स्टेरलाइजेशन के शीर्ष 3 शारीरिक तरीके | Top 3 Physical Methods of Sterilization in Hindi!
कीटाणुरहित करण से तात्पर्य होता है जीवाणु बीजाणुओं तथा विषाणुओं सहित सभी जीवों का नाश करना । कीटाणुरहित शब्द से तात्पर्य होता है, सभी जीवों से मुक्त होना या उनकी अनुपस्थिति ।
कीटाणुशोधन किसी ऐसी प्रक्रिया को संबोधित करता है, जो प्रभावपूर्ण ढंग से संक्रमणकारी कारकों (जैसे- फवक, जीवाणु, विषाणु, बीजाणु रूप आदि) का एक सतह, उपकरण भोज्य पदार्थ अथवा औषधियों या जैविक संवर्धन माध्यम से हटा या नष्ट कर देती है । कीटाणुरहित करण ऊष्मा रसायनों विकिरणों उच्च दाब अथवा छानने द्वारा पाया जा सकता है ।
कीटाणुरहितीकरण की विधियाँ:
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अयुक्त कीटाणु शोधन विधि को प्रयोग होने वाली वस्तु बनी हुई है तथा उपलब्ध कीटाणुशोधन विधियों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है । कीटाणुशोधन की भौतिक विधियों में आते है- नम ऊष्मा तथा शुष्क ऊष्मा । रासायनिक विधियों में है गैस तथा द्रव्य विलयन ।
कीटाणुशोधन में मुख्यतः दो विधियाँ प्रयोग होती है:
(i) भौतिक,
(ii) रसायनिक ।
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इसे निम्नलिखित तालिका द्वारा समझा जा सकता है:
I. ऊष्मा (Heat):
ऊष्मा का प्रयोग कीटाणुशोधन की सबसे भरोसे मंद विधि है तथा वांछनीय विधि होनी चाहिए । जब अलग से कोई विधि विश्लेषित ना की गई हो ।
गर्मी से क्षतिग्रस्त हो सकने वाले पदार्थ का निम्न ताप पर लम्बे अंतराल तक अथवा बार-बार के चक्र द्वारा कीटाणुमुक्त किया जाता है, ऊष्मा द्वारा कीटाणुशोधन को प्रभावित करने वाले कारक है:
1. ऊष्मा की प्रकृति शुष्क ऊष्मा है अथवा नम ऊष्मा,
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2. ताप तथा समय,
3. उपस्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या,
4. जीवों के लक्षण जैसे- प्रजाति, तनाव, बीजाणु उत्पादन क्षमता तथा,
5. उस पदार्थ का प्रकार जिसमें से जीवों में हटाना हों ।
ऊष्मीय कीटाणुशोधन दो तरह से किया जाता है:
(i) शुष्क,
(ii) शुष्क ऊष्मा में नमीयुक्त ।
(i) शुष्क ऊष्मा (Dry Heat):
1. प्रज्वलन सूक्ष्मजीवों विकी प्रयोगशालाओं में लुपों तथा सीधे तारों के लिए प्रयोग होता है । लूप को एक बनसन बर्नर अथवा अल्कोहल लैम्प की लौ में छोड़ देना जब तक वह लाल न हो जाए । यह निश्चित कर देता है कि सभी संक्रमण कारक निष्क्रिय हो गए है ।
यह सामान्यतः छोटी धातु अथवा काँच की वस्तुओं के लिए प्रयोग किया जाता है, पर बड़ी वस्तुओं के लिए नहीं । हालाँकि, शुरुआती समय में गर्म करने पर संक्रामक पदार्थ नष्ट होने से पहले तार की सतह से नीचे बिखर जाता है और पास की सतहों तथा वस्तुओं को संक्रमित करने लगता है ।
अत: विशेष हीटरों का निर्माण किया गया है, जो कीटाणुशोधक शील लूप को एक गर्म जाली से घेर देता है, ताकि यह सुनिश्चित हो जाए की बिखरा हुआ पदार्थ क्षेत्र को आगे संक्रमित न कर जाए ।
