कबीरदास की जीवनी | Kabirdas Kee Jeevanee | Biography of Kalidas in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत एवं कृतित्व ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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कबीरदासजी का प्रादुर्भाव उस समय हुआ था, जब देश में राजनीतिक दृष्टि से चारों ओर अस्थिरता, अशान्ति और अव्यवस्था का आलम छाया हुआ था । कबीर के समय में हिन्दू और मुस्लिम दो बड़ी जातियां निवास करती थीं । इन दोनों में आचार-विचार, रीति-रिवाजों, सामाजिक धार्मिक मान्यताओं आदि के बारे में दृढ़ता और कट्टरता की भावना विद्यमान थी, जिसकी वजह से ये दोनों जातियां पारस्परिक द्वेष और वैमनस्य रखती थीं ।
दोनों ही धर्मो के ठेकेदार भोली-भाली जनता को भ्रमित कर रहे थे । समाज में कुप्रथाओं, कुरीतियों, मिथ्या आडम्बरों का बोलबाला था । ऐसे समय में एक ऐसे समाज सुधारक की आवश्यकता थी, जो दोनों धर्मो की बुराइयों को दूर कर उनमें एकता स्थापित कर सके । ऐसे समय में कबीरदासजी का प्रादुर्भाव हुआ ।
उन्होंने दोनों धर्मो की बुराइयों को जनता के सामने रखा । हिन्दू धर्म में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित थे । कोई निर्गुण, तो कोई सगुण, तो कोई वैष्णव, तो कोई शाक्त । कबीर ने दोनों धर्मो के आदर्शो का समन्वित रूप समाज के सामने रखा और उनका मार्ग प्रशस्त किया । हिन्दू-मुस्लिम में धार्मिक एकता कायम की ।
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2. जीवन वृत एवं कृतित्व:
भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा के कविकुल शिरोमणि एवं समाज सुधारक कवि कबीरदासजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार संवत् 1456 को हुआ था । कबीर के जन्म के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे एक् विधवा ब्राह्मणी की सन्तान थे जिसे लोक-लाज के भय से उनकी माता ने लहरतारा तालाब के किनारे रख छोड़ा था ।
उधर से गुजर रहे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उन्हें देखा, तो वे उन्हें घर ले आये । निःसन्तान जुलाहा दम्पति ने कबीर का पालन-पोषण किया । कालान्तर में कबीरदासजी ने जुलाहा व्यवसाय अपनाया । कबीरजी के विषय में यह भी कहा जाता है कि उनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ था, जिससे उन्हें कमाल और कमाली नामक दो सन्तानें हुईं ।
कबीरदास जीवन-भर काशी में ही रहे । संवत् 1575 को वे ईश्वर में विलीन हो गये । कृतित्व-वैसे तो कबीरदासजी की वाणी का संग्रह ”बीजक” है, जो कि साखी, सबद, रमैनी का संग्रह है । यह भी कहा जाता है कि उन्होंने 6 लाख 84 हजार पदों की रचना की थी । कबीरजी ने अपनी साखियों में संसार के सत्य को लिखा है ।
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उनके काव्य के भावपक्ष में निर्गुणोपासना का भाव मिलता है । कबीरदासजी निर्गुण परमात्मा के उपासक थे । उनके काव्य में वर्णित “राम” का तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है । कबीरजी ने ईश्वर के नाम स्मरण पर विशेष बल दिया है । गुरा महिमा पर बल देते हुए उन्होंने ईश्वर की सत्ता महत्ता से गुरा को श्रेष्ठ बताया, जैसे-
गुरा गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाये ।
बलिहारी गुरा उनकी, गोविन्द दियो बताये ।
तथा
सतगुरु की महिमा अनन्त-अनन्त किया उपगार ।
लोचन अनन्त अघाडिया-अनन्त दिखावण हार ।।
कबीर ने जाति-पांति तथा छुआछूत का विरोध करते हुए कहा:
जांति न पूछौ साधु की, पूछ लीजिये ग्यान ।
मोल करो तलवार की, पड़ी रहन दो म्यान ।।
अहिंसा पर बल देते हुए कहा:
बकरी खाती पात है, ताकि काढ़त खाल ।
जे नर बकरी खात है, तिनकों कौन हवाल ?
मन की शुद्धता पर बल देकर कहा:
न्हाये धोये क्या भया, जो मन मैल न जाये ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाये ।।
बाह्य आडम्बरों का विरोध करते हुए कबीजी ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मो की बुराइयों को सामने रखा । जिसमें माला फेरना, केश मुंडाना, छाप तिलक लगवाना, समाधि लगाना, रोजा रखना, अजान देने को बाह्य आडम्बर निरूपित किया ।
मूण्ड मुड़ाये हरि मिले, तो मुंडू सौ बार ।
मन को काहे नहि छे, जामै विषय विकार ।।
माला फेरत जुग गया, गया न मनका फेर ।
करका मनका डालिये, मनका-मनका फेर ।।
दिन भर रोजा रखत है, रात हनत है गायं ।
यह खून कैसे बंदगी कैसे खुशी खुदायं ।
इस तरह अजान देने पर:
कांकर पांथर जोडिके मस्जिद लई चुनाय !
ता चीड़ मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाये ।
धार्मिक समन्वयवाद पर बल देते हुए उन्होंने हिन्दू-मुसलमान को एक ईश्वर की सन्तान बताया । उनकी कविताओं में उनकी रहस्यवादी चेतना के अनुरूप माया-मोह का विरोध भी मिलता है ।
कबीर पढ़े:
लिखे नहीं थे, उन्होंने स्वयं कहा है !
मसि कागद छुओ नहि, कलम गहि नहीं हाथ ।।
कबीर की वाणी उनके शिष्यों द्वारा संग्रहित है । कबीर की भाषा परिनिष्ठित नहीं है । उनकी भाषा में अरबी, फारसी, उर्दू राजस्थानी, बुंदेली, ब्रज तथा अवधी भाषाओं का मिश्रण है । इस खिचड़ी भाषा के कारण उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है । हजारीप्रसाद ने उन्हें “वाणी का डिक्टेटर” कहा है ।
कबीर ने अलंकार योजना के अन्तर्गत अनुप्रास, उपमा, रूपक, अन्योक्ति एवं दृष्टान्त अलंकारों का सहज प्रयोग किया है । छन्द योजना में कबीर ने दोहा, सबद. रमैनी का प्रयोग किया है । उन्होंने शान्त, शृंगार रस एवं तीनों शब्द शक्तियों का भी प्रयोग किया है ।
3. उपसंहार:
कबीरदास अपने युग के प्रवर्त्तक कवि थे । भक्तिकालीन, निर्गुण काव्यधारा के वे ज्ञानमार्गी कवि थे । कविता करना उनका साध्य नहीं था । उन्होंने समाज-सुधार की भावना से कविताएं लिखीं । जो कुछ लिखा, वह संसार का यथार्थ है । वे रहस्यवादी साधना के सिद्ध-साधक कवि थे । अपने गुरा रामानन्द के उपदेशों और सिद्धान्तों का प्रचार उन्होंने जीवन-भर किया । वे उनके सच्चे शिष्य थे ।