रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. प्रौद्योगिकी और इसकी प्रक्रिया | Read this article in Hindi to learn about recombinant DNA technology and its process.
न्यूक्लिक अम्ल को प्रत्यक्षत: परिवर्तित करके किसी जीव की आनुवांशिक सामग्री में नियोजित रूपांतरण को आनुवांशिक अभियांत्रिकी या जीन क्लोनिंग अथवा जीन परिचालन कहा जाता हैं । इसमें अनेक विधियाँ होती है, जिन्हें संयुक्तरूपेण रिकॉम्बिनेंट DNA (rDNA) टेक्नोलॉजी कहते है । रिकॉम्बिनेंट DNA टेक्नोलॉजी जीवविज्ञान के एक अनुप्रयोग पहलू एवं अनुसंधान के नये क्षेत्र के रूप में आरंभ हुआ ।
प्रोकैरियाटिक एवं यूकैरियाटिक डीएनए के परिचालन (हेर-फेर) के लिए युक्तियों में उल्लेखनीय विकस 20वीं शताब्दी में बाद वाले भाग के दौरान किया गया है । इन युक्तियों में विशिष्ट DNA खण्ड को अलग करने के लिए वांछित स्थानों पर DNA अणु में तोड़ा जाता है एवं अन्य DNA अणु में वांछित स्थिति पर उसका निवेश किया जाता है ।
इस प्रकार प्राप्त उत्पाद-से रिकॉम्बिनेंट DNA कहा जाता है । इस युक्ति के प्रयोग से हम जीन या DNA खण्ड की सिंगल कॉपी को अलग करके असीमित संख्या की कॉपियों (अभी एकसमान) में क्लोन कर सकते है ।
ADVERTISEMENTS:
रिकॉम्बिनेंट DNA टेक्नोलॉजी प्रक्रिया (Process of r-DNA Technology):
रिकॉम्बिनेंट डीएनए टेक्नॉलोजी की कोई एक विधि नहीं है । इसमें अनेक पद होते है मेनियाटिस एवं सहयोगियों (1976) ने जीन क्लोनिंग की मूलभूत युक्तियों का वर्णन किया है ।
जीन क्लोनिंग के मुख्य पद निम्न हैं:
(i) जीव से ज्ञात कार्य के DNA को अलग करना ।
ADVERTISEMENTS:
(ii) रिकॉम्बिनेंट DNA (अर्थात्- वेक्टर + निवेश्य DNA) अणु बनाने के लिए निवेश्य DNA का एंजायमेटिक क्लीवेज करके इसे दूसरे DNA अणु (वेक्टर) में जोड़ देते है ।
(iii) पोषी (Host) कोशिका का रूपांतरण अर्थात् इस rDNA अणु को पोषी कोशिका में स्थानांतरित करना व अनुरक्षण ।
(iv) रूपांतरित कोशिकाओं (अर्थात् rDNA वाली कोशिकाओं) की पहचान एवं अरूपांतरितों (नॉन-ट्रान्स्फॉर्मेन्ट्स) में उनका चयन ।
(v) rDNA का आवर्द्धन करना ताकि कोशिका में उसकी बहुत-सी कॉपियाँ मिल सकें ।
ADVERTISEMENTS:
(vi) क्लोन अर्थात् आनुवांशिक रूप में एकसमान कोशिकाओं की समाविष्ट पाने के लिए कोशिका का बहुगुणन इससे हर क्लोन में विजातीय DNA की बहुत-सी कॉपियां आ जाती है ।
रिकॉम्बिनेंट्स का चयन एवं स्क्रीनिंग:
उपयुक्त पोषी कोशिकाओं में रिकॉम्बिनेंट डीएनए के प्रवेश के बाद उन पोषी कोशिकाओं की पहचान करना आवश्यक हो जाता है, जिन्होंने रिकॉम्बिनेंट DNA अणुओं को ग्रहण किया हुआ हो । इस प्रक्रिया को स्क्रीनिंग का चयन कहा जाता है ।