2. भस्मीकरण किसी भी जीप को जलाकर राख कर देता है । ऐसे चिकित्सकीय तथा जैव हानिकारक अपशिष्टों के शोधन में प्रयोग किया जाता है, इससे पहले कि वे गैस हानिकारक अपशिष्टों के साथ फेंक दिए जाए ।
3. शुष्क ऊष्मा द्वारा कीटाणु शोधन (गर्म वायु भट्टी) सभी सूक्ष्मजैविक प्रयोगशालाओं में उपकरणों का एक आम नमूना है गर्म वायु भट्टी या ओवन । ऊष्म वायु भट्टी शुष्क ऊष्मा का प्रयोग करने वाला एक कीटाणुशोधक है ।
ऊष्मा वायु ओवन में एक इंसुलेट किया गया दोही दीवायुक्त केविनेट होता है, जिसे बिजली से गर्म किया जाता है तथा इसे उच्च ताप वहन करने योग्य बनाया जाता है । ओवन की दीवारे स्टैनलेस स्टील अथवा एल्युमिनियम से बनी होती है, जिससे चेम्बर के अंदर गर्मी से रोकथाम होती है ।
कोष्ठ के अंदर गर्म वायु के प्रवाह के लिये नीचे अथवा पीछे एक मोटर तथा पंखा लगा होता है । यह गर्म वायु चैम्बर के अंदर तापमान को बढ़ा देती है तथा इसे कीटाणुरहित कर देती है । एक थर्मोस्टेट तापमान को इच्छित स्तर पर नियंत्रित करता है तथा तापमान ज्ञात करने के लिए एक थर्मोमीटर लगाया जाता है ।
ऊष्म वायु भट्टी में जो शैल्फ होती है, उनमें उचित वायु चक्रण के लिए छिद्र होते हैं । गर्म वायु ओवन के मुख्यतः परीक्षण नलियों कोणीय फ्लास्फ़ों पेट्रीडिशों पिपेट आदि को कीटाणु रहित करने में प्रयोग किया जाता है ।
काँच की वस्तुओं तथा अन्य वस्तुओं को कीटाणुरहित करने के लिए ऊष्मा वायु ओवन में रखने के बाद इसे चालू करना चाहिए तथा तापमान को धीरे-धीरे 160°C तक बढ़ाना चाहिए (कुछ मामलों में 170°C तक) तथा इसे इसी स्तर पर नियत रखना चाहिए ।
काँच की वस्तु के उचित कीटाणुशोधन के लिए कम एक घण्टे (कभी-कभी 2 घण्टे) का प्रयोग आवश्यक होता है । यह शुष्क ऊष्मा के धीरे-धीरे भेदन को सक्षम बनाने के लिए आवश्यक है ।
(ii) नम ऊष्मा (Moist Heat):
उबलते हुए पानी से प्राप्त होने वाली ऊष्मा या भाव एक उच्च तापमान पर नमीयुक्त ऊष्मा प्रदान करती है । नमीयुक्त ऊष्मा में शुष्क ऊष्मा से अधिक भेदन क्षमता होती है । जब ऊष्मा प्राटीन जैसे पदार्थ को जमाकर या स्कंदित कर विघटित कर देती है, प्रतिशत नमी में एक बढ़त के साथ तो स्कंदन पदार्थ का तापमान कम हो जाता है ।
जैसे कि क्लोस्ट्रिडियम बोट्युनिम में नम ऊष्मा 5-20 मिनटों में 120°C पर स्पोरों को नष्ट कर देती है, जबकि शुष्क ऊष्मा की इस तापमान पर लगभग 12 घंटे लगते है । नमीयुक्त ऊष्मा को कई प्रकार से प्रयुक्त किया जा सकता है । पानी में उबालकर, प्रवाहित भाप कीटाणुशोधन तथा दाबयुक्त भाप (आटोक्लेव, प्रेशर कुकर आदि) ।
(a) उबालना:
बरतनों अथवा काँच की वस्तुओं को उबालना कीटाणुरहित करण की आम विधि है । परन्तु उबलता हुआ पानी (100°C) पूर्णतः विश्वसनीय कीटाणु शोधक नहीं है, क्योंकि यह बीजाणुओं को नष्ट नहीं कर पाता ।
कुछ चीजें जो धूल मुक्त तथा स्वच्छ होती है । (शल्य चिकित्सा के उपकरण, त्वचाभेदी सिरिजे आदि) उन्हें पानी में उबाल कर कीटाणुमुक्त किया जा सकता है, परन्तु उबालने से पहले उन्हें पूरी तरह पानी में डूबा होना चाहिए ।
