एक छोटे पैमाने उद्योग कैसे स्थापित करें? | Are you planning to set up a small scale industry? Read this article in Hindi to learn about how to set up and establish a small scale industry.
लघु उद्योग एवं इस श्रेणी (Category) के अन्तर्गत आने वाला कोई भी छोटा कारखाना लगाने के लिए केन्द्रीय या राज्य सरकार की औपचारिक अनुमति लेने की बिल्कुल जरूरत नहीं है । परंतु जो छोटे कारखाने ऐसा चीजों का उत्पादन आरंभ करना चाहते हैं जिनके लिए विदेशी पुर्जों की आवश्यकता हो उन्हें अपने उत्पादन के सम्बन्ध में विकास कमिश्नर (लघु उद्योग) की पूर्व स्वीकृति लेनी जरूरी है ।
इसके अतिरिक्त छोटे कारखानों को राज्य सरकार अथवा स्थानीय संस्थानों के अधिकारियों के द्वारा निर्धारित कारखाना अधिनियम (फैक्ट्री एक्ट), ‘दुकान तथा प्रतिष्ठान अधिनियम’ (Shop & Establishment Act) और नगर निगम तथा कच्चे माल का कोच देने के संबंध में बनाये गये नियमों का पालन करना आवश्यक होता है ।
लघु उद्योगों का पंजीकरण (Registration of Small Scale Industries):
यद्यपि लघु उद्योगों का राज्य उद्योग निदेशालय (State Directorate of Industries) से पंजीकरण जरूरी नहीं है, परंतु फिर भी अपने लाभ के लिए SDI से इसको पंजीकृत करवा लेना चाहिए । कुछ निर्धारित वस्तुएं ऐसा हैं जिन्हें बनाने के लिए राज्य सरकार या केन्द्र सरकार से लाईसेंस लेना पड़ता है, इसके अतिरिक्त इस श्रेणी के उद्योगों के लिए सरकार द्वारा कुछ प्रोत्साहन-लाभ (Incentive Benefits) का प्रावधान (Provision) किया गया है ।
ADVERTISEMENTS:
यह सुविधा उन्हीं लघु उद्योगों को प्रदान की जाती है, जो राज्य उद्योग निदेशालय के द्वारा पंजीकृत (Registered) होते हैं, चाहे उद्योग पंजीकृत हो या न हो लेकिन राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना आवश्यक है, इसलिए SDI में उद्योगों का पंजीकरण करवा लेना चाहिए ।
लघु उद्योग का पंजीकरण दो प्रकार से होता है:
(1) सामयिक पंजीकरण (Provisional Registration)
(2) स्थायी पंजीकरण (Permanent Registration)
ADVERTISEMENTS:
लघु उद्योगों का सामयिक पंजीकरण (Provisional Registration) इकाई (Unit) के उत्पादन में आने से पहले कराया जाता है । यह पंजीकरण सर्टिफिकेट प्रारंभ में दो साल के लिए प्रदान किया जाता है । यदि इकाई इस अवधि में उत्पादन में नहीं आ पाती है तो पंजीकरण का नवीकरण (Renewal) सम्बन्धित राज्य उद्योग निदेशालय से करवाया जाता है ।
यह नवीकरण मात्र छः महीने के लिए किया जाता है । जब इकाई उत्पादन (Production) में आ जाती है, तो प्रार्थना-पत्र SDI को देकर स्थायी पंजीकरण (Permanent Registration) करवाया जाता है ।
उपयुक्त उद्यम का चुनाव कैसे करें (How to Select a Suitable Business?):
जिन उद्योग-धन्धों की सहायता से आय बढ़ाने या स्वतंत्र रूप से जीविका कमाने में सहायता मिल सकती है उनमें से चुने हुए उद्योग-धन्धों की जानकारी इस पुस्तक में दी गयी है । वैसे तो इसमें बताये गये सभी उद्योग-धन्धों मुनाफा दे सकने वाले हैं और देश-विदेशों में लाखों व्यक्ति इन चुने हुए उद्योग-धन्धों से अच्छा लाभ कमा रहे हैं परन्तु इस संबंध में यह बात भी स्मरण रखने योग्य है कि आजकल प्रायः सभी उद्योग-धन्धों में इतनी प्रतिस्पर्धा चल रही है कि पुराने तथा अनुभवी व्यक्तियों के मुकाबले में जो नये व्यक्ति इस क्षेत्र में उतरते हैं उन्हें अपने व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ संघर्ष का भी सामना करना पड़ सकता है और इसके लिए अच्छी व्यापारिक सूझ-बूझ की भी आवश्यकता पड़ती है ।
अपने लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध हो सकने वाले उद्योग-धन्धे का चुनाव करने के लिए नीचे बताये गये तथ्यों पर भली-भांति विचार कर लेना आपके लिए मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकता है:
ADVERTISEMENTS:
(क) जिन वस्तुओं का आप उत्पादन करना चाहते हैं, उनकी बिक्री के लिए आपके आस-पास के क्षेत्र में पर्याप्त सम्भावना है या नहीं ? यदि अपने उत्पादन को आप दूरस्थ स्थानों एवं बाजार में भी बेचना चाहते हैं तो उसके लिए आप समुचित साधन जुटा सकते हैं या नहीं?
(ख) जो उद्योग आप शुरू करना चाहते हैं उसमें अधिक प्रतिस्पर्धा (Competition) है तो अपने अन्य प्रतिद्वन्दियों के साथ-साथ आप अपना माल सफलतापूर्वक कैसे बेच सकते हैं?
(ग) उस उद्योग के लिए आपके पास आवश्यक ‘पावर कनेक्शन’ तथा स्थान की व्यवस्था है या नहीं ?
(घ) अपने उत्पादन को लाभ सहित तथा जल्दी बेचने के लिए क्या आप उसका मूल्य दूसरे प्रतिद्वन्दियों की तुलना में कुछ कम रख सकते हैं (या उनसे बढ़िया माल उचित कीमत पर तैयार कर सकते हैं) ?
(च) आपके कारखाने के लिए आवश्यक कच्चा माल आपको पर्याप्त मात्रा में तथा उचित मूल्य पर उपलब्ध हो सकता है या नहीं ?
