साबुन कैसे बनाया जाए | Are you planning to manufacture soaps? Read this article in Hindi to learn about how to manufacture and produce soaps.

शरीर व कपड़ों की सफाई के लिए साबुन विश्वसनीय पदार्थ माना जाता है और इसके गुणों से सब परिचित हैं । बाजार में साबुन सबसे अधिक बिक्री वाली चीजों में से हैं और सभी जातियों और देशों के लोग इसका प्रयोग करते हैं ।

साबुन वास्तव में तेलों का मिश्रण होता है और आजकल अधिकतर तेल या तेलों के मिश्रण में सोडा कास्टिक पोटाश को पानी में घोलकर उसमें मिलाकर बनाया जाता है ।

साबुन की किस्में (Types of Soaps):

प्रयोग के दृष्टि से साबुन को तीन बड़े वर्गों में रखा जा सकता है । इनमें पहला वर्ग ‘टॉयलेट साबुन’ का है । यह साबुन स्नान करने के समय शरीर पर लगाए जाते हैं । दूसरा वर्ग ‘वाशिंग साबुन’ का है । इस वर्ग में वह साबुन आते हैं जिनका प्रयोग कपड़े धोने के लिए किया जाता है ।

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इन्हीं का एक उप वर्ग ‘इन्डस्ट्रियल’ सोप है, यह साबुन कपड़े रंगने के उद्योग में काम आते हैं । तीसरा वर्ग ‘औषधियुक्त साबुन’ का है इसमें वह साबुन हैं जिनमें किटाणुनाशक औषधियां जैसे एसिड, गंधक, पारा आदि मिलाई जाती है ।

साबुन बनाने में प्रयोग होने वाले कच्चा माल (Raw Materials Required in the Manufacturing of Soap):

साबुन बनाने में प्रयोग होने वाले कच्चे पदार्थों की संख्या बहुत अधिक हैं और जिस काम के लिए साबुन बनाया जा रहा है उसी के अनुसार विभिन्न कच्चे पदार्थ प्रयोग किए जाते है । कच्चे पदार्थों का चुनाव उनके गुण और साबुन के मूल्य के अनुसार किया जाता है ।

उदाहरण के लिए अच्छी क्वालिटी के महंगे तेल व चर्बियों कपड़ा धोने के साबुन में डालने के लिए बड़े महंगे पड़ते है । इसके विपरीत सोडा कार्बोनेट, जो कपड़े के साबुनों में आमतौर पर मिलाया जाता है और अच्छा मैल काट सकता है टॉयलेट साबुन में इसे नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि यह त्वचा पर बुरा प्रभाव डालता है ।

इसी प्रकार साबुन में किसी न किसी विशेष प्रकार के अनेक कच्चे पदार्थ प्रयोग किये जाते हैं । साबुन बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कच्चे पदार्थ, जिनसे सब साबुन बनाये जाते हैं, दो है- (1) वसा (चर्बी) या चसीय तेल (वनस्पतिजन्य व पशुजन्य तेल) और (2) क्षार ।

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इनको साबुन का आधार कहा जाता है और इन्हीं को मिलाकर अनेक प्रकार के साबुन बनाए जाते हैं । इनके अतिरिक्त और कई प्रकार के पदार्थ साबुनों में मिलाये जाते हैं जैसे सस्ता करने के लिए भर्ती की चीजें (सोप, स्टोन, सोडा सिलिकेट आदि) सुगन्धित रंग और नमक आदि ।

चूंकि साबुन बनाने में सफलता उचित कच्चे पदार्थों के चुनाव पर ही निर्भर होती है, इसलिए इन पदार्थों का संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है-

क्षार-साबुन में प्रायोग होने बाले महत्वपूर्ण क्षार हैं:

कॉस्टिक सोडा, कॉस्टिक पोटाश, सोडा कार्बोनेट, सोडा एश ।

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i. कॉस्टिक सोडा:

आजकल अधिक बिकने वाले कठोर साबुन बनाने के लिए सोडा कॉस्टिक सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रयोग में आने वाले क्षार है । बाजार में यह पतरी या डलियों के रूप में बिकता है और इनमें पैक होकर आता है । पतरी वाला सोडा डली से अच्छा होता है और प्रयोग करने में भी आसानी रहती है परन्तु यह महंगा होता है । यह सफेद रंग का होता है ।

यह बहुत आर्देताग्राही होता है और हवा में से पानी चूसकर पहलत द्रव्य में परिवर्तित हो जाता है । यह हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड को चूस लेता है और कार्बोनपेट के रूप में बंद ल जाता है, अर्थात साबुन के काम का नहीं रहता इसलिए सोडा कॉस्टिक को अधिक समय तक खुली हवा में नहीं रखना चाहिए ।

बाजार में सोडा कास्टिक कई ग्रेडों में मिलता है और प्रत्येक कॉस्टिक सोडा एक निश्चित प्रतिशत में होता है । इनमें 77.5° ग्रेड का कॉस्टिक सबसे अधिक शुद्ध और तीव्र होता है ।

ii. कॉस्टिक पोटाश:

कॉस्टिक पोटाश के रासायनिक गुण कॉस्टिक सोडे से मिलते-जुलते है, परन्तु कॉस्टिक सोडे और पोटाश से बनाये हुए साबुनों में आवश्यक रूप से अन्तर होता है । कॉस्टिक पोटाश से बनाया हुआ साबुन मुलायम और पानी में अधिक घुलने वाला होता है । कॉस्टिक पोटाश से बनाया हुआ साबुन बनाने के लिए कॉस्टिक पोटाश की प्रयोग की जाता है परन्तु दैनिक प्रयोग के साबुन बनाने में इसका प्रयोग नहीं किया जाता ।

कॉस्टिक पोटाश भी कॉस्टिक सोडे की तरह आद्रताग्राही है और हवा में से कार्बन डाईऑक्साइड चूसकर पोटेशियम कार्बोनेट में परिवर्तित हो जाता है । इसलिए इसको या इसकी लाई को आवश्यकता से अधिक समय तक खुली हवा में नहीं रखना चाहिए ।

यह स्मरण रखना चाहिए कि पोटाश से बने साबुन त्वचा पर जलन डाल सकते है । तेल का पूर्ण साबुनीकरण करने के लिए कॉस्टिक सोडे के मुकाबले में कॉस्टिक पोटाश अधिक मात्रा में डालनी पड़ती है । मोटे तौर पर कॉस्टिक से डेढ गुनी अधिक पोटाश डालनी पड़ती है ।

iii. सोडा कार्बोनेट:

सोडा कॉस्टिक के प्रचार से पहले साबुन बनाने वाले इसी से अपनी लाई तैयार करके साबुन बना लिया करते थे परन्तु जब से सोडा कॉस्टिक आम मिलने लगा है तब से इसका प्रयोग कम हो गया है ।

सोडा कार्बोनेट तेल व वसा का साबुनीकरण नहीं कर सकता इसलिए केवल वसीय अम्लों (पैट्टी एसिड्‌स) से साबुन बनाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है । निर्जल सोडा कार्बोनेट बाजार में सोडा ऐश के नाम से बिकता है और सफेद पाउडर के रूप में होता है ।

अच्छी क्वालिटी के सोडा ऐश में 99 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट थौर लगभग 0.8 प्रतिशत नमक होता है । इसी का एक जलीय रूप सोडा क्रिस्टल के नाम से बिकता है । इसमें 30 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट होता है ।

साबुन में कभी-कभी लगभग 5 प्रतिशत तक सोडा क्रिस्टल मिला दिया जाता है । इससे अधिक मिलाने से यह साबुन के ऊपर फुटकर निकल आता है और साबुन के ऊपर जम जाता है । इसके मिलाने से साबुन सस्ता भी हो जाता है और मैल अधिक काटता है, क्योंकि यह खारे पानी को मीठा कर देता है और साबुन की कठोरता भी बढ़ाता है ।

iv. सोडियम क्लोराइड (खाने का नमक):

फूल बॉयल्स तरीके से साबुन बनाने की प्रक्रिया में साबुन को ग्रेन करने (फाड़ने) के लिए सोडियम क्लोराइड एक महत्वपूर्ण पदार्थ है । चूंकि साबुन नमक के तीव्र घोल में नहीं घुल सकता इसलिए जब साबुन के मिश्रण में काफी मात्रा में नमक डाल दिया जाता है तो उसका मिश्रण नमकीन होकर साबुन फट जाता है ।

विभिन्न तेलों व वसाओं से तैयार किये जाने वाले साबुनों में इसकी मात्रा भी भिन्न-भिन्न डालनी पड़ती है । मोटे तौर पर 100 भाग में 12 भाग नमक डाला जाता है । नमक सूखा भी डाला जा सकता है और इसका पानी में तीव्र घोल (ब्राइन) बनाकर भी प्रयोग कर सकते हैं ।

v. वसीय पदार्थ (Fatty Substance):

यद्यपि साबुन बनाने में कोई भी वसा या वसीय तेल प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु क्रियात्मक रूप में इनकी संख्या बहुत सीमित रह जाती है, जबकि गुणों, इनकी प्राप्ति और मूल्य पर विचार करना आवश्यक हो जाता है ।

vi. टैलो (चर्बी):

टैलो गाय, भैंस और बकरी की चर्बी को कहा जाता है । बाजार में बिकने वाली चर्बी की क्वालिटी व रंग में भिन्नता पाई जाती है । जानवरों की खाल के नीचे और विशेषकर पेट व सीने पर काफी चर्बी जमी होती है जो वध करते समय अलग कर ली जाती है । यह चर्बी बढिया होती है और प्रायः खाने के काम में आती है । घटिया दर्जे की चर्बी जानवरों की हड्डियां से निकाली जाती है जिसे बोन फैट, बोन ग्रीज या बोन टैलो कहते हैं ।

टैलो को साबुन में परिवर्तित करने के लिए इसके भार का लगभग 4 प्रतिशत कास्टिक सोडा चाहिए । अकेली टैलो का साबुन बनाने के लिए 10-12 अंश बामी की कास्टिक सोडे की लाई प्रयोग करनी चाहिए । इससे तीव्र लाई प्रयोग करने से साबुनीकरण पूर्ण होने में बाधा आती है ।

