कोलोरीमीटर: अर्थ और सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. कोलोरीमीटर का अर्थ (Meaning of Colorimeter) 2. कोलोरीमीटर के सिद्धान्त (Principle of Colorimeter) 3. प्रकाश अवशोषण के गुण (Properties of Light Absorption) and Other Details.

कोलोरीमीटर का अर्थ (Meaning of Colorimeter):

एक साधारण प्रकार के वर्णमापी (Colorimeter) या रंग तुलना करने वाला, प्राकृतिक या अप्राकृतिक श्वेत प्रकाश के लिए प्रकाश स्रोत के रूप में उपयोग होता है और दृष्टिगत तुलनात्मक विधि के द्वारा निर्धारण किया जाता है ।

जब नेत्र प्रकाश-विद्युतीय सेल (Photo-Electrical Cell) के द्वारा परिवर्तित होता है, तब उपकरण को प्रकाश-विद्युतीय वर्णमापी (Photo-Electric Colorimeter) कहते हैं, क्योंकि इस उपकरण में तुलनात्मक रूप में एक संकीर्ण क्षेत्र की तरंगदैर्ध्य (Wave Length) फिल्टर के द्वारा श्वेत प्रकाश को सुसज्जित किया जाता है, इस उपकरण को फिल्टर प्रकाशमापी (Filter Photometer) कहते हैं ।

इस प्रकार का एक परिशुद्ध उपकरण वर्णक्रम ज्योतिमापी (Spector-Photometer) होता है, जहाँ दो उपकरण (Instruments) एक केबिनेट/कक्ष/छोटे बक्से (Cabinet) में संयोजित (Assembled) होते हैं ।

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कोलोरीमीटर तक विशिष्ट पदार्थ (Specific Matter) के निर्धारण द्वारा उसके सम्बन्धित प्रकाश (Light) के मापन (Measurement) से संबंधित है । जिस पदार्थ की हमें सान्द्रता (Concentration) ज्ञात होती है ।

उसका मापन (Measurement) हम कोलोरीमीटरी (Colorimetry) के दृश्य (Visual) द्वारा प्रकाश स्रोत (Source of Light) के रूप में कर सकते हैं । इसमें सफेद प्रकाश का उपयोग किया जाता है । इसके निर्धारण के लिए उपयुक्त उपकरण कोलोरीमीटर या कलर कम्प्रेटर (Colorimeter or Colour Comparator) कहलाता है ।

जब नेत्र (Eyes) को फोटो इलेक्ट्रिक सेल (Photoelectric Cell) द्वारा विस्थापित कर दिया जाता । तब उपकरण को फोटो इलेक्ट्रिक कोलोरीमीटर (Photoelectric Colorimeter) कहलाता है ।

कोलोरीमीटर के सिद्धान्त (Principle of Colorimeter):

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कोलोरीमीटर में भी b प्रकाश अवशोषण लैम्बर्ट व बीर्य के सिद्धान्त पर कार्य करता हैं । वह फोटोमीट्री कहलाता है ।

प्रारम्भिक तीव्रता (Initial Intensity):

IO की मोनोक्रोमेटिक प्रकाश किरण को जब किसी पारदर्शी वेसेल (Vessel) में रखे विलयन से गुजारा जाता है, तो प्रकाश का कुछ भाग, विलयन के द्वारा इस तरह अवशोषित कर लिया जाता है कि प्रसारित प्रकाश की तीव्रता (I) प्रारम्भिक तीव्रता (IO) से कम होती है ।

कुछ मात्रा में प्रकाश में कमी का कारण, कणों का बिखराव तथा परिवर्तन भी होता है, पर दूसरा मुख्य कारण, विलयन के द्वारा प्रकाश का अवशोषण होता है । (IO) तथा I के मध्य सम्बन्ध, अवशोषण माध्यम की लम्बाई (Path Length) तथा सान्द्रता (C) पर निर्भर करता है ।

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लैम्बर्ट नियम कहता है कि जब मोनोक्रोमेटिक प्रकाश की किरण, किसी अवशोषण माध्यम से गुजरती है तो इसकी तीव्रता घट जाती है, यह कमी अवशोषण माध्यम की लम्बाई बढ़ाने पर घातीय (Exponentially) होती है ।