ऊपर बताये गये तथ्यों के आधार पर तथा अपनी व्यापारिक सूझ-बूझ को उपयोग में लाकर अपने लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध हो सकने वाले धन्धे का चुनाव आप सरलतापूर्वक कर सकते हैं ।
सरकारी सुविधाएं (Government Facilities):
सरकार की औद्योगिक उदार नीति (Liberal Policy) के तहत लघु एवं कुटीर इकाइयों के विकास का विशेष ध्यान रखा गया है । इन इकाइयों को विभिन्न नियंत्रणों एवं कर्मचारी शासन (Bureaucratic Control) से मुक्त कर दिया गया है ।
लघु उद्योगों को विकासोन्मुख बनाने के विचार से सरकार द्वारा 846 वस्तुओं (Item) का उत्पादन लघु इकाइयों में करने के लिए खास सुरक्षित (Exclusively Reserved) रखा गया है । इसमें परम्परागत (Traditional) पेशा एवं ग्रामीण शिल्पकारों के कार्य-उपकरण एवं औजारों (Tools) तथा कला (Techniques) को अनुसंधान के आधार पर विकसित एवं नवीकृत करने का प्रावधान भी है ।
अन्य उपयोगी सुविधाओं का वर्णन निम्नलिखित है:
फैक्ट्री के लिए उपयुक्त स्थान की सुविधा (Convenience Facility for Factory):
विभिन्न राज्यों में ‘उद्योग निर्देशक’ (Director of Industries) के द्वारा प्रमुख नगरों, कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में ‘औद्योगिक बस्तियाँ’ (Industrial Estates) भी स्थापित की गयी है जहां लघु उद्योग स्थापित करने के लिए इच्छुक उद्यमियों (Entrepreneurs) को कारखाने स्थापित करने के लिए बनी बनायी इमारतें किराये पर उपलब्ध हो सकती हैं इसी तरह औद्योगिक क्षेत्री में प्रत्येक कारखाने के लिए आवश्यकतानुसार अलग-अलग प्लॉट (Plot) लिए भी आबंटित (Allotment) किये जाते हैं ।
इन औद्योगिक बस्तियों या प्लॉटों का किराया उनके क्षेत्रफल और उनकी स्थिति के अनुसार अलग-अलग है । सामान्यतः यह किराया बहुत कम होता है । पहले पाँच वर्षों का किराया रियायती दर पर (Subsidized Rate) देना होता है । कहीं-कहीं राज्य सरकारें औद्योगिक बस्ती के अन्दर कारखाने की इमारत बनाने के लिए पानी बिजली आदि की सुविधाओं से सम्पन्न प्लॉट भी देती है ।
औद्योगिक बस्तियों में कारखानों के लिए स्थान प्राप्त करने के लिए आवश्यक प्रार्थना-पत्र उस राज्य के ‘उद्योग-निर्देशक’ (Director) को देना चाहिए ।
पावर कनेक्शन (Power Connection) के लिए किससे सम्पर्क करें? (Who to Contact for Power Connection?):
कारखाना चलाने के लिए लघु उद्योगों को रियायती दर पर बिजली भी दी जाती है । इसके लिए आवश्यक जानकारी, स्थानीय ‘इलॉक्ट्रिक सप्लाई अण्डरटेकिंग’ से मिल सकती है और इसके लिए आवश्यक प्रार्थना पत्र ‘डायरेक्टर आफ इण्डस्ट्रीज’ से स्वीकृत कराकर भेजना चाहिए ।
लघु उद्योगों के लिए ऋण की सुविधाएं (Credit Facilities for Small Scale Industries):
चूंकि लघु उद्योग स्थापित करने एवं सुचारु रूप से चलाने के लिए साख-ऋण (Credit Loan) की अहम भूमिका है । लघु उद्योगों को आसान शर्तों एवं कम ब्याज-दर पर ऋण उपलब्ध न हो पाने के फलस्वरूप कभी-कभी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त बहुत बार वित्तीय संस्थाओं के द्वारा विलम्ब से ऋण प्रदान किया जाता है या अपर्याप्त ऋण प्रदान कराया जाता है ।
इन समस्याओं को मद्देनजर रखते हुए सरकार द्वारा ‘भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक’ (Small Industries Development Bank of India) की स्थापना की गयी है । यह मुख्य रूप से वित्तीय संस्थाओं को ऑटोमेटिक रिफाइनान्स स्कीम (Automatic Refinance Scheme) या नार्मल रिफाइनान्स स्कीम (Normal Refinance Scheme) के तहत फण्ड प्रदान करता है ।
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) के द्वारा खास नई सुविधाएँ, जैसे-सिंगल विण्डो कन्सेप्ट (Single Window Concept) के तहत कम्पोजिट लोन (Composite Loan) राज्य वित्तीय निगमों (State Financial Corporation) की अंतः संरचना (Infrastructure) को सुदृढ़ बनाने के लिए रियायती ऋण (Concessional Loan) तथा नियोगी सेवा (Factoring Services) का प्रावधान किया गया है ।
इसके अतिरिक्त और कई योजनाओं (Scheme) के अन्तर्गत लघु उद्योगों को या तो सीधे भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) के द्वारा या राज्य वित्तीय निगमों और व्यवसायिक बैंकों (Commercial Banks) के द्वारा ऋण प्रदान किया जाता है, जिसका विवरण आगे दिया गया है ।
साधारणतः ऋण दो प्रकार के होते हैं:
(a) सावधिक ऋण (Long Term Loan) और (b) कार्यशील पूंजी ऋण (Working Capital Loan) सावधिक ऋण की आवश्यकता कारखाना स्थापित करने के लिए होती है । यह ऋण कारखाने की अचल सम्पत्ति (Fixed Capital) जैसे जमीन (Land), मकान (Building), मशीन (Machine), इत्यादि के ऊपर लागत (Investment) के आधार पर दिया जाता है । यह ऋण वित्तीय संस्थाओं के द्वारा कारखाने की अचल सम्पत्ति को गिरवी रखकर (Mortgage) प्रदान किया जाता है । कार्यशील पूंजी ऋण (Working Capital Loan) की आवश्यकता उद्योग को सुचारु रूप से चलाने के लिए होती है ।
यह ऋण व्यावसायिक बैंकों (Commercial Banks) के द्वारा कारखाने की चल सम्पत्ति (Movable Properties) जैसे-कच्चा माल (Raw Materials), तैयार वस्तु (Finished Product) तथा सेल्स क्रेडिट (Sales Credit) के मद में गिरवी (Hypothecation) के आधार पर कैश क्रेडिट (Cash Credit), ओवर ड्रापट (Over Draft) तथा बुक डेबट (Book Debt) के रूप में दिया जाता है ।
सावधिक ऋण मुख्य रूप से राज्य वित्तीय निगम (State Financial Corporation) के द्वारा प्रदान किया जाता है । वित्तीय निगम भारत के करीब-करीब सभी राज्यों में है । यह वित्तीय निगम सम्बन्धित राज्य सरकार का उपक्रम (Undertaking) होता है ।
जिन राज्यों में वित्तीय निगम का गठन नहीं किया गया है उन राज्यों में सावधिक ऋण सम्बन्धित राज्य औद्योगिक विकास निगम (State Industrial Development Corporations) के द्वारा दिया जाता है । कार्यशील पूंजी (Working Capital) ऋण व्यवसायिक बैंक (Commercial Banks) के द्वारा दिया जाता है ।
