हरिश्चंद्र का जीवन इतिहास | Life History of Harishchandra in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. सत्यवादी हरिश्चन्द्रजी का सत्य एवं त्याग ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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भारतीय संस्कृति त्याग, बलिदान और सत्य के आदर्शवादी सिद्धान्तों पर आधारित है । दानी कर्ण, राजा बाली, रंतिदेव जहां अपने महान दान कर्म के कारण पूजनीय हैं, वहीं राजा हरिश्चन्द्र अपने सत्य और महान त्याग के कारण भारतभूमि पर युगों-युगों तक श्रद्धा और आदर के साथ आदर्श व प्रेरक बने रहेंगे ।

2. सत्यवादी हरिश्चन्द्रजी का सत्य एवं त्याग:

अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र महाप्रतापी होने के साथ-साथ सत्य और त्याग के कारण सतयुग में देवताओं में भी पूजनीय थे । एक बार वे अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए भ्रमण करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचे, जहां एक स्त्री करुण स्वर में विलाप कर रही थी । राजा ने उसके दुःख का कारण पूछा ।

उसने बताया कि उसके दु:ख का कारण तो ऋषि विश्वामित्र की तपस्या है । उस क्षेत्र में उनके द्वारा की जा रही तपस्या से उसका मन अशान्त हो गया है । प्रजाहितैषी राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र के समक्ष उपस्थित होकर उनको वहां तप न करने हेतु विनयपूर्वक प्रार्थना की ।

उनके जाते ही विश्वामित्र अपने तप के इस तरह भंग होने पर क्रोधित हो उठे । इसके बाद उन्होंने उनसे प्रतिशोध लेने का संकल्प किया । अपनी योगमाया से उन्होंने एक बड़े भयानक आकार वाले शूकर को उनके राज्य में उत्पात मचाने हेतु भेजा । शूकर ने आकर राज्य के समस्त उद्यान, वाटिका को तहस-नहस कर डाला ।

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वह सैनिकों के वश में नहीं था । अत: सैनिकों ने हरिश्चन्द्र से जाकर सारा हाल कह डाला । हरिश्चन्द्र सशरीर रथ पर सवार होकर उस फार के पीछे-पीछे हो लिये । तेजी से दौड़ता हुआ शुकर उन्हें वन तक ले गया ।

वन में दूर तक पीछा करते हुए राजा राजमहल से काफी दूर तक निकल आये थे । वे रास्ता भी भूल चुके थे । थकित-भ्रमित हरिश्चन्द्र एक  पेड़ के नीचे चिन्तामग्न होकर बैठ गये । वृद्ध ब्राह्मण का वेश बदलकर विश्वामित्र ने उनका हाल पूछा । राजा हरिश्चन्द्र ने सविस्तार उन्हें सारी घटना कह डाली ।

इस पर वृद्ध ब्राह्मण का वेश बदले विश्वामित्र ने उनसे कहा: वे उन्हें राजमहल तक पहुंचने का रास्ता इस शर्त पर बतायेंगे कि जो वो दान में मांगेंगे, उन्हें वह देना ही होगा । योगमाया से भ्रमित हरिश्चन्द्र ने उन्हें यह बताया कि वे अयोध्या  के राजा हरिश्चन्द्र हैं । उनकी नगरी में पधारकर अपना दान ले लें ।

उनके पास सोना, चांदी, घोड़े, हाथी से लेकर कोई भी वस्तु अदेय नहीं है । वृद्ध ब्राह्मण ने कहा कि उसे अपनी पुत्री और पुत्र का विवाह करना है । सो उसके लिए दान चाहिए । राजा हरिश्चन्द्र ने कहा: ”जितनी दान-दक्षिणा चाहिए, ले लीजिये ।” विश्वामित्र ने कहा: ”मुझे ढाई भार सोना भी देना होगा ।”

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विश्वामित्र की इस कपट बुद्धि से अनभिज्ञ राजा सैनिकों के साथ राजमहल को लौट गये, किन्तु उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएं साफ देखी जा सकती थीं । उन्होंने अपनी पत्नी तारामति से सारा हाल कह दिया । तारामति ने उन्हें चिन्तामुक्त रहने हेतु कहा ।

दूसरे दिन वृद्ध ब्राह्मण (विश्वामित्र) आ पहुंचे और बोले: ”राजन् ! तुमने अपना सम्पू!र्ण राज्य, वैभव, हाथी, घोड़े, स्वर्ण आदि मुड़ी दान में दे दिया है । अब तुम तीन व्यक्तियों को इस राज्य को छोड़कर वन में चले जाना चाहिए ।”

