आलू के रोग (नियंत्रण के साथ) | Read this article in Hindi to learn about the two major diseases found in potato along with its control measures. The diseases are:- 1. आलू का उत्तरभावी अंगमारी रोग (Late Blight of Potato) 2. आलू का अगेंती अंगमारी रोग (Early Blight of Potato).
Disease # 1. आलू का उत्तरभावी अंगमारी रोग (Late Blight of Potato):
आलू (Solanum Tuberosum) में इस रोग का जन्म मेक्सीको (Mexico) में हुआ जो जंगली आलू पर पाया जाता है । लगभग 1830 से 1840 के बीच में यह रोग महामारी के रूप में यूरोप (Europe) पहुंचा और 1845 में यूरोप की सारी आलू की फसल मारी गई और आयरलैण्ड (Ireland) द्वीप में आलू की फसल नष्ट हो जाने के कारण अकाल (Famine) पड़ गया तथा आलू खाने से मनुष्य बीमारी के शिकार होने लगे ।
इस रोग (Disease) एवं रोगजनक (Pathogen) का पता जर्मनी के वैज्ञानिक एण्टोन डीबेरी (Anton De Bary) ने लगाया तत्पश्चात् डॉ॰ मिलारडेट (Dr. Millardet) ने बोर्डों मिश्रण द्वारा इस रोग का नियन्त्रण (Control) किया ।
भारतवर्ष में यह रोग यूरोप से आए आलु के बीज (Seed) द्वारा सन् 1870 में आया । फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स (Phytophthora Infestans) ‘आलू में उत्तरभावी अंगमारी’ (Late Blight of Potato) नामक रोग उत्पन्न करता है ।
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पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ तापमान कम तथा आर्द्रता अधिक होती है । यह रोग दावानल की भांति फैल जाता है । पुष्पन (Flowering) के पश्चात् रोग के लक्षण छोटे-छोटे धब्बों (Patches) के रूप में पत्तियों (Leaves) पर दिखायी देने लगते हैं ।
अन्त में पत्तियाँ मृत हो जाती हैं और रोग (Disease) आलू के पौधे के तनों (Stems) पर फैल जाता है । तने सिकुड़कर मुरझा जाते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं जिनसे सड़ी गन्ध (Foul Smell) निकलती है ।
रोग के लक्षण (Disease Symptoms):
आलू के पौधों में रोग के लक्षण पुष्पन (Flowering) के पश्चात् दिखायी देने लगते हैं । इसी कारण यह आलू का उत्तरभावी अंगमारी (Late Blight of Potato) रोग कहलाता है । सर्वप्रथम आलू के पौधे की निचली पत्तियों (Lower Leaves) पर छोटे-छोटे गुलाबी (Pink) व काले (Black) धब्बे (Patches) दिखायी देते हैं ।
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रोग प्रायः पत्तियों के सिरों (Margins) से प्रारम्भ होता है । पहले छोटे पीले धब्बे दिखायी देते हैं जो शीघ्र भूरे तथा कत्थई रंग में बदल जाते हैं । उपयुक्त तापमान तथा अधिक नमी में यह धब्बे आकार में तीव्र वृद्धि करते हैं और पत्ती की सम्पूर्ण सतह को ढक लेते हैं तथा पत्तियों की निचली सतह पर सफेद कपास (Cottony White) कवकजाल (Mycelium) दिखायी देता है जिनमें स्टोमेटा (Stomata) से निकलते हुए स्पोरेन्जीयोफोर्स दिखायी देते हैं ।
अत्यधिक रोगग्रस्त पत्तियाँ, रसीली, पिलपिली व काले रंग की होकर लगती हैं जिनमें दुर्गन्ध आने लगती है । दिनों के बाद पत्तियों के वृन्त (Petiole) भी रोगग्रस्त हो जाते हैं और पत्तियाँ मुरझा कर लकट जाती हैं और समस्त पौधा रोगी होकर काला, पिलपिला व कमजोर होकर गिर जाता है ।
रोग का प्रभाव खेत में लगे आलुओं (Potatoes) पर भी पड़ता है जिसके फलस्वरूप इनके ऊपर भूरे (Brown) रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा आलुओं का आकार छोटा रह जाता है ।