ऐसे व्यवसायिक बैंक सावधिक ऋण भी दे सकता है । लेकिन फिर भी साधारणतया बैंकों के द्वारा कार्यशील पूंजी ऋण ही प्रदान किये जाते हैं । सरकार की ओर से लघु उद्योगों को जिन मुख्य-मुख्य स्रोतों से ऋण मिल सकता है उनके सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी नीचे दी जा रही है ।
(क) राज्य सरकारों से मिल सकने वाला ऋण (Loan from State Government):
सामान्यतः लघु उद्योगों को उनसे संबंधित राज्य के ‘डायरेक्टर ऑफ इण्डस्ट्रीज’ या उनके अधीन ‘डिस्ट्रिक्ट इण्डस्ट्रीज ऑफिसर’ के कार्यालय से सहायता अधिनियम के अंतर्गत निम्न शर्तों पर ऋण मिल सकता है:
ब्याज की दर (Rate of Interest):
लघु उद्योगों को दिये जाने वाले उपर्युक्त ऋण पर ब्याज की दर काफी कम रखी गयी है जो समय के अनुसार घटती बढ़ती रहती है ।
ऋण सम्बन्धी अन्य जानकारी:
1. इस ऋण की अदायगी अधिकतम 10 वर्ष में की जा सकती है ।
2. कुछ राज्यों में ‘डिस्ट्रिक्ट इण्डस्ट्रीज ऑफिसर्स’ अथवा जिलाधीशों को 25 हजार रुपये तक दे सकने का अधिकार दे दिया गया है ।
3. औद्योगिक सहकारी संस्थाओं को उनके साधनों के विकास के लिए सहायता प्रदान करने के लिए उद्देश्य से केन्द्रीय सरकार उन सहकारी संस्थाओं की पूंजी के 75 प्रतिशत भाग तक के बराबर रकम, द्विवर्षीय ऋण के रूप में दे सकती है । शेष रकम या तो राज्य सरकार से ऋण के रूप में मिल सकती है अथवा संस्था को स्वयं उसकी व्यवस्था करनी होती है ।
(ख) ‘राजकीय वित्त निगम अधिनियम’ के अन्तर्गत मिल सकने वाला ऋण (Loan Available under ‘State Finance Corporation Act’):
‘राजकीय वित्त निगम अधिनियम 1951’ के अन्तर्गत, मझौले और छोटे उद्योगों को ‘दीर्घावधि’ और ‘मध्यावधि’ ऋण देने के लिए विभिन्न राज्यों में ‘वित्त निगम’ स्थापित किये गये हैं ।
इनसे ऋण लेने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
(i) राजकीय वित्त निगम (State Financial Corporation) – राज्य सरकारों के एजेन्टों के रूप में छोटे उद्योगों को रुपया उधार देने के अतिरिक्त, अपनी पूंजी में से उन्हें दीर्घावधि मध्यावधि और अल्पावधि ऋण देते हैं ।
(ii) ये निगम, ऋणों पर सामान्यतः 12 से लेकर 20 प्रतिशत की दर से वार्षिक ब्याज लेते हैं । वैसे ब्याज की दरें विभिन्न राज्यों में अलग-अलग हैं ।
(iii) कई राज्यों में ये वित्त निगम, ठीक समय पर ऋण की अदायगी कर देने वालों को ब्याज में 0.5 प्रतिशत वार्षिक छूट देते हैं ।
(ग) स्टेट बैंक आफ इण्डिया की ऋण योजना (Loan Scheme of State Bank of India):
लघु उद्योगों को ऋण देने के विचार से ‘स्टेट बैंक आफ इण्डिया’ ने भी एक ‘ऋण योजना’ आरम्भ की है- यह योजना 1953 के आरम्भ में परीक्षण के रूप में चुने हुए 6 नगरों में आरम्भ की गयी थी किन्तु अब इस बैंक की सभी शाखाएँ इस योजना के अनुसार काम करने लगी है ।
इस योजना के अंतर्गत सुविधा के विचार से समस्त देश को इन चार क्षेत्रों में बांटा गया है:
(1) कलकत्ता,
(2) मुम्बई,
(3) चेन्नई और
(4) दिल्ली ।
इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे केन्द्र चुने गये हैं जहां यह योजना गहन रूप से चलायी जा रही है ।
इस योजना के संबंध में मुख्य-मुख्य जानकारी नीचे दी जा रही है:
(i) लघु उद्योगपतियों को अपनी ऋण सम्बन्धी पूरी आवश्यकताओं के लिए अब से केवल एक ही ऋणदात्री संस्था के पास जाना होगा अलग-अलग संस्थाओं के पास नहीं ।
(ii) ऋण लेने वाला लघु उद्योगपति, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के एजेण्ट को प्रार्थना पत्र दे सकता है । यदि उसका कारखाना सहकारिता के आधार पर चलता हो तो ऋण के लिए उसे किसी ‘सहकारी बैंक’ को अपना आवेदन पत्र भेजना चाहिए- यह स्थानीय ‘ऋणदात्री संस्था’ अथवा ‘बैंक’ इस आवेदन पत्र को प्राप्त करके, उस पर स्वयं कार्यवाही करेगा या उस आवेदन-पत्र को उपयुक्त संस्था अथवा संस्थाओं के पास भेज देगा । वास्तव में ये सभी ऋणदात्री संस्थाएँ एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम करती हैं ।
(iii) ऊपर बतायी गयी ‘ऋण योजना’ के अन्तर्गत स्टेट बैंक की कार्य प्रणाली को भी काफी उदार बना दिया गया है और अब यह सम्भव हो गया है कि छोटे कारखानों में काम आने वाले कच्चे काल तथा उससे तैयार हुए पक्के-माल अथवा ‘अर्द्ध तैयार माल’ को अपने ताले के अन्तर्गत बद करके, ‘फैक्ट्री टाइप बेसिस’ पर उन्हें ऋण दे सकता है । उचित मामलों में यह माल यातायात की अवस्था में होने पर भी ऋण दिया जा सकता है ।
(iv) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया ने ‘राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड’ (National Small Scale Industries Corporation Limited) से भी एक करार किया है । इस नियम की सहायता से जिन लघु उद्योगों को माल खरीदने वाले सरकारी विभागों के आर्डर मिलते है वे लघु उद्योग कच्चे माल की लागत के बराबर तक रकम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया से ऋण ले सकते हैं ।
(घ) ऋण संबंधी अन्य सरकारी योजना (Other Government Related Schemes):
1. साधारणत:
व्यापारिक बैंकों तथा निजी ऋणदाता संस्थाओं को प्रोत्साहन देने के लिए भी भारत सरकार ने एक योजना बनाई है । इस योजना का मुख्य उद्देश्य लघु उद्योगों को ऋण देने के संबंध में ‘ऋणदात्री संस्थाओं’ को प्रोत्साहन देना है ।
जो बैंक लघु उद्योगों को ऋण देते हैं, उन्हें ऋण चुकता न होने के खतरे (Risk) से बचाने के लिए इस योजना का में कुछ सीमा तक सुरक्षा की व्यवस्था रखी गयी है । इस योजना के अनुसार इस प्रकार की हानि को ऋण देने वाला बैंक तथा भारत सरकार बाट लेंगे ।
अभी केवल कुछ चुनी हुई ऋणदात्री संस्थाओं अथवा बैंकों, द्वारा दिये गये ऋणों पर ही उपर्युक्त गारन्टी दी जाती है । इन बैंकों तथसा ऋणदात्री संस्थाओं की सूची में बहुत से ‘अनुसूचित बैंक’ या राजकीय सहकारी बैंकों तथा ऋण देने वाली संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य बैंक भी लघु उद्योग को दिये गये ऋणों पर इस गारन्टी सुविधा का लाभ उठा सकते हैं, बशर्ते कि ऋण के कम से कम 25 प्रतिशत भाग में उपरोक्त सूची में शामिल किसी बैंक अथवा ऋणदात्री संस्था का योग हो ।
कारखाने की इमारत, मशीनों या कार्यकारी पूंजी के लिए दिए जाने वाले ऋणों पर भी गारन्टी दी जा सकेगी । इस गारंटी की एक आवश्यक शर्त यह है कि ऋण की रकम उसी कार्य पर खर्च की जाए जिसके लिए वास्तव में ऋण लिया गया हो ।
उपयुक्त गारन्टी लघु उद्योग को दिये गए उन ऋणों पर दी जाती है जो बैंक द्वारा मांगे जाने पर वापिस मिल सके अथवा जिनकी अवधि 10 वर्ष से अधिक न हो तथा जिनकी स्वीकृति 1 जुलाई 1960 या उसके बाद दी गयी हो ।
नोट:
1 जुलाई 1960 के पहले स्वीकृत किये गए उन ऋणों पर भी यह गारन्टी मिल सकती है । जिनको इस तिथि के पश्चात सामान्य अथवा सही रूप से दोबारा स्वीकृति दी गयी हो या जिनकी अवधि बढा दी गयी हो- ऐसे मामलों में गारन्टी देने से पहले यह अवश्य देखा जायेगा कि संबद्ध लघु उद्योग द्वारा पिछले ऋण ठीक समय पर चुकाये गए हैं अथवा नहीं ।
ऋण मंजूर करने के पूर्व या उसके पश्चात ‘प्रार्थना-पत्र’ केवल 1 वर्ष के गारन्टी के लिए लेना चाहिए इसके बाद भी यदि आवश्यकता हो तो इस गारन्टी को एक बार में 6 महीने या उससे विभाजित होने वाली अवधि के लिए बढ़वाया जा सकता है, परन्तु ऋण की रकम लिये जाने की तिथि से, यह अवधि 10 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
2. बीज धन योजना (Seed Capital Scheme):
बीज-धन योजना लघु उद्योग विकास बैंक के द्वारा प्रायोजित की जाती है । इस योजना का संचालन राज्य के सर्वाधिक ऋण देने वाली संस्थाओं (Term Loan Lending Institution) के द्वारा किया जाता है ।
इस योजना के तहत उदार-शर्तों पर उन नये उद्यमियों (Entrepreneur) को वित्तीय सहायता (Financial Assistance) दी जाती है जो उद्योग स्थापित करके सफल संचालन करने में सक्षम होते हैं, लेकिन उनके पास प्रर्वतक पूंजी (Promoter’s Capital) लगाने के लिए पर्याप्त साधन (Resources) नहीं रहते हैं ।
यह वित्तीय सहायता ब्याज-रहित (Interest Free) दी जाती है । सिर्फ 1 प्रतिशत की दर से नाममात्र सेवा शुल्क (Nominal Service Charge) लिया जाता है । इस योजना के अन्तर्गत मुख्यतः उन उद्यमियों को सहायता प्रदान की जाती है जो तकनीकी (Technically) या व्यावसायिक योग्य (Professionally Qualified) या दक्ष (Skilled) या अनुभवी (Experienced) हों ।
3. महिला-उद्यम निधि (Mahila Udyam Nidhi-MUN):
महिलाओं के समेकित विकास के ध्यान में रखते हुए लघु उद्योग विकास बैंक के द्वारा गुन स्कीम (MUN-Scheme) का समायोजन किया गया है इसका कार्यान्वयन किसी व्यवसायिक बैंक के द्वारा किया जाता है । इस कार्यालय के तहत प्रतिभा-सम्पन्न नयीं महिला उद्यमियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है ।
औद्योगिक रूप में पिछड़े क्षेत्रों को मिलने वाली सुविधाएं (Government Facilities for Industrially Backward Ares):
सरकार ने उद्योगों को विकेन्द्रीकरण करने तथा सभी क्षेत्रों के विकास के लिये जिन क्षेत्रों में उद्योगों की एकदम कमी है, उन्हें औद्योगिक रूप से पिछड़ा क्षेत्र घोषित कर दिया है । तथा इन पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों के विकास के लिए सरकार ने अनेक रियायतें (Facilities) प्रदान की है ।
जिनमें से मुख्य निम्न हैं:
(1) नया लघु उद्योग लगाने या लगे हुए उद्योग को बढाने के लिए ऋण प्रदान करने वाली सरकारी संस्थान जिनमें भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक, भारतीय उद्योग वित्त निगम, भारतीय औद्योगिक क्रेडिट और इनवेस्टमेंट निगम (Industrial Credit and Investment Corporation of India) का ब्याज पर ऋण प्रदान करते हैं ।
(2) पिछड़े क्षेत्रों के उद्योगों के लिये ऋण में छूट भी प्रदान करती है ।
किश्तों पर मशीनें खरीदने की सुविधा (Facilities for buying Machines on Installments):
प्रायः देखने में आता है कि छोटे उद्योगपति पूंजी की कमी के कारण अपने कारखानों में आधुनिकतम मशीनें नहीं लगा पाते । इसका परिणाम यह होता है कि इनके कारखानों में उत्पादन कम होता है या माल उत्कृष्ट क्वालिटी का तैयार नहीं हो पाता ।
अतः ऐसे उद्योगपतियों को किश्तों पर मशीनें खरीदने की सुविधा देने के लिए भारत सरकार की ओर से ‘नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड, (National Small Industries Corporation Limited) की स्थापना की गई है- इसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में और बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास में इसके क्षेत्रीय कार्यालय (Regional Office) है ।
इसके प्रधान कार्यालय तथा क्षेत्रीय कार्यालय (Regional Offices) के पते नीचे दिये जा रहे हैं:
(क) नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड, ओखला, नई दिल्ली-20 ।
(ख) नेशनल स्मॉल इंण्डस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड, 5-वीं मंजिल, जन्मभूमि चैम्बर्स, फोर्ट स्ट्रीट, मुम्बई ।
(ग) नेशनल स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड, 116-A लोअर सरकुलर रोड, कलकत्ता ।
(घ) नेशनल स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड, 106-A माउण्ट रोड, चेन्नई ।
ऊपर बताये गये स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड की ओर से इच्छुक व्यक्तियों को नया उद्योग शुरू करने अथवा वर्तमान उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने या पुराने मॉडल की मशीनी को बदलने के लिए ‘किराया खरीद प्रणाली’ (Hire Purchases System) के अंतर्गत, इच्छित मशीनें मिल सकती हैं ।
अन्य जरूरी नोट:
‘किराया खरीद प्रणाली’ की शर्तों के अनुसार ली गयी मशीन की किश्त पहली तिथि के 2 वर्ष बाद अदा की जा सकती है- शेष रकम की छमाही किश्तें देनी होती है ।
जो छोटे उद्योगपति नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड से अपनी इच्छित मशीनें ‘किराया खरीद प्रणाली के अंतर्गत खरीदना चाहते हैं उन्हें एक निर्धारित’ आवेदन पत्र पर अपना प्रार्थना पत्र देना होता है- यह ‘आवेदन पत्र’ उस राज्य के ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज की मार्फत’, ‘स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड’ को भेजना चाहिए, जिस राज्य में वह कारखाना चल रहा है अथवा लगाना हो ।
किराया खरीद प्रणाली के अंतर्गत मशीनें खरीदने के लिए अन्य आवश्यक शर्तें तथा नियमों आदि का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है:
