अहिल्याबाई होल्कर की जीवनी । Biography of Ahalyabai Holkar in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. अहिल्याबाई का जीवन चरित्र ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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अहिल्याबाई होल्कर सेवा, सरलता, सादगी, मातृभूमि की सच्ची सेविका थीं । इंदौर घराने की महारानी बनने के बाद भी अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था । एक स्त्री होकर भी उन्होंने न केवल नारी जाति के उत्थान के लिए कार्य किये, अपितु समस्त पीड़ित मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । वह एक उज्जल चरित्र वाली पतिव्रता नारी, ममतामयी मां तथा उदार विचारों वाली महिला थीं ।
2. अहिल्याबाई होल्कर का जीवन चरित्र:
अहिल्याबाई का जन्म 1735 में महाराष्ट्र के ग्राम-पाथडरी में हुआ था । उनके पिता मनकोजी सिंधिया एक सामान्य किसान थे । सादगी और धर्मनिष्ठता से जीवन जीने वाले मनकोजी की अहिल्याबाई एकमात्र सन्तान थीं ।
अहिल्याबाई सीधी-सरल ग्रामीण कन्या थीं । इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर पूना आते रामय पाथडरी गांव के शिव मन्दिर के पास ठहरे थे । वहां अहिल्या नित्य पूजन के लिए आती थीं । उनके चेहरे पर देवी-सा तेज और सादगी एवं सुलक्षणता को देखकर मल्हार राव ने उन्हें अपनी पुत्रवधू बनाने हेतु उनके पिता से निवेदन किया ।
अहिल्या के पिता के हां कहने पर कुछ दिनों बाद अहिल्या का विवाह मल्हार राव के पुत्र खण्डेराव के साथ सम्पन्न हुआ । एक ग्रामीण कन्या अब इंदौर की महारानी बन चुकी थी । राजमहल पहुंचकर अहिल्या ने अपने जीवन की सादगी और सरलता तनिक भी नहीं छोड़ी थी ।
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अपने पति, सास-ससुर, गुरुजनों की सेवा वह पूरी ईमानदारी से करती थीं । उनकी सेवा, उत्तरदायित्व और कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर मल्हार राव ने अशिक्षित अहिल्या की शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही कर दिया था । शिक्षा में प्रवीणता हासिल करने के बाद उन्होंने उन्हें राजकाज की भी शिक्षा प्रदान की । उन्हें अपने पुत्र की अपेक्षा अपनी पुत्रवधू पर ज्यादा भरोसा था ।
विवाह के बाद अहिल्या ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया । पुत्र का नाम मालेराव और पुत्री का नाम मुक्ताबाई था । उस समय मराठे हिन्दू राज्य के विस्तार में लगे हुए थे । वे सभी राजाओं से चौथ वसूला करते थे, किन्तु भरतपुर के जाटों ने चौथ देने से इनकार कर दिया । तब मल्हार राव ने अपने पुत्र खण्डेराव सहित भरतपुर पर आक्रमण कर दिया ।
इस संघर्ष में खाण्डेराव मारे गये । 29 वर्ष की अवस्था में वह विधवा हो चुकी थीं । उन्होंने पति की मृत्यु के बाद अपनी जीवनलीला समाप्त करनी चाही । सास-ससुर ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया । मल्हार राव ने अहिल्या को राज्य का भार सौंप दिया । अहिल्या अपने 17 वर्षीय पुत्र मालेराव को सिंहासन पर बिठाकर स्वयं उसकी संरक्षिका बन गयीं ।
इसी बीच उत्तर भारत के एक अभियान में कानवी पीड़ा से मल्हार राव की मृत्यु हो गयी । ससुर की मृत्यु होने पर उन्होंने उनकी स्मृति में इंदौर में तथा अन्य स्थानों पर अनेक विधवाओं, अनाथों, अपंगों के लिए आश्रम खुलवाये । कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक, द्वारिका से लेकर पुरी तक अनेक मन्दिर, घाट, तालाब, बावड़ियां, दान-संस्थाएं, धर्मशालाएं, कुएं, भोजनालय खुलवाये ।
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काशी का प्रसिद्ध विश्वनाथ मन्दिर तथा महेश्वर के मन्दिर व घाट बनवाये । उन्होंने साहित्यकारों, गायकों व कलाकारों को भी प्रश्रय दिया था । अहिल्या ने अपने राज्य की रक्षा हेतु अनुशासित सैनिक तथा महिला सैन्य टुकड़ियां बनवाई थी, जिसे यूरोपीय और फ्रांसिसी शैली में प्रशिक्षित करवाया था ।
अहिल्याबाई का पुत्र अत्यन्त विलासी, क्रूर, स्वार्थी और प्रजापीड़क था । उसके दुष्कृत्यों को देखकर अहिल्याबाई का हृदय बड़ा दुखी हो उठता था । वह चाहती थीं कि शासन की बागडोर किसी योग्य के हाथ हो । 1 वर्ष बीतते-बीतते विलासी मालेराव की मृत्यु हो गयी ।
अहिल्या ने इंदौर के शासन की बागडोर अपने हाथों में लेकर गंगाधर नामक व्यक्ति को मन्त्री बना दिया । किन्तु गंगाधर राव ने चाचा रघुनाथ राव के साथ मिलकर इंदौर पर चढ़ाई कर दी । अहिल्या की सेनाओं के आगे वह बिना लड़े ही डरकर भाग गया । उसके राज्य में चोर-डाकुओं का आतंक इस दौरान फैला हुआ था ।
अत: अहिल्याबाई ने यह घोषणा की कि जो कोई इन डाकुओं का दमन करेगा, उसका विवाह वह अपनी पुत्री मुक्ताबाई से कर देंगी । एक साहसी नवयुवक यशवंतराव ने यह बीड़ा उठाया, जिसे पूरा करने पर अहिल्याबाई ने मुक्ता का विवाह उससे कर दिया । इस प्रकार राज्य में शान्ति की स्थापना हुई ।
3. उपसंहार:
अहिल्याबाई ने अपने राज्य के साहूकार, व्यापारियों और शिल्पियों को आर्थिक क्षेत्र में प्रोत्साहन देकर राज्य की आर्थिक दशा सुधार ली । इसके बाद उन्होंने कुछ करो में रियायत कर दी । गो-संस्कृति और बाग-बगीचों को प्रोत्साहन देने के कारण उसके राज्य में दूध, दही, घी, फूलों और फलों की कभी कमी नहीं रही ।
अहिल्याबाई ने अनाथालय, पुस्तकालय, वाचनालय, विद्यालय, औषधालय, दान-शालाएं स्थापित की । कई प्रकार की कुरीतियों तथा कुप्रथाओं को उन्होंने समाप्त किया । यद्यपि इस बीच उनके दामाद यशवंतराव की मृत्यु हो गयी थी, जिसके वियोग में मुक्ताबाई ने आत्मदाह कर लिया ।
इस आघात से अहिल्या की सास तथा दौहित्र नत्थू भी चल बसा । अहिल्या ने अपने जीवन की सार्थकता मानव-सेवा, प्रजा को सुख और शान्तिपूर्ण शासन देने में ही समझी । इस तरह 72 वर्ष की अवस्था में 13 अगस्त 1795 में उनकी मृत्यु हो गयी । इतने आघातों को सहकर भी उन्होंने इतने महान् कार्य किये ।