अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध” । Biography of Ayodhya Singh Upadhyay in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत्त एवं कृतित्व ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध”जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं के लिए अपनी लेखनी चलायी है । इस उत्कृष्ट साहित्य-साधक को एक कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, निक-धकार, आलोचक, इतिहासकार के रूप में भी प्रभावशाली साहित्यकार मानते हैं । अपनी उर्वर कल्पनाशक्ति के सहारे उन्होंने ब्रजभाषा में कविता लिखी । उतनी ही प्रौढ़ता से गद्या एवं पद्या में खड़ी बोली में सरस कविताएं लिखीं ।

2. जीवन वृत एवं कृतित्व:

हरिऔधजी बड़े ही मेधावी, प्रतिभासम्पन्न कवि थे । उन्होंने कविता रचने की प्रेरणा अपने बाबा सुमेरसिंह के सम्पर्क में सीखी । बाल्यावस्था में उन्होंने कबीर की साखियों पर कुण्डलिया लिखकर चमत्कृत कर दिया था । उनका जन्म 15 अप्रैल, 1865 में निजामाबाद में हुआ था । उनकी मृत्यु 6 मार्च, 1947 को निजामाबाद में हुई ।

उनकी रचनाएं-कबीर कुण्डल, श्रीकृष्ण शतक, प्रेमान्दुवारिधि, प्रेमाश्वप्रवाह, प्रेमाश्बबुप्रस्त्रवण, प्रेम प्रंपच, उपदेश कुसुम, प्रेम-पुष्पापहार, उद्‌बोधन, प्रिय प्रवास, ऋतु मुकुर, पुष्प विनोद, विनोद वाटिका, चोखे चौपद, चुभते चौपदे, पद्यप्रसून, बोलचाल रसकलस, फल पत्ते, पारिजात, ग्राम गीत, वैदेही वनवास, हरिऔध सतसई आदि हैं ।

उनकी रचनाओं में मानव-सेवा, समाज सेवा, राष्ट्र सेवा एवं साहित्य सेवा की भावनाएं हिलोरी लेती है, तो कहीं कवि का आक्रोश व्यंग्य-विनोद का आश्रय लोकर तत्कालीन राष्ट्र एवं समाज से व्याप्त कुरीतियों तथा कमियों को लिखा । प्रियप्रवास और वैदेही वनवास ये दोनों ही प्रबन्ध काव्य है ।

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उन्होंने पारिजात नामक महाकाव्य की रचना की है । इस काव्य को शास्त्रीय आधार पर महाकाव्य कहना उचित नहीं है; क्योंकि इसमें दार्शनिक विचारों का ही भण्डार है । यद्यपि इस गन्ध के कुछ सर्गो में आध्यात्मिक विचार भी हैं, तथापि मुहावरेदार भाषा-शैली में इसमें भावमयी कविताएं हैं ।

दूसरा घन्ध-रस कलश, यह श्रुंगार रस का श्रेष्ठ ग्रन्थ है । इसमें कवि ने उत्तमा नायिका के आठ प्रकार-प्रेमिका, पति प्रेमिका, परिवार प्रेमिका, जाति प्रेमिका, निजता, अनुरागिनी, लोक सेविका, धर्म सेविका, आदि नायकाओं के साथ-साथ नायकों का निरूपण भी किया है, जिनमें-कर्मवीर, धर्मवीर, महन्त, नेता, साधु आदि विविध नायकों का उल्लेख किया है ।

इसके अतिरिक्त ठेठ हिन्दी का ठाठ और अधखिला फूल उपन्यास लिखे ।  श्रेष्ठ हिन्दी का ठाठ उन्होंने तद्‌भव भाषा में लिखा है, जिसमें संस्कृत का एक भी शब्द नहीं मिलता उनकी इस प्रतिभा पर जार्ज ग्रेयर्सन इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने इसे तुरन्त ‘इण्डियन सिविल सर्विस’ के पाठयक्रम में लगा दिया ।

‘अधखिला फूल’ में उन्होंनें विलासी जमींदारों की दुष्प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण किया है । इस उपन्यास का महत्त्व भी बोलचाल की हिन्दी की दृष्टि से ही है । इसमें भी लेखक की मौलिकता तथा एक अनुपम भाषायी शक्ति के दर्शन होते हैं । उन्होंने “रुक्मिणी परिचय” तथा ”प्रद्युम्न विजय” दो रूपक भी लिखे हैं ।

