अशोक पर निबंध | Essay on Ashoka in Hindi!
चंद्रगुप्त के बाद बिंदुसार गद्दी पुर बैठा, जिसके शासन की महत्त्वपूर्ण बात है यूनानी राजाओं के साथ निरंतर संबंध । उसका पुत्र अशोक मौर्य राजाओं में सबसे महान हुआ । बौद्ध परंपरा के अनुसार वह अपने आरंभिक जीवन में परम क्रूर था और अपने 99 भाइयों को कत्ल करके राजगद्दी पर बैठा ।
लेकिन यह बात केवल किंवदंती पर आधारित है इसलिए गलत भी हो सकती है । बौद्ध लेखकों ने अशोक का जो जीवनचरित लिखा है वह कल्पनाओं से भरा है. इसलिए उसे गंभीरतापूर्वक ग्रहण नहीं किया जा सकता ।
अशोक के अभिलेख (Records of Ashoka):
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हम अशोक का इतिहास उसके अभिलेखों के आधार पर तैयार करते हैं । अशोक पहला भारतीय राजा हुआ जिसने अपने अभिलेखों के सहारे सीधे अपनी प्रजा को संबोधित किया । अशोक के अभिलेखों को पाँच श्रेणियों में बाँटा गया है: दीर्घ शिलालेख लघु शिलालेख पृथक शिलालेख दीर्घ स्तंभलेख और लघु स्तंभलेख ।
अशोक का नाम केवल प्रथम लघु शिलालेख की प्रतियों में मिला है जो कर्नाटक के तीन स्थान और मध्य प्रदेश के एक स्थान पर पाई गई हैं । अन्य सभी अभिलेखों में केवल देवानापिय पियदसि (देवों का प्यारा) उसकी उपाधि के रूप में मिलता है और अशोक का नाम छोड़ दिया गया है ।
ये अभिलेख शिलाओं पर पत्थर के पालिशदार शीर्षयुक्त स्तंभों पर गुहाओं में और एक मामले में मिट्टी के कटोरे पर भी खुदे हुए हैं । ये न केवल भारतीय उपमहादेश में ही अपितु अफगानिस्तान में भी पाए गए हैं ।
अब तो ये 45 स्थानों में कुल 182 पाठांतरों में पाए गए हैं । इन अभिलेखों में राजा के आदेश सूचित किए गए हैं । प्राकृत में रचे ये अभिलेख साम्राज्य भर के अधिकांश भागों में ब्राह्मी लिपि में लिखित हैं । किंतु पश्चिमोत्तर भाग में ये खरोष्ठी और आरामाइक लिपियों में हैं और अफगानिस्तान में इनकी भाषा और लिपि आरामाइक और यूनानी दोनों है ।
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अशोक के अभिलेख सामान्यतः प्राचीन राजमार्गों के किनारे स्थापित थे । इनसे अशोक के जीवनवृत्त उसकी आंतरिक और पर-राष्ट्रीय नीति तथा उसके राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है ।
कलिंग युद्ध का प्रभाव (Effect of Kalinga War):
अशोक की गृह और विदेश नीति बौद्ध धर्म के आदर्श से प्रेरित है । राजगद्दी पर बैठने के बाद उसने केवल एक युद्ध किया जो कलिंग युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है । उसके अपने कथन के अनुसार इस युद्ध में 1,00,000 लोग मारे गए, कई लाख बरबाद हुए और 1,50,000 लोग बंदी बनाए गए ।
ये कड़े अतिश्योकिापूर्ण हैं, क्योंकि अशोक के अभिलेखों में सतसहस शब्द का प्रयोग कहावती तौर पर किया गया है । जो भी हो इससे प्रतीत होता है कि इस युद्ध में हुए भारी नरसंहार से अशोक का हृदय दहल गया ।
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इस युद्ध के कारण ब्राह्मण पुरोहितों और बौद्ध भिक्षुओं को भी बहुत कष्ट झेलने पड़े जिससे अशोक को गहरी व्यथा और पश्चाताप हुआ । इसलिए उसने दूसरे राज्यों पर भौतिक विजय पाने की नीति छोड्कर सांस्कृतिक विजय पाने की नीति अपनाई । दूसरे शब्दों में, भेरी-घोष के बदले धम्म-घोष होने लगा ।
