहती थी । अतः नीति में एकरूपता लाने के उद्देश्य से इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया ।