डॉक्टर जीव की जीवनी | Biography of Doctor Jeevak in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवक का जन्म परिचय!
3. जीवक की प्राचीन भारतीय चिकित्सा को देन ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति की परम्परा को जीवन्त बनाते हुए उसके विकास का कार्य करने वाले प्रमुख चिकित्सकों में जीवक का नाम विशेष रूप से ख्याति प्राप्त है । जीवक ने अपनी असाधारण प्रतिभा से न केवल रोगों के लक्षणों की खोज की, वरन् कई कठिन, दुसाध्य रोगों का भी उपचार किया ।
2. जीवक का जन्म परिचय:
जीवक महात्मा बुद्ध के समकालीन थे । उन्होंने भगवान् बुद्ध के साथ-साथ उनके शिष्यों का उपचार भी किया था । उनके जन्म के सम्बन्ध में जो जनश्रुति है, वह कुछ ऐसी है कि वैशाली की नगरवधू आम्रपाली की तरह ही एक सालवती नामक गणिका थी ।
राजकुमारों के साथ अभिसार के बाद जब वह गर्भवती हो गयी, तो उसने लोगों से मिलना-जुलना छोड़कर निश्चित समय के बाद एक पुत्र को जन्म दिया । अपने व्यावसायिक लाभ के लिए उसने उस पुत्र को त्यागने का निश्चय किया ।
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अपनी एक दासी को बुलाकर उसने उसे कूड़े के ढेर पर फिकवा दिया । ऐसे में राजा बिम्बसार के पुत्र राजकुमार अभय की जब उस पर दृष्टि पड़ी, तो उसने देखा कि कौओं का दल उस बालक को नोंचने में लगा हुआ है ।
राजकुमार अभय की आज्ञा पाकर उसके सेवकों ने उसे महल पहुंचा दिया । वह बालक इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहा, यह एक आश्चर्य का विषय था । राजकुमार अभय के लालन-पालन में वह बालक बड़ा हुआ और उसका नाम रखा गया-जीवक ।
राजकुमार के यहां पालित-पोषित होने के कारण उसे कौमारभृत्य जीवक कहा जाने लगा । जीवक ने बड़े होने के बाद तक्षशिला जाकर आयुर्वेद पढ़ने की इच्छा जाहिर की । तक्षशिला विश्वविद्यालय में कठोर परिश्रम, सतत विद्याध्ययन तथा लगनशीलता के द्वारा जीवक ने श्रेष्ठ वैद्यक की उपाधि ग्रहण की ।
उनके गुरु प्रसिद्ध वैद्यराज आत्रेय तथा पुनर्वसु थे, ऐसा कहा जाता है । वैद्यक की उपाधि ग्रहण करने के बाद उनकी प्रावीण्यता की परीक्षा लेने के ध्येय से उनके गुरु ने जीवक से कहा: ”तक्षशिला विश्वविद्यालय की योजन भर भूमि से तुम ऐसी वनस्पतियां उखाड़ लाओ, जो किसी उपयोग की न हों ।”
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जीवक ने पूरी ईमानदारी से तक्षशिला की यौजन-भर भूमि में लगी हुई वनस्पतियां छान मारीं । उन्हें कोई भी वनस्पति व्यर्थ नहीं लगी । सभी वनस्पतियां किसी-न-किसी रोग में काम आने वाली थीं । इस तरह जीवक ने चिकित्सा शास्त्र में प्रवीणता हासिल कर ली । आचार्य ने उन्हें शिक्षा पूर्ण करने को कहा ।
3. जीवक की प्राचीन भारतीय चिकित्सा को देन:
जीवक ने आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को नया रूप प्रदान किया । सर्वप्रथम जब वे सरयू नदी के तट पर पहुंचे, तो वहा के कुछ प्रसिद्ध चिकित्सकों में से उनकी भेंट देवदत्त से हुई । देवदत्त ने उन्हें एक नगर सेठ की ऐसी पत्नी का उपचार करने की चुनौती दी, जिसके सिर में भयानक दर्द रहा करता था । उसने यह सोच लिया था कि यह दर्द तो उसकी मृत्यु के साथ ही जायेगा ।