ऐसा सुनते ही राजा हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी तारामति, पुत्र राहुल के साथ राजभवन से निकल गये । अयोध्या के लोग दुराचारी ब्राहाण की निन्दा करते हुए राजा से कहने लगे: ”आप न जाइये । आपके बिना हम कैसे जीवित रह पायेंगे ।” विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को याद दिलाया कि ढाई भार सोना तो उन्होंने दिया ही नहीं ।

पत्नी, पुत्र सहित भूखे-प्यासे भटकते-भटकते वे काशी नगरी पहुंचे । इतनी जल्दी ढाई भार सोना न देने पर ब्राह्मण के श्राप से भयभीत राजा को चिन्ताग्रस्त देखकर रानी तारामति ने उन्हें बेचकर यह धन जुटाने की बात कही । राजा हरिश्चन्द्र इस बात को सुनकर अत्यन्त लज्जित अनुभव करते हुए अचेत-से हो गये ।

इसी बीच वहां विश्वामित्र आ पहुंचे । उसी क्षण ढाई भार सोने की मांग करने लगे । पत्नी के लाख कहने पर हरिश्चन्द्र ने उन्हें दासी के रूप में बेचने के लिए बिठा दिया । उनकी आंखों से पत्नी की दशा देखी नहीं जा रही थी । बूढे ब्राह्मण का वेश धारण कर विश्वामित्र ने उसे खरीदने की इच्छा जाहिर की ।

बत्तीस लक्षणों वाली पत्नी को ब्राह्मण को बेच दिया । खरीदते ही ब्राह्मण उसे केशों सहित घसीटता हुआ ले चला । वह बालक राहुल को साथ नहीं ले जाना चाहता था, किन्तु माता के बिना पुत्र कैसे रहेगा ? तारामति के कहने पर ब्राह्मण ने उसे भी मोल देकर खरीद लिया ।

इस खरीदी में राजा को दस करोड़ मोहरें तथा पुत्र से एक करोड़ मोहरें मिलीं । कुल मिलाकर ग्यारह करोड़ मोहरें जुटी थीं । राजा ने इसे विश्वामित्र को देना चाहा । विश्वामित्र ने उसे धिक्कारते हुए कहा: ”तुम्हारी पत्नी और पुत्र का मूल्य मुझे स्वीकार्य नहीं ।” यह कहते हुए ग्यारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं राजा से छीन लीं ।

अब राजा स्वयं हाट में बिकने के लिए तैयार बैठे थे । तभी वहां दुर्गन्धयुक्त शरीर वाला एक भयानक चाण्डाल आ पहुंचा, जो विश्वामित्र की योगमाया का ही रूप था । चाण्डाल ने विश्वामित्र को निश्चित रकम दे दी और राजा को डण्डे से पीटता हुआ अपने घर ले गया तथा कारागार में डाल दिया ।

अन्न-जल त्यागे राजा ने इस कार्य से इनकार किया था । अत: अब अपनी स्त्री और पुत्र का ध्यान कर वे इस कार्य के लिए तत्पर हो गये । चाण्डाल ने उन्हें कारागार से निकालकर श्मशान घाट काशीपुरी के दक्षिण में भेज दिया । सड़े-गले, पशु-पक्षियों और मानवों के मृत शरीर से भीषण दुर्गन्ध उठ रही थी ।

कुछ शव जले-अधजले देखकर राजा हरिश्चन्द्र का मन वितृष्णा से भर उठा । शरीर पर पुराना वर, साथ में एकमात्र गुदड़ी सोने के लिए प्राप्त कर अंधेरी, दुर्गन्धयुक्त जगह में रहने को वे बाध्य थे । मृतक के परिवार से कर तथा कफन वसूल कर अपने स्वामी चाण्डाल को देना उनका धर्म था ।

इसी प्रकार बारह महीने, सौ वर्षो के बराबर कष्ट में बीते । विश्वामित्र ने अपनी योगमाया से बगीचे में खेलते हुए बालक रोहित को विषैले सर्प का रूप धरकर डस लिया । रोहित मर गया । माता को यह खबर मिली, तो वह मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी । खबर देने आये ब्राह्मण ने रानी पर कुपित होकर जल के छीटे मारे ।

रानी को चेत आया, तो ब्राहाण ने कहा: ”तेरे हृदय में जरा भी लज्जा नहीं है । मेरे घर में दरिद्रता लाने व अशुभ, अमंगल लाने हेतु तू रो रही है । मैंने तेरी कीमत चुकाई है । तू अपने पुत्र को देखने के लिए बाहर नहीं जा सटन्ती है । मैंने वेतन देकर तुझे मोल लिया है । अत: तू घर का काम कर, नहीं तो कोड़े से तुझे ताड़ित करुंगा ।”