टैलो से अच्छी गठन वाला एक साबुन बनता है । अच्छी क्वालिटी की टैलो से बिल्कुल सफेद रंग का साबुन तैयार होता है । टैलो से कठोर साबुन बनता है झाग कम देता है परन्तु इससे बना साबुन बहुत समय तक अच्छी अवस्था में रखा रहता है । अन्य तेलों के साथ थोड़ी सी टैलो मिला देने से साबुन अच्छा और कठोर बनता है ।

vii. लार्ड (Lard):

सुअर की चर्बी को लार्ड कहा जाता है । चूंकि यह टैलो के मुकाबले में अधिक महंगी होती है इसलिए इसका प्रयोग केवल उच्चकोटि के टॉयलेट व शेविंग साबुनों के बनाने में होता है । इससे बने साबुन में झाग बहुत आते है । साबुनीकरण के लिए इसके भार के 14 प्रतिशत कॉस्टिक सोडे की आवश्यकता होती है ।

viii. नारियल का तेल (Coconut Oil):

साबुन बनाने के लिए वसीय तेलों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण यही तेल है । इस तेल से सफेद रंग का अच्छा साबुन बनता है । जो कि मीठे व खारे दोनों तरह के पानी में खूब झाग देता है । नारियल के तेल से साबुन में पानी और भर्ती की चीजें बहुत अधिक मात्रा में मिलाई जा सकती हैं ।

नारियल के तेल से ही टॉयलेट साबुन बनाये जाते हैं, परन्तु किसी-किसी की त्वचा पर ये साबुन जलन डालते हैं अतः इसके साथ अन्य तेल आवश्यक रूप से मिलाये जाते हैं । नारियल का तेल पानी जैसा स्वच्छ होता है और ठण्ड में जमकर कठोर हो जाता है । इसका साबुनीकरण शीघ्र हो जाता है और ठण्डी किया से साबुन बनाने के लिए यह आदर्श रहता है ।

इसका साबुनीकरण करने के लिए 18-18.5 प्रतिशत सोडा कॉस्टिक की आवश्यकता होती है । इसका साबुन बनाने के लिए लाई कम से कम 20-22 अंश तीव्रता की होनी चाहिए । यदि कम तीव्रता की लाई प्रयोग किया गया तो साबुनीकरण उस समय तक आरम्भ नहीं होता जब तक लाई उपयुक्त अंश की न हो जाये ।

ix. महुए का तेल (Oil of Mahua):

साबुन बनाने में यह तेल सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इसका मूल्य कम होता है और अच्छा साबुन बनता है । इससे ठण्डे प्रक्रम से घरों में स्त्रियां कपड़े धोने का साबुन बना लेती हैं ।

महुए का तेल पीले रंग का होता है और इसमें अन्य तेल मिलाकर साबुन बनाया जाता है । इसके साबुन से झाग काफी होते हैं । यह तेल गाढ़ा होता है । इसका साबुनीकरण करने के लिए इसके भार के 13 प्रतिशत कॉस्टिक सोडे या 18.5-19 प्रतिशत कॉस्टिक पोटाश की आवश्यकता होती है ।

x. अलसी का तेल:

साबुन उद्योग में अलसी के तेल से मुलायम और पारदर्शक साबुन बनाये जाते हैं । पूर्ण साबुनीकरण के लिए तेल के वजन का 13.5 प्रतिशत सोडा कॉस्टिक चाहिए । कॉस्टिक सोडे से तैयार हुआ साबुन लाल रंग का होता है, इसलिए इसका प्रयोग आम साबुन बनाने में नहीं किया जाता । इनका साबुन बहुत ही विलेय होता है और झाग भी खूब देता है । इसलिए मुलायम या पारदर्शक साबुन बनाने के लिए इसका प्रयोग अधिक किया जाता है ।

xi. मूंगफली का तेल:

इसका उपयोग अधिकतर खाने में होता है, इसलिए साबुन बनाने में इसका प्रयोग कम होता है । इसका रंग बहुत ही हल्का होता है । इसके साबुन में झाग कम होते हैं, इसलिए साबुन बनाने में यह अकेला बहुत कम प्रयोग होता है । इसे वसा व अन्य तेलों के साथ मिलाकर प्रयोग किया जाता है । साबुनीकरण करने के लिए 13-14 प्रतिशत कॉस्टिक सोडे की आवश्यकता है ।

xii. बिनौले का तेल (Linseed Oil):

बिनौले का तेल साबुन बनाने में बहुत प्रयोग किया जाता है । चूंकि इस तेल के अंदर वसीय अम्लों की मात्रा बहुत अधिक (20-21) प्रतिशत तक होती है, इसलिए यह तेल जल्दी खराब हो जाता है और इससे बनाया गया साबुन भी शीघ्र खराब हो जाता है । इसका साबुनीकरण करने के लिए 1-14.5 प्रतिशत कॉस्टिक सोडा या 19-20 प्रतिशत कॉस्टिक पोटाश की आवश्यकता होती है ।

 

xiii. तिल का तेल (Sesame Oil):

प्राचीनकाल से ही भारतीय चिकित्सक नीम के तेल के कीटाणुनाशक गुणों से परिचित हैं । नीम के तेल से उतना ही कठोर साबुन बनता है जितना महुए के तेल से, जबकि अन्य वसीय तेलों से मुलायम साबुन बनते है । नीम का तेल शीघ्र ही साबुनीकृत हो जाता है और इसके साबुन से खूब झाग निकलते हैं ।

