प्लांट टिशू कल्चर का इतिहास | Read this article in Hindi to learn about the history of plant tissue culture.
पिछले कुछ सालों में दुनिया की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है, जिसकी उदरपूर्ति के लिये फसलों के अनुवांशिक सुधार की जरूरत बढ़ी है । पादप कोशिकाओं, ऊतक और जैविकी के क्षेत्र में कई उपलब्धियाँ हासिल की जा चुकी है ।
पादप कोशिका ऊतक और जैविकी का इतिहास:
सबसे पहले हेनरी लुइस डेमल डू मोंसियू (1756) ने शलजम (एल्स) के पौधे पर चोट लगाकर क्रमिक रूप से नई बनने वाली कोशिकाओं पर प्रयोग किये, लेकिन कोशिका और ऊतक संवर्धन के विज्ञान को गति तक मिले, जब 1839 में स्लेडन और श्वान ने कोशिका सिद्धांत प्रस्तुत किया ।
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1853 में ट्रेकल ने पौधों में कोशिकाओं के अव्यवस्थित ढंग से जमा होने (कैलस बनने) का अध्ययन किया । 1878 में वॉचिंग ने बताया कि पौधों में पाई जाने वाली ध्रुवीयता से ही पौधे का विकस तय होता है ।
उन्होंने पाया कि टुकड़े के ऊपरी भाग से हमेशा कलियाँ बनती हैं और निचले हिस्से से जड़ या कैलस बनता है । एक कोशिका में किसी भी सतह पर विभाजित होने की क्षमता होती है ।
पादप कोशिकाओं की यह क्षमता कि वह विभाजित होकर नया पौधा उत्पन्न कर दे, टोटीपोटेंसी कहलाती है । हम जानते हैं कि भ्रूण (जायगॉट) एक कोशीय होता है । यह निश्चित ढंग से विखंडित होकर बहुकोशीय जीव बनाता है । यह एक कोशीय भ्रूण में टोटीपोटेंसी के गुण के करण होता है ।
1902 में जर्मनी के जीव वैज्ञानिक गॉटलिब हेंबरलेंट ने कृत्रिम स्थितियों में अकेली कोशिका का संवर्धन किया, लेकिन वे इस कोशिका में विखण्डन नहीं करा सके । वे इसलिये असफल रहे, क्योंकि उस समय तक आक्सिन की खोज भी नहीं हुई थी, लेकिन उसके प्रयोग से शरीर रचना विज्ञान अध्ययन को आधार मिला ।
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उन्होंने (लेमियम परप्यूरियम) और (इक्रोर्निया क्रेसिप्स) की मीसोफिल कोशिका की वृद्धि को परिभाषित किया । उनके प्रयोग में कोशिकाएं तीन से चार सप्ताह तक जीवित रही थीं । हेंबरलेंट के इसी योगदान के कारण उन्हें ऊतक संवर्धन का जनक कहते हैं ।
(1) 1902 से 1930 के बीच जैव संवर्धन के प्रयास हुए । हेनिंग (1904) ने क्रुसिफर से भ्रूणों को अलग करके खनिज लवण और शक्कर के घोल में इन्हें विकसित करने में सफलता पाई । सिमॉन (1908) ने कोशिका विभाजन के लिये आई.ए.ए. (IAA) युक्त माध्यम से पोप्लर से भारी शाखाएँ कलियाँ और जड़ पुनरुत्पादित की ।
पेरिस (फ्रांस) की सोरबीन यूनीवर्सिटी के पी.आर. गादरेट ने कई सालों तक एकल कोशिका और जड़ के कोनों से नई कोशिकाएँ पैदा करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे । 1939 में उन्होंने पहली बार इंडोल एसीटिक एसिड आई.ए.ए. (IAA) का उपयोग करते हुए गाजर का संवर्धन किया ।