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इसमें रुक्मिणी परिणय का निर्माण संस्कृत की प्राचीन नाट्‌य शैली के आधार पर हुआ है । इसके संवाद प्राय: अधिक लम्बे और अस्वाभाविक हैं । कविता के लिए उन्होंने ब्रजभाषा तथा गद्य के लिए खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया है । दूसरे रूपक ”प्रद्युम्न विजय” में भागवत पुराण के आधार पर श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न द्वारा शम्बरासुर के वध की प्रख्यात कथा तो है, किन्तु नाट्‌यकला की दृष्टि से यह ग्रन्थ साधारण

है ।

इसका एक पक्ष यह भी है कि नाट्‌यकला की दृष्टि से इसमें नवीनता है । नाटक लिखने के अलावा उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास पर न केवल व्याख्यान दिये, अपितु उन्होंने ”हिन्दी साहित्य और भाषा विकास” शीर्षक से यन्थ भी लिखा है । इस गन्ध में उन्होंने भाषा वैज्ञानिकी की दृष्टि से विचार करते हुए उसके उद्‌भव एवं विकास का अत्यन्त मार्मिक एवं तथातथ्य निरूपण किया है ।

इस यन्थ में उन्होंने उर्दू भाषा के कवियों को स्थान देकर यह स्पष्ट करना चाहा है कि उर्दू भाषा कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं है; वरन् हिन्दी भाषा की एक शैली ही है । उन्होंने आलोचक के रूप में अपने यन्थ “रस कलश” में रीतिनुसार रस सम्बन्धी धारणाओं का बड़ा ही प्रभावशाली विवेचन किया है ।

रीतिकालीन अश्लीलता की भर्त्सना करते हुए अश्लीलतारहित गन्ध का तर्क सहित प्रतिपादन कर नयी नायिकाओं की भी उद्‌भावना की है । उन्होंने कबीर की वचनावली में कबीरदास के जीवनवृत, धर्म विचार आदि का विवेचन करते हुए कबीर की साखियों का सारगर्भित विवेचन किया है ।

हरिऔधजी ने हिन्दी के चार रूप बताये है: 1. ठेठ हिन्दी, 2. बोलचाल की भाषा, 3. सरल हिन्दी, 4. उच्च हिन्दी अथवा संस्कृतगर्भित हिन्दी । भाषा अध्ययन की दृष्टि से यह विवेचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इन भूमिकाओं के अतिरिक्त उन्होंने प्रियप्रवास, वैदेही वनवास आदि काव्यों की बड़ी ही व्याख्यात्मक एवं गवेषणात्मक आलोचना लिखी है, जो उनकी आलोचक दृष्टि को प्रकट करती है ।

आलोचक के अतिरिक्त उन्होंने अनुवादक के रूप में भी साहित्य की सेवा की है, जिनमें गद्य के अतिरिक्त ”बेनिस का बांका” रिजवान विकिल नीति निबन्ध आते है और पद्य के अन्तर्गत उपदेश कुसुम, गुलजारबदरिरूघे का अनुवाद विनोद-वाटिका के रूप में किया । इन दोनों ग्रन्धों में सेवा, परोपकार, सरल व्यवहार, अहंकारहीनता आदि का विवेचन उच्चादर्शों में प्रेरित होकर किया है ।

प्रियप्रवास उनका श्रेष्ठ महाकाव्य है । यह खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है । सत्रह सर्गों में विभक्त इस महाकाव्य में  श्रीकृष्ण व राधा को लौकिक रूप में लोकनायक व लोकनायिका, लोकसेविका व सेवक के रूप में चित्रित किया है, जो मानव हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं । संस्कृतगर्भित भाषा में रचित इस महाकाव्य में कवि ने विविध छन्दों के प्रयोग के साथ अलंकारों की सुन्दर योजना की है । महान उद्देश्यों पर आधारित इस रचना में अंगीरस श्रुंगार है ।

3. उपसंहार:

श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय हिन्दी के उन महान् साहित्यकारों में से है, जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के द्वारा साहित्य की साधना अपनी शैली में की है । अनुवादक, आलोचक, कवि, उपन्यासकार, नाटककार, संस्कृत व हिन्दी के विद्वान के रूप में उनका स्थान अमर रहेगा । आने वाले कवियों के लिए वे निश्चित ही प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं ।

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