(b) पॉश्चुरिकरण:
1. 1857 में पॉश्चर ने दिखाया कि दूध का फटना, सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं के कारण है तथा 1860 में उन्होंने दिखाया कि पाइन तथा बीयर में सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिए उन्हें गर्म किये जाने का प्रयोग किया जा सकता है । इस पद्धति को उनके पीछे, पॉश्चुरितकरण नाम दिया गया (सूक्ष्मजीवों की संख्या घटाने के लिए उन्हें एक साधारण ताप पर गर्म करना) ।
2. पॉश्चर का मत था कि जब द्रव्यों को उबाला जाता है, तो वह कीटाणुरहित होते हैं यानि सभी प्रकार के जीवों से मुक्त, जब तक वायु में उपस्थित जीव उसे संक्रमित न कर दें ।
3. उसे हंस की गर्दन जैसे- फ्लास्क का प्रयोग किया । यह एक लम्बी, घुमावदार फ्लास्क होती है ।
4. उन्होंने किण्वनशील पदार्थ से युक्त बर्तन को हवा, में खुला छोड़ दिया और देखा किण्वन हुआ या खमीर नहीं उठा । फ्लास्क के विशेष आकार ने वायुजनित सूक्ष्मजीवों को द्रव्य में प्रवेश करने से रोक दिया तथा इसके पीछे तथ्य है कि वायु फ्लास्क में नहीं जा सकी । उन्होंने वायु में जीवाणु की उपस्थिति को भी प्रदर्शित किया ।
5. पॉश्चर ने पाया कि वायुजनित जीवों को कीटाणुरहित पदार्थों से दूर रखा जा सकता है, यदि बोतल के मुँह को कीटाणुरहित रूई से बंद कर दिया जाए तथा इससे बोतल में वायु का प्रवाह भी बना रहेगा । यह तकनीक आज भी नित्य कीटाणुशोधन के अंग के रूप में सूक्ष्मजैविक प्रयोगशालाओं में उपयोग की जाती है ।
(c) द्रवयुक्त भाप द्वारा कीटाणुरहितकण:
दाबीय भाव कीटाणुशोधन प्रयोगशाला में उच्चाताप-दाव सहपात्र या ऑटोक्लेव नामक एक उपकरण की सहायता से किया जाता है । ऑटोक्लेव का एक घरेलु रूप है प्रेशर कुकर । प्रेशर कुकरों की प्रयोगशालाओं में नित्य कार्यों के लिए ऑटोक्लेव के एक विकल्प के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ।
प्रेशरकुकर इस्पात या एल्युमीनियम के बने होते हैं, जिनमें कीटाणुरहित करण, संतृप्त भाप को दाब के अंदर प्रयोग करके किया जा सकता है । बर्तन के अंदर बना हुआ दाब पानी के ताप को बढ़ा देता है, ताप इसमें 100°C पर भाप में बदल देता है ।
ऑटोक्लेव:
ऑटोक्लेव मुख्यतः एक दो दीवारों वाला धात्विक बर्तन होता है, जो स्टेनलेस स्टील या तांबे का बना होता है, जिसके एक तरफ एक मजबूती से बंद होने वाला दरवाजा होता है । इस ढक्कन या दरवाजे में एक दाबामापी होता है, जो भाव के दाव को नापता है ।
कुछ ऑटोक्लेवों में दो दाब मापी होती हैं:
(1) पहला बाहरी कोष्ठ में दाब को दर्शाने के लिए तथा
(2) दूसरा आंतरिक चैम्बर में दाब को दर्शाने के लिए ।
शीर्ष पर एक सुरक्षा वाल्ब होता है, जो भाप के अत्यधिक हो जाने पर इसे बाहर निकल जाने देते है । यह कोष्ठ में विस्फोट रोकने के लिए आवश्यक है । स्टीम को रोकने के लिए एक तथा दूसरा इसे कीटाणुशोधन कोष्ठ में भेजने के लिए भी वाल्व होते है ।
