प्रबंधन के कार्य: योजना, आयोजन, स्टाफिंग, दिशा और नियंत्रण | Read this article in Hindi to learn about the seven important functions of management. The functions are:- 1. नियोजन (Planning) 2. संगठन (Organising) 3. नियुक्तियां (Staffing) 4. निर्देशन (Direction) 5. समन्वय (Co-Ordination) 6. नियन्त्रण (Control) 7. उत्प्रेरण (Motivation).

प्रबन्ध के प्रमुख कार्य निम्न हैं:

कार्य # 1. नियोजन (Planning):

नियोजन मस्तिष्क की एक प्रक्रिया है, जिसमें बुद्धिमता, कल्पना शक्ति, अग्रदृष्टि पक्के इरादे आदि की आवश्यकता होती है । अतः नियोजन का अर्थ यह है कि पूर्व में ही यह निश्चय करना कि किसी कार्य को किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हेतु किस तरह, किस स्थान पर किस समय तथा किसके द्वारा किया जाना चाहिए? दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि नियोजन वांछित परिणामों को प्राप्त के लिए कार्य की विधि ज्ञात करना है ।

किसी भी प्रतिष्ठान के नियोजन में उद्देश्यों का ज्ञान, तथ्यों को एकत्रित कर उनका विश्लेषण, मान्यताओं के आधार पर विभिन्न विकल्पों का निर्धारण कर सही निष्कर्ष पर पहुंचना तथा उनका अवलोकन करना सम्मिलित होता है ।

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इससे स्पष्ट है कि नियोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जो अनिश्चितता को निश्चितता में बदलती है, भविष्य की कल्पना करती है तथा प्रतिष्ठान के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव करती है । यही कारण है कि नियोजन को प्रबन्ध के कार्यों में सर्वोपरि स्थान मिला है ।

नियोजन प्रत्येक कार्य को इस प्रकार सम्पादन करने की विधि का चयन करता है, ताकि ठकष्ट परिणाम प्राप्त ही । इसलिए ही भविष्य में क्या करना है? इसका पूर्व में निर्धारण कर लेने को ही नियोजन कहा गया है ।  नियोजन के लिए वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन तथा अनुसंधान आवश्यक है ताकि कार्य कम से कम समय में मितव्ययतापूर्वक सम्पन्न किया जा सके ।

कार्य # 2. संगठन (Organising):

नियोजन द्वारा उद्देश्य एवं लक्ष्य आदि निर्धारित करने के पश्चात उन्हें कार्यान्वित करना होता है, जिन्हें प्रबंध ‘संगठन’ के माध्यम से करता है । संगठन का आशय योजना द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति करने वाले तंत्र से है ।

उपक्रम की योजनाएं चाहे कितनी ही अच्छी एवं आकर्षक क्यों न हों, यदि उनको कार्यान्वित करने के लिए संगठन का अभाव है तो सफलता की कामना करना निष्फल ही होगा ।  अतः नियोजन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को क्रियान्वित करने तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि एक ऐसे कुशल एवं प्रभावी संगठन का निर्माण किया जाये जिसमें नियुक्त सभी अधिकारी एवं कर्मचारी अपने-अपने लिए निर्धारित कार्यों को इस प्रकार सम्पन्न करें कि उनके कार्यों में किसी प्रकार की कोई कठिनाई उत्पन्न न हो ।

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इसके लिए प्रबन्धक को चाहिए कि वह उपक्रम के सम्पूर्ण कार्य को छोटी-छोटी क्रियाओं में बांट कर उन्हें इस प्रकार समूह बद्ध करे कि एक प्रकार की क्रियाएं एक ही समूह में सम्मिलित हो ।  इन क्रियाओं का विश्लेषण तथा श्रेणीय न हो जाने पर उन्हें अधिकारियों को उनकी योग्यता एवं कुशलता के अनुरूप सौंपा जाना चाहिए ।

उन्हें अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक व उत्साहपूर्वक सम्पन्न करने के लिए पर्याप्त अधिकार एवं सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए । उपक्रम में संगठन की आवश्यकता इसलिए भी है, ताकि न्यूनतम प्रयासों से संस्था के उद्देश्यों को पूरा किया जा सके, उपलब्ध साधनों का अपव्यय न हो, कार्यरत व्यक्तियों के मध्य मधुर संबंधों की स्थापना की जा सके । इसी कारण से प्रबन्धक को एक संगठक तथा संगठन को प्रबन्ध का तन्त्र कहा गया है ।