1. प्रार्थना पत्र की पाँच प्रतियाँ भरनी पड़ती है- इसमें से पहली प्रति, निर्धारित शुल्क के पोस्टल आर्डर तथा प्रार्थना-पत्र को दूसरे तथा तीसरे नंबर वाली प्रतियों के साथ, अपने क्षेत्र के ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज’ के पते पर भेजनी चाहिए । पोस्टल आर्डर के नम्बर आदि, प्रार्थना-पत्र से निर्धारित स्थान पर अवश्य लिख देने चाहिए ।
शेष बची प्रतियों में से चौथे नंबर वाली प्रति ‘नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड’ के दिल्ली स्थित प्रधान कार्यालय को भेजना चाहिए और पाँचवें नम्बर वाली प्रति, प्रार्थी को अपने पास रखनी चाहिए ।
2. उचित जाँच करने के पश्चात ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज’ आपके इस प्रार्थना-पत्र की एक प्रति आपके विचार (रिमार्क) या सिफारिश के साथ नेशनल स्थल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लि. के दिल्ली स्थित मुख्य कार्यालय को भेज देगा और साथ ही इस प्रार्थना पत्र की जो अन्य प्रति डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज को भेजी गयी है उसे अपने रिमार्क के साथ अपने क्षेत्र से संबंधित, ‘नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन लिमिटेड’ के कार्यालय में रहेगी ।
3. केवल डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज द्वारा सिफारिश किए गए प्रार्थना-पत्रों पर हीं विचार किया जायेगा ।
4. प्रार्थी को, वांछित मशीन की पूरी जानकारी तथा निर्माण-वितरक के ‘मूल्य पत्रक’ (कोटेशन) की एक प्रति, एवं उस मशीन के निर्माता का पूरा पता भी अपने प्रार्थना पत्र के साथ भेजना चाहिए-इससे काम शीघ्र होने में सुविधा रहेगी ।
5. जब तक मशीन का पूरा मूल्य तथा ब्याज एवं अन्य खर्चे स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन को प्राप्त न हो जाये. तब तक वह मशीन कॉरपोरेशन की सम्पत्ति रहेगी और तब तक उस संबंध में ‘इकरारनामें’ (Agreement) की प्रत्येक शर्त लागू होगी । एक लेबिल, यह बताते हुए कि यह मशीन ‘स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन’ की सम्पत्ति है, उस मशीन के साथ उस समय तक लगी रहनी चाहिए, जब तक कि कुल रकम (ब्याज सहित) चुकता न कर दी जाये ।
6. आग, दंगों या उपद्रवों के लिए उस मशीन का बीमा करना आवश्यक होगा – यह बीमा कॉरपोरेशन की मान्यता प्राप्त कम्पनी से कराना होगा और बीमे संबंधी कागजात कॉरपोरेशन को सौंपने होंगे-कुल रकम की अदायगी तक बीमा चालू रखना होगा ।
7. किश्तों की अदायगी ठीक समय पर करनी आवश्यक है । किश्त न देने पर कॉरपोरेशन को यह अधिकार होगा कि वह मशीन को जब्त कर ले ।
8. सहायक उद्योग (एन्सीलरी इण्डस्ट्रीज) को ब्याज आदि की दर में कुछ रियायती दी जाती है- इस संबंध में आवश्यक जानकारी डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज़ अथवा अपने क्षेत्र से संबंधित ‘नेशनल स्मॉल इंडस्ट्रीज़ कारपोरेशन लिमिटेड’ के कार्यालय से मिल सकती है ।
मशीनरी प्राप्त करने के अन्य श्रोत (Other Sources of Availing Machinery):
1. विभिन्न राज्यों में स्थापित ‘स्टेट स्मॉल इंडस्ट्रीज़ कॉरपोरेशन’ (State Small Industries Corporation) – इनके नियमों तथा शर्तों का विवरण संबंधित स्टेट के ‘डॉरेक्टर ऑफ इडस्ट्रीज’ के कार्यालय से मिल सकता है ।
2. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ‘इन्स्पालमेंट क्रेडिट स्कीम’ (Instalment Credit Scheme) के अन्तर्गत भी लघु उद्योग संबंधी मशीनें किश्तों पर उपलब्ध हो सकती हैं- इस स्कीम का पूरा विवरण स्टेट बैंक की किसी भी बाच या मुख्य कार्यालय से मिल सकता है ।
3. विदेशी मशीनें आयात करने की सुविधा-लघु उद्योग के कारखानों को विदेशी
मशीनें आयात करने की सुविधा विकास आयुक्त (लघु उद्योग) की सिफारिश पर मिल सकती है ।
इस सुविधा से लाभ उठाने के इच्छुकों को अपने आवेदन पत्र उस राज्य के संबंधित ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज़’ के माध्यम से भिजवाने चाहिए- यहाँ से ये आवेदन-पत्र आवश्यक टिप्पणी या सिफारिश के साथ विकास आयुक्त (लघु उद्योग) के कार्यालय में आवश्यक कार्यवाही के लिए भेज दिए जाते हैं ।
4. इंडस्ट्रियल क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की ओर से भी, निर्धारित नियमों व शर्तों के अनुसार, विदेशी मशीनें खरीदने के लिए ऋण उपलब्ध हो सकता है । इस ऋण की रकम 7 वर्ष की अवधि में किश्तों के रूप में चुकायी जा सकती है । इस सुविधा से लाभ उठाने के इच्छुकों को अपने ‘आवेदन पत्र’ के साथ किसी मान्य वित्त संस्था (Financial Institution) की जमानत भी देनी पड़ती है ।
कच्चे माल की प्राप्ति (Availability of Raw Material for Small Scale Industries):
लघु उद्योग को अपने उत्पादनों के लिए विभिन्न प्रकार के कच्चे माल की आवश्यकता पड़ती है- जिसको दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
(1) देशी स्रोतों से उपलब्ध हो सकने वाला और
(2) विदेशों से आयात किया जाने वाला ।
इन दोनों प्रकार के कच्चे माल में से कई पदार्थ ऐसे भी होते हैं जिनकी माँग तथा खपत इतनी अधिक होती है कि वे सभी उद्योगों को इनकी पूरी आवश्यकता के अनुसार नहीं मिल पाते और खुले बाजार में काफी महँगे भाव से मिलते हैं । अतः जिन उद्योगों को अपने उत्पादनों के लिए इसे कच्चे माल की आवश्यकता पड़ती है जिनकी बाजार में प्रायः कमी रहती है, उन पदार्थों के लिए सरकारी ‘कोटा’ प्राप्त कर लेना अधिक उपयुक्त रहता है ।
यह कोटा बनवा लेने पर वह माल सरकार द्वारा नियन्त्रित सस्ते भाव में प्राप्त किया जा सकता है । इस संबंध में यह बात ध्यान रखने की है कि कई प्रकार के कच्चे माल की इतनी कमी रहती है कि वे सभी उद्योगों को उनकी मार्गों या खपत के अनुसार पूरी-पूरी मात्रा में नहीं मिल सकते ।
अतः जिन उद्योगों के लिए दुर्लभ कच्चे माल की विशेष आवश्यकता पड़ती है उससे संबंधित कारखाना लगाने के पहले पता लेना चाहिए कि उसके लिए आवश्यक कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है या नहीं?
देशी स्रोतों से उपलब्ध कच्चे माल का कोटा कहां-कहां से मिलता?