एक एक्सस्टन्ल वाल्व भी होता है, जो भाप की आंतरिक कोष्ठ के निचले भाग से निकल जाने देता है । थोड़ी दूर पर (कुछ ऑटोक्लेवों में) एक तापमापी बिल्कुल एक्स्हॉस्ट वाल्व के पीछे लगा होता है, जो जब भाव कोष्ठ में प्रवेश करती है, तो इसका तापमान दर्शाता है ।
कीटाणुमुक्त किए जाने हेतु वस्तुओं को ढीलेपन से एक बुलिया में रखा जाता है, जिसमें भाप के सरल संचारण के लिए हर तरफ छिद्र होते हैं । रखे जाने वाले पदार्थ का क्षेत्रफल ढाने के लिए छिद्र युक्त शेल्फों का प्रयोग किया जा सकता है ।
ऑटोक्लेव सूक्ष्मजैविक संवधनों के लिए द्रव्य तथा ठोस माध्यम, ऊष्मा स्थायी द्रव्यों ऊष्मा अवरोधी उपकरणों तथा यंत्रों, काँच की वस्तुओं, रबर के उत्पादों तथा शल्य चिकित्सकीय उपकरणों के कीटाणु शोधन के लिए प्रयोग होने वाला, सबसे अधिक वांछनीय उपकरण है ।
एक ऑटोक्लेव में 121°C पर लगभग 20-30 मिनटों के लिए 151 बी एस प्रतिवर्ग इंच का वाष्प दाब निर्माण होता है । एक ऑटोक्लेव में कीटाणुशोधन मुख्यतः उच्च तापमान द्वार होता है, ना कि दाब द्वारा । ऊष्मा ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा भाप वस्तु की सतह पर जम जाती है । यह आंकलन किया गया है कि संतृप्त भाप एक वस्तु को, उसी तापमान पर गर्म वायु की अपेक्षा 25,000 गुना बेहतर ढंग से गर्म कर सकती है ।
(d) टिण्डलीकरण:
टिण्डलीकरण जॉन टिण्डल के पीछे नामकरण की मई एक लम्बी प्रक्रिया है, जो उन निरीक्षण योग्य जीवाणु, की गतिविधियों के स्तर को कम करने के लिए रची गई है, जो साधारण उबलते पानी की विधि से बच गए है । इस प्रक्रिया में सम्मिलित है, एक अवधि के लिए (विशेषरूप से 20 मिनट) वातावरणीय दाव पर उबालना, ठंडा करना, एक दिन के लिए जीववर्धन तथा अंतत: दोबार उबालना ।
तीन जीववर्धन अंतराल ऊष्मारोधी बीजाणु को जो पहले वाले उबालने के अंतरालों में बच गए हों, जर्मित होने का अवसर देते हैं ताकि वह ऊष्मा संवेदित वर्धनशील अवस्था का निर्माण कर सके, जिन्हें अगले उबालने के चरण में नष्ट किया जा सके । यह प्रभावशाली है क्योंकि पद्धति केवल उन माध्यमों के लिए कार्य करती हैं, जिनमें जीवाणु संवर्धन होता है, यह साधारण जल को किटाणुरहित नहीं करेगी ।
II. फिल्टरीकरण (Filtration):
कई द्रव्यों और गैसों में, जिन्हें कीटाणुरहित करना हो, जैसे- मानव तथा पशु सीरम का गर्मी से थक्का जम जाता है । कई एंजाइम रचनाएँ, एन्टीन एन्टीबायोटिक आदि भी गर्मी से नष्ट हो जाते हैं । ऐसे विलयनों का सर्वश्रेष्ठ कटाणुशोधन द्रव्यों द्वारा होता है । कभी-कभी प्रयोगशाला के कार्यक्षेत्र में भी युद्ध कीटाणुरहित हवा की आवश्यकता होती है, जब सुक्ष्मजैविक संबंधों पर कार्य किया जा रहा हो । यह फिल्टरीकरण द्वारा प्राप्त हो सकता है ।
वायु तथा द्रव्यों के फिल्टरीकरण की निम्नलिखित विधियाँ हैं:
(1) वायु का फिल्टरीकरण (लेमिनर वायु प्रवाह उपकरण):