पूर्ण साबुनीकरण के लिए इसके वजन का 14 प्रतिशत कॉस्टिक सोडा या 19-20 प्रतिशत कॉस्टिक पोटाश चाहिए । इस तेल की बंद बू दूर करने व रंग काटने के लिए विशेष प्रक्रम की आवश्यकता है ।

आजकल की महंगाई और तेल:

आजकल साबुन बनाने वाले देशी कारखाने कपड़े धोने के साबुन बनाने के लिए खालिस तेलों का प्रयोग बहुत कम किया जाता है । वनस्पति घी बनाने वाली फैक्ट्रियों से बचे हुए गन्दे तेल व गाद का उपयोग किया जाता है ।

वनस्पति घी बनाने में तिल, मूंगफली आदि के तेल प्रयोग किए जाते है । कारखाने वाले इन तेली में कई प्रकार की केमीकल्स व पदार्थ मिलाकर इन्हें साफ करते हैं और इन्हें जमाने के लिए तेजाबों व गैसों का भी प्रयोग किया जाता है । ये वनस्पति घी बन जाने के बाद बहुत सी गन्दगी बची रहती है । इस गन्दगी की तह से साबुन बनाने के लिए तीन चीजें मिलती हैं ।

1. एसिड ऑयल:

यह ब्राउन रंग के तेल के रूप में होता है जो जाड़ों में जमा रहता है और गर्मियों में पिघल जाता है । इसके अन्दर सफेद या कुछ मैले रंग की गांठें सी दिखाई देती हैं । इस तेल से बड़ा अच्छा साबुन बन सकता है, जो कि काफी कड़ा होता है ।

2. गाद:

इसमें थोड़ा तेल होता है और बाकी अंश में मिट्टी व अन्य अशुद्धियां होती है । इसमें अन्य तेल मिलाकर व उबालकर और फाड़कर साबुन बनाया जाता है । यह सोप स्टॉक भी दो तरह का होता है ।

एक तो हम में मिलता है जो कीचड़ की तरह होता है और बंद बू आती रहती है और दूसरा ठोस साबुन की तरह जमा हुआ मटमैला रंग का होता है । यह प्रायः बोरियों में बन्द बिकता है । ड्रम वाला सोप स्टॉक अच्छा रहता है । इसको फाड़कर अच्छा साबुन बनता है ।

3. काली गाद:

यह बहुत सख्त प्रकार का काले रंग का तेलों का मैला होता है, जिसमें तेल की मात्रा बहुत ही कम होती है । इसे मिलावट के लिए ही प्रयोग किया जाता है, अर्थात साबुन में बजाय सोप स्टॉक के इसे मिला देते हैं ।

इसके अतिरिक्त कुछ कारखाने वनस्पति घी नहीं बनाते, बल्कि मूंगफली, तिल, बिनौला आदि के तले को रिफाइन करके बेचते हैं । ऐसे कारखानों की अलग-अलग तेल की गाद बाजार में मिल जाती है और जो गुण जिस तेल में होते हैं, वह गुण उसकी गाद में होते है । इस सब गादों को केवल फाड़ने से साबुन बन सकते हैं । केवल ऐसिड आयल से चाहे जिस तरीके से साबुन बनाया जा सकता है ।

अन्य सस्ते तेल (Other Cheap Oils):

पिछले कुछ वर्षों से बाजार में थोड़े से ऐसे तेल आने लगे हैं, जिनके सबध में आम लोगों को कुछ नहीं मालूम है और बहुत से साबुन बनाने वाले भी इन तेलों से परिचित नहीं है । यह तेल खाने के काम नहीं आते और मूंगफली आदि के तेलों के मुकाबले में सस्ते होते हैं ।

कुछ नये तेल हैं:

i. चावल ब्रान का तेल (Rice Bran Oil):

नये तेलों में यह सबसे अधिक प्रयोग होने वाला तेल है, जिससे ठण्डे या गर्म किसी भी तरीके से साबुन बनाया जा सकता है । इस तेल का रंग हरा होता है ।

ii. तम्बाकू बीज का तेल (Tobacco Seed Oil):

इस तेल में बंद बू नहीं होती, परन्तु इससे मैले रंग का साबुन बनता है । साबुन सब तरह से अच्छा होता है ।

iii. मक्का का जमे तेल (Corn Oil):

यह मक्का का स्टॉर्च बनाने वाले कारखाने में बाई-प्रोडक्ट के रूप में मिलता है और सरसों के तेल के रंग का होता है इससे साबुन अच्छा और सफेद रंग का बनता है ।

iv. करंज का तेल (Carrion Oil):

यह तेल गहरे हरे रंग का और बदबूदार होता है और जब तक साबुन बनाने से पहले इसकी बंद बू दूर न कर ली जाये तो बदबू साबुन में बनी रहती है । साबुनीकरण के लिए इसके वजन की 18-1/2 प्रतिशत पोटाश चाहिए । यह तेल सरलता से साबुनीकृत हो जाता है । इसका साबुन मुलायम होता है और पानी में अधिक घुलता है ।