देशी स्रोतों से प्राप्त कौन-कौन से कच्चे पदार्थों का कोख कहा-कहा से किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ।
यह जानकारी नीचे क्रमशः दी जा रही है:
(क) लोहा तथा स्टील (Iron & Steel):
इसके वितरण की व्यवस्था ‘जॉइन्ट प्लांट कम्पनी’, 18, सरानी रवीन्द्र, कलकत्ता- 1 को सौंपी हुई है । इसके कोटे के लिए अपनी वास्तविक माँग तथा खपत के अनुसार इंडेंट (Indent), सीधे ‘जॉइन्ट प्लांट कम्पनी’ के उपरोक्त पते पर भेजना चाहिए या अपने राज्य से संबंधित ‘स्मॉल इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन’ के माध्यम से उपयुक्त पते पर भेज सकते है ।
‘इंडेंट’ (Indent) भेजने के लिए विशेष प्रकार के छपे हुए फार्म उपयोग में लाने पड़ते हैं जो ‘एक्जीक्युटिव सेक्रेटरी’, जॉइन्ट प्लांट कमेटी के उपयुक्त पते से मिल सकते हैं ।
जब ये इंडेट् प्लांट कम्पनी द्वारा स्वीकार किये जा चुके तो उसके बाद अपने राज्य से संबंधित ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज़’ को यह आवेदन-पत्र देना चाहिए कि ‘स्टील प्रायोरिटी कमेटी’ (Steel Priority Commodities) ऐसे ‘आवेदन-पत्र’ को शीघ्र निबटने पर ध्यान दें, ताकि इससे संबंधित कच्चा माल प्राथमिकता के आधार पर शीघ्र मिल सके ।
नोट:
उपयुक्त संबंध में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो लघु-उद्योग, निर्यात के लिए माल तैयार करते है उनको कोटा प्रदान करने में प्राथमिकता दी जाती है ।
(ख) कोयला और ‘कोक’ (Coke) का कोटा (Coal and ‘Coke’ Quota):
लघु उद्योगों को कोयला या कोक (Coke) का कोटा, राज्य के ‘कोल कन्ट्रोलर’ से मिलता है, लेकिन इन उद्योगों को हार्ड कोक की जितनी आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति पूर्णतः नहीं हो पाती । इसलिए इसके स्थान पर वे सिन्दरी फैक्ट्री से प्राप्त होने वाले हार्ड कोक (Hard Coke) या (बी-हाइव हार्ड कोक) से काम चला सकते हैं ।
(ग) तांबे का कोटा (Copper Quotas):
लघु उद्योगों के उपयोग के लिए ताबे का कोख राज्य सरकारों को दे दिया जाता है । अतः इन उद्योगों के मालिकों को चाहिए कि वे अपनी आवश्यकतानुसार तांबे (Copper) प्राप्त करने के लिए अपने क्षेत्र के ‘डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज़’ के पास अपना प्रार्थना-पत्र भेजें ।
(घ) रासायनिक पदार्थों का कोटा (Chemical Substances Quota):
इसके लिए ‘स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन’ (State Trading Corporation) से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए ।
(च) पॉलीस्टायरीन या पॉलीथीन का कोटा (Polystyrene or Polyethylene Quota):
इसका कोटा, ‘स्मॉल इंडस्ट्रीज़ सर्विस इन्स्टिट्यूट’ के द्वारा दिये गये ‘उपभोग संबंधी प्रमाण-पत्र, (Actual User Certificate) के आधार पर दिया जाता है । अतः इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए अपने राज्य के ‘डायरेक्टर, स्मॉल इंडस्ट्री सर्विस इन्स्टिट्यूट’ से संपर्क करें ।
विदेशों से मंगाये जाने वाले कच्चे माल का कोटा (Quota of Raw Materials to be procured from Abroad):
लघु उद्योगों द्वारा उपयोग में लाया जाने वाला कुछ कच्चा माल ऐसा भी हो सकता है जो विदेशों से मंगाना पड़ता है । ऐसे कच्चे माल को आयात करने की अनुमति के लिए वास्तविक उपभोक्ता लाइसेंस (Actual User’s License) प्राप्त करना आवश्यक होता है इस संबंध में अधिक जानकारी ‘इम्पोर्ट पॉलिसी’ (Import Policies) नामक सरकारी प्रकाशन में विस्तारपूर्वक मिल सकती है । जो सरकारी प्रकाशन बेचने वाले दुकानदारों या ‘किताब महल जनपथ नई दिल्ली’ से मिल सकती है ।
प्रशिक्षण सम्बन्धी सुविधाएं (Training Facilities for Employees of Small Scale Industries):
समुचित रूप से प्रशिक्षित (Trained) और ‘दक्ष’ (Skilled) कर्मचारियों की कमी देश के आर्थिक विकास में एक बड़ा बाधा है । इस बाधा का लघु उद्योगों के क्षेत्र में अधिक अनुभव किया जाता है । अतः इस समस्या को सुलझाने के लिए ट्रेनिंग सम्बन्धी सुविधा भी अब उपलब्ध है ।
वस्तुतः लघु उद्योगों के कर्मचारियों को या लघु उद्योगों में (काम करने) के इच्छुक उम्मीदवारों को काम सिखाने या प्रशिक्षण देने का मुख्य उद्देश्य यह है कि ये लोग उत्पादन के सुधरे तरीकों और सामान्य आवश्यक जानकारी से परिचित हो जायें । कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम इस ढंग से बनाया गया है कि अलग-अलग तरह के अनुभव रखने वाले व्यक्ति भी इससे लाभ उठा सकें ।
इस प्रशिक्षण से संबंधित संक्षिप्त जानकारी नीचे दी जा रही है:
(1) मैनेजर का प्रशिक्षण (Manager Training):
लघु उद्योगों के मालिकों या उनके प्रतिनिधियों को मैनेजरी व देखभाल के नये तरीकों तथा वाणिज्य एवं उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित मूल सिद्धांतों से परिचित कराने के लिए उद्योग के प्रबन्धन का प्रशिक्षण (Training in Industrial Management) दिया जाता है । जहां लघु उद्योगों के पर्याप्त कारखाने हैं वहाँ इस ट्रेनिंग की व्यवस्था ‘स्मॉल इण्डस्ट्री सर्विस इन्स्टिट्यूट’ की ओर से की जाती है ।
इससे संबंधित पाठ्यक्रम तीन प्रकार का होता है:
(क) इन्डस्ट्रियल मैनेजमैण्ट अप्रेसिएशन कोर्स (Industrial Management Appreciation Course):
इस पाठ्यक्रम की कक्षा सायंकाल के समय 2 घंटे के लिए लगती है और यह सम्पूर्ण कोर्स 10 सप्ताह की अवधि का है ।
(ख) विशिष्ट पाठ्यक्रम (Special Course):
यह कोर्स 6 सप्ताह का है और इसकी कक्षा सायंकाल के समय 2 घंटे के लिए लगती है ।
(ग) एड हॉक पाठ्यक्रम (Ad hoc Course):
उपर्युक्त पाठ्यक्रम के अन्तर्गत जिन विषयों की जानकारी कराई जाती है उनमें से मुख्य-विषय निम्नलिखित हैं:
(i) कार्यालय संबंधी प्रबंध;
(ii) कारखाना-संगठन;
(iii) बाजार-व्यवस्था तथा प्रचार;
(iv) औद्योगिक कानूनों की जानकारी;
(v) कर्मचारी प्रबंध और
(vi) वित्तीय तथा ‘लागत लेखा’ आदि ।
विशिष्ट पाठ्यक्रम के अन्तर्गत जिन विषयों की ट्रेनिंग दी जाती है उनमें से मुख्य हैं- गुणवत्ता नियंत्रण (Quality Control), कार्य-अध्ययन (उत्पादन की योजना व नियंत्रण) और ‘प्रबंध’ लेख इत्यादि-इत्यादि ।
(2) कारीगरी संबंधी प्रशिक्षण (Workmanship Training):
‘दक्ष’ (Skilled) और ‘अर्द्ध दक्ष’ (Semi-Skilled) दोनों प्रकार के कारीगरों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकने वाले प्रशिक्षण की व्यवस्था भी ‘लघु उद्योग संगठन’ की ओर से की गयी है- इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अन्तर्गत जो इन कारीगरों के लिए रखे गये हैं उन्हें पूरा कर लेने से ये कारीगर उत्पादन के आधुनिक तरीकों और औजारों आदि से परिचित हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपना ज्ञान व कार्य-कुशलता बढ़ाने में सहायता मिलती है ।
