संत एकनाथ की जीवनी | Biography of Sant Eknath in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. जन्म परिचय ।
3. उनका चमत्कारिक जीवन ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
सन्तों की भूमि महाराष्ट्र में महात्मा एकनाथजी का नाग भी अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है । ब्राहमण कुल में जन्मे इस सन्त ने कभी भी जाति के नाम पर किसी से भेदभाव नहीं किया, बल्कि उस समय की जातिवादी कट्टर भावना को लोगों के मन से निकालने का यथासम्भव प्रयास किया । एक अर्थो में वे सन्त के साथ-साथ समाजसुधारक भी थे ।
2. जन्म परिचय:
एकनाथजी का जन्म संवत् 1590 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में गोदावरी के निकट पैठण गांव में हुआ था । उनके पिता सूर्यनारायण और माता रुक्मणीबाई का उनके बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था, जिसके कारण उनकी दादी चक्रवाणि मैं उन्हें प्यार से “एकमा” कहकर पाला-पोसा । छह वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत होने के साथ ही उनकी बुद्धिमत्ता और तर्कशक्ति से बड़े-बड़े विद्वान् चकित रह जाते थे ।
बारह वर्ष की अवस्था में ही वे वैदिक धर्मशास्त्रों में पारंगत हो गये थे । गुरु की आज्ञा से उन्होंने धर्मपरायण, सेवाभावी गिरिजाबाई से विवाह किया था । आजीवन ईश्वर की साधना में लीन रहते हुए 1656 को उनकी देह पंचतत्त्व में लीन हो गयी ।
3. उनका चमत्कारिक जीवन:
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ईश्वर के परमभक्त एकनाथजी के जीवन से अनेक चमत्कारिक घटनाएं जुड़ी हैं । कहा जाता है कि वे जिस रास्ते से होकर गोदावरी स्नान को जाते थे, उसी रास्ते एक दुष्ट मौलवी उन्हें नहाकर लौटते समय उन पर कुल्ला करके अपवित्र कर देता था । एकनाथ कुछ न कहते, चुपचाप पुन: स्नान कर लौट जाते ।
एक दिन तो उस दुष्ट ने उन पर 108 बार कुल्ले किये । आखिर जब उसका मुंह थक गया, तो वह एकनाथजी के पैरों पर गिरकर बोला: ”मैं आपका अपराधी हूं ।” एकनाथ बोले: ”तुम्हारी वजह से मैंने एक ही दिन में 108 बार गोदावरी स्नान का पुण्य कमाया ।”
कुछ दुष्ट ब्राह्मणों ने उनकी सज्जनता की परीक्षा लेने के लिए एक बार एक व्यक्ति को उन्हें क्रोधित करने हेतु घर भेजा । एकनाथजी भगवद् भक्ति में रमे हुए थे । वह व्यक्ति उनकी पीठ पर चढ़ बैठा ।
एकनाथ हंसकर बोले: ”तुम्हारी इतनी उतत्मीयता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ ।”
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अब उस व्यक्ति ने उन्हें क्रोध दिलाने के लिए गिरिजाबाई की पीठ की सवारी भी कर डाली । वे गिरिजाबाई से बोले: “इस बालक को ठीक से पकड़े रहना, अन्यथा गिरकर उसे चोट लग जायेगी ।” गिरिजाबाई बोली: ”मुझे ऐसे बच्चों को संभालने का अच्छा अभ्यास है ।” सन्तों को भला क्रोध कैसे आता । एक बार हरिद्वार से रामेश्वर में गंगाजल चढ़ाने हेतु वे तीर्थयात्रा से लौट रहे थे ।
रास्ते में एक मरणासन्न प्यासे गधे को देखकर घड़े का सारा जल उसे पिला दिया । उनके साथियों ने इसका काफी विरोध किया । बाद में सभी को उसी गधे में रामेश्वरम् भगवान् के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
अछूतों के प्रति उनके मन में ऐसा प्रेमभाव था कि उनके पिता के वार्षिक श्राद्ध पर घर में बन रहे पकवानों की गन्ध पाकर कुछ अछूतों द्वारा भोजन की इच्छा प्रकट करते ही उन्हें सन्तुष्ट होने तक अपने घर बिठाकर भोजन कराया ।
ब्राह्मणों ने उनके इस कार्य की काफी निन्दा की । ब्राह्मणों ने भोजन करने से इनकार कर दिया । एकनाथजी ने भक्तिभाव से पितरों का आवाहन किया । पितृगण सशरीर वहां उपस्थित हुए । यह देखकर ब्राह्मणों की आंखें फटी की फटी रह गयी थीं । एक वेश्या के निमन्त्रण पर उसके घर जाकर एकनाथजी ने उसके हृदय में ईश्वर-भक्ति की ऐसी लगन लगायी कि उसने अपने जीवन को धन्य कर लिया ।
4. उपसंहार:
सन्त एकनाथ का विचार था कि केवल पूजा-पाठ से व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता । व्यक्ति के सत्कर्म और उसकी शुद्ध आत्मा ही उसे महान् बनाती है । जो लोग जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं, वे ढोंगी, पाखण्डी और अल्पज्ञानी हैं । पतितों और पीड़ितों की सेवा के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति में रमे रहकर सन्त एकनाथजी ने सन् 1656 को गोदावरी नदी के तट पर महासमाधि लगा ली ।