विद्यापति की जीवनी | Biography of Vidyapati in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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हिन्दी साहित्य में विद्यापतिजी का स्थान और महत्त्व प्रथम गीतकार के रूप में है । उन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम भरे गीतों की रचना की । वे आसाम, बंगाल, उड़ीसा, पटना में भी प्रसिद्ध रहे हैं । उन्हें मैथिल कोकिल भी कहा जाता है ।
चौदहवीं, पन्द्रहवीं शताब्दी में राधा-कृष्ण के प्रेम की जैसी अवधारणा उन्होंने की है, जिसके कारण शैव होकर भी वे कृष्णभक्ति शाखा के कवि कहलाये । मैथिली भाषा के माधुर्य एवं कोमलकांत पदावली में भक्ति एवं शृंगार की ऐसी भावधारा उन्होंने बहायी कि सारा वैष्णव समाज उसमें आकण्ठ डूब गया । हालांकि इस विषय पर विवाद उठता है कि वह भक्त कवि हैं या घोर शृंगारिक कवि हैं ?
2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म:
विद्यापतिजी का जन्म जिला-दरभंगा {बिहार} के विसपी ग्राम के एक विद्यानुरागी ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता गणपति ठाकुर संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान् और राजाश्रित कवि रहे हैं । विद्याध्ययन एवं लेखन का संस्कार उन्हें अपने परिवार से मिला था । अपने पिता की भांति उन्होंने राजा शिवसिंह एवं रानी लखिमा देवी का आश्रय प्राप्त किया ।
विद्यापति मैथिली, संस्कृत, अपभ्रंश के भी सिद्धहस्त कवि रह चुके हैं । कीर्तिलता, कीर्तिपताका उनकी अपभ्रंश में लिखी रचनाएं हैं । कवि ने उनकी भाषा को अवहट्ट का नाम दिया है । कीर्तिलता में उन्होंने आश्रयदाता कीर्तिसिंह की प्रशस्ति में अनुपम व प्रौढ़ रचना की है ।
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विद्यापति की रचनाओं में राजस्तुति परक पद भी मिलते हैं । इसमें मुख्य रूप से भक्ति एवं शृंगार का भाव भी मिलता है । यद्यापि शिव दुर्गा व गंगा के प्रति अनन्य भक्ति-भाव से भी उन्होंने रचनाएं की है, तथापि जिन पदों में राधा-कृष्ण को नायक-नायिका के रूप में ग्रहण कर घोर श्रुंगारिक वर्णन किया है, उनमें उनकी दृष्टि राधा के मुख एवं उरोजों पर ही गयी है ।
जनश्रुति है कि महाप्रभु चैतन्य उनके पदों को गाते-गाते मूर्च्छित हो जाया करते थे । इन पदों में रूप, अभिसार और मिलन का बहुधा चित्रण हुआ है । राधा और कृष्ण की क्रीड़ाओं को उन्होंने ऐन्द्रिक आसक्ति से पूर्ण बताया है ।
कवि ने न केवल मांसल सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की है, अपितु एक दूसरे की कामना में निमग्न भी बताया है । नखशिख वर्णन, मिलन की आकांक्षा, काम- केलि और प्रेम-लीलाओं की वियोग काल में स्मृति के चित्रण के कारण रामचन्द्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा उन्हें शुद्ध श्रुंगार कवि मानते हैं ।
उनकी पदावली में भाव-वर्णन अत्यधिक मार्मिक, प्रौढ़ एवं सशक्त है । संयोग श्रुंगार के मादक चित्र हों या वियोग व्यथा का मार्मिक चित्रण हृदय की तरलता एवं गहराई का भाव दोनों अवस्थाओं में समान रूप्र से विद्यमान है । अत: विद्यापति के प्रेम-वर्णनों में न तो मनोवैज्ञानिकता का अभाव है न ही अस्वस्थ दृष्टि का । सौन्दर्य के प्रति आसक्ति और प्रेमानुभूति ये दो मानव का सहज स्वभाव है । नायिका के नख-शिख सौन्दर्य का चित्रण विद्यापति ने जिस तरह किया है, उसका एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
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खने-खने नयन कोन अनुसरई, खने-खने वसन धूलि तनु भरई ।
खने-खने दसन छटा छुट हास । खने-खने अधर आगे करूवास ।
चउकि चलाये, खने-खने भलु मंद । मनमथ पाठ पहिल अनुबन्ध ।
हिरदय मुकुल हरि-हरि थोर । खने चर दये खने, होय भोर ।
बाला सैसव तारून भेट । लखये न पारिअ जेठ कनेठ ।
विद्यापति कह सुन वर कान तरूनिम सैसव चिन्हर न जान ।।
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विद्यापति की पदावली में विरह की काम-दशाओं का अत्यन्त मार्मिक वर्णन बन पड़ा है । इसी प्रकार कवि का अभिव्यंजना पक्ष भी पर्याप्त समृद्ध है । भाषा-लालित्य तो उनके काव्य की अप्रतिम विशेषता है । आलंकारिक वर्णन में भी वे कुशल हैं ।
3. उपसंहार:
सारांश यह है कि विद्यापति भक्त की नहीं, अपितु श्रुंगारी कवि भी थे । राधा-कृष्ण के प्रेम सम्बन्धी पदों में सर्वत्र भौतिक एवं वासनात्मक प्रेम की प्रधानता है । उनके वयसन्धि, नख-शिख सद्यास्नाता:, प्रेमप्रसंग, दूती नोक-झोंक, सखी शिक्षा, मिलन सखी संभाषण, कौतुक, अभिसार, छलना, मान-मान भंग, विदग्ध, विलास, बसन्त विरह सम्बन्धी सभी पदों में भौतिक वासना का प्राधान्य है ।
कहीं भी आत्मा एवं परमात्मा का ध्यान नहीं है । नायक और नायिका {राधा-कृष्ण} को प्रेम-क्रीड़ा में ही लीन बताया है, अत: यह कहा जाता है कि उनकी कविताओं में लौकिक एवं अलौकिक प्रेम का सर्वाग रूप चित्रित है ।