अकेले इस तेल से साबुन नहीं बनाया जाता, बल्कि इसके साथ अनिवार्य रूप से अन्य तेल भी मिलाए जाते हैं । तेलों के मिश्रण में इसका अनुपात 25 प्रतिशत से कम ही रहना चाहिए, नहीं तो बहुत शीघ्र घुल जाएगा । और कुछ दिनों तक रखा रहने पर इसका रंग भी बदलकर ब्राउन हो जाएगा ।

v. रायणा का तेल (Rayana Oil):

इसके वृक्ष भारत में बहुत से स्थानों पर पैदा होते हैं । इसका निकला हुआ तेल गहरे लाल रंग का होता है । कुछ समय रखा रहने पर महुए के तेल की तरह इसमें भी एक वेस बसा तली में बैठ जाती है ।

इस तेल का साबुनीकरण करने के लिए 19-20 प्रतिशत कॉस्टिक पोटाश चाहिए । इस तेल का साबुन मुलायम होता है और अच्छे झाग देता है । इससे ठण्डे प्रक्रण से साबुन बनाया जा सकता है ।

अन्य वसीय पदार्थ (Other Fatty Substances):

i. बिरोजा (Rosin):

बिरोजा मिला देने से साबुन की सफाई करने की क्षमता बढ़ जाती है, झाग अधिक देने लगता है, साबुन को सड़ने से बचाता है और साबुन में हल्की-सी सुगन्धि उत्पन्न करता है । चर्बी से बनाए गए साबुन बहुत कम घुलते हैं तथा बिरोजा मिला देने पर यह काफी झाग देते हैं ।

अच्छी विशेषता की टैलो 40-50 प्रतिशत तक बिरोजा ग्रहण कर सकती है । बिरोजा कपड़े धोने के साबुनों में ही मिलाया जाता है परन्तु जिस साबुन में यह मिला होता है, उनका रंग कुछ दिनों के बाद गहरा होने लगता है ।

यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बिरोजा वसा नहीं है । इसलिए वसीय पदार्थों की कमी इससे पूरी नहीं की जा सकती । साबुनों में इसका प्रयोग सीमित मात्रा में किया जाना चाहिए ।  अधिक मात्रा में डाल देने से साबुन चिपचिपा हो जाता है और प्राय पानी छोड़ने लगता है साबुनीकरण के लिए इसे 12.5 से 14.0 प्रतिशत कॉस्टिक सोडे की आवश्यकता होती है ।

ii. भर्ती के पदार्थ (Fillers):

भर्ती के पदार्थ साबुन का आयतन बढ़ाने और इस पर लागत घटाने के लिए मिलाये जाते हैं । यह मुख्यतः अल्रिय पदार्थ होते हैं । साबुन निर्माता बहुत से भर्ती के पदार्थ मिलाते हैं, जिनमे सोडियम सिलिकेट, सोप स्टोन, नमक, स्टार्च और ऐश आदि सम्मिलित हैं इनके मिलाने से साबुन के सफाई करने के गुणों में वृद्धि नहीं होती बल्कि औचित्य का ध्यान न रखा जाये तो साबुत बहुत घटिया हो जाता है ।

अच्छे साबुनों में यह मिलाए ही नहीं जाते अगर मिलाये भी जाते हैं तो बहुत ही सीमित मात्रा में । भर्ती के पदार्थ में सबसे अधिक प्रयोग सोडियम सिलिकेट और सोप स्टोन का होता है ।

iii. सोडियम सिलिकेट (Sodium Silicate):

बारीक पिसे हुए रेत और सोडा ऐश को मिलाकर जब ऊचे ताप वाली भट्टी में पिघलाया जाता है तो सोडियम सिलिकेट पिघले हुए रूप में प्राप्त होता है । द्रव सोडियम श्यान द्रव होता है और यदि इसकी थोड़ी मात्रा में मिलाया जाये तो सोडियम सिलिकेट साबुन के मैल काटने के गुण बढा देता है और उसे कठोर भी कर देता है, परन्तु अधिक मात्रा में मिला देने से साबुन में कई दोष उत्पन्न हो जाते हैं ।

यद्यपि बहुत अधिक मात्रा में मिला देने से यह साबुन के मैल काट गुणों पर तो प्रभावित नहीं होता, परन्तु साबुन में क्षार का अनुपात बढ़ जाता है और वह पानी में अधिक घुलने लगता है ।

iv. सोप स्टोन (Soap Stone):

इसे सेलखड़ी, टैल्कम और फ्रैंच चाक भी कहते हैं । इसमें सोडा सिलिकेट की तरह मैल काटने के गुण नहीं हैं । यह साबुन को भारी बना देता है । इसका रंग सफेद होता है, इसलिए साबुन का रंग भी साफ रहता है ।

 

v. श्वेतसार (Starch):

कपड़ा धोने के साबुनों में मैदा व अन्य स्टार्च मिलाए जाते हैं । स्टार्चों को मिलाने से साबुन के मैल काटने के गुण कम हो जाते हैं । ठण्डे प्रलृम से बनाए गए साबुनों में 25-30 प्रतिशत तक मैदा या स्टार्च मिलाए जा सकते हैं । भारत में खाद्य पदार्थों की कमी को देखते हुए साबुनों में स्टार्च का प्रयोग उचित नहीं ठहराया जा सकता ।

vi. साबुन के रंग (Soap Colors):

