गांधीारी की जीवनी | Biography of Gandhari in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. गान्धारी और उसका जीवन ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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गान्धारी का चरित्र भारत की उन पतिव्रता नारियों में अग्रगण्य है, जिसने अपनी पतिभक्ति के आदर्श के साथ-साथ अपने ही सिद्धान्तों पर चलकर जीना सीखा था । उसने पति तथा अपने पुत्रों को अधर्म व कुमार्ग पर जाने से रोका था । उसका जीवन पति व पुत्र के प्रेम में विवश नारी की कहानी है ।
2. गान्धारी और उसका जीवन:
गान्धार देश के राजा सुबल की पुत्री गान्धारी एक सुशील और सरल स्वभाव की गुणवती कन्या थी, जबकि उनका भाई शकुनि इसके विपरीत अत्यन्त ही क्रूर, कपटी, धूर्त, विश्वासघाती तथा अधर्म का साथ देने वाला था ।
गान्धारी का विवाह जब अन्धे धृतराष्ट्र से हुआ, तो उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी । जब तक जीवित रही, तब तक उसने अपनी आंखों पर से पट्टी नहीं हटायी । यहां तक कि उसने अपने 100 पुत्रों का मुख तक नहीं देखा था ।
उसके पति राजा धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बात मानकर जब जुए का खेल खेलने में अपनी सहमति दी, तब गान्धारी ने धृतराष्ट्र को सचेत करते हुए कहा था- ”मन्दबुद्धि बालक, वृद्धों तथा खोटी बुद्धिवालों की बातों में आकर कभी ऐसा अविवेकशील निर्णय नहीं लेना चाहिए । स्नेहवश पुत्र की बातों में आकर आप कहीं अपने समस्त कुल का विनाश न करवा लें ।”
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उसने तो दुर्योधन के चरित्र को पहचानकर उसे अभिमानी, पाप बुद्धि, लालची, कुसंगी, अविवेकी कहते हुए उसे सद्मार्ग पर लाने हेतु धृतराष्ट्र से हमेशा कहा । यहां तक कि दुःशासन को भी गलती करने से रोका था कृष्णा और अर्जुन को अजेय मानकर उनसे समझौता करने के लिए भी मार्ग सुझाया था ।
गान्धारी ने पाण्डवों को दिये गये 13 वर्ष के वनवास को अनुचित, अन्यायपूर्ण कार्य बताया था । हठी दुर्योधन ने कभी अपनी माता गान्धारी की बात नहीं मानी । युद्ध पर जाते हुए दुर्योधन को उसने यही कहा था कि वह उसे कैसे आशीर्वाद दे सकती है, जबकि निर्दोष पाण्डव ही उसके अन्याय का शिकार हैं ।
कहा जाता है कि उसने अपने पुत्र दुर्योधन को लौह-सी शक्ति प्रदान करने के लिए उससे यह कहा था कि वह खुले शरीर से उसके सामने आकर खडा हो जाये, तो उसकी आंखों की ज्योति से उसका शरीर लौह सदृश शक्तिशाली हो जायेगा । दुर्योधन अर्द्धवस्त्रों में था, अत: उसके अर्द्धशरीर को ही लौह-शक्ति की प्राप्ति हुई ।
महाभारत के भीषण संग्राम में जब गान्धारी के सौ पुत्र मारे गये थे, तो वह शोकाकुल होकर रुदन कर उठी कि सौ पुत्रों की मां होकर भी वह पुत्रविहीन हो गयी । उसकी सारी पुत्रवधुएं विधवा होकर विलाप कर रही हैं । शवों के ढेर में वह अपने मृत पुत्रों को देख-देख करुण स्वर में चीत्कार करती हुई बड़ी ही असहाय-सी लग रही थी ।
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शोकाकुल गान्धारी को सान्त्वना देने व पुत्रवध के अपराध की क्षमायाचना करने जब भीम, युधिष्ठिर, नकुल आदि गान्धारी के पास गये, तो क्षमा करते समय गान्धारी की दृष्टि आंखों के निचले हिस्से से युधिष्ठिर के नाखूनों पर जैसे ही पड़ी, तो उसके नाखून जलकर काले हो गये । भीम तथा उसके भाई युधिष्ठिर के पीछे भयभीत होकर छिप गये थे ।
अपने सभी पुत्रों की मृत्यु का कारण उसने श्रीकृष्णा को माना था । गान्धारी ने पुत्रशोक में व्याकुल होकर श्रीकृष्ण को यह कहकर शाप दिया कि: ”यदि मेरा वंश नष्ट हुआ है, तो तुम्हारा वंश भी नष्ट होगा और तुम भी अनाथ की भांति मारे जाओगे ।”
बाद में गान्धारी ने अपने इन दुर्वचनों के लिए कृष्ण से माफी मांगी । कृष्ण ने मुसकराकर यही कहा था कि: ”देवी गान्धारी! आपका यह शाप दैव का विधान है । आपकी बात अक्षरश: सत्य होगी । मेरा प्रणाम स्वीकार कर मुझे अनुमति दीजिये ।”
युधिष्ठिर तथा उसके सभी भाइयों ने अपने चाचा तथा चाची गान्धारी की सेवा-टहल में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उन्हें समय-समय पर पुत्रहंता होने का व्यंग्य भी उनके मुख से सुनना पड़ता था । 15 वर्षों तक वे युधिष्ठिर के साथ राजमहल में रहे ।
युधिष्ठिर से उन्होंने वनगमन करने की आज्ञा मांगी, जिसे युधिष्ठिर ने अस्वीकारा था, किन्तु महर्षि व्यास के आदेश पर उन्होंने गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजय के साथ वनगमन की आज्ञा दी । वन में महर्षि वेदव्यास के आश्रम में जाकर गान्धारी ने अपने पति धृतराष्ट्र तथा विधवा बहुओं के मन की शान्ति के लिए मृत 100 पुत्रों के पुन: दर्शन की इच्छा प्रकट की ।
साथ ही सुभद्रा के लिए अभिमन्यू व द्रौपदी के पांच पुत्रों के पुन: दर्शन कराकर उनका मोह और शोक कम करने हेतु प्रार्थना की, जिसे वेदव्यास ने पूरा किया । जीवन के अन्तिम क्षणों में गान्धारी, कुन्ती और धृतराष्ट्र ने स्वेच्छा से अपनी प्राणाहुति दे दी ।
3. उपसंहार:
महाभारत के इतिहास में गान्धारी का चरित्र नारी पात्रों में अपनी श्रेष्ठता के कारण उभरकर न केवल सामने आता है, अपितु नारी हृदय के अच्छे व बुरे दोनों भावों का मनोवैज्ञानिक रूप प्रस्तुत करता है । उसका जीवन पत्नी तथा पुत्र धर्म की दुविधा में फंसी हुई विवश नारी की एक महान् चरित्र गाथा है ।