कार्य # 3. नियुक्तियां (Staffing):

किसी भी संगठन के ढांचे का निर्माण तब ही सम्भव है जब उसमें कुशल एवं योग्य व्यक्ति नियुक्त हों । नियुक्तियाँ करना प्रबन्ध का प्रशासनिक ‘जिसका अर्थ है- संगठन की योजना के अनुसार अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति करना, उनको आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान करना, पदोन्नति, स्थानान्तरण, सेवा मुक्ति आदि की व्यवस्था करना ।

जिस उपक्रम के कर्मचारी जितने अधिक योग्य, प्रशिक्षित एवं अनुभवी होंगे उस उपक्रम का प्रबन्ध उतना ही अधिक प्रभावी व कुशल होगा । इस कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए प्रबन्धकों को आवश्यक कर्मचारियों की संख्या का पहले से ही पूर्वानुमान लगा लेना चाहिए ताकि उनके चयन के लिए विज्ञापन देना, चयन करना, प्रशिक्षण देना तथा उन्हें नियुक्ति देकर कार्यभार सौंपना आदि कार्यों को सूझ-बूझ से निपटाया जा सके ।

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यह सत्य है कि मानव शक्ति ही उत्पादन के साधनों में सजीव संवेदनशील तत्व है, जो निर्जीव तत्वों को सक्रियता प्रदान करता है । अतः इनकी नियुक्ति के कार्य को साधारण कार्य नहीं माना जा सकता । योग्य तथा कुशल कर्मचारी तो संस्था की सम्पत्ति होते हैं और इन्हीं के परिश्रम तथा काई निष्पादन से संस्था, प्रगति के पथ पर अग्रसर होती है ।

कार्य # 4. निर्देशन (Direction):

प्रबन्ध मूलतः व्यक्तियों से काम करवाने की कला है । दूसरे व्यक्तियों से काम करवाने के लिए यह आवश्यक है कि उनके कार्य को निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निर्धारित दिशाओं में प्रशस्त तथा निर्देशित किया जाये ।

निर्देशन का अर्थ है- उपक्रम में विभिन्न नियुक्त व्यक्तियों को यह बतलाना कि उन्हें क्या करना है कैसे करना है तथा यह देखना कि वे व्यक्ति अपना कार्य उसी प्रकार कर रहे है या नहीं ।  निर्देशन प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य इसलिए है क्योंकि यह संगठित प्रयत्नों को प्रारम्भ करता है, प्रबन्धकीय निर्णयों को वास्तविकता का जामा पहनाता है और उद्योग अथवा व्यवसाय को अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर करता है ।

प्रत्येक प्रबन्धक को, चाहे वह प्रबन्ध के किसी भी स्तर पर कार्य क्यों न करता हो, अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यों को सही दिशा में प्रशस्त करने के लिए उनका निदेशन करना पड़ता है । उस व्यक्ति में, जो निर्देश देता है गतिशील नेतृत्व का गुण होना चाहिए । किसी भी व्यवसाय अथवा उद्योग में निर्देशक-प्रबन्धक की स्थिति एक जहाज के कप्तान की तरह होती है ।

कार्य # 5. समन्वय (Co-Ordination):

एक ही कार्य की विभिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न रूप से व्याख्या करना मानव जाति का स्वभाव है । इन वैचारिक मतभेदों से उपक्रम के सामूहिक उद्देश्यों को पूर्ण करना कठिन है । इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत क्रियाओं, विचारों कार्यकलापों तथा भावनाओं में सामंजस्य लाना आवश्यक है ।

इसी सामंजस्य को समन्वय कहते हैं । प्ले तथा रैले के अनुसार विभिन्न क्रियाओं के मध्य एकता बनाये रखने के उद्देश्य से सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु सामूहिक प्रयत्नों में सुव्यवस्था करने को ही समन्वय कहते है । उक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि समन्वय वह प्रक्रिया है, जिससे व्यक्तिगत क्रियाओं में सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सामंजस्य स्थापित किया जाता है ।