साबुनों में ऐसे एनीलिन प्रयोग किए जाते हैं जो पानी में घुलनशील हों, साबुन के साथ मिल सके और प्रकाश से हल्के न पड़ सकें । रंगों के चुनाव करते समय यह देख लेना चाहिए कि वे साबुन की सुगन्धि पर यह विपरीत प्रभाव न डालें तथा उनमें कोई भी हानिकारक केमीकल न हो जो प्रयोगकर्ता की त्वचा को हानि पहुंचाए । साबुनों के लिए कुछ महत्वपूर्ण रंगों की सूची नीच दी जा रही है ।

सफेद- जिंक ऑक्साइड, टिटैनियम डाई ऑक्साइड ।

पीला- जिंक यैलो, मैटानिल यैलो, नैपथोल यैलो आदि ।

लाल- पेन्सियाउ 2 आर, रहोडार्मीन, सैफरामीन, क्रोसीन स्कारलैट आदि ।

गुलाबी- रहोडामीन बी ।

हरा- फास्ट लाइट ग्रीन, क्रीम ग्रीन, अल्ट्रामेरीन ग्रीन आदि ।

ब्राउन- सोप ब्राउन, कैरामेल, बिस्मार्क ब्राउन आदि ।

ब्लू- मैथालीन ब्लयू, अल्ट्रामरीन ब्ल्यू आदि ।

जामनी- मिथायल वायलेट आदि ।

साबुन बनाने के तरीके (Manufacturing Process of Soaps):

साबुन मूलतः दो प्रक्रमों से बनाया जाता है । एक तो ठंडे प्रक्रम से, जिसमें इनहें उबालना नहीं पड़ता और दूसरा उबालने के प्रक्रम से ।

परन्तु आजकल साबुन बनाने के तीन प्रक्रम प्रचलित हो गए हैं:

1. ठंडा प्रक्रम

2. आधा उबालने का प्रक्रम

3. उबालने का प्रक्रम

1. ठंडा प्रक्रम (Cold Process):

यह सबसे सरल प्रक्रम है जिसमें मूल्यवान यन्त्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती । तेलों के मिश्रण की नपी हुई मात्रा लेकर उसे कढ़ाई में डाला जाता है । यदि तेल जमे हुए हैं तो इन्हें कढ़ाई में गर्म करके द्रव्य में परिवर्तित कर लेते हैं । इसमें कास्टिक सोडा 36-38 अंश बामी की लाई धीरे-धीरे मिलाते हैं संहति को बराबर चलाते रहते हैं ।

मिश्रण एकदम गर्म होकर द्रव्य होता है और जब समस्त लाई इसमें मिला दी जाती है तो गाढ़ा होने लगता है । इसको बराबर चलाते रहते है । इस अवस्था में पहुंच जाने पर इसमें भर्ती पदार्थ और सुगन्धियां आदि मिला दी जाती हैं । साबुन को जमाने के लिए फ्रेम में भर दिया जाता है । यहां यह दो तीन दिन में जमकर काटने योग्य हो जाता है ।

ठंडे प्रक्रम से साबुन बनाने के लिए नारियल का तेल बहुत अच्छा रहता है क्योंकि इसका साबुनीकरण शीघ्रता से हो जाता है और इसमें काफी अधिक मात्रा में भर्ती की चीजें खप सकती है । इसमें मजदूरी भी कम खर्च होती है ।

चूंकि इसमें साबुन को दूसरे प्रक्रमों की तरह फाड़ा नहीं जाता है, अतः तेल या क्षार में जो भी अशुद्धिया मिली होवे साबुन में बनी रही है । तेल और क्षार अच्छी तरह नापकर मिलाये जाते हैं क्योंकि अगर किसी की भी अधिकता हो जाये तो वह साबुन में बनी रहती है ।

2. अर्द्ध उबाल प्रक्रम (Semi-Boil Process):

इस प्रक्रम से साबुन बनाने के लिए इतनी बड़ी कढ़ाई ली जाती है कि उसमें तेल लाई आदि डालकर उनको उबाला जा सके । ठंडे प्रक्रम की अपेक्षा इसमें बर्तन बड़ा चाहिए । तेल और क्षार की उचित मात्रा में निर्णय इस प्रक्रम में भी सावधानी से किया जाता है ।

तेलों के मिश्रण को कढ़ाई में रखकर 90 डिग्री सेंटी तक गर्म किया जाता है । इसमें इतनी लाई मिला दी जाती है कि मिश्रण में क्षारीयता अधिक हो जाये । यदि प्रतिक्रिया बहुत तेजी से होती है और संहति उफनकर कढ़ाई से बाहर निकल जाने की आशंका हो तो भट्टी को आग कम कर दी जाती है और संहति पर पानी छिड़का जाता है ।

उबालते समय साबुन को मस्सद से बराबर चलाते रहना आवश्यक है । जब समस्त लाई मिला दी जाये, उसके बाद साबुन को 2-3 घंटे तक उबाला जाता है ताकि साबुनीकरण पूर्व हो जाये ।