हम अशोक के शब्दों में उसके 13वें मुख्य शिलालेख से एक उद्धरण दे रहे हैं:
‘राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने कलिंग पर विजय प्राप्त की । युद्ध में एक लाख पचास हजार लोग बंदी बनाए गए एक लाख मारे गए और उसके कई गुने नष्ट हुए । उसके बाद अब देवों का प्रिय निष्ठापूर्वक धम्म का पालन, धम्म की कामना और धम्म का उपदेश करने लगा । उसके बाद कलिंगविजयी देवों का प्रिय पश्चाताप करने लगा क्योंकि जब किसी देश को जीता जाता है तब वहाँ लोगों की हत्या मृत्यु और पलायन होते हैं । ऐसा वध देवों के प्रिय को बड़ा दुखद और गंभीर लगा । देवों के प्रिय को इससे भी अधिक दु:ख इसलिए है कि वहाँ जो कोई रहते हैं चाहे वे ब्राह्मण श्रमण या अन्य संप्रदायों के हों या ऐसे गृहस्थ हों जो गुरुजनों के आज्ञाकारी और अपने मित्रों परिचितों साथियों संबंधियों दासों और चाकरों के प्रति अच्छा व्यवहार करते हैं और निष्ठावान् हैं, वे सभी हिंसा हत्या और अपने प्रियजनों के विछोह के दु:ख को झेलते हैं । …उस समय कलिंग को जीतने में जितने लोग मारे गए मरे या बंदी हुए अब यदि उसके सौंवें या हजारवें भाग को भी वैसा ही भोगना पड़े तो देवों के प्रिय के लिए भारी व्यथाकारी होगा । …देवताओं का प्रिय धम्मविजय को ही श्रेष्ठ विजय समझता है…‘
अब अशोक ने कबायली समुदायों और सीमावर्ती राज्यों को अपने आदर्शात्मक विचारों से प्रभावित किया । कलिंग के स्वतंत्र राज्यों के प्रजाजनों से कहा गया कि वे राजा को पिता के तुल्य समझकर उसकी आज्ञाओं का पालन करें और उस पर विश्वास करें ।
अपने अधिकारियों को उसने निर्देश दिया कि वे उसके इस विचार का प्रचार उसकी सारी प्रजा में करें । इसी प्रकार जंगल में रहने वाले जनजातियों से भी कहा गया कि वे भी धम्म के मार्ग पर चलें ।
अब अशोक यह मानने लगा कि पराए राज्यों को सैनिक विजय के उपयुक्त क्षेत्र समझना अनुचित है । वह उन्हे आदर्श विचारों से जीतने का प्रयास करने लगा । पराए देशों में भी उसने मनुष्यों और पशुओं के कल्याण के लिए कदम उठाए । उन दिनों की स्थिति को देखते हुए यह सर्वथा नई चीज थी । उसने पश्चिम एशिया और यूनानी राज्यों में अपने शांतिदूत भेजे ।
ये सभी बातें अशोक के अपने ही अभिलेखों के आधार पर कही जा सकती हैं । यदि बौद्ध परंपरा पर विश्वास किया जाए तो अशोक ने श्रीलंका और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने धर्मप्रचारक भेजे । इससे प्रतीत होता है कि प्रबुद्ध शासक के रूप में अशोक ने प्रचार के द्वारा अपने राजनीतिक प्रभाव का क्षेत्र बढ़ाया ।
यह सोचना गलत होगा कि कलिंग युद्ध ने अशोक को नितांत शांतिवादी बना दिया । उसने हर हालत में ‘शांति के लिए शांति’ की नीति नहीं ग्रहण की । दूसरी ओर उसने अपने साम्राज्य के लिए सुदृढ़ीकरण की व्यावहारिक नीति अपनाई । उसने विजय के बाद कलिंग को अपने कब्जे में रखा और अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि उसने चंद्रगुप्त मौर्य के समय से चली आ रही विशाल सेना को विघटित कर दिया ।
वह जनजातियों से बार-बार कहता रहा कि वे धम्म का मार्ग धरे और साथ ही धमकी भी देता रहा कि यदि वे सामाजिक व्यवस्था और नैतिक नियम (धम्म) का उल्लंघन करेंगे तो बुरे परिणाम होंगे ।