रोग कारक (Cause Organism):
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आलू का उत्तरभावी अंगमारी (Late Blight of Potato) रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स (Phytophthora Infestans) द्वारा होता है । फाइटोफ्थोरा (Phytophthora) का कवकजाल (Mycelium), रंगहीन (Hyaline), शाखित (Branched) एवं संकोशिकीय (Coenocytic) होता है ।
कवकजाल (Mycelium) अन्तराकोशिकीय (Intercellar) तथा अन्त:कोशिकीय (Intracellular) दोनों प्रकार का होता है जिसके चूषकांग (Haustoria), पोषक कोशिकाओं (Host Cells) से भोजन अवशोषित करते रहते हैं । अलक्सोपोलस के अनुसार फा॰ इन्फेस्टेन्स कवकजाल (Mycelium) रोगी आलुओं में शरद् ऋतु में जीवित अवस्था में पड़ा रहता है ।
प्रजनन (Reproduction):
यह निम्न विधियों द्वारा होता है:
(1) अलैंगिक प्रजनन (Asexual Reproduction),
(2) लैंगिक प्रजनन (Sexual Reproduction) ।
(1) अलैंगिक प्रजनन (Asexual Reproduction):
फाइटोफ्थोरा (Phytophthora) में अलैंगिक प्रजनन, जूस्पोर्स (Zoospores) द्वारा होता है । पोषक (Host) के रोगग्रस्त अंगों के ऊतकी (Tissues) में इस कवक (Fungus) का कवकजाल (Mycelium) उपस्थित रहता है ।
नम (Moist) एवं गर्म (Warm) वातावरण में कवकजाल (Mycelium) से अनेक कवक तन्तु (Hypha) पानी के रन्ध्रों (Stomata) द्वारा बाहर निकलते हैं जो स्पोरेन्जियोफोर्स (Sporangiophores) कहलाते हैं ।
प्राय: स्पोरन्जियोफोर्स शाखित (Branched) होते हैं जो पत्नी की निचली सतह पर पाये जाते हैं । प्रत्येक स्पोरेन्जियोपफोर के अग्र भाग (Tip) पर एक स्पोरेन्जियम (Sporangium) उपस्थित होता है । स्पीरेन्जियोफोर के शाखित हो जाने से अन्य स्पोरेन्जिया पार्श्व दिशा (Lateral Side) में विन्यस्त हो जाते हैं ।
प्रत्येक स्पोरेनिजयोफोर में अनेक फूली हुई (Swollen), पर्व-सन्धियाँ (Nodes) पायी जाती हैं । प्रत्येक स्पोरेन्जियम (Sporangium), नींबू के आकार (Lemon Shaped) तथा अण्डाकार (Elliptical) होता है प्रत्येक स्पोरेन्जियम के शीर्ष (Apex) पर चोंच (Beak) जैसा पैपिला (Papilla) होता है ।
स्पोरेन्जिया, रंगहीन (Hyaline) अथवा हल्के पीले रंग के होते हैं । फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स (P. Infestans) के स्पोरेन्जिया (Sporangia), प्रत्यक्ष (Direct) अथवा परोक्ष (Indirects) रूप में अंकुरण करते हैं ।
परोक्ष अंकुरण (Indirect Germination) में प्रत्येक स्पीरेन्जिया, जूस्पोरेन्जियम (Zoosporangium) की भाँति अनेक जूस्पोर्स (Zoospores) बनता है, किन्तु प्रत्यक्ष अंकुरण (Direct Germination) में स्पोरेन्जियम, कोनीडियम (Conidium) की भाँति अंकुरण नलिका (Germ Tube) बनाता है ।
जब वायुमण्डल की नमी (Moisture) पर्याप्त मात्रा में होती है तथा तापमान लगभग 12°C या कम होता है तब प्रत्येक जूस्पोरेन्जियम (Zoosporangium) के आशय (Vesicle) बनता है जिसमें अनेक यूनीन्यूक्लिएट (Uninucleate), द्विपक्ष्मी (Biflagellate), वृक्काकार (Kidney Shaped), जूस्पोर्स (Zoospores) बनते हैं ।
कुछ समय बाद आशय (Vesicle) फट जाता है और जूस्पोर्स (Zoospores) पक्ष्मों (Flagella) की सहायता से स्वतन्त्र रूप से पोषक की पत्तियों पर घूमते रहते हैं । अन्त में पक्ष्म नष्ट हो जाते हैं और प्रत्येक जूस्पोर गोल हो जाता है जो अंकुरण करके अंकुरण नलिका (Germ Tube) द्वारा पोषक से रन्ध्र (Stomata) द्वारा प्रवेश कर पोषक ऊतकों में कवकजाल (Mycelium) बनता है ।
