प्राचीन भारतीय चिकित्सा के जनक-चरक । Biography of Charak in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. चरक संहिता का महत्त्व ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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यह तो सत्य है कि सृष्टि में ज्यों ही मनुष्य का जन्म हुआ, त्यों ही मनुष्य के साथ रोगों ने भी जन्म लिया । प्राचीन मनुष्य अपने रोगों, घावों का उपचार प्राकृतिक वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों से किया करता था । कभी-कभी तो अन्धविश्वासी होने के कारण वह जादू-टोने के द्वारा भी रोगों से मुक्ति का उपाय हूंका करता था ।

भारतीय आयुर्वेद शास्त्र में ब्रह्मा को आयुर्वेद का ज्ञाता माना गया है । उन्होंने यह ज्ञान अश्विनीकुमारों को दिया । इन्द्र ने भी जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह कई ऋषि-मुनियों को दिया । ऋषि-मुनियों ने अपने शिष्यों को दिया । इस तरह भारतीय आयुर्वेद ज्ञान पद्धति हस्तान्तरित होते हुए ढाई हजार वर्ष पहले कई वेत्ताओं तक पहुंचीं ।

प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति का जो विकास हुआ, उसके जनक आचार्य चरकजी माने जाते हैं । वैसे चरक को कनिष्क के समकालीन माना गया है । ईसा की पहली शताब्दी में ही उन्होंने भारतीय आयुर्वेद शास्त्र, अर्थात् चरक संहिता की रचना की ।

2. चरक संहिता का महत्त्व:

चरक संहिता आयुर्वेद शास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्ध है । वस्तुत: यह गपथ षि आत्रेय तथा पुनर्वसु के ज्ञान का संग्रह है, जिसे चरक ने कुछ संशोधित कर अपनी शैली में प्रस्तुत किया । कुछ लोग अग्निवेश को ही चरक कहते हैं ।

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द्वापर युग में पैदा हुए ये अग्निवेश चरक ही हैं । अलबरूनी ने लिखा है कि: ”ओषधि विज्ञान की हिन्दुओं की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक चरक संहिता है ।” संस्कृत भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक को 8 स्थान तथा 120 अध्यायों में बांटा गया है ।

सूत्र स्थान में आहार-विहार, पथ्य-अपथ्य, शारीरिक तथा मानसिक रोगों की चिकित्सा का वर्णन है । निदान स्थान में रोगों के कारणों को जानकर 8 प्रमुख रोगों की जानकारी है । विमान स्थान में स्वादिष्ट, रुचिकर, पौष्टिक भोजन का उल्लेख है ।

शरीर स्थान में मानव शरीर की रचना, गर्भ में बालक के विकास की प्रक्रिया तथा उसकी अवस्थाओं का महत्त्व बताया गया है । इन्द्रिय स्थान में रोगों की चिकित्सा पद्धति का वर्णन, चिकित्सा स्थान में कुछ विशेष रोगों के इलाज एवं कल्प तथा सिद्धि स्थान में कुछ सामान्य रोगों की जानकारी है ।

इनमें शल्य चिकित्सा पद्धति का उल्लेख नहीं मिलता । चरक संहिता में मानव शरीर की 360 हाहुइयों तथा नेत्र के 96 रोग बताये गये हैं । वात, पित्त, कफ तथा गर्भ में बालक के विकास की प्रक्रिया का अत्यन्त प्रभावी वर्णन है ।

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चरक संहिता में वैद्य के लिए कुछ आचार संहिता तथा नैतिक कर्तव्य के पालन हेतु कुछ सिद्धान्त दिये गये हैं, जिसकी शपथ उपचार करने वाले को लेनी होती थी । कीर्ति लाभ के साथ-साथ जीवमात्र के प्रति स्वाथ्य लाभ की कामना बिना किसी राग-द्वेष के करने के साथ-साथ रोगी तथा उसके रोग के बारे में चर्चा गुप्त रखने की बात कही गयी है ।

नीम हकीम खतरा जान की आशंका से भी सचेत रहने को कहा है । चरक संहिता में वैद्यकीय ज्ञान को उच्च वर्ग तक सीमित रखा गया था, ऐसा ज्ञात होता है । चरक संहिता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय चिकित्सा पद्धति यूनानियों से भी कहीं श्रेष्ठ थी ।

3. उपसंहार:

यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि आचार्य चरक ने प्राचीन भारतीय समय में चिकित्सा के क्षेत्र में रोग तथा रोगों की पहचान से लेकर उसकी उपचार पद्धति के सम्बन्ध में काफी कुछ स्वास्थ्यवर्धक जानकारियां दी हैं ।

उनकी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का महत्त्व देश में ही नहीं, तत्कालीन समय में विदेशों में भी था । कुछ सीमाओं के होते हुए भी चरक की भारतीय चिकित्सा के क्षेत्र में अमूल्य देन थी । वे आयुर्वेद के जनक ही थे ।

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