सूक्ष्मजैविकी प्रयोगशालाओं में, संवर्धन प्लेटों को खोलने, उन्हें सूक्ष्मदर्शी में देखने, संवर्ध के कीटाणुशोधन तथा स्थानान्तरण आदि गतिविधियों के कारण वायु में सूक्ष्मजैविक जनसंख्या सामान्यतः अधिक होगी । ऐसे कमरों में वायु को अन्य कीटाणुशोधन विधियों द्वारा कीटाणुयुक्त नहीं किया जा सकता ।
अत: प्रयोगशाला की वायु को फिल्टर तथा कीटाणु युक्त करने की आवश्यकता होती है । लेमिनर या रेखीय वायु प्रवाह निकाय रोगजनक सूक्ष्मजीवों के साथ कार्य करते समय संक्रमण के खतरों को कम करने के लिये प्रयोग किया जाता है ।
लेमिनर वायु प्रवाह पद्धति वायु फिल्टरीकरण में रेशेयुक्त फिल्टरीकरण के प्रयोग के सिद्धांत पर कार्य करती है । इस पद्धति में वायु एक उच्च क्षमता कण वाले वायु फिल्टरोकेपेक (एच.ई.पी.ए.) से गुजरती है ।
एच.ई.पी.ए. वायु को छानता है तथा 0.3 मिमी से अधिक के किसी कण से बाहर नहीं जाने देता तथा इससे वायु सभी बिखरे हुये कणों (0.3 मिमी से बड़े आकार के) से मुक्त हो जाती है । लेमिनर वायु प्रवाह उपकरण निरन्तर कक्ष में से वायु को खींचता जाता है तथा वायु फिल्टर पैकों द्वारा बाहर फेंकता जाता है ।
वायु एक समान गति से तथा एक सामान्तर प्रवाह रेखा में बाहर आती है । लेमिनर वायु प्रवाह निकाय के दो मॉडल होते हैं अनुप्रस्थ तथा लम्बवत । दोनों ही सिद्धांत तथा निर्माण में सहमत होते हैं सिवाय उनके दिखा निर्धारण के ।
लेमिनर वायु प्रवाह निकाय सूक्ष्मजैविकी प्रयोगशालाओं, अस्पताल के कमरों, फार्मास्युटिकल प्रयोगशालाओं, इलेक्ट्रानिक उद्योगों (कम्प्यूटर कक्ष) आदि के संयोजी अंग होते हैं ।
सूक्ष्मजैविक प्रयोगशालाओं में, कीटाणुशोध संबंधों का स्थानान्तरण, लायोफिलीक संबंधों को खोलने आदि के सभी कार्य खुले में, बिना किसी बंद चैम्बर की आवश्यकता के लिये किये जाते हैं । एक लेमिनर वायु प्रवाह के कार्यात्मक पटल पर एक कण मुक्त हवा होती है । (0.3 मिमी के ऊपर के) जो एक सूक्ष्मजीव मुक्त वातावरण देती है ।
(2) द्रव्यों का फिल्टरीकरण:
ऊष्मा ग्रसणशील द्रव्यों को कीटाणुशोधन की एक अत्यधिक प्रभावशाली पद्धति फिल्टरीकरण है । बाजार में कई प्रकार के फिल्टर उपलब्ध हैं, जो द्रव्य की एक पोरस या छिद्रयुक्त बाधक से गुजारने के सिद्धांत पर कार्य करते हैं, जिनमें छिद्र का आकर ऐसा होता है कि यह सूक्ष्मजीवों (जीवाणुओं, कुछ मामलों में विषाणुओं को) को निकलने नहीं देता ।
इन फिल्टरों में औसत छिद्र आकर एक से कुछ माइक्रोमीटरों के स्तर पर होता है । फिल्टर के छिद्र ना केवल यांत्रिक रूप से सूक्ष्मजैविक प्रवेश को रोकते हैं, बल्कि यह फिल्टर तथा सूक्ष्मजीवों में सपिक्ष्यित विद्युत आवेश द्वारा भी प्रवेश करने से रोकने हैं । द्रव्य (फिल्टर होने वाले) की फिल्टर से रासायनिक सापेक्ष्यता भी एक महत्वपूर्ण करक होती है ।
निम्न प्रकार के फिल्टरों के नीचे वर्णित किया गया है:
1. सीट्ज फिल्टर (सस्बेस्टॉस फिल्टर),
2. पोर्सलेन फिल्टर (चैम्बरलैण्ड फिल्टर),
3. फ्रिटेड ग्लास फिल्टर (सिन्टर्ड ग्लास फिल्टर मार्टोन फिल्टर),