(2) लैंगिक प्रजनन (Sexual Reproduction):
यह ऊगैमस (Oogamous) प्रकार का होता है । इसके नर (Male) तथा मादा (Female) जननांग क्रमशः ऐन्थ्रीडिया (Antheridia) तथा ऊगोनिया (Oogonia) कहलाते हैं जो पोषक ऊतक में उपस्थित एक ही कवक तन्तु (Hypha) से अथवा अलग-अलग कवक तन्तुओं (Hyphae) पर उत्पन्न होते हैं ।
फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स हैं (P. Infestans) में जननांगों का निर्माण ऐम्फीगायनस (Amphigynous) प्रकार से होता है अर्थात सर्वप्रथम ऐन्थ्रीडियम (Antheridium) का निर्माण होता है ।
जब ऐन्थ्रीडियम, शिशु अवस्था (Young Condition) में होता है तभी इसमें प्रवेश करती हुई ऊगोनियम (Oogonium) का निर्माण होता है और इस प्रकार ऐन्थ्रीडियम (Antheridium) के ऊपर गोल (Globose) ऊगोनियम (Oogonium) बन जाती है तथा ऐन्थ्रीडियम ऊगोनियम के आधार (Base) पर कीपनुमा (Funnel Shaped), कालर (Collar) की भाँति दिखायी देता है ।
प्रत्येक शिशु ऐन्थ्रीडियम (Young, Antheridium) में दो केन्द्रक (Nuclei) होते हैं । ये केन्द्रक (Nuclei) साधारण विभाजन द्वारा 12 केन्द्रकों (Nuclei) को जन्म देते हैं । ऊगोनियम (Oogonium) में अनेक केन्द्रकें (Nuclei) होते हैं ।
परिपक्व ऊगोनियम का जीवद्रव्य केन्द्रीय (Central), ऊप्लाज्य (Ooplasm) तथा परिधीय (Peripheral) पेरीप्लाज्य (Periplasm) में विभक्त हो जाता है । ऊप्लाज्म (Ooplasm) में एक केन्द्रक रह जाता है जिससे अण्ड (Ovum) बनता है और शेष केन्द्रकें (Nuclei) पेरीप्लाज्य में चले जाते हैं ।
परिपक्व ऐन्थ्रीडियम (Mature Antheridium) में केवल एक केन्द्रक क्रियाशील होता है और शेष केन्द्रकें नष्ट हो जाती है । परिपक्व ऐन्थ्रीडियम से 2-3 निषेचन नलिका (Fertilization Tube) के रूप में पैपिला (Papilla) निकलती हैं, केवल एक नलिका ऊगोनियम की ओर वृद्धि करती है ।
निषेचन नलिका का सिरा फूल जाता है । ऊगोनियम की भित्ति एवं ऐन्थ्रीडियम टिप के सम्पर्क के स्थान पर भित्तियाँ गल जाती हैं जिसके फलस्वरूप ऐन्थ्रीडियम का नर केन्द्रक ऊगोनियम के अण्ड से संयुक्त कर निषेचन करता है ।
निषेचन (Fertilization) के फलस्वरूप द्विगुणित (2x) ऊस्पोर (Oospore) बन जाता है जो मोटी भित्ति वाला होता है तथा ऊगोनियम के अन्दर विश्रामावस्था (Resting Stage) में पड़ा रहता है ।
अनुकूल परिस्थिति में ऊस्पोर (Oospore) की बाहरी भित्ति फट जाती है तथा भीतरी भित्ति एक अंकुरण नलिका (Germ Tube) बनाती हुई बाहर निकलती है । अंकुरण नलिका की अन्तर्वस्तुएँ अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अनेक केन्द्रकें बनाती है । अंकुरण नलिका स्वस्थ पत्ती के स्टोमेटा द्वारा प्रवेश करके उसे रोगग्रस्त कर देती है ।
राग आवर्तन (Recurrence of Disease):
आलुओं में यह प्रतिवर्ष होता है जो रोग आवर्तन कहलाता है ।
इसके निम्नलिखित करण हैं:
(1) इसका कवकजाल (Mycelium) रोगी आलुओं में सुप्तावस्था (Dormant Stage) में जीवित पड़ा रहता है ।
(2) ऊस्पोर्स (Oospores), विश्रामावस्था (Resting Stage) में खेतों में जीवित पड़े रहते है ।
(3) एक ही खेत में लगातार आलू की फसल उगाना ।
(4) खेतों की मेडों पर खरपतवारों का लगा रहना ।
रोग नियन्त्रण (Disease Control):
आलू के इस रोग का नियन्त्रण निम्न विधियों द्वारा किया जाता है:
(A) निवारक उपाय (Preventive Measures):
(1) खेती की मिट्टी में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए ।
(2) नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
(3) आलू को बोते समय गहरा गाड़कर मिट्टी में दबा देना चाहिए ।
(4) बीज के लिए स्वस्थ एवं रोगरहित आलुओं का चयन करना चाहिए ।
(5) खेतों से सड़े-गले आलुओं के पौधों को निकालकर दूर फेंक देना चाहिए ।
(6) फसल को पूर्णतया पक जाने पर ही काटना चाहिए ।
(7) आलू के बीजों को पास-पास बोना चाहिए ।
(B) रासायनिक उपचार (Chemical Treatment):
(1) बीजों के रूप में प्रयोग किये जाने वाले आलुओं को एग्रोसन (Agrosan) डायथेन जेड 78 आदि कवकनाशी द्वारा उपचारित करना चाहिए ।
(2) आलू की फसल पर हर 15 दिन बाद बोर्डों मिश्रण (Bordeaux Mixture) का छिड़काव करना चाहिए ।
(3) केन्द्रों का भण्डारण (Storage) से पूर्व 1.1000 मरक्यूरिक क्लोराइड (HgCl2) द्वारा उपचारित करना चाहिए ।
(4) रोग प्रतिरोधी किस्मों को बोना चाहिए ।
Disease # 2. आलू का अगेंती अंगमारी रोग (Early Blight of Potato):
रोग के लक्षण (Symptoms of Disease):
इस रोग के निम्न लक्षण दिखाई देते हैं:
(1) रोग (Disease) की प्रारम्भिक अवस्था में पहले पौधे की निचली पत्तियों पर पीले (Yellow) अथवा हल्के भूरे (Light Brown) रंग के छोटे-छोटे धब्बे प्रकट होते हैं ।
(2) ये धब्बे गोल (Circular), कोणीय (Angular) या अंडाकार (Oval) होने के बाद में ये धब्बे संकेन्द्रीय वलय (Concentric Rings) के रूप में दिखाई पड़ते हैं ।
(3) इन धब्बों के कारण पत्ती का प्रकाश-संश्लेषी क्षेत्र (Photosynthetic Regi) कम हो जाता है । इस अवस्था में पत्तियों मुरझा जाती है ।
(4) उग्र संक्रमण (Severe Infection) की दशा में यह रोग पर्णवृन्त (Petiole) तने (Stem) में भी फैल जाता है ।
(5) आलू में इस प्रकार के धब्बे कंद में भी पाये जाते हैं । उग्र संक्रमण (Severe Infection) की दशा में आलू का गुदा भूरे रंग (Brown Colour) का कॉर्क के समान हो जाता है ।
(6) संकेन्द्रीय वलयों (Central Rings) के करण टारगेट बोर्ड (Target Board) प्रभाव उत्पन्न होता है ।
रोगजनक जीव (Causal Organisms):
इसमें निम्न लक्षण होते हैं:
(1) यह रोग ड्यूटेरेमाइसिटीज (Deutaromycetes) वर्ग के कवक (Fungi) अल्टरनेरिया सोलेनाई (Alternaria Solanei) के द्वारा होता है ।
(2) यह एक अपूर्ण कवक (Imperfect Fungus) है जिसमें लैंगिक जनन (Sexual Reproduction) का अभाव होता है ।
(3) अलैंगिक प्रजनन (Asexual Reproduction) वहिर्जात (Exogenous) कोनिडिया (Conidia) द्वारा होता है ।
(4) कोनिडिया श्रृंखला (Conidia Chain) में व्यवस्थित रहते हैं । ये कोनिडियोफोर (Conidiophore) पर बनते हैं ।
(5) कोनिडियम (Conidium) बहुकोशिकीय (Multicellular) एवं डिक्टियोस्पोरस होते हैं । कोनिडियम बोतल के आकार के होते हैं । इनमें अनुदैर्ध्य (Longitudinal) तथा अनुप्रस्थ (Transverse) पट्ट (Septa) पाए जाते हैं ।
रोग नियंत्रण (Disease Control):
(1) यह एक मृदीढ़ (Soil Borne) रोग (Disease) है । अत: फसलों का रोटेशन (Rotation) तथा फील्ड (Field) सेनिटेशन रोग को रोकने में प्रभावी होते हैं ।
(2) डाईथेन-जेड-78 (Dithane-Z-78), डाईथेन एम-45, बिलटॉक्स-50 (Biltox-50) का उपयोग करना चाहिए ।
(3) कटाई (Harvest) के तुरन्त बाद मृत वृन्तों को तुरन्त जला देना चाहिए ।