रिकॉम्बिनेंट डीएनए कोशिकाओं का चयन कुछ लक्षणों की अभिव्यक्ति अथवा अनभिव्यक्ति पर आधारित होता है । रिकॉम्बिनेंट कोशिकाओं में उपस्थित वेक्टर या विजातिय DNA लक्षणों को अभिव्यक्त करता है, जबकि नॉन-रिकॉम्बिनेंट्स द्वारा लक्षण अभिव्यक्त नहीं किये जाते ।
रिकॉम्बिनेंट्स के चयन (स्क्रीनिंग) की विधियाँ:
नीचे कुछ विधियाँ हैं, जिनका प्रयोग मुख्यतया इश्चरिचिया कोलाई में रिकॉम्बिनेंट्स के चयन के लिए किया जाता है:
1. रिकॉम्बिनेंट्स का प्रत्यक्ष चयन:
उक्त लक्षण रिकॉम्बिनेंट कोशिकाओं के प्रत्यक्ष चयन को सरल बनाते है । यदि क्लोन्ड DNA स्वयं प्रतिजैविक एम्पिसिलीन (Ampr) से प्रतिरोध हेतु कोड करता है, तो एम्पिसिलीन युक्त मिनियल मीडियम पर उन रिकॉम्बिनेंट्स को उगाया जा सकता है । वे ही रिकॉम्बिनेंट्स उगेंगे व मीडियम पर कॉलोनी बनायेंगे, जिनमें अपने प्लाज्मिड वेक्टर पर ampR जीन है ।
2. निवेशात्मक चयन निष्क्रियण विधि:
प्रत्यक्ष चयन की अपेक्षा यह अधिक दक्ष विधि है । इसमें एक आनुवंशिक लक्षण को विजातीय DNA निविष्ट करके छिन्न-भिन्न (तितर-बितर) कर दिया जाता है । प्रतिजैविक प्रतिरोधी जींस एक उत्तम निवेश निष्क्रियण प्रणाली की भांति कार्य करते है ।
प्लाज्मिड pBR322 में दो प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन्स होते है:
(a) सम्पिलिसिलीन के लिए एक (ampR Gene) एवं
(b) टेट्रा-सायक्लिन के लिए दूसरा (tetR Gene) ।
यदि BamHI के प्रयोग से tatR जीन में लक्ष्य DNA को निविष्ट किया जाता है, तो टेट्रासायक्लिन से प्रतिरोध का गुणधर्म समाप्त हो जायेगा । ये रिकॉम्बिनेंट्स टेस्ट-सेंसिटिव होंगे ।
जब इन रिकॉम्बिनेंट्स (tetR जीन में लक्ष्य DNA युक्त) के टेट्रासायक्लिन युक्त मीडियम पर उगाया जाता है, तो ये वृद्धि नहीं करेंगे, क्योंकि उनका tetR जीन निष्क्रिय हो गया होता है, किन्तु ये एम्पिसिलीन से प्रतिरोध है, क्योंकि aampR जीन सक्रिय है ।
वही दूसरी ओर सेल्फ-लाएगेटेड रिकॉम्बिनेंट्स द्वारा टेट्रासायक्लिन व एम्पिसिलीन से प्रतिरोध दर्शाया जायेगा । इसीलिए वे उन दोनों प्रतिजैविकों से युक्त मीडियम पर उगेंगे । प्लाज्मिड में प्रविष्ठ DNA विखण्ड में tetR जीन की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति का पता लगाने के लिए मास्टर प्लेट से रिप्टिका प्लेटिंग की जाती है ।
मास्टर प्लेट की बैक्टीरियल कॉलोनीज की स्टेटराइल से धीरे से दबाया जाता है, ताकि हर कॉलोनी की कुछ कोशिकाएँ उससे चिपक सकती है, जिसे अब टेट्रासायक्लिन युक्त पोषक मीडियम वाली दूसरी प्लेट पर दबाया जाता है ।
