Translate from Hindi जयशंकर प्रसाद की जीवनी | Biography of Jayshankar Prasad in Hindi!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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हिन्दी साहित्याकाश में छायावादी कवि, कहानीकार, उपन्यासकार एवं नाटक सम्राट के रूप में प्रसादजी का नाम अपनी आभा से आलर्घेकेत है । प्रसादजी अपनी अनुपम भाषा सम्बन्धी सुन्दर प्रयोग के कारण श्रेष्ठतम साहित्यकारों में से एक हैं । अपनी लेखन शैली के द्वारा कविता के क्षेत्र में युगान्तर प्रयोग किये ।
रंगमंच की दृष्टि से हिन्दी नाटकों को श्रीवृद्धि प्रदान की । उनकी कहानी कला उतनी ही समृद्ध है, जितनी औपन्यासिक कला । ”कामायनी” महाकाव्य की रचना कर प्रसादजी ने हिन्दी साहित्य जगत को और समृद्धि प्रदान की ।
2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म:
जयशंकर प्रसादजी का जन्म सन् 1884 को काशी के सुप्रतिष्ठित सुंघनी साहू {तम्बाकू के व्यापारी} के यहां हुआ था । उनके पिता देवीप्रसाद साहू सुंघनी का व्यापार किया करते थे । प्रसादजी का बचपन अत्यन्त लाड-प्यार में बीता । काशी के क्वीन्स कॉलेज से उन्होंने सातवीं तक की शिक्षा प्राप्त की ।
पिता और बड़े भाई का देहान्त हो जाने के कारण उन्होंने दुकान संभाल ली । दुकान पर बैठे-बैठे ही उन्होंने स्वाध्याय जारी रखा । घर पर ही एक शिक्षक नियुक्त कर उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू फारसी, संस्कृत आदि की शिक्षा ग्रहण की । काव्य रचना की प्रवृत्ति बचपन से ही थी । प्रारम्भ में उन्होंने ब्रजभाषा में रचनाएं कीं ।
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तत्पश्चात खड़ी बोली में । उनकी काव्य रचनाओं में उर्वशी वन मिलन, प्रेमराज्य, अयोध्या का उद्धार, शोकोच्छवास, कानन कुसुम, चित्राधार, करुणालय, आसू लहर, झरना, कामायनी, महाराणा का महत्त्व प्रमुख है । उनकी सभी रचनाए भावपक्ष की दृष्टि से अत्यन्त सशक्त हैं ।
”आंसू” 64 छन्दों का काव्य है । उनकी कविताओं की प्रारम्भिक शैली हरिऔधजी की संस्कृतनिष्ठ शैली से मिलती है, जो रभूल है । ”झरना” में सर्वप्रथम छायावादी शैली के दर्शन होते हैं । ”आंसू” खण्डकाव्य को शुक्लजी ने उनकी विशिष्ट रचना कहा है । इसमें स्मृतिजन्य वेदना का निरूपण हुआ है ।
आंसू में लौकिक प्रियतम को अलौकिक सौन्दर्य से ओतप्रोत बताकर रहस्यमयी उदभावना की गयी है । यह पवित्र, उज्ज्वल प्रेम, विश्व बसुत्च की भावना, नैतिकता, आध्यात्मिकता के जीवन सन्देश के कारण अद्वितीय बन पड़ा है । यह हिन्दी का श्रेष्ठ गीतिकाव्य है, जिसका अनुभूति पक्ष, छन्द योजना, अलंकार योजना, भाषा में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ है ।
“लहर” में सौन्दर्य और विलास का कलात्मक चित्रण है । इसमें प्रबन्धात्मक ऐतिहासिक कविताएं भी हैं, जिनमें ”शेरसिंह का आत्मसमर्पण” सिख योद्धा शेरसिंह की गौरवगाथा है । पेशोला की प्रतिध्वनि में राणा प्रताप की वीरता का स्मरण है । ”प्रलय की छाया” में रूपगर्विता नारी के अन्तःकरण में उत्पन्न भावों का संघर्ष मनोवैज्ञानिक है ।
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उनकी बैठे कृति ”कामायनी” महाकाव्य में मानवीय चेतना का 15 सर्गों में मनोवैज्ञानिक वर्णन है, जिसमें चिन्ता, आशा, श्रद्धा, ईर्ष्या, संघर्ष, लज्जा, इड़ा और वासना, आनन्द सर्गों की रचना प्रमुख है, जिनमें भावों की सांकेतिक व्यंजनाएं हैं । सांकेतिक अर्थ के रूपक तत्त्व में प्रसादजी ने विशद स्वरूप का विवेचन किया है ।