जहाँ K = माध्यम का अवशोषण कोफीशिएण्ट है ।

बीयर्स नियम बताता है कि जब कोई मोनोक्रोमेटिक प्रकाश किरण, किसी अवशोषण से गुजरती है, तो इसकी तीव्रता अवशोषण माध्यम की सान्द्रता बढ़ाने पर घातीय (Exponentially) कम हो जाती हैं ।

दोनों नियमों को जोड़ने पर निम्नांकित समीकरण प्राप्त होता है:

यह बीयर लैम्बर्ट नियम कहलाता है । तीव्रताओं के अनुपात को ट्रान्समिटेन्स (Transmittance) (C) कहते हैं और इसको प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है ।

प्रतिशत-

इस समीकरण का लॉगेरिथम लेने पर-

Log10 I0 / I = K3cI

Log10 I0 / I = K3cI / 2.303

Log10 I0 / I को एक्सटिंक्शन (Extinction) (E) एब्जोरबेन्स (Absorbance) (A) कहते हैं । एक्सटिंक्शन को कभी-कभी प्रकाशीय घनत्व (Optical Density) कहा जाता है किन्तु प्रायः इसका उपयोग नहीं होता है ।

अत: E = KcI

यदि बीयर-लैम्बर्ट नियम का पालन करें और ‘I’ को स्थिर (Constant) रखें तो एक्सटिंक्शन तथा सान्द्रता (C) के मध्य प्लॉट किया गया ग्राफ एक सीधी रेखा होती है जो Origin से गुजरती है । यह ट्रान्समिटैंस से अधिक सरल है, जो कि ऋणात्मक एक्सपोनैंशिल वक्र (Negative Exponential Curve) प्रदान करता है ।

बीयर-लैम्बर्ट नियम की सीमाएं (Limitations of Beer-Lambert’s Law):

कभी-कभी एक्सटिंक्शन तथा सान्द्रता के मध्य एक अरेखीय ग्राफ प्राप्त होता है और यह सम्भवत: निम्नांकित एक या अधिक परिस्थितियों के पूर्ण न होने पर होता है ।

(1) प्रकाश की तरंगदैर्ध्य विलयन के अधिकतम अवशोषण पर होनी चाहिए ।

(2) प्रकाश किरण की तरंगदैर्ध्य नैरो रेन्ज (Narrow Range) की होनी चाहिए या मोनोक्रोमेटिक (Monochromatic) होनी चाहिए ।

(3) विलयन में किसी प्रकार का आयोनाइजेशन (Ionization), डिसोसियेशन (Dissociation), एसोसियेशन (Association) या विलेय का सॉल्वेशन (Solvation) सान्द्रता या समय के साथ नहीं होना चाहिए ।

(4) विलयन इतना अधिक सान्द्र होना चाहिए, जिससे तीव्र रंग उत्पन्न हो सके । यह नियम किसी दिए गए पदार्थ की अधिकतम सान्द्रता तक ही कार्य करता है ।

बीयर नियम से विचलन (Deviation from Beer’s Law):

(1) बीयर नियम (Beer’s Law) के अनुसार- जब अवशोषणांक व सांद्रता (Concentration) के बीच ग्राफ प्लॉट किया जाता है । तब एक सीधी रेखा प्राप्त होती है ।

(2) विलयन की सान्द्रता के साथ वक्र के आकार में परिवर्तन बीयर नियम के विचलन को प्रदर्शित करता है ।

(3) कुछ यांत्रिकी कारकों के कारण या विलायकों की अन्तर्क्रिया के कारण बीयर नियम विचलित हो जाता है ।

(4) पदार्थ की सान्द्रता अधिक होने पर वे समीकरण (Equation) की अपेक्षा अधिक तीव्रता से अवशोषित (Absorb) हो जायेंगे, जिससे नियम विचलित हो जायेगा ।

(5) बीयर नियम सिर्फ तनु विलयनों (Dilute Solution) के लिए अनुपयोगी होता है क्योंकि उच्च सान्द्रता पर स्पीशीज के बीच औसत दूरी कम हो जाती है । जो उनके अवशोषण के लिए जिम्मेदार होती है । जिससे यह इनके वितरण व इनकी पारस्परिक अन्तर्क्रिया को प्रभावित करती है ।