अपने साम्राज्य के भीतर उसने एक तरह के अधिकारियों की नियुक्ति की जो राजूक कहलाते थे और इन्हें प्रजा को न केवल पुरस्कार ही बल्कि दंड देने का भी अधिकार सौंपा गया था । धर्म के सहारे साम्राज्य को सुदृढ़ करने की अशोक की नीति फलदायक सिद्ध हुई ।
कंधार अभिलेख से मालूम होता है कि उसकी इस नीति की सफलता बहेलियों और मछुआरों पर भी हुई और उन्होंने जीव-हिंसा को त्याग कर संभवतः व्यवस्थित खेतिहर जीवन को अपना लिया ।
आंतरिक नीति और बौद्ध धर्म (Internal Policy and Buddhism):
कलिंग युद्ध के परिणामस्वरूप अशोक बौद्ध हो गया । परंपरा बताती है कि वह बौद्ध भिक्षु हो गया । उसने बौद्धों को अपार दान दिया और बौद्ध धर्म-स्थानों की यात्रा की । उसकी इस यात्रा का संकेत उसके अभिलेखों में आए धम्मयात्रा शब्द से भी मिलता है ।
पारंपरिक अनुश्रुति के अनुसार, अशोक ने बौद्धों का तीसरा सम्मेलन (संगीति) आयोजित किया, और धर्म प्रचारकों को केवल दक्षिण भारत ही नहीं श्रीलंका बर्मा आदि देशों में भी भेजा ताकि वहाँ के लोगों को बौद्ध धर्म में लाया जाए । ईसा-पूर्व दूसरी और पहली सदियों के ब्राह्मी अभिलेख श्रीलंका में मिले हैं ।
अशोक ने अपने बारे में बड़ा उच्च आदर्श रखा । यह आदर्श था राजा का पिता के तुल्य होना । उसने अपने अधिकारियों को बार-बार कहा कि राजा प्रजा को अपनी संतति समझता है, यह बात वे प्रजा को बता दें ।
अधिकारियों से उसने यह भी कहा कि राजा के प्रतिनिधि के नाते वे प्रजा की देखभाल किया करें । अशोक ने नारी सहित समाज के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म का प्रचार करने के लिए धम्ममहामात्र बहाल किए । अपने साम्राज्य में न्याय-कार्य करने के लिए उसने राजूकों की भी नियुक्ति की ।
वह कर्मकांडों का विशेषत: स्त्रियों के बीच प्रचलित अनुष्ठानों या रस्मों का विरोधी था । उसने कई तरह के पशु-पक्षियों की हिंसा पर रोक लगा दी और उसकी राजधानी में तो प्राणी को मारना पूर्णत: निषिद्ध था । उसने ऐसे तड़क-भड़क वाले सामाजिक समारोहों पर भी रोक लगा दी जिनमें लोग रंगरेलियाँ मनाते थे ।
परंतु अशोक का धर्म संकुचित नहीं था । इसे हम संप्रदायवादी नहीं कह सकते हैं । इस धर्म का व्यापक लक्ष्य था समाज को सुव्यवस्थित बनाए रखना । इसका उपदेश था कि लोग माता-पिता की आज्ञा मानें ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का आदर करें तथा दासों और सेवकों के प्रति दया करें । ये उपदेश बौद्ध धर्म में भी पाए जाते हैं और ब्राह्मण धर्म में भी ।
अशोक ने लोगों को ‘जियो और जीने दो’ का पाठ पढ़ाया । उसने जीवों के प्रति दया और बांधवों के प्रति सद्व्यवहार की सीख दी । उसके उपदेशों का लक्ष्य था परिवार-संस्था और तत्कालीन सामाजिक वर्ग व्यवस्था की रक्षा करना । वह बताता था कि जो लोग भला आचरण करेंगे वे स्वर्ग जाएँगे ।
उसने ऐसा नहीं कहा कि वे निर्वाण प्राप्त करेंगे जो कि बौद्ध धर्म का चरम लक्ष्य है । इस प्रकार अशोक के उपदेशों का उद्देश्य सहिष्णुता के आधार पर तत्कालीन समाज-व्यवस्था को बनाए रखना था । ऐसा नहीं लगता कि उसने किसी कट्टरपंथी धर्म का प्रचार किया ।
इतिहास में अशोक का स्थान (Ashoka’s Place in History):