4. डायएटमेशियस अर्थ फिल्टर (वर्कफिल्ड तथा मैडलर फिल्टर),
5. मेम्ब्रेन फिल्टर (अच्छा फिल्टर) ।
1. सीट्ज फिल्टर (सस्बेस्टॉस फिल्टर):
सीट्ज फिल्टर में एस्वेस्टॉस के रेशों की एक दवाई हुआ फिल्टर पट्टी होती है । ये रेशे 2-6 मिमी मोटे होते हैं । एस्बेस्टॉस शीटों में घुले हुए सस्बेस्टॉस रेशे, कपास का अस्तर तथा अन्य फिल्टर पदार्थ होते हैं, रेशों की मोटाई तथा इनके बीच की दूरी, फिल्टर की कार्य क्षमता का निर्धारण करती है ।
सीट्ज फिल्टर (एस्वेस्टॉस) प्रयोग करने को तैयार रूपों में छोटी चकरियों अथवा विभिन्न आकार के चौखानों के रूप में मिलते है । बाजार में मिलने वाले फिल्टर एक बार प्रयोग करके फेंक दिए जाते हैं । सीट्ज फिल्टर बहुत नाजुक होते थे, ताकि थोड़े से भी गलत एवं रखरखाव से खराब हो जाते है ।
अलग-अलग छिद्र आकर की फिल्टर शीटें उपलब्ध होती है तथा आवश्यकता के आधार पर इनका चुनाव किया जाता है । फिल्टर शीटें अथवा चकस्त्रियाँ एक फिल्टर निकाया में फिल्टरीकरण हेतु लगाई जाती है । फिल्टर चकरी को एक कुप्पी में फिल्टरीकरण हेतु लगाई जाती है ।
फिल्टर चकरी को एक कुप्पी (फनल) जैसी संरचना से जोड़ा जाता है । जिसके द्वारा फिल्टर करने के लिए द्रव्य को वैक्यूम या दाब लगाकर अंदर खींच लिया जाता है । फिल्टरीकरण की समाप्ति पर फिल्टर को फेंक दिया जाता है तथा पूरी इकाई को कीटाणु रहित किया जाता है ।
उपरोक्त (एकल फिल्टरीकरण) के साथ-साथ सीट्ज फिल्टर की द्विफिल्टरीकरण इकाईयों भी उपलब्ध है । इसमें द्रव्य को कई फिल्टरों से गुजारा जाता है । (सीट्ज प्ररूप के) तथा फिल्टरीकृत पदार्थ को तली में एकत्रित कर लिया जाता है ।
फिल्टरों के छिद्र का आधार 0.01 माइक्रों मीटर से 5 माइक्रोन तक का होता है । सीट्ज फिल्टर के एक अन्य रूप में, इकाई एक उपकेंन्दी शीर्ष पर स्थापित होती है, जो फिल्टर किए गए द्रव्य को उपकेंन्द्रक बल से नलियों में खींच लेता है ।
2. पोर्सेलेन फिल्टर (चैम्बरलैण्ड फिल्टर):
जीवाणु संबंधी कार्यों के लिए पोर्सेलेन की मोमबत्तियाँ डायएटम मुक्त मिट्टी तथा अन्य ज्वलनशील पदार्थों की बनी होती है । उन्हें फिर बहुत ही उच्च ताप पर सेंका जाता है । पोर्सेलेन फिल्टर खोखले सिलेण्डर होते हैं, जिनमें एक खुला हिस्सा होता है ।
रासायनिक रूप में फिल्टर मोमबत्तियाँ जलीय एलुमूनीयम सिलीकेट अथवा काओलिन, सिलीकन के आवसाइडों, लोहे, कैल्शियम तथा मैग्नीशियम की बनी होती है । मोमबत्तियों में समानरूपी आकार के (0.65µ-15µ) छिद्र होते है । पोर्सेलेन फिल्टर में खोखला केन्द्र होता है ।
द्रव्य फिल्टर होने के बाद की दीवारों के माध्यम से बाहर आता है । एक पोर्सेलेन फिल्टर इकाई में एक काँच की नली होती है, जिसमें मोमबत्ती रखी जाती है । फिल्टर किए जाने हेतु द्रव्य इसमें डाला जाता है । संग्रहण इकाई (फिल्टर किए पदार्थ के लिए) में दाब (सींचने हेतु) लगाने वाली प्रणाली होती है, जो फिल्टरीकरण में सहायता करता है ।
