सेंट नामदेव का जीवन इतिहास | Life History of Saint Namdev in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जन्म परिचय वे उनके चमत्कारिक कार्य ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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महाराष्ट्र की भूमि साधु-सन्तों की भूमि रही है । इस भूमि पर सन्त ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, गोरा कुमार आदि ने जन्म लेकर इस भूमि को पावन बनाया । मराठी भाषा में श्रेष्ठ धार्मिक ग्रन्थों का प्रणयन करके उन्होंने जनसाधारण को भक्ति का मार्ग दिखाया ।
इन सभी सन्तों में सन्त नामदेव ऐसे थे, जिन्होंने मराठी भाषा के साथ-साथ मुखबानी हिन्दी में शी अभंगों की रचना की और लोगों को सच्ची ईश्वर-भक्ति की प्रेरणा दी ।
2. जन्म परिचय व उनके चमत्कारिक कार्य:
नामदेवजी का जन्म एक दर्जी परिवार में हुआ था । उनके पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी धार्मिक सरकार सम्पन्न परिवारवाले व्यक्ति थे । ऐसे ही परिवार में सन् 1270 की कार्तिक सुदी शुक्ल प्रतिपदा के दिन नामदेव का जन्म हुआ था । दामाजी विट्ठल के परमभक्त थे ।
विट्ठल मन्दिर में वे बालक नामदेव को भी साथ ले जाया करते थे । एक बार दामासेटी किसी काम से दूसरे गांव जाते समय बालक नामदेव को मन्दिर में जाकर नैवेद्य चढ़ाने का भार सौंप गये । बालक नामदेव नैबेद्य लेकर भगवान् के सामने घण्टों बैठे रहे ।
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काफी समय निकल जाने पर भगवान् नैवेद्य ग्रहण करते न देखकर रोते हुए बोले: “आप तो मेरे पिता के हाथ का नैवेद्य स्वीकार कर लेते हो, मेरे हाथ का क्यों नहीं ? आप जब तक नैवेद्य ग्रहण नहीं करोगे, तब तक मैं न ही खाऊँगा, न पीऊंगा ।” वे एक पैरों पर आंखें मुंदे खड़े रहे । उनकी अविचल भक्ति देखकर भगवान् मूर्ति से बाहर आये और उन्होंने बडे ही प्रेमपूर्वक नैवेद्य ग्रहण किया ।
बालक नामदेव खुशी-खुशी नैवेद्य की खाली थाली लिये हुए घर पहुंचे । घर जाकर उन्होंने पूरी घटना विस्तारपूर्वक अपनी माता को बतायी । माता को बड़ा आश्चर्य हुआ, विश्वास नहीं । रात को जब दामाजी घर लौटे, तो गोणाई ने सारी घटना अपने पति को सुनायी । उन्हें भी आश्चर्य हुआ, विश्वास नहीं ।
दूसरे दिन इस बात की सचाई का पता लगाने के लिए वे बालक नामदेव के साथ विट्ठाल मन्दिर पहुंचे । नैवेद्य भगवान के सामने रखकर बालक नामदेव ने उसे खाने हेतु गुहार लगायी । उनके पिता ने खिड़की से छिपकर देखा कि विट्ठल तो सचमुच ही नैवेद्य खा रहे हैं । उसी समय उन्हें ज्ञात हो गया कि यह तो विट्ठल का परमभक्त है ।
एक ऐसी ही घटना हुई कि उनकी रसोई में एक कुत्ता घुस आया और रोटियां मुंह में दबाकर भागने लगा । बालक नागदेव उसके पीछे-पीछे घी का बर्तन लेकर दौड़े और कुत्ते को पकड़कर उसे घी चुपड़ी रोटी खिलायी । कहा जाता है कि कुत्ते के रूप में साक्षात् विट्ठल भगवान थे ।
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नामदेव का विवाह 11 वर्ष की अवस्थ में राजाई नामक कन्या से हुआ था, जिनसे उनको चार बेटे-नारायण, विठोबा, महादेव, गोविन्द तथा बेटी निंबाई हुई । उनके घर जनाबाई नाम की एवं नौकरानी काम करती थी । बाद में वह भी एक महान् सन्त बनी । गृहस्थ बनने के कद भी उनका ध्यान भजन कीर्तन में आठों पहर रमा रहता ।