(6) रसायनिक विचलन (Chemical Deviation)- अवशोषी इकाई (Absorptive Unit) की प्रवृति, जल अपघटन संगुणन बहुलीकरण (Polymerization), आयनीकरण व हाइड्रोजन बन्धन (Hydrogen Bond) आदि के कारण सान्द्रता के साथ बदलती है ।

उदाहरण- बेंजिल एल्कोहल (Benzyl Alcohol):

जब बेंजिल एल्कोहल को क्लोरोफार्म (Chloroform) में लिया जाता है । तब यह बहुलीकृत (Polymerize) रूप में बदल जाता है ।

4C6H5CHOH → (C6H5CHOH)4

यहाँ मोनोमर 2.75µ 42 अवशोषित होते हैं और पॉलीमर 3.00µ 42 अवशेषित होते हैं । अत: एक ऋणात्मक विचलन उत्पन्न होता है ।

(7) डाइक्रोमेट (Dicromate) आयन पानी के साथ तनु (Dilute) होने पर रंग परिवर्तित कर लेता है ।

(8) जब विलयन में कोएगुलेशन (Coagulation) होता है । तब Coagulated Particles प्रकाश कीटर्बिडिटीव स्कैटरिन्ग (Turbidity and Scattering) उत्पन्न करते हैं । जिसके फलस्वरूप अवशोषण (Absorption) में कमी हो जाती है ।

(9) अशुद्धि की उपस्थिति, जिसके कारण फ्लुओरिसेन्स उत्पन्न होते है । एक आवश्यक तरंगदैर्ध्य (Wavelength) पर अवशोषित (Absorb) होती है, जिसके फलस्वरूप परिणामस्वरूप विचलन होता है ।

कोलोरी मीटर में प्रकाश अवशोषण के गुण (Properties of Light Absorption in Colorimeter):

 

प्रकाश ऊर्जा का एक रूप है, जो माध्यम में किरण (Wave) के रूप में संचरित होता है । ऐसा भी माना जाता है कि प्रकाश छोटे-छोटे कणों, जिन्हें फोटॉन कहते हैं, का बना होता है । दृश्य प्रकाश भी ऊर्जा का एक रूप है, जो पदार्थ (Matter) से आपसी क्रिया करता है ।

यदि सफेद प्रकाश को, किसी रंगीन विलयन में से गुजारा जाए तो प्रकाश की कुछ तरंगदैर्ध्य (Wavelength) विलयन के द्वारा अवशोषित कर ली जाती है । विलयन का रंग, विलयन के द्वारा प्रसारित (Transmitted) प्रकाश पर निर्भर करता है । यही सिद्धान्त किसी यौगिक के ‘एब्जोर्पशन स्पैक्ट्रम’ में परिलक्षित होता है ।

फोटोमीट्री वह तकनीक है, जिसमें किसी यौगिक जो प्रकाश को अल्ट्रावायोलेट (200-400 nm), दृश्य (400-700 nm) गुणा तथा इन्फ्रारेड क्षेत्र के निकट (700-900 nm) अवशोषित करता है, के एब्जोर्पशन स्पैक्ट्रम से प्राप्त आँकडों का मात्रात्मक तथा गुणात्मक उपयोग किया जाता है ।

कोलोरीमीटर में प्रकाश के अवशोषण में चयनित अवशोषण होता है तथा उसमें उपयोग आनेवाले विभिन्न प्रकार के फिल्टर्स का उपयोग किया जाता है, क्योंकि उपकरण में तरंग दैर्ध्य का भी चयन किया जाता है, जिसमें फिल्टर के अतिरिक्त मोनोक्रोमेटर्स (Monochromators) का उपयोग होता है ।

(1) चयनित अवशोषण (Selective Absorption):

जब विकीर्ण ऊर्जा (Radiant Energy) एक पदार्थ- ठोस, द्रव या गैस पर गिरती है, तब अवशोषण का प्रकार अवशोषणीय परमाणु या अणु में इलेक्ट्रॉन्स (Electrons) की संख्या एवं व्यवस्था पर निर्भर करता है ।