साबुनीकरण पूरा हो जाने पर इसमें सुगन्धिया और भर्ती के पदार्थ मिला दिए जाते हैं और साबुन को ठंडा होने के लिए फ्रेमों में भर दिया जाता है । ठंडे प्रक्रम की अपेक्षा इसमें अधिक प्रकार के तेल प्रयोग किये जा सकते हैं । यदि तेलों व क्षारों की विशेषता अच्छी है तो दर्जे के टॉयलेट व कपड़ा धोने के साबुन इससे तैयार किए जा सकते है जो कि ठंडे प्रलृम के साथ सम्भव नहीं है ।

3. ठंडे और आधे उबालने के प्रक्रम (Cold and Half Boiling Process):

दोनों विधि में ग्लिसरीन साबुन में ही मिली रहती है ।

4. पूर्ण उबाल प्रक्रम (Full Boil Process):

पिछले दिनों तरीकों अर्थात् ठंडे तरीकों और आधे उबालने के तरीकों में अधिक से अधिक साफ तेल प्रयोग करने पड़ते हैं, परन्तु पूर्ण उबाल के तरीके से साबुन बनाने में तेल के साफ होने की जरूरत नहीं हैं, क्योंकि इस तरीके से साबुन बनाते समय तेल को नमक की सहायता से फाड़ा जाता है और इस प्रकार का साबुन दोनों तरीकों से बने साबुन की अपेक्षा अच्छा और साफ होता है । इस तरीके से साबुन बनाने के निर्माता को उप-जात के रूप में ग्लिसरीन बची रहती है । यह तरीका गृह उद्योग के रूप में प्रायः काम में नहीं लाया जाता ।

सोडा कॉस्टिक की लाई बनाना (How to make Soda Caustic?):

साबुन बनाने में तेलों का साबुनीकरण किया जाता है और इसके लिए किसी क्षार का होना आवश्यक है । क्षार के रूप में अधिकतर सोडा कॉस्टिक का प्रयोग किया जाता है परन्तु सोडा कॉस्टिक को तेलों सूखा नहीं मिलाया जा सकता । बल्कि पानी में घोलकर इस घोल को तेल में मिलाते है ।

सोडा कॉस्टिक को पानी में घोलकर जो घोल बनाया जाता है उसे साबुन उद्योग को परिभाषा में लाई कहते हैं । लाई की तीव्रता का अंश देखने के लिए बामी हाइड्रोमीटर का प्रयोग किया जाता है ।

बामी हाइड्रोमीटर में अंश इस सिद्धांत पर बने होते हैं कि शुद्ध पानी में हाइड्रोमीटर जिस बिन्दु तक डूबता है उसे शून्य अंश रखा गया है और जिस बिन्दु तक यह नमक के 10 प्रतिशत जलीय घोल (17 अंश ताप) में डूबे उसे 10 अंश माना जाता है । साबुन बनाने वाले के लिए ऐसा हाइड्रोमीटर काम दे सकता है, जिसमें शून्य से 70 अंश तक हों ।

एक इच्छित विशिष्ट की लाई बनाने के लिए पानी में थोड़ा सा कॉस्टिक सोडा घोल लिया जाता है और लाई को ठंडा होने दिया जाता है । इसमे हाइड्रोमीटर को डाला जाता है और जिस चिन्ह तक यह डूब जाए वही लाई का अंश (डिग्री) कहलाता है यदि ‘लाई’ आवश्यकता से अधिक तीव्रता की बन गई हो तो थोड़ा पानी इसमें और मिला दिया जाता है । और यदि आवश्यकता से कम तीव्रता की है तो थोड़ा कॉस्टिक और मिलाना पड़ेगा ।

साबुन बनाने के लिए मशीन एवं उपकरण (Machinery & Equipments Required for Manufacturing Soaps):

यदि बड़ी पूजी से साबुन बनाने का काम शुरू किया जाय तो उसमें ऊंचे मूल्य वाली बहुत सी मशीनों व उपकरणों की आवश्यकता पडती है, परन्तु कुटीर उद्योग के रूप में इस उद्योग को चलाने के लिए निम्न सामान व मशीनें उपयुक्त होंगी ।

 

i. भट्टी (Furnace):

साबुन उबालने के लिए भट्टी की आवश्यकता होती है । यह भट्टी एक मच के रूप में बनाई जाती है और इस अनुमान से बनवानी चाहिए कि इस पर कड़ाई रखने के बाद भी आदमी चारों तरफ आसानी से चल सके ।

भट्टी कारखाने में एक कोने में बनवानी चाहिए, ताकि जगह कम घिरे और पीछे की ओर चिमनी लगाई जा सके । भट्टी के मुंह पर एक ढक्कन भी होनी चाहिए. ताकि जरूरत पड़ने पर आग कम या अधिक की जा सके । साबुन बनाने के लिए भट्टी में ऐसा प्रबंध होना आवश्यक है कि आग को इच्छानुसार कम या अधिक किया जा सकता है ।

जब ताप बढाया हो तो अधिक ईंधन डालकर हवा आने का मार्ग प्रशस्त कर दिया जाय ताकि ईंधन तेजी से जले और जब ताप करना हो तो हवा आने के मार्ग को छील किया जा कसे, ताकि ईंधन आहिस्ता जले । ईंधन तथा भट्टी तथा भट्टी की राख आदि निकालने का भी उचित प्रबंध होना आवश्यक है ।

ii. सोप क्रचर (Soap Crutcher):