पूरी फिल्टर इकाई को प्रयोग करने से पहले कीटाणुरहित किया जाता है । प्रत्येक फिल्टरीकरण के अंत में, पीर्सेलेन मोमबत्ती को दोबारा प्रयोग करने से पहले अच्छे से धोया जाता है । इसे पृष्ठधोवन प्रक्रिया द्वारा किया जाता है ।
3. सिन्टर्ड काँच फिल्टर अथवा फ्रिटेड काँच फिल्टर:
इसे मोर्टन फिल्टर भी कहा जाता है । ये फिल्टर बारीक पिसे काँच को गर्म कर तथा उसे इस गलनांक से कम ताप पर एक चकरी के रूप में जमाकर बनाया जाता है । ऐसे फिल्टरों के लिए काँच को समान आकार के बारीक मेश चूर्ण के रूप में पीसा जाता है, फिर एक एपकरण में युम्मित (फ्रिटेड) कर दिया जाता है ।
(यह उपचार काँच के टुकड़े को बिना डिस्क या चकरी की पोरसता को प्रभावित किए एक दूसरे से जुड़ने देता है ।) इसे फिर एक फनल में बंद कर दिया जाता है तथा सोडिम नाइट्रोट युक्त सल्फ्युरिक अम्ल से अच्छी तरह साफ किया जाता है ।
यह अम्ल उपचार यदि कोई ऑर्गेनिक पदार्थ उपलब्ध हो, तो उसे तुरंत ऑक्सीडाइज कर देता है तथा छील देता है, अम्ल को बाद में बार-बार डिस्टिल किए जल से धोकर हटा दिया जाता है ।
फ्रिटेस काँच (सिन्टर्ड) फिल्टर डिस्क में जुड़ी हुई फनल को एक रबर स्टोपर अथवा पीसे हुए काँच के जोड़ क्षरा एक संग्रहण फ्लस्क से जोड़ दिया जाता है । फ्रिटेड ग्लास फिल्टर में विविध आकार के छिद्र होते हैं । छिद्र आकार के घटते क्रम में अधिक मोटा, मोटा, मध्यम, बारीक तथा अत्यधिक महीन होता है ।
4. डायएटमेशियस अर्थ फिल्टर (वर्कफेल्ड तथा मेन्डलर प्रारूप):
इसमें, फिल्टर मोमबत्तियाँ डायस्टम युक्त मिट्टी की बनी होती हैं (किसेलर) डायएटमेशियस अर्थ प्राचीन समय में मिलने वाले डायएटमों के जीवाश्म अवशेष हैं । जीवश्मगत डायएटमों कोशिका भित्ती में बारीक छिद्र होते हैं तथा इसी गुण का फिल्टरीकरण कार्यों में प्रयोग किया जाता है ।
वर्कफिल्ट तथा मेन्डलर टाइपों के नाम से प्रख्यात डायएटमेशियस अर्थ मोमबत्तियाँ कीसलदार को एडबेस्ट्स तथा प्लास्ट ऑफ पेरिस जैसे आर्गेनिक पदार्थों के साथ आवश्यक छिद्र आकर के आधार पर विभिन्न अनुपातों में मिलाकर बनायी जाती है ।
इन सभी पदार्थों के मिश्रण का एक सिलेंडर बनाया जाता है तथा इस पर उच्च दाब लगाया जाता है । तत्पश्चात् इसे ओवन में 1000-2000°C पर सेका जाता है । इस तापमान पर पदार्थ एक दूसरे से अभिन्नात्मक रूप से जुड़ जाते हैं । मोमबत्ती को धोकर साफ किया जाता है तथा आगे इसे ऑटोक्लेविकरण द्वारा कीटाणुमुक्त किया जाता है ।
5. मेम्ब्रेन (झिल्ली) फिल्टर (अल्ट्रा फिल्टर):
मेम्ब्रेन फिल्टर कॉलोइडिअन, सेल्युलोज एसेटेट अथवा समान पदार्थों से बने होते हैं । यह फिल्टर बहुत सक्षम होते हैं तथा उन सभी जैविक तथा जैविक पदार्थ दोनों को छानकर बाहर करने की क्षमता रखता है, जिनका आकर छिद्र से बड़ा हो ।
मेम्ब्रेन फिल्टर यांत्रिक रूप से कणों की गतियों को केवल छिद्रग्रहणता के माध्यम से नहीं रोकता, बल्कि अन्य तत्व जैसे फिल्टर किए जाने वाले पदार्थ की प्रकृति आदि भी महत्वपूर्ण है । छिल्ली द्वारा अवशोषण तथा वाण्डर वॉल बल भी फिल्टरीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
