चंद्रशेखर वेंकटरामन की जीवनी | Biography of Chandra Sekhar Venkatraman in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जन्म परिचय एवं उपलब्धियां ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
ADVERTISEMENTS:
भारत ही नहीं, सम्पूर्ण एशिया में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय चन्द्रशेखर वेंकटरामन ही थे, जिन्हें प्रकाश सम्बन्धी खोज के लिए इस पुररबगर से नवाजा गया था । रमन प्रभाव या रमन इफेक्ट के नाग से प्राप्त नोबल पुरस्कार ने प्रकाश प्रकीर्णन सम्बन्धी अदूभुत खोज से विश्व को चमत्कृत-सा कर दिया था ।
सीमित साधनों के बीच रहकर इस भारतीय ने वैज्ञानिक पीढी को एक नयी दिशा दी ।
2. जन्म परिचय एवं उपलब्धियां:
चन्द्रशेखर को सी॰वी॰ रामन के नाम से भी जाना जाता है । सी०वी० रामन का जना 7 नवम्बर सन 1888 में दक्षिण भारत के तिरुचिरापल्ली के पास छोटे-से गांव तिरुवैक्कापाल में एक तमिल ब्राह्मण शिक्षित परिवार में हुआ था ।
उनके पिता चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक विज्ञान व गणित शास्त्र के प्रकाण्ड ज्ञाता थे, जो विशाखापट्टनम में कॉलेज प्रोफेसर के पद पर पदस्थ थे । उनकी गाता पार्वती अम्मल थीं । उनका परिवार संगीत में गहरी रुचि रखता था ।
ADVERTISEMENTS:
सी॰वी॰ रामन ने घर पर ही रहकर विज्ञान, संस्कृत, संगीत आदि का ज्ञान प्राप्त किया । वे अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आते थे । रामन के पिता ने उन्हें विशेष रूप से गणित, भौतिक पढ़ाया था । स्कूल के प्रिंसिपल ने उन्हें विशेष रूप से अंग्रेजी सिखाई थी ।
रामन की रुचि खेलकूद में न होकर प्रकृति के रहस्यों को जानने में अधिक थी । 12 वर्ष की अवस्था में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे 13 वर्ष की अवस्था में स्नातक की पढ़ाई हेतु प्रेसीडेन्सी कॉलेज चले गये । 1905 में बी॰ए॰ प्रथम श्रेणी स्वर्णपदक के साथ और एम॰ए॰ भौतिक शास्त्र के एक विषय के रूप में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया ।
इसी वर्ष भारतीय वित्त विभाग की परीक्षा में प्रथम आकर कलकत्ता में सहायक महालेखापाल के पद पर नियुक्त हुए । अंग्रेज इस छोटे-से दिखने वाले रामन की इस अनूठी प्रतिभा से अभिभूत थे । इसी वर्ष उनका विवाह कृष्ण अटर की पुत्री लोकसुन्दरी से हुआ । रामन ने सरकारी नौकरी करते हुए अपनी विज्ञान साधना नहीं छोड़ी ।
कलकत्ता स्थित वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीयों के लिए बनायी गयी परिषद के अवैतनिक सचिव अमृतलाल सरकार से मिले और प्रदर्शनी में पड़े हुए बेकार उपकरणों को प्रयोग में लाने की इच्छा जाहिर
ADVERTISEMENTS:
की । सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर वे रंगून चले गये । फिर 1910 में पिता के देहान्त के पश्चात् वे प्रेसीडेन्सी कॉलेज की प्रयोगशाला में कार्य करते रहे ।
तत्पश्चात् यहीं पर रहकर उन्होंने ध्वनि के कंपन और वाद्यों के सिद्धान्त का अध्ययन किया । उन्होंने भी वायलिन और सितार पर हारमोनिक संगीत सम्बन्धी कई लेख लिखे, जो लंदन में काफी प्रसिद्ध हुए । कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें भौतिक का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया । यहां पर वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सचिव भी नियुक्त हुए ।
