प्रजातियों और इसकी प्रक्रिया का विकास | Read this article in Hindi to learn about the evolution of species and its process.

जीवजातियों के यौगिक को क्रम-विकास कहते हैं । क्लासिकी दृष्टि से क्रमिक विकास पर्यावरण में जीवजातियों के रंगरूप एवं आकृति (समय बीतने) पर प्रगतिशील विकास को कहते हैं । वास्तव क्रमिक विकास से जीवजातियों में प्रगतिशील विकास की होती है । अपने क्रमिक विकास में जीवजातियों के विकास एवं लुप्त होने के कारणों का भी पता चलता है ।

चार्ल्स डार्विन के अनुसार अभिसारी विकास में दो अलग-अलग जीवजातियाँ जो एक ही पारिस्थितिकी तंत्र में पाई जाती हैं उनके शारीरिक बनावट एवं के अंगों में परिवर्तन उत्पन्न होता है । इस प्रकार के परिवर्तन एवं विकास उदाहरण टुंड्रा एवं अंटाकर्टिका ह्वेल तथा पेंगुइन की मांसपेशियों में गतिशील परिवर्तन का पाया जाना है । कुछ पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधे में कुंडलीकरण भांति से क्रम-विकास होता है ।

चार्ल्स डार्विन का योगदान (The Contribution of Charles Darwin):

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चार्ल्स डार्विन जिनको विकासवादी इवालुशन-सिद्धांत का जनक माना जाता है, उन्होंने 1859 में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ओरिजन आफ स्पेसीज प्रकाशित किया । इस ग्रंथ को लिखने से पहले डार्विन महोदय ने ब्रिटेन के बीगल खोजक जलपोत में 1831 से 1836 तक प्रशांत महासागर के बहुत-से द्वीपों पर पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों का अध्ययन किया ।

इसके अतिरिक्त डार्विन महोदय ने इक्वेडोर के गालापेगोस द्वीप समूह में सर्वेक्षण किया । उन्हें गालापेगोस द्वीप समूह के पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों के अध्ययन से अपने सिद्धांत के प्रमाण जुटाने में विशेष सहायता मिली । अपने अध्ययन के दौरान डार्विन ने देखा कि एक ही पारिस्थितिकी तंत्र में पाई जाने वाली जीवजातियों में भी विविधता पाई जाती है ।

इस अध्ययन के आधार पर डार्विन महोदय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि एक ही वंशक्रम के जीव-जंतु की विभिन्न पीढ़ियों की आकृतियों, शारीरिक बनावट तथा रंग-रूप में अंतर पाया जाता है ।

चार्ल्स डार्विन के समकालीन बिट्रिश के प्राणी-विज्ञान के विशेषज्ञ एल्फरेड वालस ने स्वतंत्र रूप से प्राकृतिक चयन का सिद्धांत प्रस्तुत किया । प्राणी-विज्ञान के इन दोनों ही प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के अनुसार मानव की उत्पत्ति वानर अथवा बंदर से हुई है । इस सिद्धांत का प्रभाव भौतिक राजनैतिक तथा मानवीय भूगोल पर भी पड़ा ।

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डार्विन महोदय के अनुसार प्राकृतिक-वास का जनसंख्या पर नैसर्गिक वरणात्मक प्रभाव पड़ता है । प्राकृतिक वास के कारण जीवजातियों को अपने पर्यावरण में अनुकूलता उत्पन्न करने में सुविधा होती है । किसी भी जीवजाति के जननिक अथवा आनुवंशिक गुण उसकी संतान में पाये जाते हैं ।

इस प्रक्रिया में जो जीव अपने प्राकृतिक-आवास से अनुकूलता उत्पन्न नहीं कर पाते वह नष्ट हो जाते है और जो सबल हैं वह जीवित रह पाते हैं । इसके अतिरिक्त आनुवंशिक विशेषतायें भी प्रत्येक जीवजाति की प्रगतिशील होती हैं जिनमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है । इसी कारण नई-नई जीवजातियाँ उत्पन्न होती रहती हैं ।

किसी जनसंख्या के कुल आनुवंशिक सामग्री एवं तत्वों को जीन-मूल कहते हैं । प्रत्येक जीवजाति की जनसंख्या की प्रत्येक विशेषता में भी निरंतर परिवर्तन होता रहता है । उदाहरण के लिये उनकी ऊँचाई/कद पेडों की पत्तियों के आकार में एक प्रकार का प्रतिरूप पाया जाता है ।

प्राकृतिक चयन (Natural Selection):

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प्राकृतिक चयन का प्रभाव जीवजातियों की विशेषताओं पर भी प्रभाव पड़ता जो रूप से अधिक स्थिर होती हैं ।

