गजानन माधव मुक्तिबोध । Biography of Gajanan Madhav Muktibodh in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय व रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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नयी कविता में मुक्तिबोध की वही स्थिति है, जो छायावाद में निराला की थी । निराला के समान ही मुक्तिबोध ने काव्य-मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया, बल्कि काव्य-मूल्यों को अपने अनुसार परिवर्तित किया और अपनी विशिष्टता को सामने रखा ।
डॉ॰ नामवर सिहं के शब्दों में:
”मुक्तिबोध ने छायावाद की सीमाएं लांघकर प्रगतिवादी मार्क्स दर्शन से आगे जाकर प्रयोगवाद में स्वतन्त्र होकर निराला की साफ-सुथरी परम्परा को विकसित किया ।“
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:
नयी कविता के सशक्त हस्ताक्षर मुक्तिबोध का जन्म ग्वालियर के श्योपुर में नवम्बर सन 1917 को महाराष्ट्रीयन कुलकर्णी ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता माधवराव अत्यन्त रोबीले एवं ईमानदार व्यक्ति थे । वहीं उनकी माता पार्वती पढ़ी-लिखी व भावुक महिला थीं ।
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उन्होंने सन् 1938 में होल्कर कॉलेज से बी॰ए॰ किया था । उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी रुचि अध्यापन में थी । उन्होंने सन् 1954 में वाराणसी से प्रकाशित ”हंस” पत्रिका का सम्पादन किया । वहां से ऊबकर वे नागपुर आ गये । यहीं से उनका जीवन संघर्ष प्रारम्भ हुआ । सन् 1955 में वे राजनांद गांव के दिग्विजय कॉलेज में अध्यापक हो गये ।
साहित्य सेवा करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को मुक्तिबोध ने साहित्य जगत तथा संसार से हमेशा के लिए विदा ले ली । मुक्तिबोध एक अध्यापक, पत्रकार, विचारक, कवि, कथाकार, समीक्षक रहे । अपनी पूरी पीढ़ी में मुक्तिबोध का व्यक्तित्व विशिष्ट था ।
उनके परवर्ती लेखकों में {अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, शमशेर सिंह, धर्मवीर भारती} रूमानी संवेदना से मुक्त न हो सके । केवल मुक्तिबोध एक ऐसे कवि थे, जिनका अनुभव जगत बहुत व्यापक था, जो अपने परिवेश से बहुत गहरे भाव से जुड़े थे ।
उनकी प्रगतिवादी दृष्टि, परिवेश बोध, सामाजिक चिन्तन और अनुभव वैविध्य को महत्त्व देती है । मुक्तिबोध की सबसे बड़ी शक्ति लोक-परिवेश से गहरी आसक्ति है । उनका विश्वास जन-जीवन में है ।
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वे कहते हैं:
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में ।
चमकता हीरा है ।
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है ।
प्रत्येक सुस्मित में विकल सदानीरा है ।
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में,
महाकाव्य की पीड़ा है ।
पल-भर में सबसे गुजरना चाहता हूं ।
इस तरह खुद ही को दिये फिरता हूं ।
अजीब जिन्दगी है ।।
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स्वयं को सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि बताते हुए वे कहते हैं:
मैं तुम लोगों से दूर हूं ।
इतना दूर कि तुम्हारे लिए जो विष है ।
वह मेरे लिए अन्न है ।।
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फिर भी मैं अपनी असफलताओं से खिन्न हूं ।
क्योंकि सफलता चक्करदारजीनो में मिलती है ।
मैं तो सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूं ।।
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वे सामाजिक विसंगतियों, जीवन की अव्यवस्थाओं और विद्रूपताओं से जूझते हैं । अत:
इसलिए कि इससे बेहतर चाहिए ।
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर समाजसुधारक चाहिए ।।
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कवि मुक्तिबोध की रचनाओं में युगीन जीवन की तथा सामाजिक, आर्थिक विभीषिकाओं का चित्रण मिलता है, जिसमें आर्थिक शोषण और भ्रष्टाचार के साथ-साथ सामान्य जीवन की पीड़ा, घुटन, निराशा से संत्रस्त मानव है । उन्होंने सुसंस्कृत समाज की पोल भी खोली है ।
मुक्तिबोध की सहानुभूति सर्वहारा वर्ग से है । वे पूंजीपति शोषण व्यवस्था को समाप्त करने हेतु मार्क्सवाद को उचित मानते हैं । मुक्तिबोध ने समाज की रूढ़िग्रस्त वर्जनाओं, पूर्वाग्रह और अन्धविश्वास के प्रति विद्रोह का स्वर मुखरित किया है । उनकी रचनाओं में ”चांद का मुंह टेढ़ा है”, ”भूरि-भूरि खाक धूल”, “एक साहित्यिक की डायरी”, “विपात्र”, ”सतह से उठता हुआ आदमी” प्रमुख हैं ।
मुक्तिबोध का काव्य मानव मन के चेतन, अर्द्धचेतन से सम्बद्ध है । उनकी कविताओं में ”अंधेरा”, ”निर्जन टीला”, “रहस्यमय घाटियों” का चित्रण फेन्टसी के माध्यम से अमूर्त चित्रण से मूर्त की ओर चला है । उनकी रचनाओं में व्यंग्य की भी प्रधानता है । अंधेरे में इस लम्बी कविता में मुक्तिबोध ने कवि, साहित्कार, चिन्तक, दार्शनिक के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों पर व्यंग्य किया है ।
सब चुप, साहित्यकार चुप ।
कविजन निर्वाक, चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप है ।
नपुंसक भोग, शिराजाल में उलझे ।।
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मुक्तिबोध की भाषा काफी दुरुह और उबड़-खाबड़-सी लगती है; क्योंकि इसमें प्रतीकों, बिम्बों का प्रयोग है । इसमें अरबी, फारसी, मराठी और देशज शब्दों का प्रयोग भी हुआ है । उनकी छन्द योजना मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी है । रूपक, उपमा, सन्देह, विशेषोक्ति, उल्लेख और मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग सहजता से हुआ है ।
3. उपसंहार:
कवि मुक्तिबोध का महान् साहित्य अपनी भाव-व्यंजना और कलात्मक सौन्दर्य के साथ विराटता से ओतप्रोत है । वे प्रगतिवादी चेतना, नयी कविता के जनवादी तथा रहस्यवादी कवि रहे हैं । वे एक प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे है । युगीन मूल्यबोध उनकी रचनाओं के साथ बड़ी ईमानदारी के साथ उद्घाटित हुआ है ।