जब एक सैल (Cell) जिसमें कुछ द्रव होता है, से सफेद प्रकाश का पुंज निकाला जाता है, बाहर जाने वाले प्रकाश में ऊर्जा, अन्दर आने वाली किरण से कम होगी । निम्नीकरण की शक्ति, सफेद प्रकाश को बनाने वाले कुछ रंगों पर होती है या सम्पूर्ण तरंगदैर्ध्य श्रेणी पर समान होगी ।

क्षति सतह पर आंशिक रूप से परावर्तन के कारण एवं माध्यम में पाये जाने वाले निलम्बनीय कणों के द्वारा प्रकीर्णन (Scattering) से होती है, लेकिन यह द्रव के द्वारा विकिरण ऊर्जा के अवशोषण के द्वारा होती है । जब सफेद प्रकाश ऊर्जा का अवशोषण कुछ रंगों की अपेक्षा दूसरों से अधिक होगा तब उद्गमी पुंज (Emergent Beam) भी रंगीन होगा ।

घोल का आभासी (Apparent) रंग तरंगदैर्ध्य/रंग का पूरक होगा जो कि अवशोषित हुआ । निम्नांकित तालिका में एक दृष्टिगत स्पेक्ट्रम में उपयुक्त रंग विभिन्न तरंगदैर्ध्य से सम्बन्धित होते हैं । कार्बनिक यौगिकों में चयनित अवशोषण परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन्स की कमी से सम्बन्धित होता है ।

जब परमाणु संतृप्त होता है, चयनित अवशोषण कभी-भी पराबैंगनी या दृष्टिगत क्षेत्र में नहीं होता है । जबकि मीथेन (Methane) कभी भी पराबैंगनी क्षेत्र में (Ethylene) में अवशोषित होती है, जबकि परमाणु में एकान्तर रूप में एकल एवं डबल बॉण्ड पाये जाते हैं, इसका अवशोषण, लम्बे तरंगदैर्ध्य वाले क्षेत्र में होता है ।

यदि डबल बॉण्ड पाये जाते हैं, तब अवशोषण लम्बे तरंगदैर्ध्य की ओर बदल जाता है । यदि तन्त्र अधिक वृद्धि करता है, तब अवशोषण दृष्टिगत क्षेत्रों में प्रवेश करता है और रंग उत्पन्न होते हैं- β कैरोटीन (Carotene) में डबल बॉण्ड संयुग्मन होते हैं तथा यह दृष्टिगत क्षेत्र (Visible Region) में अवशोषित होता है ।

एक यौगिक में सम्पूर्ण संयुग्मन तंत्र को क्रोमेटोफोर (Chromatophore) कहते हैं । जब क्रोमेटोफोर समूह दूसरे समूह के द्वारा प्रतिस्थापित (Substitute) होता है, तो अवशोषणीय पट्टिका (Absorbing Band) लम्बी तरंगदैर्ध्य की ओर बदल जाती है ।

इस प्रकार से प्रतिस्थापितों को ऑक्सोक्रोम्स (Auxochromes) कहते हैं । ऐरोमेटिक कम्पाउण्ड्स/यौगिकों में बेंजीन (Benzene) अधिक साधारण क्रोमेटोफोर होता है । दिये हुये पदार्थ का अवशोषण अधिक रूप से प्रभावित होता है, यदि उसमें क्रोमेटोफोर पाये जाते हैं ।

 

(2) तरंग दैर्ध्य का चयन (Wave Length Selection):

हम एक स्रोत (Source) का उपयोग करते हैं, जो कि एक निरन्तर स्पेक्ट्रा/वर्णक्रम (Spectra) उत्पन्न करते हैं । हमको एक विधि की आवश्यकता होती है, जो कि निरन्तर स्पेक्ट्रा से संकरी तरंगदैर्ध्य की पट्टिका का चयन कर सकें ।

यह हैं:

(i) फिल्टर्स का उपयोग,

(ii) मोनोक्रोमेटर्स (Monochromators) ।

फिल्टर्स (Filters):

प्रकाशीय फिल्टर्स (Optical Filters) का उपयोग ऐच्छिक स्पेक्ट्रल क्षेत्र को पृथक् करने में किया जाता है । इसमें या तो जिलेटिन की पतली फिल्म होती हैं, जिसमें विभिन्न रंगीन ग्लासेस पाये जाते हैं । फिल्टर्स एक विधि होता है, जो कि कुछ तरंगदैर्ध्य को विकिरण से निकालते हैं, जबकि शेष को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप में शोषित करती है ।