किसी भी उपक्रम को निर्बाध रूप से चलते रहने के लिए, अच्छे मानवीय संबंधों के विकास के लिए, सुदृढ़ निर्णयों तथा पूर्ण निर्धारित लक्ष्यों को पूर्ण कुशलता के साथ पूरा कराने के लिए सामंजस्य अति आवश्यक है । अतः समन्वय प्रबन्ध का आधारभूत कार्य है, क्योंकि समन्वय के अभाव में कोई भी प्रतिष्ठान अपने इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकेगा ।

कार्य # 6. नियन्त्रण (Control):

क्या समस्त कार्य योजनाबद्ध चल रहे हैं? क्या क्रियाएं निर्धारित लक्ष्यों की ओर अग्रसर हो रही है? और क्या इनमें कोई सुधार की आवश्यकता है? इन समस्त प्रश्नों का हल प्रभावशाली नियंत्रण में निहित है । नियंत्रण वर्तमान कार्यों को पूर्व निर्धारित लक्ष्यों से मिलान करने की वह प्रक्रिया है जिससे मानवीय तथा भौतिक साधनों के औचित्य पूर्ण उपयोग का ज्ञान हो सके तथा यदि आवश्यक हो तो उन प्रक्रियाओं में सुधार किया जा सके ।

इस कारण इसे प्रबन्ध का एक आवश्यक एवं आधारभूत कार्य माना जाता है । उपक्रम में कितनी भी श्रेष्ठ योजना क्यों न बनाई जाए, यदि उसका भली भांति क्रियान्वयन नहीं होगा तो संगठन की श्रेष्ठ योजना का लाभ नहीं मिल पायेगा । कुछ स्वाभाविक गलतियां, अवांछनीय निर्देश तथा अनावश्यक कार्य उपक्रम के कार्यों के निष्पादन में अनावश्यक विचलन उत्पन्न कर देते हैं ।

इन्हें दूर करने के लिए तथा प्रतिष्ठान के कार्यों को गति प्रदान करने के उद्देश्य से प्रभावी नियन्त्रण की व्यवस्था को महत्व देना अति आवश्यक है । इसके अतिरिक्त नियंत्रण तुलनात्मक अध्ययन तथा उत्तरदायित्व की स्थापना करने के लिए भी आवश्यक है ।

कार्य # 7. उत्प्रेरण (Motivation):

किसी भी व्यवसाय अथवा उद्योग को सुचारु रूप से चलाने के लिए भौतिक तत्वों के अतिरिक्त एक और तत्व की आवश्यकता होती है, जिसे मानव तत्व अथवा श्रम तत्व कहते है । इस श्रम तत्व के द्वारा ही भौतिक साधनों का उपयोग किया जाना सम्भव होता है ।

यह श्रम तत्व उसी समय अपनी पूर्ण कुशलता से कार्य करने को प्रेरित हो सकेगा जबकि उसे अधिक सन्तुष्टि प्रदान की जाये । इसी को उत्प्रेरण कहते हैं ।  क्योंकि प्रबन्ध को शुरू से लेकर अन्त तक श्रम तत्व अर्थात् श्रमिकों से व्यवहार करना पडता है और ये बिना पर्याप्त प्रेरणा के कार्य करने को तत्पर नहीं होते, इस कारण उत्प्रेरण को न केवल प्रबन्ध के एक महत्वपूर्ण कार्य करने के रूप में मान्यता दी गई है अपितु इस पर प्रबन्ध द्वारा आजकल सबसे अधिक ध्यान दिया जाने लगा है ।

इसका कारण यह है कि मशीन की तरह श्रमिक से स्विच दबाकर कार्य नहीं कराया जा सकता है । श्रमिक के अपने विचार, इच्छाएँ एवं आकांक्षायें होती है । अतएव एक श्रमिक में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करना, उस रुचि में वृद्धि करना तथा विकास के लिए हार्दिक इच्छाएँ उत्पन्न करना आवश्यक है ।

ये सभी कार्य उत्प्रेरण के अन्तर्गत आते हैं । उत्प्रेरण का उद्देश्य उपक्रम के विभिन्न स्तरों पर कार्य कर रहे समस्त कर्मचारियों को उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा देना तथा इस दिशा में उन्हें सफलता प्रदान करने के लिए उचित अवसर प्रदान कराना है । कुशल उत्प्रेरण से स्वस्थ मानवीय संबंध विकसित होते हैं, जो कि उपक्रम की सफलता में बहुत सहायक होते हैं ।