बुद्धि तत्त्व और हृदय तत्त्व के संघर्ष में शैव दर्शन को आनन्द व मोक्ष का मूल बताया है । ”कामायनी” के माध्यम से व्यक्ति और समाज के स्तर पर जीवन के विकास की सम्भावनाओं को आनन्द की ओर उम्मुख बताया है ।
“कामायनी” आधुनिक युग का श्रेष्ठ महाकाव्य है, जो अपनी सर्गबद्धता, ऐतिहासिकता, चारित्रिक विशिष्टता, दार्शनिकता, शैलीगत गुरुता और आधुनिक जीवन की समस्याओं के चित्रण में विशिष्ट है । भौतिक तथा वैज्ञानिक सुविधाओं के बीच जीवन का आनन्द ”आकाश कुसुम” की तरह है । आज के चिन्ताग्रस्त मानव को आनन्द की तरफ ले जाना उनका ध्येय रहा है ।
औरो को हंसते देखो मनु, और सुख पाओ ।
अपने सुख को विस्तृत कर, सबको सुखी बनाओ ।
प्रेम पथिक में उन्होंने यही संकेत दिया है ।
इस पथ का उद्देश्य नही, श्रांत भवन में टिक रहना ।
परन्तु पहुंचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं ।।
जीवन अनन्त व शाश्वत है । जीवन अलभ्य है ।
जीवन अनन्त है । इसे छिन्न करने का अधिकार किसे है ।।
सबकी समरसता का कर प्रचार ।
मेरे सुत सुन, मां की पुकार ।।
आंसू में विरह-वेदना की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के बाद अन्तिम छन्द में कवि कहता है:
इस करुणा कलित हृदय में ।
अब विकल रागिनी बजती थी ।
क्यों ! हाहाकार स्वरों में ।
वेदना असीम गरजती ?
सबका निचोड़ लेकर तुम ।
सुख से सूखे जीवन में ।
बरसो प्रभात हिमकन सा ।
आसू इस विश्व सदन में ।।
हिन्दी नाटक को रंगमंच तथा साहित्यिक दृष्टि से सम्मानजनक दिशा देने का कार्य ”नाटक सम्राट” जयशंच्च प्रसाद ने किया । उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि से श्रेष्ठ 9 नाटकों का सृजन किया, जिनमें अजातशत्रु, जनमेयजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, चन्द्रगुप्त, स्वान्दगुज, ध्रुवस्वामिनी, विशाख प्रमुख है ।
इन नाटकों के सभी चरित्र भारतीय संस्कृति के शील, शक्ति और औदात्य के प्रतीक हैं । इन नाटकों के नारी पात्र शक्ति व प्रेरणा के स्त्रोत हैं । नाल्वकला की दृष्टि से अनुपम व अद्वितीय हैं । नाटकों की भाषा आलंकारित, तत्सम प्रधान व सामासिक है, जो सामान्य पाठकों के स्तर से कहीं ऊंची है ।
नाटकों की गीत योजना-कलात्मक गौरव व भाव-व्यंजना में श्रेष्ठ है । जयशंकर प्रसाद युग प्रवर्तक कहानीकार हैं । उनकी पहली कहानी ”ग्राम” सन् 1911 में प्रकाशित हुई । उनके अन्य कहानी संग्रह प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आधी, इन्द्रजाल, मधुआ, पुरस्वप्रार प्रमुख हैं ।
प्रसादजी की कहानियों में प्रेम, करुणा, त्याग, बलिदान, दार्शनिकता, काव्यात्मकता, मनोवैज्ञानिकता का प्रभाव चित्रण है, जिसमें संघर्षरत नारी समाज के अन्तर्द्वन्द्वात्मक मनःस्थितियों का अद्वितीय चित्रांकन हुआ
है । ”कंकाल तितली” ”इरावती” ”तितली” औपन्यासिक दृष्टि से श्रेष्ठ हैं ।
3. उपसंहार:
प्रसादजी आधुनिक हिन्दी कविता के श्रेष्ठ कवि, उपन्यासकार, नाटक सम्राट, कहानीकार रहे हैं । उनकी कविताओं में व्यक्तिगत वेदना की प्रधानता, प्रकृति प्रेम, प्रकृति तथा नारी सौन्दर्य, दार्शनिकता, काल्पनिकता, मानवतावादी भावना, आनन्दवादी भावना, भारतीय सांस्कृतिक गौरव, मानवीय प्रवृत्तियों का सूक्ष्म चित्रण, देशप्रेम और राष्ट्रीयता के उत्कृष्ट भाव हैं ।
विज्ञान और धर्म के संघर्ष व योग दर्शन का स्वरूप चित्रित है । ऐसे श्रेष्ठ साहित्यकार सन् 1937 को साहित्य ससार को समृद्ध कर इस संसार यात्रा से हमेशा के लिए चले गये ।