सुमित्रानन्दन पन्त की जीवनी । Biography of Sumitranandan Pant in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन परिचय व रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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छायावादी तथा प्रगति-वादी अनुभूति के कवि सुमित्रानन्दन पन्त ऐसे कवि रहे हैं, जिन्हें “प्रकृति के सुकुमार कवि” ‘प्रकृति के चितेरे कवि’, ‘कोमल कल्पना के कवि आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है । वस्तु वर्णन, नारी सौन्दर्य, छन्द योजना, अलंकार योजना में कोमलता के साथ-साथ पन्तजी ने प्रकृति के कण-कण में चेतना पहचानी है ।

उनकी प्रकृति कोमलता का आवरण पहनकर आती है, जो कभी आलम्बन रूप में, कहीं उद्दीपन रूप में, कहीं मानवीकरण रूप में दर्शन देती है । पन्तजी सामाजिक यथार्थ के कवि रहे हैं । ”परिवर्तन” शीर्षक से कविता लिखकर उन्होंने अपने क्रान्तिकारी, कठोर तथा ओजस्वी रूप का परिचय कराया ।

2. जीवन परिचय रचनाकर्म:

कविवर पन्तजी का जन्म अल्मोड़ा के कोसानी नामक ग्राम में 20 मई सन 1900 में हुआ था । उनके जन्म के 6 घण्टे बाद ही उनकी माता स्वर्ग सिधार गयीं । अपनी माता के स्नेह से वंचित इस बालक का पालन-पोषण पिता के साथ-साथ एक प्रकार से प्रकृति रूपी माता ने किया । अपनी प्रारम्भिक शिक्षा कोसानी से पूर्ण करने के बाद वे जयनारायण स्कुल काशी चले गये ।

वहां प्रयाग के म्योर सेन्हल कॉलेज में एफ॰ए॰ में प्रवेश लिया, किन्तु 1921 में गांधीजी के साथ असहयोग आन्दोलन में भाग लेने की वजह से कॉलेज की पढ़ाई अधूरी ही छोड़ दी । सन् 1950 में वे आकाशवाणी प्रयाग के प्रस्तोता, सलाहकार नियुक्त हुए । सन् 1960 तक इस पद पर रहें ।

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उनको ”कला एवं बूढ़ा चांद” पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला । “लोकायतन” पर सोवियत भूमि तथा “चिदम्बरा” पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ । हिन्दी काव्याकाश में अपनी चमक बिखेरकर 28 दिसम्बर, 1977 को वे विलीन हो गये ।

उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- ”वीणा”, “पल्लव”, “ग्रन्थों”, “गुंजन”, ”युगान्तर”, ”युगवाणी”, “ग्राम्या” ”स्वर्ण किरण” “स्वर्ण धूलि” “उत्तरा व युगपथ” । उनकी रचनाओं को चार भागों में बांटा जा सकता है: 1. प्राकृतिक सौन्दर्यवादी रचनाएं, 2. यथार्थवादी रचनाएं, 3. अन्तश्चेतनावादी रचनाएं, 4. नवमानवतावादी रचनाएं ।

कविवर पन्त प्रकृति के चितेरे कवि रहे है । प्रकृति के विभिन्न भावों के साथ-साथ उसके अनन्त, अद्वितीय सौन्दर्य की असंख्य छवियां उन्होंने देखी हैं । वे कहते हैं:

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया ।

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बाल ! तेरे बाल में, कैसे उलझा दूं लोचन ?

भूल अभी इस जग को…………… ।

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पन्तजी ने प्रकृति एवं नारी सौन्दर्य का चित्रण प्रकृति में मानवीय चेष्टाओं का आरोप करते हुए लिखा है:

कौन तुम रूपसी कौन ? व्योम से उतर रही चुपचाप ।

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सैकत शैया पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल ।

लेटी है शान्त, क्लान्त, निश्चल, तापस बाला गंगा निर्मल ।।

शशि मुख से दीपित मृदु करतल, लहरें उर पर कोमल कुंतल ।

गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर ।।

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पन्तजी की कविताओं में मानवतावादी स्वर है । वे कहते हैं: ”सुन्दर है विहग, सुन्दरतम है मानव ।” उनकी रचनाओं में नारी मुक्ति की कामना प्रबल रूप से मुखरित है ।

मुक्त करो ! हे नर ! मुक्त करो !

चिर-बन्दिनी नारी को !

युग-युग की निर्मम कारा से !

जननी, सखी प्यारी को ।।

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पन्तजी की कविताओं में छायावादी और प्रगतिवादी चेतनाओं के साथ-साथ रहस्यवादी स्वर भी मिलते हैं । उनका काव्य अरविन्द दर्शन और गांधीवादी आदर्शो से अनुप्राणित है । उनकी काव्य-भाषा कोमलकान्त पदावली से युका खड़ी बोली है । सरलता, सहजता, चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता, नाद-सौन्दर्य, आलंकारिता, बिम्बात्मकता उसकी विशेषता है । उनकी भाषा में प्रसाद, ओज और माधुर्य गुणों का सुन्दर प्रयोग है ।

3. उपसंहार:

पन्तजी छायावादी तथा प्रगतिवादी चेतना के श्रेष्ठ कवि है । काव्य की समस्त शैलियों का सुन्दर प्रयोग उनकी रचनाओं में मिलता है । वे कोमलता, सुकुमारता, कोमल कल्पना तथा प्रकृति के चितेरे प्रकृति प्रेमी कवि हैं । प्रकृति का अज्ञात आकर्षण उनकी कविता का स्त्रोत रहा है ।

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