कहा जाता है कि अशोक की शांतिवादी नीति ने मौर्य साम्राज्य को बरबाद कर दिया पर यह सही नहीं है । इसके विपरीत अशोक ने अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं । निस्संदेह प्राचीन विश्व के इतिहास में वह महान धर्मप्रचारक शासक हुआ । उसने अपनी आस्था के प्रति बड़े ही उत्साह और निष्ठा से काम किया और अपने साम्राज्य के अंदर और विदेशों में सफलता पाई ।
अशोक ने देश में राजनीतिक एकता स्थापित की । उसने एक धर्म एक भाषा और प्रायः एक लिपि के सूत्र में सारे देश को बाँध दिया । उसके अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं । पर देश के एकीकरण में उसने ब्राह्मी खरोष्ठी आरामाइक और यूनानी सभी लिपियों का सम्मान किया ।
स्पष्टतः उसने यूनानी प्राकृत और संस्कृत जैसी भाषाओं को और विविध धार्मिक संप्रदायों को समन्वित किया । उसने सहनशील धार्मिक नीति चलाई । उसने प्रजा पर बौद्ध धर्म लादने की चेष्टा नहीं की । उसने हर संप्रदाय के लिए दान दिए भले ही वह संप्रदाय बौद्ध धर्म को न मानता हो या उस धर्म का विरोधी ही हो ।
धर्मप्रचार के कार्य में अशोक को अपार उत्साह था । उसने साम्राज्य के सुदूर भागों में भी अपने अधिकारियों को तैनात किया । इससे प्रशासन-कार्य में लाभ हुआ और साथ ही विकसित गंगा के मैदान और पिछड़े दूरवर्ती प्रदेशों के बीच सांस्कृतिक संपर्क बढ़ा । भौतिक संस्कृति जो साम्राज्य के मध्यवर्ती इलाकों की विशिष्टता थी कलिंग और निचले दकन और उत्तरी बंगाल में भी फैल गई ।
सबसे बढ़कर, इतिहास में अशोक का नाम उसकी शांति । अनाक्रमण और सांस्कृतिक विजय की नीति के लिए अमर है । प्राचीन भारत के इतिहास में इस तरह की नीति अपनाने का कोई आदर्श अशोक के सामने नहीं था; और न इस तरह का कोई उदाहरण किसी देश में मिलता है । हाँ, मिस्र भले ही इसका अपवाद हो जहाँ अखनातन ने ईसा-पूर्व चौदहवीं सदी में शांतिवादी नीति को अपनाया था ।
लेकिन यह स्पष्ट है कि अशोक को अतीत के अपने इस मिस्री समचिंतक की जानकारी नहीं थी । कौटिल्य ने तो राजा को सलाह दी की राजा को शक्ति द्वारा विजय पाने की चेष्टा सदा करनी चाहिए लेकिन अशोक ने इसके ठीक उलटी नीति अपनाई ।
उसने अपने उत्तराधिकारियों से आक्रमण और विजय की नीति को त्याग देने को कहा जिसे मगध के राजा कलिंग युद्ध तक अपनाते चले आ रहे थे । उसने उन्हें शांति की नीति अपनाने की सलाह दी जो नीति दो सदियों से लगातार चले आ रहे आक्रमणात्मक युद्ध के बाद अत्यंत ही आवश्यक हो गई थी ।
अशोक निरंतर अपनी नीति पर दृढ़ रहा । यद्यपि उसके पास पर्याप्त साधन-संपदा थी और विशाल सेना थी तथापि उसने कलिंग विजय के बाद कोई युद्ध नहीं किया । इस अर्थ में वह अपने समय और अपनी पीढ़ी से बहुत आगे था ।
फिर भी उसके राज्यपालों और करद राजाओं पर उसकी इस नीति का स्थायी असर नहीं पड़ा जिन्होंने 232 ई॰ पू॰ में उसके राज्यकाल के समाप्त होते ही अपने आपको अपने-अपने क्षेत्र का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया । इसी प्रकार अशोक की नीति उसके पड़ोसियों की मनोवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं ला सकी । जब अशोक का राज्यकाल 232 ई॰ पू॰ में समाप्त हुआ, तब से 30 वर्षों के अंदर ही पड़ोसी राजा उसके साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर झपट पड़े ।