राजर्षि अंबरिश की जीवनी | Biography of Rajarshi Ambarish in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका जीवन ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

ADVERTISEMENTS:

राजर्षि अम्बरीष वैवस्वत मनु के पौत्र तथा महाराज नाभाक के पुत्र थे । वे चक्रवर्ती सम्राट थे । जब उन्हें यह बोध हुआ कि यह सारा ऐश्वर्य स्वप्न देखे हुए पदार्थ की तरह नश्वर और असत् है, तो उन्होंने अपना सारा जीवन परमात्मा के चरणों में समर्पित करने का प्रण किया । वे भगवान नारायण के परमप्रिय भक्त बन गये ।

2. उनका जीवन:

एक बार की बात है । राजा अम्बरीष ने रानी समेत श्रीकृष्ण की प्रीति प्राप्त करने के लिए एक वर्ष की एकादशियों का व्रत लिया । अन्तिम एकादशी के दूसरे दिन भगवान् की पूजा कर राजा पारण करना चाहते थे कि ऋषि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित पधारे ।

महाराज ने उनसे भोजन करने की प्रार्थना की । ऋषि ने स्वीकार कर लिया और वे स्वान-सच्चा करने यमुना के तट पर चले गये । एकादशी के व्रत का पारण द्वादशी को ही होता है । अत: द्वादशी की एक ही घड़ी बाकी थी । द्वादशी में पारण न होने पर व्रत भग होता है । इधर दुर्वासा ध्यानस्थ हो गये थे ।

राजा ने ब्राह्मणों से चर्चा कर अतिथि को भोजन कराये बिना भोजन करने के अपराध से बचने का उपाय और व्रत भंग न होने का उपाय पूछा था । ब्राह्मणों की आज्ञानुसार राजा ने गंगा जल से आचमन कर लिया और दुर्वासाजी की बाट जोहने लगे ।

ADVERTISEMENTS:

राजमन्दिर में लौटने पर दुर्वासा ने अपने तपोबल से यह जान लिया कि अम्बरीष ने जल ग्रहण कर लिया है । राजा अम्बरीष ने दुर्वासा को जब कुपित देखा, तो वे उनके सामने हाथ जोड़े अपराधी की तरह खड़े हो गये ।

क्रोधित दुर्वासा ने कहा: ”धर्म का निरादर करने वाले हे धृष्ट राजा ! तू विष्णु का भक्त हो ही नहीं सकता । तू तो स्वयं को ईश्वर मानता है । तूने अतिथि को भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लिया है । अभी तुझे इसका फल चखाता हूं ।”

यह कहकर दुर्वासाजी ने मस्तक ने एक जटा उखाड़कर जोर से पृथ्वी पर पटकी, जिससे कालाग्नि सदृश कृत्या नाम की एक भयानक राक्षसी प्रकट हो गयी । वह पृथ्वी को अपने पैर से कंपाते हुए तलवार हाथ में लेकर राजा की ओर दौड़ी थी, परन्तु विष्णुभक्त अम्बरीष भगवान् भक्ति में अचल होकर वहीं खड़े थे ।

भगवान् ने अपने भक्त की रक्षा हेतु सुदर्शन चक्र भेजा, जिससे उसी क्षण कृत्या भरम हो गयी । अब सुदर्शन चक्र ऋषि दुर्वासा की खबर लेने उनके पीछे-पीछे दौड़ा । दुर्वासा प्राण बचाने इधर-उधर भागे । दसों दिशाओं और चौदह भुवनों में उन्हें बचने की कोई जगह नहीं मिली ।

ADVERTISEMENTS:

अन्त में वैकुण्ठ जाकर वे भगवान विष्णुजी के श्री चरणों में गिर पड़े और बोले: ”भगवान ! मेरा अपराध क्षमा करें ।” भगवान ने कहा: ”मैं तो अपने भक्त के अधीन हूं । मुझे भक्तजन बहुत प्रिय हैं । अब आपकी रक्षा तो भक्त अम्बरीष ही कर सकते हैं ।

ऋषि दुर्वासा उसी अवस्था में अम्बरीष के पास पहुंचे, किन्तु इसी बीच अम्बरीष ने तो भूखे दुर्वासा के जाने पर उसी क्षण अन्न त्याग दिया था । वे जल पीकर रहने लगे । उनके पास आते-आते दुर्वासा को एक वर्ष लग गया था । तब तक अम्बरीष ने निराहार व्रत का पालन किया था ।

दुर्वासा ने राजा के चरण पकड़ लिये । राजा ने सुदर्शन की स्तुति करते हुए कहा: ”मेरे मन में दुर्वासाजी के प्रति तनिक भी द्वेष नहीं है । भगवान ! आप शान्त होकर ऋषि को इस संकट से मुक्त करें ।” चक्र शान्त हो गया । राजा ने दुर्वासा को प्रेमपूर्वक भोजन कराया और स्वयं भी एक वर्ष बाद भोजन ग्रहण किया ।

3. उपसंहार:

राजा अम्बरीष विष्णु के परमभक्त थे । उतने ही भगवान् विष्णु भी कृपानिधान थे । वे अपने भक्तों से भी उतना ही प्रेम रखते थे । भक्त की रक्षा के लिए वे ऋषि दुर्वासा से भी मुकाबला करने के लिए तत्पर

थे । धन्य हैं राजा अम्बरीष । धन्य हैं भगवान् विष्णु ।

Home››Biography››