महर्षि कर्वे की जीवनी | Biography of Maharshi Karve in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका जन्म परिचय ।
3. विचार व कार्य ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
महाराष्ट्र की जिन महान् विभूतियों ने सामाजिक सुधार के साथ-साथ नारी शिक्षा हेतु अपना सर्वस्व होम कर दिया, उनमें महर्षि कर्वे का नाम भी सर्वप्रमुख है । तत्कालीन रूढिग्रस्त भारतीय समाज में नारी शिक्षा के माध्यम से जो चेतना तथा जागृति उत्पन्न की, वह उल्लेखनीय है ।
2. उनका जन्म परिचय:
स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह के प्रबल समर्थक महर्षि कर्वे का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण के अन्तर्गत शैरवाली गांव में 18 अप्रैल, 1857 को एक निर्धन परिवार में हुआ था । उनके पिता रस्सी बुनाई का धन्धा कर जीवन बसर किया करते थे । इस निर्धन अवस्था में भी वे अपने बेटे को पढाना चाहते थे ।
अण्णासाहेब के नाम से जाने जाने वाले कर्वेजी की प्रारम्भिक शिक्षा अत्यन्त कठिनाइयों में हुई । घर पर रहकर परीक्षा की तैयारी करते और 120 कि॰मी॰ दूर परीक्षा देने के लिए जाया करते थे । इस तरह मरूढ़तापोल तथा रत्नागिरी तथा बम्बई के कॉलेज से उन्होंने 26 वर्ष की अवस्था में 1884 को बी०ए० की पढ़ाई पूरी की ।
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बी॰ए॰ करने के उपरान्त उनके पास आजीविका की समस्या आ खड़ी हुई थी । अत: उन्होंने लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित पूना के फग्युर्सन कॉलेज में नाममात्र वेतन पर गणित पढ़ाना शुरू किया था । केवल 75 रुपये मासिक वेतन पर वे 25-30 वर्षो तक पढाते रहे । स्त्री शिक्षा, स्त्रियों की दशा में सुधार, विधवा विवाह व दलितों के प्रति उनके मन में कुछ करने की प्रबल इच्छा थी ।
इस तरह उन्होंने देश तथा विश्व-भर में भ्रमण यात्राएं करके इस दिशा में कार्य करने हेतु धन एकत्र किया और इससे बालिका विद्यालय एवं महिला महाविद्यालय की स्थापना की, जहां मातृभाषा की शिक्षा को अनिवार्य किया । इस तरह 104 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त कर संसार में अपना नाम अमर कर गये । अपने महान् कार्यो के कारण ही वे आणासाहेब से महर्षि कर्वे के रूप में प्रतिष्ठित हुए ।
3. उनके विचार और कार्य:
महर्षि कर्वे रत्री को समाज का महत्त्वपूर्ण अंग मानते थे । स्त्री शिक्षा की उपेक्षा के साथ-साथ उनकी दुर्दशा देखकर वे काफी चिन्तित रहा करते थे । 26 वर्ष की अल्पायु में उनकी पत्नी जब दो बच्चों को छोड्कर चली गयीं, तो वे अत्यन्त दुखी हो गये; क्योंकि उनकी पत्नी की असामयिक मृत्यु का कारण अल्पायु में विवाह एवं कम अवस्था में मातृत्व का बोझा न सह पाना ही था ।
अत: उन्होंने विवाह हेतु स्त्रियों की आयु को बढ़ाने हेतु लोगों में जागृति लाने का कार्य भी किया । पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद उनके घरवालों ने उन्हें पुनर्विवाह हेतु प्रेरित किया । अत: उस समय के प्रबल सामाजिक व पारिवारिक अन्तर्विरोध को सहते हुए भी उन्होंने एक विधवा से विवाह किया ।
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आनन्दीबाई नामक इस विधवा को लेकर जब वे घर पहुंचे थे, तो उन्हें अस्पृश्य मानकर घरवालों ने गोठान में ठहराया । इस बात से उन्होंने विधवा विवाह हेतु जागृति लाने का कार्य जोर-शोर से शुरू कर दिया । अनाथ तथा बालविवाह का दु:ख भोग रही कन्याओं के लिए उन्होंने हिंगण नामक स्थान में आश्रमों की स्थापना की, जहां शिक्षा के साथ-साथ उन्हें साधारण घरेलू धन्धों हेतु प्रशिक्षण दिया जाने लगा ।
वहां से प्राप्त आमदनी को इसी आश्रम के संचालन में लगाया जाता था । कालान्तर में इस आश्रम को एक अनाथ विधवा आश्रम तथा कन्या आश्रम में विभक्त कर दिया गया । उनके इस विचार और कार्यो के लिए उन्हें समाज में काफी आलोचनाओं विरोधों तथा अपमान का सामना करना पड़ा था ।
महर्षि कर्वे ने इससे विचलित हुए बिना घर-घर जाकर तथा विभिन्न सभाओं में स्त्री शिक्षा के महत्त्व पर अपने जरी विचार व्यक्त किये, जिसका परिणाम यह हुआ कि लोग अपनी लड़कियों को विद्यालय में पढ़ने हेतु भेजने लगे । स्त्री शिक्षा हेतु जागृति तो आयी, पर आमदनी के लिए उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी 75 रुपये का नियमित वेतन, 5 हजार की बीमा पॉलिसी आश्रमों के लिए दान कर दी ।
उनके इस सराहनीय कार्य को देखते हुए कुछ सम्पन्न लोगों ने आर्थिक दान देने की घोषणा की । पूना के एक समाजसेवक श्री नानजी ठाकरासी ने तो एकमुश्त 10 लाख रुपये का अनुदान दिया, जिसके कारण उन्होंने बालिका शिक्षा की जो पहल की, वह भी उनकी महानता का ही उदाहरण है । महर्षि कर्वे एक मानव ही नहीं महामानव थे । विद्यालय तथा महिला विद्यालय की स्थापना की ।
4. उपसंहार:
नारी जाति के उद्धार के रूप में महर्षि कर्वे का जो योगदान है, वह नि:सन्देह विशिष्ट है । विधवाओं की दशा में सुधार हेतु उन्होंने जो पहल की, वह भी उनकी महानता का ही उदाहरण है । महर्षि कर्वे एक मानव ही नहीं महामानव थे ।