यदि प्रतिदिन एक दो क्विंटल साबुन बनाना हो तो यह कार्य कढ़ाई में ही हो सकता है और इसे चलाने के लिए तीन या चार आदमी रखे जा सकते हैं, परन्तु यदि साबुन इससे अधिक मात्रा में बनाना हो तो एक यांत्रिक मथानी प्रयोग की जाती है जिसे सोप क्रचर कहा जाता है । सोप क्रचर के यांत्रिक भाग को साधारण कढ़ाई पर भी फिट किया जा सकता है । क्रचर पर ही काफी अधिक मात्रा में साबुन तैयार किया जा सकता है ।

iii. सोप कैटिल (Soap Kettle) या कढ़ाई (Soap Kettle):

भारत में, विशेषतः छोटे कारखानों में, साबुन रॉट आयरन की बनी हुई बड़ी-बड़ा कढ़ाइयों में उबाला जाता है, परन्तु जब साबुन बड़े पैमाने पर तैयार करना हो तो कढ़ाई की आकृति का परन्तु इससे बहुत अधिक गहरा और कम चौड़ा बर्तन बनाया जाता है ।

चूंकि उबालते समय साबुन फूलता है, इसलिए इस अन्दाज से कड़ाई या कैटिल्य बनवाना चाहिए कि अगर उसमें एक क्विंटल तेल का साबुन है तो 3 क्विंटल तेल आ सके ।

iv. साबुन बनाने का फ्रेम (Soap Making Frame):

यह फ्रेम एक सूत मोटी लोहे की चादर के बनाये जाते हैं और एक लम्बोतरे बाक्स की शक्ल के होते हैं । आधुनिक सोप फ्रेम में नीचे की और लोहे के पहिये लगे होते हैं, इसको इधर उधर ले जाया जा सके । इन फ्रेमों में चारों दीवारें कब्जेदार होती हैं, ताकि इनको नीचे गिराकर साबुन की पूरी सिल्ली निकाली जा सके ।

v. साबुन की कटाई (Soap Harvesting):

साबुन की कटाई सबसे अधिक ध्यान देने की चीज है । इसमें लापरवाही बरतने का अर्थ है नुकसान और समय की बर्बादी । नये साबुन निर्माता प्रायः इस ओर ध्यान नहीं देते जिसके कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है ।

vi. टिकियां काटने की मशीन (Cake Cutting Machine):

फ्रेम में से साबुन निकालने के बाद इसमें से सिल्लियां कटि जाती हैं और इन सिल्लियों में से डाई के हिसाब से ठीक लम्बाई-चौड़ाई की टिकिया बढ़िया काट ली जाती है । साबुन काटने की मशीन कारखाने की उत्पादन क्षमता के अनुसार बडी या छोटी बनवायी जाती है ।

बड़ी मशीनों में पूरी एक डेढ क्विंटल वजन की साबुन शिला रखकर एक बार में ही इ नमे से पतली पतली अनेक सिल्लियां कट जाती हैं । दूसरी बार में उन्हीं सिल्लियों में से साबुन की टिकिया या डंडे कट जाते हैं । इस प्रकार केवल दो बार में ही सैकड़ों टिकिया कट जाती हैं । छोटी मशीनों में समय अधिक लगता है परन्तु छोटे कारखानों के लिए ये आदर्श रहती हैं क्योंकि ये बहुत सस्ती होती है ।

vii. साबुन पर ठप्पा लगाना (Stamping Machine):

कपड़ा धाने अथवा नहीने के साबुन की तैयारी में अन्तिम क्रिया टिक्की पर ठप्पा लगाने की है । इस क्रिया में मशीन से काटी हुई टिक्की को डाई में रखकर मशीन द्वारा दबाव डाला जाता है तो टिक्की की आकृति दबाव के कारण ठीक हो जाती है । टिक्की पर सफाई व चमक आ जाती है और साबुन का नाम व ट्रेड मार्क इस पर छप जाता है । डाइयां साबुन-निर्माता अपनी पसंद के किसी भी डिजाइन की बनवा सकते हैं ।

डाइयां:

उसके निम्न तीन भाग होते हैं:

1. ऊपर का ठप्पा ।

2. डाई स्टॉक जिसे स्क्रूओं द्वारा मशीन की बेस प्लेट में कम दिया जाता है ।

3. नीचे का ठप्पा जोकि डाई स्कॉट के तली में रखा जाता है ।

डाई को मशीन की बेस प्लेट पर इस प्रकार फिट किया जाता है कि जब मशीन का लीवर दबता है या उठता है तो दोनों ठप्पे स्वतंत्रता पूर्वक डाई स्टॉक के ऊपर नीचे चलते रहें । डाई स्टॉक कास्ट आयरन का होता है (कभी-कभी गन मैटल का भी होता है या टिक्की किसी विशेष डिजाइन की हो) और नीचे के ठप्पे गन मैटल के बने होते हैं । साबुन के नाम व ट्रेड मार्क आदि ठप्पों में खुदा हुआ होता है ।