अत: उपर्युक्त फिल्टर्स की सहायता से हम अपनी इच्छा की तरंगदैर्ध्य की पट्टिका को प्राप्त करते हैं तथा दृष्टिगत (Visible) के रूप में उपयोग करते हैं, इसके अतिरिक्त रंगीन/रंगी हुई (Dyed) जिलेटिन या समान पदार्थ का भी उपयोग करते हैं ।

अनेक फिल्टर्स होते हैं, जो कि विभिन्न तरंगदैर्ध्य पट्टिका के लिए अकेले या संयोजन में विकिरण को स्पैक्ट्रा के किसी भी क्षेत्र में संवाहित करते हैं । अन्तरक्षेपीय फिल्टर (Interference Filter) से संकरी-चौड़ी पट्टिका को प्राप्त करते हैं यह फिल्टर्स अन्तरक्षेपीय सिद्धान्त पर कार्य करते हैं । अन्तरक्षेपीय फिल्टर में एक परादर्शक पदार्थ होता है ।

उदाहरण:

मैग्नीशियम फ्लोराइड (Magnesium Fluoride) इसके एक ओर चाँदी की पतली फिल्म सहित आलेपित होता है । जब विकिरण चाँदी की सतह पर टकराती है तब फिल्म आधी परिवर्तित होती है, दूसरी आधे भाग को विकिरित करती है । तरंगदैर्ध्य श्रेणी को फिल्टर्स के बीच की दूरी में अन्तर से परिवर्तित करते हैं ।

मोनोक्रोमेटर्स/वर्णदर्शी (Monochromators) तरंगदैर्ध्य की पट्टिका की अपेक्षा कम संकरे रूप में पृथक् करता है । इसमें एक विक्षेपणीय (Dispersing) तत्व होता है- एक प्रिज्म (Prism) या विवर्तन जाली (Diffraction Grating), प्रवेश एवं निर्गम छिद्र (Entrance and Exit Slit) लेन्सेस (Lenses) सहित ।

प्रिज्म (Prism) उपर्युक्त विवर्तनीय तत्व होते हैं । पराबैंगनी क्षेत्र (Ultra Violet Region) के लिए सिलिका या एल्यूमिना (Alumina) के प्रिज्म का उपयोग होता है । सिलिका का या तो क्वार्टज/स्फटिक (Quartz) या फ्यूज्ड स्फटिक (Fused Quartz) के रूप में उपयोग होता है ।

अवरक्त/इन्फ्रारेड (Infrared) कार्य 3µ से अधिक दूर के लिए प्रिज्म NaCI, KBr क्षारीय हैलाइड लवण (Alkali Halide Salts) का बना होता है । सामान्य प्रिज्म वर्णदर्शी 60° प्रिज्म, दो सेल्सेस एवं प्रवेश एवं निर्गम द्वारा सहित पर आधारित । विकिरण ऊर्जा द्वारा से प्रवेश करती है, लेन्स के द्वारा सामान्तर की जाती है तथा प्रिज्म की एक सतह पर एक कोण से गिरती है ।

प्रिज्म से निकलने वाला विवर्तनीय विकिरण दूसरे लेन्स के द्वारा फोकस किया जाता है ऐच्छिक तरंगदैर्ध्य निर्गमीय द्वार पर केन्द्रित होती है । तरंगदैर्ध्य को परिवर्तन करने पर द्वार फोकल कर्व (Focal Curve) पर गति करता है, लेकिन सामान्यता दोनों फोकस करने वाले लेन्स एवं निर्गम द्वार एक ही भुजा पर स्थित होते हैं, जो कि प्रिज्म के केन्द्र के नीचे धुरी पर घूमते हैं ।

कलर मापन की विधियों (Methods of Colour Measurement):

(1) सन्तुलन विधि (Balancing Method):

इस विधि में दो नलियों में भरे द्रव की लम्बाईयों की तुलना की जाती है । इसमें एक नली के द्रव को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि दोनों नलियों वर्टिकली दिखायी दें तथा दोनों की कलर तीव्रता समान हो जाये ।