उदाहरण के एक जीवजाति की जनसंख्या के रंग में विविधता पाई जाती है अर्थात उसके प्राकृतिक चयन की यंत्रावली को संक्षिप्त में निम्न में दिया गया है:

1. किसी समुदाय (Community) में लघुजनों का जनसंख्या अधिक होती है:

अधिकतर जीवजातियों में जितने बच्चे उत्पन्न होते हैं उनमें से अधिकतर नष्ट हो जाते हैं तथा कुछ ही पुनरुत्पादक आयु तक पहुँच पाते हैं ।

2. जीवों में विविधता पाई जाती है (Organisms Vary):

किसी भी जीव-जाति की जनसंख्या के सदस्यों के रंग-रूप, कद तथा रचना में विविधता पाई जाती है । विविधता का कारण एक हद तक आनुवंशिक होता है तथा प्राकृतिक पर्यावरण के कारणों का भी प्रभाव पड़ता है ।

3. उत्तरजीविता के लिये संघर्ष (Struggle for Survival):

जीवजातियों के प्रत्येक सदस्यों को जीवित रहने के लिये पर्यावरण में संघर्ष करना पड़ता है । इस संघर्ष में सबल जीवित रहता है तथा दुर्बल नष्ट हो जाता है ।

4. अनुकूलन (Adaptation):

किसी भी प्राकृतिक पर्यावरण में किसी जीव-जाति के वही सदस्य पुनरुत्पादकता करते हैं जो संघर्ष करके जीवित रह पाते हैं । इस प्रकार अनुकूलन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है । चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को आरंभ में स्वीकृति बहुत मंद गति से मिली । धार्मिक लोगों ने इसकी भारी आलोचना की, क्योंकि 19वीं शताब्दी के मध्य तक वैज्ञानिक माहौल बहुत अनुकूल नहीं था तथा वंशागत के बारे में लोगों में अधिक जानकारी भी नहीं थी ।

इन्हीं कारणों से डार्विन तथा वालेस के सिद्धांत चर्चा का मुख्य विषय नहीं बन सके । कुछ विद्वानों के अनुसार जीव-जगत के जीवाश्म रिकार्ड से पता चलता है कि पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों की शारीरिक रचना में अनुक्रमिक विकास नहीं हुआ, बल्कि भूधरातल पर अकस्मात् परिवर्तन होते हैं जो विध्वंस का परिणाम होते हैं ।

अमेरिका के प्रसिद्ध जीव-विज्ञानी स्टेफोन जे गोल्ड तथा नील्स ऐल्डरेज के अनुसार जीवजातियों का विकास क्रमिक न होकर विश्वास के फलस्वरूप है ।

प्रवसन/स्थानांतरण एवं अनुकूलन (Migration and Adaptation):

जीवजातियों के स्थानांतरण तथा नये स्थानों एवं क्षेत्रों में फैलने एवं विकसित होने को प्रवसन कहते हैं । पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु सभी दूर-दूर तक प्रवसन कर सकते हैं, फिर भी बहुत-से पशु-पक्षी प्रजनन के लिये अस्थायी रूप से पलायन करते हैं । स्थाई अथवा अस्थाई रूप से स्थानांतरण करने से जीवजातियों को अनुकूलन करने में भारी सहायता मिलती है ।

स्थानांतरण किसी जीव-जाति के क्षेत्र में वृद्धि होता है जिसके फलस्वरूप उनकी संख्या के भार में कमी आ जाती है जिससे भोजन की मात्रा की उपलब्धि पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।

स्थानांतरण में बाधाएं (Barriers to Migration):

यद्यपि पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं में प्रवसन की प्रवृत्ति पाई जाती है, फिर भी कभी-कभी उनके स्थानांतरण में बाधाएँ आती हैं । प्रवसन करने वाली जीवजातियों को स्थानीय जीवजातियों के साथ संघर्ष करना पड़ता तथा आहार के लिये प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाती है । ऐसी स्थिति में पलायन करने वाली जीवजातियों की सहनशीलता एवं सामर्थ्य पर बहुत कुछ निर्भर करता है ।

प्रवसन पर जलवायु का भी बहुत प्रभाव पड़ता है । यदि जलवायु अत्यधिक कठोर है तो ऐसी परिस्थिति में प्रवसन में रुकावट आती है । कोई भी जीव-जाति जलवायु सहनशीलता की सीमा तक ही अपना प्रवसन कर सकती है । जलवायु (तापमान एवं वर्षा) से अनुकूलन न होने पर किसी पशु जाति के प्रवसन में रुकावट आती है ।

इनके अतिरिक्त बहुत-से भौतिक अवरोधक भी जीवजातियों के स्थानांतरण में रुकावट उत्पन्न करते हैं । उदाहरण के लिये महासागर, सागर, झील इत्यादि ।