बैक्टीरियल कॉलोनीज की वृद्धि के लिए प्लेट्स को उष्मायिता किया जाता है । कॉलोनीज के दृश्य की तुलना मास्टर प्लेट व उन कॉलोनीज से की जाती है जो रेप्लिका प्लेट पर वृद्धि कर पाने में विफल हो जाती है । यह कहा जा सकता है कि वह प्लाज्मिड जिसने प्लाज्मिड के tetR जीन को नष्ट कर दिया ।
3. कॉलोनीसंकरण (न्यूक्लॅइक अम्ल संकरण) युक्ति:
पोषण मीडियम पर रूपांतरित कोशिकाओं की वृद्धि के बाद संभावना रहती है कि कुछ कोशिकाओं में विशिष्ट DNA हो सकता है, जैसी कि इन हजारों कोशिकाओं में चाहत थी । उन कोशिकाओं को निकाला जाना कैसे संभव है जिनमें वांछित DNA है ? इसे सरल करने के लिए कालोनी संकरण युक्ति का विकास ग्रुस्टीन व हॉग्नेस (1975) द्वारा किया गया ।
प्लाज्मिड्स के साथ प्रयोग हेतु उपयुक्त है । प्लेक संकरण युक्ति नामक एक अनुरूपी विधि का प्रयोग भोजियों (Phages) के साथ प्रयोग हेतु बताया गया है ।
(a) DNA प्रोब्स:
कॉलोनी संकरण युक्ति रेडियोलेबल्ड DNA प्रोब की उपलब्धता पर आधारित है । DNA प्रोब तो DNA अणु (24-10bp) का रेडियोलेबल्ड (32PO4) छोटा विखण्ड है, जो कि वांछित DNA के न्यूनतम एक भाग पर पूरक हो । साधारणतया प्रोब DNA के 32PO4 से अथवा कभी-कभी RS I से लेबल करते है ।
32PO4 द्वारा B कण विमुक्त एवं 1251 द्वारा Y-years उत्सर्जित की जाती है । रेडियोएक्टिव समस्थानिक तत्वों के प्रयोग के अतिरिक्त समस्थानिक गंधक या प्रतिदीप्तिशील अणुओं का भी प्रयोग किया जा सकता है । इसीलिए DNA प्रोब A, T, G व C न्युक्लिओसाइड की पहचान करता है एवं लक्ष्य DNA के संपूरक खण्ड के साथ जुड़ता है ।
प्रोब के A द T लक्ष्य DNA के T व A से जुड़ जाते है एवं इस का विपरीत होता है । इसी प्रकार प्रोब के G व C लक्ष्य DNA के C व G जुड़ जाते हैं एवं इस का विपरीत होता है । न्यूक्लिक अम्ल संकरण युक्ति में क्रियात्मक लक्ष्य DNA की खोज में DNA प्रोब का प्रयोग किया जाता है ।
बड़े आकर के DNA प्रोब की तुलना में छोटे आकर के DNA प्रोब संकरण के लिए सरलता से लक्ष्य DNA को पकड़ लेते हैं । इसके अतिरिक्त DNA अणुओं की खोज 32P-DNA के उच्च सान्द्रण को बनाये रखने पर अधिक दर पर संकरण होता है । DNA प्रोब को अपने लक्ष्य DNA के प्रति अत्यधिक विशिष्ट होता है, इस विशिष्टता को परिशुद्धता कहते है ।
प्रोब आंशिक रूप से शुद्ध mRNA रसायनत: संश्लेषित ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड अथवा संबंधित जीन हो सकता है, जो सदृश रिकॉम्बिनेंट DNA की पहचान करता है । DNA प्रोब का वाणिज्यिक महत्व होता है । ये विशिष्ट DNA क्रमों (जीन्स) जी पहचान करते है एवं रोगों, जाँचों, सूक्ष्मजैविक जाँचों व अनुसंधान में प्रयोग किये जाते है ।
(b) कॉलोनी (या प्लेक) संकरण युक्ति:
कॉलोनी संकरण युक्ति को ग्रुन्स्टीन व होग्नेस (1975) द्वारा विकसित किया गया था । इस युक्ति में पहले दर्शाये अनुसार मास्टर प्लेट्स तैयार कर ली जाती हैं । कॉलोनीज की रेप्लिका प्लेटिंग नाइट्रोसेल्सयुलोज फिल्टर डिस्क पर की जाती है, जिसे अब जेलयुक्त पोषक मीडियम पर सतह पर रख दिया जाता है तथा कॉलोनीज को विकसित करने के लिए डिस्क्स को उष्मामित किया जाता है ।
नाइट्रोसेल्युलोज फिल्टर डिस्क पर उग रही कोशिकाओं का पोषक जलमुक्त पोषक मीडियम से पोषकों के विसरण द्वारा होता है । फिल्टर डिक्स को हटा देते हैं एवं 0.5 N NaOH विलयन सोखें ब्लॉटिंग पेपर पर रख देते है ।
क्षार का विसरण नाइट्रोसेल्युलोज में होने लगता है, बैक्टीरियल कोशिकाओं का लयन होता है एवं उनके DNAs का विकृतिकरण हो जाता हैं तदुपरान्त उच्च लवण सान्द्रणों को बनाये रखते हुए ट्रिस (हायड्रॉक्सीमिथाइल) एमाइनोमिथेन HCI बफर द्वारा फिल्टर डिस्क का उदासीनीकरण कर देते है ।
अब फिल्टर को प्रोटीनेज K विलयन में डुबाते है, जो फिल्टर से प्रोटीन्स को हटा देता है । इसके परिणामस्वरूप बैक्टीरियल कॉलोनीज के ही समान रीति से DNA नाइट्रोसेल्यूलोज डिस्क के साथ जुड़ जाता है । cDNA को फिक्स करने के लिए फिल्टर डिस्क को 80°C पर सुचारू रूप से बेक किया जाता है ।
तदुपरान्त उसे रेडियोएक्टिव रसायन लेबल्ड प्रोब (P32DNA) वाले विलयन के साथ उपयुक्त स्थितियों में उष्मायित करते है । प्रोब किसी बाउंड DNA से संकरित हो जायेगा, जिसमें प्रोब के सम्पूरक क्रम हो ।
समग्रता से धो लेने पर संकरित प्रोब (प्रोब के सम्पूरक क्रमों वाली कॉलोनीज) से असंकरित (न जुड़े) प्रोब्स हट जायेंगे तथा नाइट्रोसेल्युलोज फिल्टर डिस्क की ऑटोरेडियोग्राफी द्वारा पहचान लिये जाते है । धनात्मक एक्स-रे इमेज बनाने वाली कॉलोनीज की तुलना मास्टर प्लेट से की जाती है एवं उन्हें निकाल लिया जाता है तथा पोषक मीडियम पर बहुगुणित किया जाता है ।
जीवाणु भोजी (बैक्टीरियोफेज) रिकॉम्बिनेंट्स द्वारा बैक्टीरियल लॉन में विकसित प्लेक्स का रिप्लिका बनाने के लिए यही कार्यविधि अपनायी जाती है । स्क्रीनिंग या क्लोन्स के चयन की अन्य विधियाँ इनविट्रो ट्रांस्लेशन व प्रत्यक्ष इम्युनोलॉजिकल युक्तियां है ।
(c) प्लेक लिफ्टिंग विधि:
प्लेक निर्माण करने वाली दवाइयों से बैक्टीरियाफेजेस की स्क्रीनिंग के लिए बेंटन व डेविस (1977) ने इस युक्ति को खोजा । रिकॉम्बिनेंट फेज कणों को अलग करने की डीएनए लाइब्रेरी बनाने के लिए प्रयोग कर लिया जाता है ।
इस विधि में इश्चॅरिचय कोलाई के लॉन को अगार मीडियम पर तैयार करते है, जिसे इश्चॅरिचिया कोलाई को संक्रमित करते है एवं कोशिकाओं के भीतर बहुगुणित होते है व प्लेक्स बनाते हुए उनका लयन करते है ।
