घनानंद की जीवनी | Biography of Ghananand in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत एवं कृतित्व ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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रीति ग्रन्थकारों में कुछ ऐसे भी कवि हुए हैं, जिन्होंने आचार्यत्व प्रदर्शन के लिए कविता नहीं लिखी, वरन् भाव-भरी कविताओं की सृष्टि करना ही अपना ध्येय बनाया । अपनी निजी भावना को काव्य में स्थान देते हुए उन्होंने  श्रुंगार परक रचनाएं करते हुए भक्ति के गीत गाये ।

उनकी रचनाओं में प्रेम की आदर्श व्यंजना है, कोई आडम्बर या प्रदर्शन नहीं है, जो कुछ है हृदय की मौन पुकार है, प्रेम की सात्विकता है, अनुभूति की गहराई है । ऐसे कवियों में कविवर घनानन्दजी का स्थान अत्यन्त शीर्ष पर है ।

2. जीवन वृत एवं कृतित्व:

रससिक्त कवि घनानन्दजी का जन्म संवत् 1746 को हुआ था । उनकी मृत्यु संवत् 1796 के लगभग हुई । कहा जाता है कि उनका जन्म दिल्ली के कायस्थ परिवार में हुआ था । घनानन्द बाल्यावस्था से ही कविता एवं संगीत के प्रेमी थे । इस सम्बन्ध में मान्यता यह भी है कि वे निम्बार्क सम्प्रदाय द्वारा दीक्षित थे ।

अपने गुरु नारायण देव के सम्पर्क में आकर उन्होंने प्रेम का पंथ स्वीकार किया । ऐसा भी कहा जाता है कि वे मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार के मीर मुंशी थे । उन्हीं की रक्षिता दरबार की नर्तकी सुजान पर बुरी तरह आसक्त थे । उनका यह प्रेम एक तरफा था । उनका प्रेम एकनिष्ठ था ।

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उनके प्रेम का प्रतिदान न मिलने पर उनका प्रेम अलौकिकता की ओर बढ़ चला था । वे वृंदावन जाकर वैराग्य धारण कर चुके थे । उन्होंने अनेक  ग्रन्थों की रचना की, जिसमें सुजान हित, सुजान सागर, सुजान प्रबन्ध, वियोग बेलि, सुजान बेलि, इश्कलता, गोकुल विनोद, विरह, लीला, कोकसार, रसकेलिविल्ली आदि प्रमुख हैं ।

घनानन्दजी के काव्य में अपने प्रिय सुजान के प्रति प्रेम की व्यंजना यत्र-तत्र मिलती है । प्रेम की अन्तर्दशा पीड़ा का चित्रण उन्होंने जैसा किया है, वैसा किसी ने नहीं किया । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ”घनानन्द ने तो अपने प्रेम के ताप को बिहारी की तरह न तो थर्मामीटर के पैमाने पर नापा है, न ही बाहरी उछलकूद मचाई है ।

जो कुछ है, वह हृदय की मौन-मधि प्रकार है । घनानन्द के विरह वर्णन के सम्बन्ध में परसुराम चतुर्वेदीजी ने लिखा है: ”घनानन्द ने विरह के महत्त्व को भली-भांति समझा था, इसीलिए प्रेमी के विदग्ध हृदय तथा उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन उन्होंने किया है, वैसा किसी अन्य कवि ने नहीं किया ।

वे प्रेम की पीड़ा के अमर गायक हैं । उनके लिए प्रेम का मार्ग अत्यन्त सीधा, निष्कपट, निश्छल है, जहां कपट या छल नहीं चलता है ।

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अति सहधो सनेह मारग को, जहां नेकु

सयानप बांक नहीं ।

जहां साचै चलै, तजि आपनयौ झझकै, कपटी जे निसांक नहीं ।।

घनानन्द प्यारे सुजान सुनौ, इन एक तो दूसरो आंक नहीं

तुम कौन धौ पाटी, पड़ी हो लला, मन लेहूं पै देहूं छटांक नही ।

प्रिय के प्रति उनके मन में इतनी उत्कंठा है तीव्रता है कि…!

भोर तें सांझ लौ कानन ओर निहारति बावरि नैक न धरति ।

भोर ते भोर लो तारनि ताकिबो सो इकतार…रसि ।।

वे अपनी प्रिय अलबेली सुजान को अपना प्रेम-भरा सन्देशा बादलों के माध्यम से भेजकर अपने सात्विक प्रेम की अनुभूति कराना चाहते हैं:

परकाजहि देह को धारि फिरौ, परजन्यजथारथ है दरसों ।

निधि नीर सुधा समान करी, सब ही विधि सज्जनता सरसों ।।

घनानन्दजीवन दायक है, कछु मेरियों पीर हिये परसौ ।

कबहूं वा विसासी सुजान के आंगन में असुंवनि लै बरसौ ।।

उन्होंने अपने प्रिय को जो प्रेम पत्र दिया था, उनके प्रिय ने उस प्रेम पत्र को देखा तक नहीं । बड़ी ही निष्ठुरता व निर्दयता के साथ टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया । फिर भी घनानन्द को उनसे कोई शिकायत नहीं । यही उनके प्रेम का उच्चादर्श है ।

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पूरन प्रेम को मन्त्र महापन जा मधि सोधि सुधारि है लेश्व्यों ।

ताहि के चारू चरित्र विचित्र यों पचि के

रचि राखि बिसेख्यौ ।

सो घनानन्द जान-अजान लौ टूक कियौ पर

बांचि न देख्यौ ।।

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घनानन्द अपनी प्रेयसी सुजान की बावरी रीझ के हाथ हार चुके थे । अपने प्रेम की आकुलता-व्याकुलता में वे चुपचाप तड़पते रहते थे । उनका मन चीत्कार नहीं कर पाता और घुटता ही रहता था । उनका प्रिय बड़ा कठोर और विश्वासघाती था । उनकी दुर्दशा देखकर भी नहीं पसीजता । वे अपनी प्रिया को छोड्‌कर नहीं जा सकते; क्योंकि प्रिय उनकी आत्मा में परमात्मा की तरह बसा है ।

घनानन्द की काव्य भाषा ब्रज है, जिसमें करुण व  श्रुंगार रस की प्रभावपूर्ण, मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हुई है । उनके काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्पेक्षा का प्रयोग उन्होंने किया है । लाक्षाणिक भाषा का प्रयोग उनके काव्य की विशेषता है । आवश्यकतानुसार सूक्तियों, कहावतों का प्रयोग उन्होंने किया है । घनानन्द ने अपने काव्य में कवित्त एवं सवैया छन्द का प्रयोग विशेषत: किया है ।

3. उपसंहार:

हिन्दी की सम्पूर्ण काव्यधारा का अनुशीलन करने के बाद यह ज्ञात होता है कि इस धारा के अन्य कवियों-रसखान, आलम, बोधा ठाकुर भी है, किन्तु उन्होंने प्रेमानुभूति का ऐसा वर्णन नहीं किया है, जैसा कवि घनानन्द ने किया है ।

घनानन्द ने अपनी प्रेयसी सुजान को आलम्बन बनाकर उसके रूप-सौन्दर्य का बड़ा ही गरिमापूर्ण, शालीनता, शिष्टता एवं औदात्यपूर्ण वर्णन किया है । सुजान की तिरछी चितवन मृदु मुसकान के अक्षय सौन्दर्य में प्रेम की गूढ़ता भरी है । सुजान की निष्ठुरता को वे सह लेते हैं । इस प्रकार उनका प्रेम लौकिकता से अलौकिकता की ओर अग्रसर हो जाता है ।

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