उपरोक्त बाधाओं के अतिरिक्त स्थानांतरण पर समय का भी प्रभाव पड़ता है । जो जीव-जातियाँ धीरे-धीरे लंबे समय में स्थानान्तरण करती है उनमें अनुकूलन की क्षमता अधिक पाई जाती है । इसके विपरीत जो जीवजातियाँ कम समय में दूर तक स्थानांतरण करती हैं वे नये स्थानों की जलवायु आदि में अनुकूलन नहीं कर पाती ।

क्रम-विकास प्रक्रिया (Process of Evolution of Species):

पेड़-पोधों के क्रम विकास का अर्थ उनकी जीवजातियों के तथा विकास से है । किसी भी वनस्पति समुदाय में पेड-पौधों की ऊँचाई, आकार, पत्तियों का आकार रंग, संरचना फूलों में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों एवं प्रदेशों में विविधता पाई जाती है । एक ही वनस्पति-परिवार तथा जनक की संतान में भी विविधता जाती है ।

प्रत्येक पेड़-पौधों में अपने जनक के गुण पाये जाते हैं । विरासत में मिली जनकीय विशेषताओं का पेड़-पौधा के विकास पर भारी प्रभाव पड़ता है । विरासत बहुत हद तक पर्यावरण के अनुसार परिवर्तित होती रहती है, जिससे पेड़-पौधों के विकास एवं स्थानांतरण सहायता है ।

जीव-विज्ञान के विशेषज्ञों के अनुसार जीव-जातियों के क्रम-विकास की दो मुख्य प्रक्रियाएँ हैं:

(i) प्राकृतिक चयन प्रक्रिया (Process of Natural Selection) तथा

(ii) अलगाव की प्रक्रिया (Process of Isolation) ।

(i) प्राकृतिक चयन (Natural Selection):

चार्ल्स डार्विन महोदय ने 1859 में जीवजातियों की उत्पत्ति एवं विकास के बारे में प्राकृतिक चयन (Natural Selection) का सिद्धांत अपने ग्रंथ ओरिजिन ऑफ स्पीशीज में प्रस्तुत किया था । सरल भाषा में प्राकृतिक चयन के सिद्धांत का अर्थ है कि प्रत्येक जीव-जाति के सदस्य अपने जनक की लाभकारी विशेषताओं को वंशागत प्राप्त करता । यह आनुवंशिक विशेषताएँ उसको पर्यावरण में अनुकूलन में सहायक होते हैं ।

जीवजातियों के जिन सदस्यों में वंशागत विशेषताएँ कमजोर होती हैं वे नष्ट हो जाते हैं, इसलिये जीवन के संघर्ष में केवल बलवान एवं समर्थ ही जीवित रह पाते हैं । इसके विपरीत जिन प्राणियों में वंशागत विशेषताएँ कमजोर होती हैं वह नष्ट अथवा लुप्त हो जाते हैं ।

(ii) कृत्रिम चयन (Artificial Selection):

कृत्रिम चयन मानव द्वारा संभव होता है । उदाहरण के लिए मानव बहुत-से पेड-पौधों के नये बीज उत्पन्न करके फसलें उगाता है, ताकि फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सके । नये बीजों का उत्पादन करने में वह संकरण तथा दोगले परागण का सहारा लेता है ।

कृत्रिम चयन विधि, वर्तमान समय में मानव की खाद्य समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है, परंतु दीर्घकाल में यह पारिस्थितिकी के लिये अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है ।

(iii) अलगाव अथवा पार्थक्य (Isolation):

विभिन्न जीवजातियों की उत्पत्ति एवं विकास में अलगाव का भी भारी प्रभाव पड़ता है । यहाँ अलगाव का तात्पर्य जननी अथवा प्रजनक अलगाव से है । प्रजनक अलगाव की दशा में जीन के आदान-प्रदान में रुकावट उत्पन्न हो जाती है ।

प्रजनक अलगाव निम्न कारणों से हो सकता है:

(i) बाह्य रुकावटें (External Barriers)

(ii) आंतरिक रुकावटें (Internal Barriers) ।

बाह्‌य रुकावटों में बडे ऊँचे पर्वत, सागर, महासागर तथा मरुस्थल, परिस्थितिकीय, मौसमी तथा मेकेनिकल रुकावटे सम्मलित हैं । इसके विपरीत आंतरिक रुकावटों में जीव की कमजोरी असमर्थता, बेबसी, नपुंसकता बीमारी इत्यादि सम्मिलित हैं । आंतरिक रुकावटों के कारण अंत प्रजनन नहीं हो पाता ।

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