इन प्रशिक्षणों के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए अपने क्षेत्र से संबंधित ‘स्मॉल इंडस्ट्री सर्विस इन्स्टिट्यूट’ या ‘विस्तार-केन्द्र’ (Extension Centre) से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए ।
उद्यमिता विकास कार्यलम (Entrepreneurship Development Work):
किसी उद्योग की स्थापना एवं सफल संचालन के लिए अनेक तत्व कमी वेश जिम्मेदार है जैसे पूंजी ‘उचित बाजार सुलभ सही तकनीक सहायक व प्रेरक परिवेश इत्यादि, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है उस उद्योग का प्रवर्तक-उद्यमी (Promoter -Entrepreneur) ।
अतः यह आवश्यक है कि नये-उद्यमियों (Entrepreneur) को प्रशिक्षण के द्वारा उनके आन्तरिक उद्यमशीलता के गुण को इस तरह विकसित किया जाये कि वे अपना उद्योग लगाकर उसे सफलतापूर्वक चलाने में सक्षम हो सके । इस उद्देश्य पूर्ति को मद्दे नजर रखते हुए सरकार के द्वारा समय-समय पर उद्यमिता विकास का प्रशिक्षण देने का प्रावधान किया गया है ।
यह कार्यक्रम साधारणतया भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (Industrial Development Bank of India), भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (Industrial Finance Corporation of India) तथा भारतीय औद्योगिक साख एवं विनियोग नियम (Industrial Credit & Investment Corporation of India) इत्यादि संस्थाओं के द्वारा प्रायोजित (Proposed) एवं वित्त संपोषित (Finance) किया जाता है ।
यह इ.डी.पी किसी व्यवसायिक बैंक (Commercial Bank), लघु उद्योग सेवा संस्थान (Small Industries Service Institute), चेम्बर ऑफ कॉमर्स (Chamber of Commerce) या परामर्शी संस्था (Consultancy Organisation) के द्वारा आयोजित (Organise) किया जाता है ।
इ.डी.पी. कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षणार्थियों को उद्योग स्थापित करने और चलाने के लिए आवश्यक व्यावहारिक व प्रबन्धकीय अन्तदृष्टि प्रदान करने वाला कक्षागत प्रशिक्षण (Classical Training) दिया जाता है । औद्योगिक परिभ्रमण (Factory Visit) एवं औद्योगिक सलाहकारों (Industrial Consultants) के साथ विचार विमर्श द्वारा उन्हें औद्योगिक शिल्पविधि (Industrial Craftsmanship) की ओर अभिमुख (Motivate) किया जाता है ।
प्रशिक्षण कार्यक्रम का संचालन ऐसे विशेषज्ञों द्वारा होता है जो प्रशिक्षणार्थियों (Trainees) को उद्योग स्थाना के प्रत्येक प्रक्रिया में परामर्श प्रदान करते हैं । इसके अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ सरकारी विभागों एवं निगमों के पदाधिकारी, मान्य शिक्षाविद् (Renowned Educationist) एवं सफल उद्योगपति (Successful Industrialist), व्यवसायी (Commercialist), अतिथि संकाय (Honorary Guest) अपने व्यावहारिक अनुभव के आधार पर मार्ग दर्शन करें हैं ।
इस प्रकार इस प्रशिक्षण में सफलतापूर्वक भाग लेने के पश्चात अनुभवी सलाहकारों (Experienced Consultants) द्वारा परियोजना प्रतिवेदन (Project Reports) बना कर प्रदान की जाती है । ऋण स्वीकृति होने की प्रलिया से लेकर उद्योग को लाभ-हानि रहित बिन्दु (Break-Even Point) खाता तक चलाने की अनुवर्ती एवं निगरानी सेवाएं प्रदान की जाती है ।
सिंगल विण्डो सिस्टम (Single Window System):
लघु-उद्योगों के विकास (Accelerated Growth) के लिए कई राज्यों में एक खिड़की प्रणाली (Single Window) की स्थापना की गई है । यह एक ऐसी उपयोगी प्रणाली है, जिसके माध्यम से उद्योग के क्षेत्र में पदार्पण करने वाले प्रथम पीढ़ी के उद्यमियों (First Generation Entrepreneurs) को सुलभ ढंग से, उद्योगों के चयन से लेकर उत्पादन-रत (Production Stage) होने तक की कार्य-व्यवस्था, प्रोत्साहन (Incentives) और सुविधाओं (Facilities) के बारे में जानकारी दी जाती है ।
इसके साथ ही साथ पुराने उद्यमियों की विभिन्न समस्याओं जैसे- भूमि, शेड, एवं कच्चा माल आबंटन (Allotment) विद्युत, टर्म-लोन कार्यशील पूंजी ऋण लोन आदि का निराकरण करने की व्यवस्था की जाती हैं इस प्रणाली का गठन राज्य उद्योग निदेशालय के अन्तर्गत होता है ।
इसके सदस्यगण उद्योग विभाग के पदाधिकारी के अलावा उद्योग से सम्बन्धित अन्य विभागों एवं निकायों यथा राज्य वित्तीय निगम राज्य विद्युत परिषद वाणिज्य कर विभाग, श्रम-विभाग-व्यवसायिक बैंक आदि पदाधिकारी प्रतिनियुक्त (Depute) किये जाते हैं ।
इस प्रणाली के गठित होने से उद्यमियों को विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न स्थानों पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती है । बल्कि यहाँ उद्यमियों को जटिल समस्याओं के साथ निराकरण करने वाले विभाग पदाधिकारी के साथ आमने-सामने कराया जाता है, और उसमें प्रयास यह होता है कि समस्याओं का समाधान अतिशीघ्र निकाला जाये ।
लघु स्तर का उद्योग कैसे लगाएं? (Procedure for Setting Up a Small Scale Industry):
1. वस्तु का चुनाव (Product Selection):
आपने अगर कोई लघु उद्योग लगाने का फैसला किया है तो सबसे पहले बात आती है, वस्तु का चुनाव । कौन सी वस्तु (Product) को तैयार किया जाता है ।
वस्तु चुनने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है, जो ये हैं:
(1) पूंजी कितनी हैं?
(2) कच्चा माल उपलब्ध है कि नहीं?
(3) उद्योग लगाने के स्थान का चुनाव? जहां पर मजदूर, पानी, बिजली व अन्य आवश्यक चीजें आसानी से उपलब्ध हों ।
(4) उद्योग की तकनीकी साध्यता (Technical Feasibility) का सूक्ष्म निरीक्षण
(5) कुल पूंजी निवेश और अनुमानित लाभ (Estimated Profit on Total Capital Investment)
(6) बाजार की स्थिति (Market Position)
(7) निर्यात की सम्भावना (Export Position)
(8) आयात स्थानापन्न (Import Position)
चूंकि वस्तु का चुनाव (Item Selection) उद्योग स्थापना का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा (Important Part) है । इस कार्य में काफी सावधानी और सूझ-बुझ की आवश्यकता होती है । लेकिन देर होने से नुकसान भी हो सकता है ।
अतः वस्तु के शीघ्र और यथार्थ (Correct) चुनाव के लिए योग्य परामर्शी संस्थाओं (Competent Consultancy Organisation) की सहायता लेना काफी उपयोगी होता है । उनके द्वारा तैयार किये गये सहायता प्रतिवेदन (Feasibility Report) का अध्ययन वस्तु-चुनाव का फैसला करने (Decision Making) में बहुत ही लाभदायक सिद्ध होता है ।
2. प्रोत्साहन सुविधाएं (Incentive Facilities):
हर राज्य में लघु उद्योगों के त्वरित विकास के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार की प्रोत्साहन सुविधाएँ प्रदान की जाती है । इसके तौर तरीके उस राज्य की औद्योगिक नीति (Industrial Policy) और वित्तीय स्थिति (Financial Position) के ऊपर निर्भर करते हैं ।
साधारणतया वे सुविधाएँ निम्न हैं:
(a) पूंजीगत अनुदान (Capital Subsidy)
(b) डीजल जेनेरेटर पर अनुदान (Diesel Generator Subsidy)
(c) विद्युत अनुदान (Electricity Subsidy)
(d) परियोजना प्रतिवेदन पर अनुदान (Project Report Subsidy)
(e) टेक्निकल नो हाउ अनुदान (Technical Know-How Subsidy)
(f) सूद अनुदान (Interest Subsidy)
(g) बिक्रीकर में सहायता (Sales-Tax Relief)
(h) वाणिज्य कर के एवज में सूद-मुक्त ऋण (Interest-Free Loan Against Commercial Taxes)
(i) बीज-मुद्रा सहायता (Seed Money Assistance)
3. संगठन के प्रकार (Types of Constitution):
सांगठनिक प्रबन्ध कई प्रकार के होते हैं । सबके अलग-अलग गुण-दोष (Merit-Demerit) है । इसके अतिरिक्त संगठन किस प्रकार का हो, इसके सम्बन्ध में एक सीमा के अन्दर कुछ कानूनी व्यवधान (Statutory Norms) भी हैं, जो पूंजी निवेश (Capital Investment), ऋण का परिणाम (Quantum of Loan) एवं वार्षिक आय (Annual Income) आदि पर आधारित होता है । इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर संगठन तैयार किया जाता है ।
मुख्य संगठनों के विवरण निम्न हैं:
(a) स्वामित्व (Proprietorship):
जैसा कि नाम से विदित है सारे उद्योग का मालिक अकेला आदमी होता है । वही पूंजी लगाता है मजदूर व मशीनें लगाता है । सारे उद्योग के फायदे नुकसान का जिम्मेदार वह स्वयं होता है । अपने उद्योग में हर तरह का फैसला करने का हक उसे होता है । इस प्रकार के उद्योग में एक कमी यह है कि अकेले स्वामी को हर संकट, शंका का भार उठाना होता है ।
(b) साझेदारी (Partnership):
साझेदारी प्रबन्ध के अन्तर्गत दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर संगठन को चलाते हैं । इसके लिए सभी साझेदारी मिलकर भारतीय साझेदारी कानून (Indian Partnership Act) 1932 के अनुसार एक लिखित साझेदारी इकरारनामा (Partnership Deed) तैयार करते हैं जिसमें सारी शर्त (Terms & Conditions) तैयार करते हैं ।
उन्हीं शर्तों के मुताबिक संगठन को चलाया जाता है । अतः साझेदारी संगठन में किसी भी प्रकार के संकट (Risk) का सामना किसी एक व्यक्ति को नहीं बल्कि सभी साझेदारों को मिलकर करना पड़ता है ।
(c) प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी (Private Limited Company):
प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में न्यूनतम 2 और अधिकतम 50 प्रर्वत्तक निर्देशक (Promoter) होते हैं । यह संगठन कम्पनी-कानून (Companies Act) 1956 के अंतर्गत कम्पनियों के रजिस्ट्रार (Registrar of Companies) के द्वारा निबन्धित होता है ।
कम्पनी का एक स्मृति पत्र और नियमावली (Memorandum and Articles of Association) तैयार किया जाता है जिसमें सारे कार्य क्षेत्र (Scope of Work) वर्णित होते हैं । इसी के अनुसार कम्पनी का संचालन किया जाता है ।
(d) पब्लिक लिमिटेड कम्पनी (Public Limited Company):
पब्लिक लिमिटेड कम्पनी का भी स्मृति एवं विधानपत्र प्रा.लि. के अनुसार ही तैयार किया जाता है । पब्लिक लिमिटेड कम्पनी भी कम्पनियों के रजिस्ट्रार के अन्तर्गत पंजीकृत (Registered) होती है । ऐसी कम्पनियों अपना शेयर बेचने के लिए सामान्य जनता में विज्ञापन दे सकती है जबकि प्रा. लि. कं. ऐसा नहीं कर सकती है ।
(e) सहकारी समिति (Co-Operative Society):
इस प्रकार के संगठन सहकारी समिति (Co-Operative Society) कानून (Act) 1935 के अन्तर्गत सम्बन्धित राज्य के सहकारी विभाग (Co-Operative Department) से पंजीकृत (Registered) होते हैं । इस संगठन में कम से कम दस सदस्य होते हैं ।
इस प्रकार के संगठन के भी एक स्मृति पत्र एवं नियमावली (Memorandum & Articles of Association) तैयार किये जाते हैं । जिसके आधार पर कार्य सम्पन्न किया जाता है ।
नोट (Note):
लघु क्षेत्र में एक लम्बी सूची आती है जिसमें कैमिकल्स और इलैक्ट्रॉनिक्स भी शामिल हैं । छोटी इस्तेमाल करने वाली चीजें, जैसे कि साबुन, डिटरजैंट्स, चमड़ा उद्योग से लेकर माइकोप्रोसैसर, मिनी कम्प्यूटर, इलैक्ट्रानिक घड़ियाँ, रंगीन टी.वी., इलैक्ट्रॉनिक इक्विपमैंट आदि इसी क्षेत्र में आते हैं ।
लघु उद्योगों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं । कच्चे माल की आसानी से प्राप्ति के लिए कोयले की कमी पूरा करने के लिए, माल ढोने की सुविधा हेतु पूरा ध्यान दिया जा रहा है । इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र में प्रयोग के लिए आयात किए जाने वाले माल को स्वावलम्बित किया गया है ।
लघु उद्योग में उत्पादित होने वाली कुछ महत्वपूर्ण आधुनिक वस्तुओं के प्रोजेक्ट प्रोफाइलें (Project Profiles) को इस पुस्तक में दिया गया है, जिससे पाठगण लाभान्वित हो सकते हैं ।
4. परियोजना प्रतिवेदन की उपलब्धता (Availability of Project Report):
प्रायः नये उद्यमियों को, विशेषकर प्रथम पीढ़ी के उद्यमियों (First Generation Entrepreneurs) को परियोजना प्रतिवेदन की प्राप्ति की यथार्थ जानकारी नहीं रहती है । वैसे उद्यमियों के लिए ‘स्मॉल इण्डस्ट्री रिसर्च इन्स्टिट्युट’ 4/43 रूप नगर, दिल्ली-110007, से सम्पर्क करना लाभदायक एवं मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है ।
उपरोक्त परामर्शी संस्था विगत 25 वर्षों से उद्योग स्थापना के क्षेत्र में कार्यरत है । ओद्योगिक विशिष्ट प्राप्त अनुभवी अभियंतागण इस संगठन में कार्यरत हैं इस संस्था के द्वारा उद्यमियों की आवश्यकता के अनुकूल समग्र वस्तुस्थिति को मद्देनजर रखते हुए उद्यमी से विचार-विमर्श करके परियोजना प्रतिवेदन (Project Report) तैयार की जाती है ।
ऐसे करीब 15,000 तैयार कम्प्यूटराज्ड परियोजना प्रतिवेदन उपलब्ध है, जो विभिन्न क्षेत्रों जैसे- रासायनिक उद्योग (Chemical Industry), यान्त्रिक उद्योग (Engineering Industry), विद्युत उद्योग (Electrical Industry), इलेक्ट्रॉनिक उद्योग (Electronic Industry), चर्म उद्योग (Leather Industry), प्लास्टिक उद्योग (Plastic Industry), रबर उद्योग (Rubber Industry), कागज उद्योग (Paper Industry), साबुन उद्योग (Soap Industry), डिटजेंट उद्योग (Detergent Industry), सौंदर्य प्रसाघन उद्योग (Cosmetic Industry), खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (Food Processing Industry), कपड़ा उद्योग (Textile Industry), लुब्रिकैंट ग्रीस उद्योग (Lubricant Grease Industry), पेंट उद्योग (Paint Industry), औषधि उद्योग (Pharmaceutical Industry), कृषि रसायन उद्योग (Agrochemical Industry), कृषि उद्योग (Agro-Industry), धातु निष्कासन (Metallurgical Industry), गम-ऐड्हैसिव उद्योग (Gum-Adhesive Industry) तथा सेरामिक उद्योग (Ceramic Industry) आदि से सम्बन्धित हैं । अतः प्रोस्पेक्टिव (Prospective) उद्यमी उपरोक्त संस्था से प्रोजेक्ट रिपोर्ट ले सकते हैं ।