यदि एक नली में भरे द्रव की सान्द्रता ज्ञात हो तो दूसरी नली के द्रव की सान्द्रता को निम्न सूत्र के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है:

यह भी एक दृश्य विधि है ।

 

 

 

(2) तनुकरण (Dilution):

इस विधि में सैम्पल विलयन व मानक विलयन को एक समान चौड़ाई की काँच की नली में लिया जाता है तथा होरिजॉन्टली देखा जाता है, जो विलयन अधिक सान्द्र होता है, उसे तब तक तनु किया जाता है, जब तक कि उनके कलर एक समान न हो जायें, तब मूल विलयन की सम्बन्धित सान्द्रता नलियों के विलयनों की लम्बाई के समानुपाती होती है । यह कम यथार्थ विधि है, क्योंकि यह भी एक दृश्य विधि है ।

(3) दोहरीकरण (Duplication):

इस विधि में अवयवों के मानक विलयन के अज्ञात अभिकारकों के साथ तब तक मिलाया जाता है, जब तक कि कोई कलर उत्पन्न नहीं हो जाता है । जब कलर उत्पन्न होता है, तब उसे अज्ञात सैम्पल के साथ मैच कर लिया जाता है । इसके परिणाम भी शुद्ध नहीं होते हैं । अत: ये सभी एक दृश्य विधि (Visual Method) है ।

(4) फोटोमेट्रिक विधि (Photometric Method):

इस विधि में नेत्र (Eye) को फोटोइलेक्ट्रिक सेल के द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है व सेल के द्वारा अवशोषित या संचरित प्रकाश का मापन किया जाता है ।

सर्वप्रथम ज्ञात विलयन की अवशोषणता को मापा जाता है, इसके बाद सान्द्रता व अवशोषणता के बीच ग्राफ खींचा जाता है, इसके बाद अज्ञात विलयन की सान्द्रता को ग्राफ की सहायता से मापा जाता है ।

(5) मानक श्रेणी विधि (Standard Series Method):

इस विधि में अज्ञात रंग एवं अज्ञात सान्द्रता के विलयन को मानक श्रेणी की सान्द्रता के विलयन के साथ मिलाया जाता है, यदि रंग बिल्कुल मैच कर जाता है, तब यह ज्ञात विलयन की सान्द्रता के समान होता है । लेकिन परिणाम शुद्ध नहीं होते हैं, यदि व्यक्ति कलर-ब्लाइन्डनेस से पीड़ित होता है, तो यह एक दृश्य विधि (Visual Method) है ।

(6) स्पेक्ट्रोफोटोमेट्रिक विधि (Spectrophotometric Method):

यह विधि विलयन की सान्द्रता को मापने की एक यथार्थ विधि है । स्पेक्ट्रोफोटोमीटर को रिफाइन्ड फिल्टर (फोटोमेट्रिक फोटोमीटर) के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । इसमें लगातार विश्वसनीय मोनोक्रोमेटिक प्रकाश का उपयोग किया जाता है ।

यह निम्न घटकों का बना होता है:

1. स्रोत,

2. मोनोक्रोमेटर,

3. ग्लास सेल एवं

4. डिटेक्टर ।

कैलोरीमिति विश्लेषण की स्थितियाँ (Conditions of Calorimetric Analysis):

(1) रंग व सान्द्रता के बीच समानुपातता (Proportionality between Colour and Concentration)- यह आवश्यक है कि रंग की तीव्रता पदार्थ की सांद्रता से सम्बन्धित होनी चाहिये ।

(2) रंग का स्थायित्व (Stability of the Colour)- रंग प्रक्रम यथार्थ पाठ्यांक प्राप्त करने के लिए सन्तोषजनक रूप से स्थायी होना चाहिये ।

(3) विलयन की स्पष्टता (Clarity of Solution)- विलयन अवक्षेप से मुक्त होना चाहिये, जिससे कि स्पष्ट मानक विलयन प्राप्त हो ।

(4) उच्च संवेदनीयता (High Sensitivity)- यदि पदार्थ की सूक्ष्म मात्रा का निर्धारण किया जाता है, तब रंगीन अभिक्रिया उच्च संवेदी (High Sensitive) होनी चाहिये ।