ब्राह्मण के आगे हारकर रानी ने घर का काम करने के साथ ब्राह्मण की सेवा-सुभूषा की । आधी रात बीत जाने पर ब्राह्मण ने कहा: ”अब तू अपने पुत्र के पास जा सकती है और उसका दाह-संस्कार करके आ सकती है ।” रोती-बिलखती रानी हा पुत्र ! हा पुत्र ! कहती हुई बालक के मृत शरीर को लेकर श्मशान घाट पहुंची ।

धूल-धूसरित रानी को देखकर राजा उसे पहचान नहीं सके । इधर चाण्डाल भी वहां आ पहुंचा था । राजा मन-ही-मन उस स्त्री की दशा देखकर सोच रहे थे ओके यह जरूर सुलक्षणी स्त्री है । इसके मुख पर रही आलोक इस अवरथा में मी दिखाई देता है ।

दास हरिश्चन्द्र ने रानी से जब सारी कथा-व्यथा सुन, तो उन्हें यह समझाते देर नहीं लगी कि यह तो उनकी ही पत्नी और पुत्र हैं । मरे हुए पुत्र को राजा ने दुखी होकर अपने हृदय से लगा लिया । पति की श्मशान घाट पर दास के रूप में ऐसी दयनीय दशा देखकर रानी अपने पति को देखकर अचेत होकर गिर पडी और सोचने लगी कि यह कौन-से देव का विधान है, जिसके फलस्वरूप हमारी ऐसी दशा हुई ?

राजा ने होश में आते ही रानी से मृत शरीर को जलाने हेतु कर मांगा । रानी ने अपनी आधी साड़ी फाड़कर रोते-बिलखते कफन के लिए इसे स्वीकारने का निवेदन किया । राजा ने कहा: “मैं चाण्डाल की आज्ञा के बिना कुछ नहीं कर सकता ।”

रानी चिता में अपने पुत्र के साथ जलने को व्याकुल हो उठी थी । राजा यह सोचकर और दुखी हो गये कि चाण्डाल की आज्ञा के बिना वे इस शरीर का त्याग कर देंगे, तो उनका स्वामी धर्म भंग हो जायेगा ।

उन्होंने रानी से कहा: ”हे तारामति तुम भी अपने इसी रचागी धर्म का पालन करने हेतु उस वृद्ध ब्राह्मण के घर लौट जाओ । उनके प्रति अब तुम्हारा जो कर्तव्य है वह करो ।”

रानी ने कहा: ”मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करूंगी ।” राजा ने अत्यन्त दु:खभार से अपने पुत्र रोहित का मृत शरीर चिता पर रखा और उसे अग्नि को समर्पित करने से पूर्व जगदम्बा का ध्यान करने लगे । तभी वहां चमत्कार हुआ ।

ध्यान में लीन राजा हरिश्चन्द्र के समक्ष इन्द्र सहित अश्विनीकुमार, अन्य देवतागण तथा ऋषि विश्वामित्र भी आ खड़े हुए । आकाश से पुष्प तथा अमृत की वर्षा हुई और रोहित जीवित होकर उठ बैठा । रानी तथा राजा ने अपने पुत्र को गले से लगा लिया । इन्द्र ने कहा: ”राजा हरिश्चन्द्र, अब तुम अपने परिवारसहित स्वर्ग चलो ।”

हरिश्चन्द्र ने कहा: “देवराज ! चाण्डाल मेरा स्वामी है, अत: मैं उसकी आज्ञा के बिना स्वर्ग नहीं चल सकता ।” विश्वामित्र ने बताया कि चाण्डाल तो उनकी योगमाया का ही एक रूप है । राजा ने अपने राज्य के पुण्यात्मा नागरिकों को श्री स्वर्ग ले जाने का निवेदन किया ।

इन्द्र ने ऐसा ही होगा कहकर प्रार्थना स्वीकार कर ली । राजा ने अपने पुत्र रोहित का राज्याभिषेक कर दिया । इसके बाद रोहित ने अपने पिता की तरह ही राजधर्म का निर्वाह किया और कालान्तर में वह भी स्वर्ग का अधिकारी बना ।

4. उपसंहार:

राजा हरिश्चन्द्र का सम्पूर्ण जीवन इस सत्य का प्रतिपादन करता है कि किस तरह उन्होंने अपने सत्यधर्म का पालन किया । उनके द्वारा किया गया त्याग भी उनकी इसी महानता को दर्शाता है । जब तक सृष्टि रहेगी, तब तक राजा हरिश्चन्द्र की यश और कीर्ति समस्त लोकों में ऐसे ही जगमगाती रहेगी ।

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