एक बार नामदेवजी के साले साहब उनके घर आये हुए थे । नामदेवजी की पत्नी राजाई ने अपने भाई के लिए भोजन जुटाने के लिए उनसे यह भी कहा कि: “घर में अन्न का दना तक नहीं है । भाई को नहीं खिलाऊंगी, तो मायके में बदनामी होगी ।” नामदेव बोले: “आज एकादशी है । कल भोजन करायेंगै ।” ऐसा कहकर मन्दिर चले गये ।
उनके जाते ही इधर बोरियों में अनाज घर पहुंचा था । उनकी पत्नी राजाई ने सोचा यह तो नामदेवजी ने भेजा होगा । उसने भाई को खुशी-खुशी भोजन कराया । घर आकर नामदेवजी स्वयं चकित थे । उन्हें गालूम हो गथा कि यह तो भगवान विट्ठल की कृपा थी ।
कहा जाता है कि रुक्मणी नामक एक महिला ने राजाई की दुर्दशा देखकर पारस फत्थर उसे देते हुए कहा कि: “उसके घर में इसकी वजह से कोई कमी नहीं रहेगी । इसे लोहे से छुआते ही वह सोने में बदल जायेगा ।” उसने घर लाकर ऐसा ही किया । उसने कुछ अनाज घर ले आयी । नामदेवजी ने उस पत्थर के बारे में जैसे ही जाना, उसे चन्द्रभागा नदी में फेंक दिया ।
भोले-भगत नामदेव ने रुक्मिणी और उसेके पति भागवत द्वारा उस पारस को मांगे जाने पर छलांग लगाकर बहुत से पत्थर हाथों में रखे और कहने लगे: “यह लो ! तुम्हारे पारस पत्थर ।” लोगों ने सोचा नामतेव मजाक कर रहे हैं । सबने लोहे से उन पत्थरों का स्पर्श किया, तो वे सभी पारस थे । नामदेव ने उन्हें पुन: नदी में फेंक दिया ।
इस तरह उनके जीवन से कई ऐसे चमत्कार जुड़े हुए हैं । नामदेव आठों पहर भक्ति में रमण करते हुए एक बार सन्त ज्ञानेश्वरजी के घर उगलन्दी पहुंचे । उनके गन में जो अहंकार भाव था, उसके कारण उन्होंने ज्ञानेश्वरजी के चरण स्पर्श नहीं किये ।
ज्ञानेश्वरजी यह सब समझकर मन-ही-मन मुसकरा दिये, किन्तु बहिन मुक्ताबाई और भाई निवृत्तिनाथ ने इस घमण्ड को उनसे दूर करने के लिए सन्त गोरा कुम्हार को अपने साथ ले लिया । गोरा कुम्हार ने उन्हे कच्चा मटका कहकर उनकी सहनशक्ति व अहंकार की परीक्षा ली, जिसमें वे असफल रहे । भूल समझ में आते ही नागदेव ज्ञानेश्वरजी के चरणों पर नतमस्तक हो गये ।
एक बार सन्त विसोबा को अपना गुरा बनाने के खयाल से वे शिव मन्दिर पहुंचे । वहां विसोबा को भगवान् शंकर की पिण्डी पर पैर रखकर सोता हुआ देखकर उन्हें काफी भला-बुरा कहा । सन्त विसोबा ने अपने पैर पिण्डी से हटाकर रखने को कहा । ऐसा करते ही उन्हें पैर रखे हर स्थान पर पिण्डी ही पिण्डी दिखाई देने लगी ।
परमेश्वर का सभी स्थानों में दर्शन कराने पर उन्होंने विसोबा को अपना गुरु बना लिया । एक बार ब्राह्मणों ने उन्हें दर्जी कहकर मन्दिर में पूजा करने से वंचित कर दिया और उन्हें मन्दिर के पिछवाड़े भगा
दिया । बस, फिर क्या था, मन्दिर तो घूरकर नामदेवजी के सामने आ गया ।
3. उपसंहार:
नामदेवजी ने अपने जीवनकाल में दो हजार पांच सौ अभंग लिखे । जीवन-भर भगवद् भक्ति का प्रचार-प्रसार करते हुए इस परमभक्त ने सन् 1350 को 80 वर्ष की उम्र में समाधि ले ली । उनके भक्त पंजाब के गुरुदासपुर जिले में मिलते हैं, जहां नामदेवजी के नाम से एक गुरुद्वारा भी बना है । इस सम्प्रदाय के कई लोग आज भी उनके अनुयायी हैं ।