III. विकिरण कीटाणुशोधन (Radiation Disinfection):
विकिरणों का प्रयोग करने वाली, कीटाणुशोधन की विधियाँ उपस्थित हैं जैसे- इलेक्ट्रॉन पुंज, क्ष-किरणें तथा उपआण्विक कण ।
1. पराबैंगनी प्रकाश विकिरण (यू.वी., एक जन्तुनाशक लैम्प द्वारा) केवल सतही तथा पारदर्शी वस्तुओं के कीटाणुशोधन में उपयोग किया जाता है । कई वस्तुएं, जो दृश्य प्रकाश के लिए पारदर्शी होती है, यू वी को अवशोषित कर लेती है ।
यू वी के विकिरण का प्रयोगों के बीच में जैविक सुरक्षा कैबिनेटों के आंतरिक भाग का कीटाणुशोधन करने में नित्य उपयोग किया जाता है, पर यह छायादार क्षेत्रों में प्रभावहीन होती है, इसमें धूल भरे क्षेत्र भी आते हैं । (जो दीर्घकालीन विकिरणों से पॉलीमराइज्ड) यह कई प्लास्टिकों को भी खराब कर देते हैं, जैसे- पॉलिस्टीरीन फोम आदि ।
X-किरणों अथवा गामा किरणों से विकिरण पदार्थ को रेडियो एक्टिव नहीं बनाता । कणों से विकिरण उन्हें रेडियोएक्टिव बना सकता हैं पर यह कणों के प्रकार उनकी ऊर्जा तथा लक्षित पदार्थ के प्रकार पर निर्भर करता है ।
न्यूट्रॉन तथा अत्यधिक उच्च भेदन क्षमता रखते है, जबकि निम्न ऊर्जा कण (न्यूट्रॉन के अतिरिक्त) पदार्थ को रेडियोएक्टिव नहीं बना सकते तथा निम्न भेदन क्षमता रखते हैं ।
2. गामा किरणें अत्यन्त भेदनशील होती हैं तथा नष्ट करने योग्य पदार्थों के किटाणुरहित करने में प्रयोग की जाती है जैसे- सूइयां, सिरिज, केन्नुलास तथा IV सेट आदि । गामा विकिरणों में कार्यकर्ता की सुरक्षा के लिए मजबूत सुरक्षा दीवारों की आवश्यकता होती है, इन्हें रेडियोआइसीटीपों (अधिकतर-कोबाल्ट 60) के संग्रहण की आवश्यकता होती है, जो निरंतर गामा किरणें उत्सर्जित करते हैं ।
3. X-किरणें, उच्च ऊर्जा X-किरणें (ब्रम्ख स्ट्रालंग) आयनन ऊर्जा का एक रूप है, जो विशाल पैकेजों तथा चिकित्सकीय उपकरणों के भारों को विकिरणिति करने में सक्षम बनाते हैं । उनका भेदन निम्न घनत्व पैकेजों वाले बहुपैलेट भारों को एक समानरूपी अनुपातों की अच्छी खुराक के साथ उपचारित करने में पर्याप्त होता है ।
X-किरणें कीटाणुशोधन एक विद्युत आधारित प्रक्रिया है, जिसे रसायनों अथवा रेडियो एक्टिव पदार्थों की कोई आवश्यकता नहीं होती । उच्च ऊर्जा तथा उच्च क्षमता युक्त X-किरणें एक X-किरण मशीन द्वारा उत्पन्न की जाती है, जिन्हें मरम्मत करने तथा उपयोग न होने पर बंद किया जा सके ।
4. चिकित्सीय उपकरणों के कीटाणुशोधन में सामान्यतः इलेक्ट्रॉन पुंज क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है । इलेक्ट्रॉन पुंज ऐ बंद चालु तकनीक का प्रयोग करते हैं तथा गामा तथा क्ष-किरणों से अधिक खुराक दर उपलब्ध करते हैं ।
उच्च खुराक दर के कारण, कम प्रक्रिया समय लगता है तथा इससे बहुलकें का क्षतिकरण कम हो जाता है । इसकी एक कमी है कि इलेक्ट्रॉन पुंज गामा अथवा क्ष-किरणों से कम भेदनशील होते है ।