1919 में अमृतलाल सरकार के निधन के पश्चात् रामन ने उनका कार्यभार संभालते हुए विभिन्न वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया । रामन ने पाया कि प्रकाश समूह बिलकुल सीधा नहीं चलता और उसका कुछ भाग अपना मार्ग बदलकर बिखर जाता है ।
भूख और प्यास की चिन्ता किये बगैर वे कई-कई घण्टों तक कार्य करते रहे । अपने प्रयोग से सम्बन्धित उपकरण जुटाने में उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा । 1921 में लंदन में उनकी मुलाकात रदरफोर्ड व जे॰जे॰ थॉमसन से हुई ।
उनके द्वारा किये गये प्रयोग व परिणाग वहां की रॉयल सोसाइटी की पत्रिका में छपे । वापस आते समय जहाज यात्रा के दौरान उन्होंने जल के नीले रंग को देखकर यह अध्ययन कर डाला कि जल का नीलापन छाया के कारण नहीं, जल के रंग के कारण ही आ रहा है ।
जबकि इसके पूर्व के वैज्ञानिकों ने इसे आकाश की नीली छाया का होना बताया था । उन्होंने अपने गहन शोध के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि प्रकाश जब ऐसे माध्यम से गुजरता है, जिसमें रेत के कण होते हैं, तो वह इधर-उधर बिखर जाता है ।
उसकी लम्बाई बदल जाती है । फलस्वरूप हमें रंग दिखाई पड़ते है । जब यही प्रकाश तरल पदार्थ से गुजरता है, तो तीव्रता और तरंग. लम्बाई दोनों में कमी आ जाती है । बिखरे हुए प्रकाश को उन्होंने इसी आधार पर यन्त्र से नापकर दुनिया को अवगत कराया ।
प्रकाश के परावर्तन सम्बन्धी बिखराव को उन्होंने 16 मार्च को साऊथ इण्डियन साइंस एसोसियेशन बैंगलोर में वैज्ञानिकों के समक्ष रखा । 1930 में उनके इस अनुसन्धान को समस्त विश्व ने सराहा और उन्हें इसी वर्ष नोबल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया ।
नोबल पुरस्कार लेने हेतु सपरिवार स्टाकहोम गये । उन्होंने अपने इस प्रयोग को अल्कोहल द्रव पर भी करके दिखाया । रामन शरीर से अत्यन्त दुर्बल होते हुए भी आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी, कठोर परिश्रमी, स्वभाव से विनम्र, सादगीसम्पन्न जीवन जीने वाले, संस्कारी, परोपकारी, मानवसेवी, ईश्वर के प्रति आस्थावान तथा उत्कृष्ट वक्ता थे ।
3. उपसंहार:
सी॰वी॰ रामन को देश-विदेशों में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था । 1924 में रॉयल सोसायटी के फैलो, 1929 में लेनन शान्ति पुरस्कार, नाइट की पदवी से विभूषित होकर इटली द्वारा मेद्यसी पदक, अमेरिका ने फ्रेंकलिन पदक तथा इंग्लैण्ड ने भूजेज पदक, अंग्रेज सरकार द्वारा ”सर” की उपाधि तथा स्वतन्त्र भारत में ‘भारत रत्न’ जैसे सर्वोकष्ट सम्मान से विभूषित किया गया ।
वे एक न्यायप्रिय कठोर प्रशासक थे । रचाभिमानी, श्रेष्ठ अध्यापकीय गुणों से युक्त महान् वैज्ञानिक थे । गांधी, नेहरू तथा पटेल उनके प्रशंसक थे । वे रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट के सचिव भी रहे । 21 नवम्बर, 1970 की सुबह उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया । उनकी 28 फरवरी, 1928 को ‘रामन प्रभाव’ के नाम से प्रसिद्ध खोज के कारण आज भी पूरे भारतवर्ष में 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है ।