जीन जैक्स रूसो की जीवनी | Biography of Jean Jacques Rousseau in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन चरित्र ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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सामाजिक अनुबन्ध के विचारकों में रूसो का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । वह एक दार्शनिक, क्रान्तिकारी विचारों का प्रणेता, शिक्षाशास्त्री, आदर्शवादी, मानवतावादी, युग निर्माता तथा साहित्यकार था । उसने परम्परागत प्राचीन शासन के सम्पूर्ण ढांचे को तोड़कर नवीन लोकतन्त्रीय व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया ।
रूसो हमेशा यही कहता था कि-मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होता है और सर्वत्र वह जंजीरों में जकड़ा हुआ है । उसके सामान्य इच्छा के सिद्धान्त तथा सावयवी समाज के सिद्धान्त को शी काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है । रूसो को राजदर्शन का पिता भी कहा गया है । वह मानव की नैतिकता का समर्थक था ।
2. जीवन और कार्य:
जीन जैक्स रूसो का जन्म 1712 में जिनेवा नगर के आइजक नामक घड़ीसाज यहाँ हुआ था । जन्म के समय ही उसकी माता का देहावसान हो गया था । उसकी चाची ने यद्यपि उसका लालन-पालन किया था, तथापि वह । उससे स्नेह नहीं करती थी ।
पिता के भी रनेह से वंचित रूसो ने 14 वर्ष की अवस्था में संगतराश का काम किया । वहां उसने पाश्विक व्यवहार सहने के साथ-साथ चोरी करने और झूठ बोलने की कला भी सीखी थी । वहां से भागकर कुछ वर्ष रूसो ने फ्रांस में आवरागर्दी करते हुए बुरी संगत में बिताये ।
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वह हमेशा वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति बन गया था, जिसे अपने नुदूत और भविष्य से कोई सरोकार न था । उसके कई महिलाओं से अनैतिक प्रेम सम्बन्ध रहे थे । मजदूरों की गन्दी बस्ती में रहकर उसने उमवारा, प्रताड़ित होने पर जीवन के हर पहलू को बारीकी से समझा ।
यद्यपि उसने नियमित शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, तथापि उसमें जन्मजात प्रतिभा अवश्य थी । 1749 में उसने एक निबन्ध प्रतियोगिता में भाग लिया । उसके मौलिक और सनसनीखेज विचारों के कारण उसे प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार मिला था ।
उस निबन्ध में उसने यह लिखा था कि-विज्ञान तथा कला की तथाकथित प्रगति से ही सभ्यता का नाश और चरित्र का पतन हुआ है । यदि सरल, सुखी और सद्गुणी जीवन बिताना है, तो प्राकृतिक जीवन अपनाना चाहिए । इस निबन्ध में उसने यह भी लिखा कि हमें फिर से अज्ञान, निर्धनता और भोलापन दे दो; क्योंकि वे ही हमें सुखी बना सकते है ।
समाज में सम्मानित होने पर उसने भद्र समाज से अपने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिये । वह एक दरिद्र अप्रशिक्षित धोबन के साथ रहने लगा था, जहां वह संगीत के साथ कठिनता से रोजी- रोटी कमा पाता था । इसी प्रकार उसने 1754 की डिजॉन विद्यापीठ की निबन्ध प्रतियोगिता में भाग लिया, जिसका विषय था: ‘असमानता की उत्पत्ति और उसकी आधारशिला’ ।
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इस विषय पर अपने विचारों में उसने लिखा कि विषमता का मूल कारण निजी सम्पत्ति है, जो कि नितान्त अस्वाभाविक और अनौचित्यपूर्ण है । रूसो ने लिखा कि वह प्रथम व्यक्ति है, जिसने एक भू-भाग पर अधिकार जमाकर यह कहना प्रारम्भ किया कि ”यह मेरी भूमि है” और उसकी इस बात को उान्य मूर्खों ने स्वीकार कर लिया और वही व्यक्ति राज्य का संस्थापक बन गया ।
निर्धन लोग इस का में रहते हैं कि राज्य उसकी रक्षा के लिए है, जबकि शक्तिशाली राज्य के विरुद्ध वे कुछ नहीं कर पाते हैं । सो की इस तर्कपूर्ण विषयवस्तु के तत्कालीन धनी समाज तथा फ्रांस के निरंकुश राजतन्त्र के अनुकूल न होने के कारण उसे पुरस्कार न देकर किसी दूसरे अयोग्य को पुरस्वगर दिया गया ।
इस घटना से रूसो के हृदय में और अधिक कटुता व्याप्त हो गयी । 1762 में उसने पेरिस छोड़ दिया और जिनेवा जाकर कैथोलिक प्रोटेस्टेंट बन गया और वहां की नागरिकता भी ग्रहण कर ली । कुछ समय बाद वह पेरिस के मौंटमेरिन्सी चला गया । वहां पर प्रकृति की गोद में रहते हुए अनेक रचनाएं लिखीं:
1. प्रोजेक्ट फार द एजुकेशन आफ एम॰डे॰ सेंट मेरी 1750 ई॰ ।
2. डिस्कोर्स अल द साइंसेज एण्ड आर्टस ।
3. द ओरिजन ऑफ इनकक्केलिटी एमंग मेन ।
4. द न्यू हेलायज-1761 ।
5. द सोसल कान्ट्रेक्ट- 1762 ई॰ ।
6. कन्केशन्स 1766 ई॰ ।
उसकी क्रान्तिकारी रचनाओं ने फ्रांस में एक क्रान्ति-सी ला दी थी । शासक और पादरीगण ने क्रुद्ध होकर उसकी गिरफतारी के उमदेश निकाले । पेरिस छोड्कर 16 वर्ष तक वह इधर-उधर खानाबदोश-सा भागता-फिरता रहा । प्राणरक्षा के लिए वह जर्मनी, इंग्लैण्ड भी भागता फिरा । यद्यपि उसे बर्क और हयूम जैसे साथियों का सहयोग मिला, तथापि वह किसी पर विश्वास नहीं करना चाहता था ।
रूसो ने अपने दार्शनिक विचारों में प्रकृति को सर्वोपरि माना है । प्राकृतिक जीवन को श्रेष्ठ मानते हुए उसने ”प्रकृति की ओर लौटो” का नारा दिया । उसने कहा: ‘सामाजिक संस्थाएं बुराइयों की जड़ हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु अच्छी होती है । वह मनुष्य के हाथों में पड़कर बुरी हो जाती है ।’
रूसो स्वतन्त्रता का पक्षधर था । वह किसी भी प्रकार के बन्धनों का विरोध करता था । वह नियम, सिद्धान्त व आदर्श को भी नहीं मानता था और कहता था: ”जो कुछ किया जा रहा है, उसके विपरीत करो ।”
मनुष्य स्वतन्त्र रूप से जन्म लेता है, पर प्रत्येक स्थान पर परतन्त्र है ।
उसके सभी सुख प्रकृति में ही निहित हैं । प्रकृति से दूरी ही उसके कष्ट का कारण है । सभ्यता, विकास, संस्कृति ने मनुष्य को बांध लिया है । वह राज्य व समाज को अत्याचार का घर मानता है । ”नगर मानव-जाति की कब्रें हैं ।” उसने अत्यधिक ज्ञान को अच्छा नहीं माना ।
रूसो ने सच्ची शिक्षा उसे माना है, जो बालक की अन्तर्निहित शक्तियों को अभिव्यक्ति दें । वह बाल केन्द्रित शिक्षा को महत्त्व देता था । प्लेटो की तरह उसने व्यक्ति से अधिक राज्य को महत्त्व नहीं दिया है । शिक्षा में जनतान्त्रिक भावना को जन्रा दिया है । उसने ”एमील” को एक आदर्श बालक तथा “सोफी” को आदर्श बालिका मानकर रुचि एव योग्यतानुसार अलग-अलग पाठ योजना तैयार की ।
रूसो ने पाठ्यक्रम में प्रकृति, मनुष्य तथा वस्तु से सम्बन्धित विषयों में प्राकृतिक विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज, साहित्य, भाषा, सिलाई- बुनाई, दस्तकारी, संगीत, खेल, चित्रकारी, नैतिक शिक्षा आदि को स्थान दिया । स्वयं करके सीखना, खोज तथा निरीक्षण, स्वाध्याय विधि, शिक्षण-विधि को प्रचलित किया । शिक्षा का केन्द्र बालक को मानकर विद्यालय को प्राकृतिक वातावरण में निर्मित करने को कहा ।
वह दण्डात्मक अनुशासन की जगह मुक्त्यात्मक अनुशासन का समर्थक था । निषेधात्मक शिक्षा में उसने पुस्तकीय शिक्षा, धार्मिक शिक्षा, निश्चित पाठयक्रम का सैद्धान्तिक तथा परम्परावादी शिक्षा का विरोध
किया । ‘सामाजिक समझौते के सिद्धान्त’ द्वारा उसने लोकतन्त्रीय समाज की स्थापना के महत्त्व को बताया, जिसकी सम्प्रभुता समाज में ही निहित है ।
रूसो ने सामान्य इच्छा को यथार्थ इच्छा व आदर्श इच्छा में व्यक्त किया है । वस्तुत: यह दोनों एक ही है । विशेष अर्थो में यथार्थ इच्छा मानव इच्छा का वह भाग है, जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ की प्रबलता होती
है । आदर्श इच्छा में मानव स्वयं के हित की अपेक्षा मानव हित को प्रधानता देता है ।
सामान्य इच्छा ही वस्तुत: राष्ट्रीय चरित्र में एकता रखती है, जो विवेक तथा लोककल्याण पर आधारित होती है । यद्यपि उसके सामान्य इच्छा के सिद्धान्त की आलोचना शी हुई है । उसने राज्य को तब तक वैध नहीं माना है, जब तक कि उस पर विधियों का शासन न हो । ऐसे प्रकृतिवादी, सामाजिक समझौते के प्रणेता विचारक 2 जुलाई, 1779 को 66 वर्ष की आयु पूर्ण कर प्रकृति की गोद में समा गये ।
3. उपसंहार:
हाब्स, लाक की तरह रूसो भी सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के प्रतिपादक थे । रूसो तत्कालीन समय में ऐसे क्रान्तिकारी विचारक के रूप में सामने आते हैं, जिन्होंने उस समय की दूषित शासन पद्धति, आर्थिक विषमता, सामाजिक व्यवस्था के भीषण दुष्परिणामों का नग्न चित्रण करते हुए जनता में जागति लायी । नेपोलियन की क्रान्ति, रूसो के ही विचारों का परिणाम थी ।