4. इन विट्रो ट्रांस्लेशन:
इन विट्रो ट्रांस्लेशन का प्रयोग अब रिकॉम्बिनेंट क्लोन्स की पहचान की पुष्टि करने की विधि के रूप में किया जाता है । नगेटा एवं सहयोगियों (1980) ने पूर्ण ल्युकोसाइट Poly A + RNA से इण्टरफेरॉन जीन अलग करके स्क्रीन किये हुए प्राथमिक ट्रांस्लेशन का प्रयोग किया ।
Poly A + RNA का ट्रांस्लेशन तब होता है, जब उसे जिनोपस लेइविस टोड से अण्डकों (ऊसाइट्स) में माइक्रो-इन्जेक्ट किया जाता है । परिणामस्वरूप इण्ठरफेरॉन का सान्द्रण कल्चर मीडियम में होने लगता है । इण्टरफेरॉन का पता उसकी प्रतिविषाण्विक क्रियाशीलता द्वार लगाया जाता है ।
ऐसा मान लिया जाता है कि इण्टरफेरॉन mRNA की संख्या 103 से 104 तक हो सकती है, इसीलिए कम से कम एक क्लोन पाने के लिए 104 ट्रांस्फॉमेट्स दोहराये जाने चाहिए ।
तत्पश्चात् DNA को नाइट्रोसेल्युलोज या डायएजोबेंजाएलॉक्सिमिथाइल सेल्यूलोज पेपर पर निर्गति (इम्मोबाइलाइज्ड) किया जाता है, ताकि पहले दर्शाये अनुसार न्यूक्लिइक अम्ल संकरण द्वारा सम्पूरक mRNA को अलग किया जा सके ।
cDNA-RNA संकर से RNA निकला जा सकता है तथा ऊसाइट्स में माइक्रो-इन्जेक्ट किया जाता है एवं इम्युनोप्रेसिपिटेशन युक्तियों द्वारा ट्रांस्लेशन उत्पादों का पता लगा लिया जाता है ।
5. इम्युनोलॉजिकल जाँचें:
पहले दर्शाये अनुसार कॉलोनी संकरण युक्ति हेतु इम्युनोलॉजिकल युक्तियाँ अंतिम जाँच अनुरूपी है । यह एक वैकल्पिक स्क्रीनिंग कार्यविधि है, जो अभिव्यक्ति पर आधारित है तथा साधारणतया किसी पॉलीपेप्टाइड विशेष को संश्लेषित कर रहे क्लोन को पहचानने के लिए प्रयोग की जाती है ।
यह सम्भावित रूप से अति शक्तिशाली विधि है, क्योंकि निरपेक्ष आवश्यकता ही रहती है कि आवश्यक mRNA उस प्रोटीन को एनकोड करता है, जिसके लिए उपयुक्त प्रतिरक्षी उपलब्ध हो । बूम गिल्वर्ट (1978) व एलिर्थ एवं सहयोगियों (1978) द्वार दी गयी हो दो इन सीटू युक्तियों का प्रयोग अभी किया जा रहा है ।
इम्युनोलॉजिकल जाँच में DNA अणुओं की रेडियो-लेबलिंग के स्थान पर प्रतिरक्षियों (इम्यूनोग्लोब्युलिन्स) का प्रयोग मास्टर प्लेट्स पर विकसित प्लेक्स या कॉलोनीज की पहचान के लिए किया जाता है, जो कि बैक्टीरियल क्लेन्स के प्लाज्मिड्स में उपस्थित विजातीय DNA द्वारा एन्कोडेड एण्टिजेन्स को संश्लेषित करते है ।
इस प्रयोजन हेतु एक्स्प्रेशन वेक्टर नामक विशेष वेक्टर बनाते है । जहाँ बैक्टेरियल कोशिका में विजातीय DNA ट्रान्स्क्राइब व ट्रांस्लेट होता है । प्लेक्स का कॉलोनीज के चारों ओर सशक्त इम्युनोप्रिसिपिटेट (प्रेसिपिटन) का पता लगाने में विशिष्ट एण्टि-सीरम युक्त वृद्धि मीडियम सहायता कर सकता है ।