तब पी-आर-व्हाइट (1939) और आर.जे. गादरेट (1939) ने असीमित समय के लिये पादप कोशिकाओं के संवर्धन की घोषणा की । अमेरिका वैज्ञानिक पी.आर.व्हाइट (1939) ने पहली बार तरल माध्यम में टमाटर की जड़ों के लगातार संवर्धन में सफलता पाई । जड़ों में वायरस के इनविट्रो संवर्धन में भी इन्हें सफलता मिली ।
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(2) 1940 से 1970 के बीच पादप कोशिकाओं, ऊतक, प्रोटोप्लास्ट, एन्थर, जड़ और भ्रूण के संवर्धन के लिये पोषक माध्यम का विकस हुआ । संवर्धन ऊतक से संपूर्ण पौधे का निर्माण (इनविट्रो मार्फेजेनेसिस) में वॉन ओवरबिक और साथियों के सफलता मिली । इन्होंने नारियल के दूध (भ्रूण कोशिका युक्त द्रव) का उपयोग भ्रूण के विकस तथा धतुरे में कैलस बनने में किया ।
(3) 1958 में एफ.सी. स्टीवर्ट और जे. रीनर्ट ने डकस केरोटा के ऊतक संवर्धन से पुनरुत्पादन किया । पादप ऊतक संवर्धन के वाणिज्यिक उपयोग की शुरुआत 1960 में तब हुई, जब जी.एम.मोरेल ने एक आर्किड सिंबिडियम में इसे कई गुना बढ़ाया ।
(4) 1959 में एफ स्कूग और सी.ओ.मिलर व साथियों द्वारा काएनेटिन की खोज और तंबाकू पुनरुत्पादन ने ऊतक संवर्धन (टिशु कल्चर) का प्रयोग करके पौधों को कई गुना ज्यादा बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया ।
(5) 1960 के दशक में ई. कुकिंग ने मायरो-थिशियम से प्राप्त किये हुए कवक एंजाइम का उपयोग करते हुए प्रोटोप्लास्ट को बड़े पैमाने पर अलग करने की विधि तैयार की ।
भारत में ऊतक संवर्धन की शुरुआत 1950 के दशक के बीच में दिल्ली यूनीवर्सिटी के पादप विज्ञान विभाग में प्रो. पंचानन माहेश्वरी ने की । इन्हें ही भारत में ऊतक संवर्धन का जनक मानते हैं । गर्भाशय, भ्रूण, अंडाणु आदि के अध्ययन के लिये अलग-अलग ऊतक संवर्धन विधियाँ उपयोग में लाई गई ।
दिल्ली यूनीवर्सिटी में शिप्रागुहा मुखर्जी और एस.सी. माहेश्वरी ने 64 से 67 के बीच पहली बार एंथर और पराग संवर्धन से हेप्लॉइड विकसित किया । पादप ऊतक संवर्धन के विकास में हेप्लोइड की खोज एक महत्वपूर्ण पड़ाव था ।
(6) 1952 में न्यूयार्क की फिजर आई एन.सी. ने इसका पेटेंट कराया और पौधों का ऊतक संवर्धन औद्योगिक स्तर पर शुरू किया । कोशिका संवर्धन द्वारा औद्योगिक स्तर पर बना पहला पदार्थ शिकोनिन था । संवर्धन माध्यम के घटकों में बदलाव करते हुए कोशिका और ऊतक संवर्धन में कई सुधार किये गए ।
इसके आधार पर माइक्रोप्रोपेगेशन, द्वितीयक मेटाबोलाइट के उत्पादन, पेथोजन मुक्त पौधे, अनुवांशिक बदलाव (जैसे- अनुवांशिक पौधों के उत्पादन, इन विट्रो पोलीनेशन, सोमेटिक हाइब्रिडाइजेशन साइब्रिडाईजेशन आदि) के क्षेत्र में कई नई उपलब्धियाँ हासिल की गई ।
(7) 1980 के दशक में आई रिकॉम्बिनेन्ट डी.एन.ए. तकनीक की बदौलत बाहरी जीन के किसी पाटप कोश में प्रत्यारोपित करना संभव हुआ । इससे विशेष गुणों वाले कई अनुवांशिक पौधे उत्पादित किये गए । जीन क्रांति ने दूसरी हरित क्रांति को जन्म दिया । अब मनचाहे अनुवांशिक गुणों वाले पौधे बनाना संभव हो गया है ।