युवा जीवक सेठ की पत्नी के पास उपचार हेतु पहुंचे, तो उनकी अवस्था को देखकर पत्नी ने अनुभवहीन समझकर उनसे उपचार कराने से मना कर दिया । किन्तु जीवक ने विनम्रतापूर्वक उन्हें उपचार हेतु तैयार किया ।
गाय के पुराने घी से बनी हुई ओषधि उन्होंने सेठ-पत्नी के नाक में जैसे ही डाली, वैसे ही मुंह से निकलती हुई उस ओषधि ने सेठ-पत्नी के सात साल पुराने रोग को समाप्त कर दिया । स्वस्थ होने पर न केवल अयोध्या के वैद्यों ने, वरन् सेठ-पत्नी ने भी उन्हें सम्मानित किया ।
नगर सेठ ने जीवकजी को इस हेतु बहुत-सी स्वर्ण मुद्राएं तथा यात्रा हेतु घोड़ागाड़ी भी दी । धन प्राप्त कर वे राजकुमार अभय के राजमहल में ही रहने लगे । पास में ही उन्होंने अपने लिए एक घर बनवा लिया । उस समय राजा बिम्बसार भगन्दर की बीमारी से ग्रसित थे ।
उनके गुदाद्वार के पास एक फोड़ा हो गया था, जिससे इतना अधिक रक्त बहता था कि उनकी धोती भीग जाती थी । वे सभी के उपहास का केन्द्र बन गये थे । हारकर उन्होंने जीवकजी से अपना उपचार करवाया । जीवक ने उनके जख्म पर जो लेप लगाया था, उससे कुछ समय में ही उनकी बीमारी जाती रही । इसी तरह राजगृह के एक सेठ की उन्होंने शल्यक्रिया की ।
एक रोगी के पेट की उलझी हुई गांठों को खोलकर सिलाई कर ओषधि लेपन से रवस्थ कर दिया । राजगृह के एक और सेठ का उपचार करते हुए जीवक ने उनके मस्तिष्क की शल्यक्रिया भी की । जीवक ने उसे सात महीने तक एक करवट, फिर सात महीने दूसरी करवट लेकर सोने की शर्त रखी ।
शल्यक्रिया करते हुए उन्होंने सेठ को चारपायी से मजबूत बाधकर उनके कपाल को चीरकर दो जंतु निकाले । कपाल की चमड़ी पुन: सी दी गयी । सात दिन गुजरने पर सेठ छटपटाने लगा । इस पर जीवक ने कहा: ”दूसरी करवट लेटो ।”
बमुश्किल सेठ ने सात दिन इस तरह से लेटकर गुजारे । जीवक ने सात महीने की बात इसीलिए की थी कि वे मानसिक रूप से उसकी मजबूती देखना चाहते थे । उनके उपचार की यह पद्धति बहुत ही मनोवैज्ञानिक थी । सेठ पूर्णत: स्वस्थ हो गये ।
ऐसी ही एक घटना में पीलिया रोग से पीड़ित अवंती नरेश चण्डप्रद्योत का उपचार उन्होंने किया । समस्या यह थी कि अवंती नरेश को घी देखते ही मितली आने लगती थी, किन्तु जीवक ने चण्डप्रद्योत का अपमान सहकर भी घी के साथ उन्हें ओषधि देकर उनको रोगमुक्त किया । ऐसे प्राणरक्षक वैद्य को पाकर वे धन्य हुए होंगे ।
कहा जाता है कि वे चण्डप्रद्योत को घी में मिली दुर्गन्धयुक्त ओषध देने के उपरान्त तेज भागने वाले हाथी की सवारी कर अवंतीराज की सीमा से मगध पहुंच गये । इधर ओषध खाकर राजा को अपार कष्ट का अनुभव हुआ, पर वे शीघ्र ही रचस्थ हो गये ।
उन्हें पत्थर की चोट से घायल हुए भगवान् बुद्ध की पैरों की चोट को पूर्णत: ठीक करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ । बुद्ध के साथ रहते हुए उन्होंने मोक्ष हेतु चिकित्सा द्वारा जनकल्याण में अपना समय देने का संकल्प लिया । आजीवन इस संकल्प में लगे रहे । चिकित्सा से प्राप्त धनराशि को उन्होंने भिक्षु संघ को दान में दिया ।
4. उपसंहार:
जीवक का नाम प्राचीन भारतीय शल्य चिकित्सकों में सर्वप्रमुख रहेगा । कई असाध्य तथा जटिल रोगों की चिकित्सा करके उन्होंने चुनौतियों को भी स्वीकारा । उनकी चिकित्सा पद्धति ने देश में ही नहीं, अपितु चीन, लंका आदि देशों में भी प्रसिद्धि अर्जित की । प्राचीन भारतीय श्रेष्ठ चिकित्सकों में कौमारभृत्यजीवक का नाम सदा अमर रहेगा ।