अजवेन कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate ajwain.
अजवायन मसाले की एक फसल है । इसका पौधा अम्बेलीफेरी कुल के अन्तर्गत आता है । इसका वानस्पतिक नाम ट्रेकीस्पर्मम एमी है जिसका पुराना वानस्पतिक नाम कैरम काप्टीकम था । यह एक औषधीय गुण वाली फसल है । प्रदेश के चित्तौड़गढ़ एवं झालावाड़ जिलों में प्रमुख रूप से तथा उदयपुर, कोटा, बूँदी, राजसमन्द, भीलवाड़ा, टोंक, बांसवाड़ा जिलों में इसकी खेती की जाती है ।
उपयोगिता:
अजवायन प्रायः सभी घरों में मसाले के रूप में उपयोग में ली जाती है । आयुर्वेद में अजवायन को एक गुणकारी औषधि कहा गया है । इससे अनेक दवाइयाँ बनाई जाती है । अजवायन का तेल एवं अर्क दोनों निकाले जाते हैं ।
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बीजों में लगभग 2.5 से 4.0 प्रतिशत वाष्पशील तेल होता है । प्रोटीन 15.4 प्रतिशत, वसा 18 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 38.6 प्रतिशत, धातुएँ 7 प्रतिशत व जल 9 प्रतिशत होता है । अजवायन शूलहर, कृमिनाशक यकृत, पीलहा तथा उदर रोग नाशक है । यह मुँह की दुर्गन्ध दूर करती है ।
जलवायु:
यह रबी की फसल है । अजवायन की अच्छी बढ़वार व पैदावार के लिए सर्द एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है । पाले से इसे नुकसान होता है । वातावरण में अधिक नमी होना-विशेषकर फूल आने के बाद-फसल के लिए नुकसानदायक है अतः इसकी सफल खेती के लिये शुष्क मौसम होना चाहिये । अजवायन को पकने के लिए ज्यादा तापमान की आवश्यकता होती है ।
भूमि:
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अजवायन की खेती के लिये बलुई दोमट तथा मटियार भूमि उपयुक्त रहती है । बलुई मृदा इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है । इसकी खेती के लिए खूब जीवांशयुक्त तथा संचित नमी वाली भूमि की आवश्यकता होती है । जहाँ भूमि में नमी की कमी हो वहाँ सिंचाई का प्रबन्ध आवश्यक है ।
अजवायन की उन्नत किस्में:
1. एन.आर.सी.एस.एस-ए.ए.1:
यह किस्म नेशनल रिसर्च फॉर सीड स्पाइसेज, तबीजी, अजमेर द्वारा विकसित की गई है । यह देर से पकने वाली 165 दिन में तैयार होती है । पौधे की औसत ऊँचाई 112 से.मी. है । प्रति पौधे औसत रूप से 219 पुष्प-छत्रक होते हैं । यह किस्म प्रतापगढ़ स्थानीय रूप से विकसित की गई है ।
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इस किस्म में उत्पादन की उच्च क्षमता होती है तथा औसत उपज 14.26 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है । सिंचित क्षेत्र में 5.8 क्विंटल प्रति हैक्टयर बारानी क्षेत्र में प्राप्त होती है । यह किस्म सिंचित व बारानी क्षेत्र, दोनों के लिए ही उपयुक्त है । वाष्पशील तेल 3.4 प्रतिशत पाया जाता है ।
2. एन.आर.सी.एस.एस-ए.ए.2:
यह किस्म गुजरात के स्थानीय जर्म प्लाज्मा से चयन विधि द्वारा नेशनल रिसर्च सेन्टर फार फील्ड स्पाइसेज, तबीजी, अजमेर द्वारा विकसित की गई है । यह एक जल्दी तैयार होने वाली किस्म है जो 147 दिन में परिपक्य हो जाती है । यह देश में जल्दी पकने वाली पहली किस्म है । इसकी औसत ऊँचाई 80 से.मी. है ।
प्रति पौधे पर औसत पुष्प-छत्रों की संख्या 185 है, इसकी सिंचित क्षेत्र में 12.83 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज होती है तथा असिंचित में 5.2 क्विं. है । यह छाछया रोग प्रतिरोधक किस्म है । यह सिंचित व बारानी दोनों ही क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है ।
राजस्थान की परिस्थितियों की दृष्टि से उपयुक्त पाई गयी अन्य किस्मों का विवरण नीचे दिया जा रहा है:
(1) लाभ सलेक्शन-1:
इस किस्म के पौधों की ऊँचाई 80 सेन्टीमीटर होती है । यह किस्म 135 से 145 दिन में पकती है तथा औसत उपज 8-9 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है ।
(2) लाभ सलेक्शन-2:
इस किस्म के पौधे झाड़ीदार होते हैं । इस किस्म की औसत उपज 10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर हैं ।
(3) आर.ए.1-80:
यह 170-180 दिन में पककर तैयार होती है । दाने छोटे परन्तु अधिक सुगन्धित होते हैं । औसत उपज 10-11 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है ।
(4) गुजरात अजवायन-1:
औसत उपज 1,475 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है । यह 175-180 दिन में पकने वाली किस्म है ।
अजवायन की खेती की तकनीकी:
खेत को अच्छी तरह तैयार करने के बाद ही बुवाई करनी चाहिए । मृदा खूब भुरभुरी व ढेला रहित होनी चाहिये । हर जुताई के बाद पाटा चलाकर नमी का संरक्षण करते रहना चाहिए ।
बुवाई का समय:
असिंचित क्षेत्रों में इसकी बुवाई अगस्त के अन्तिम सप्ताह से सितम्बर तक कर देनी चाहिए तथा सिंचित क्षेत्रों में बुवाई का सर्वोत्तम समय अकबर से नवम्बर है । अजवायन एक लम्बी अवधि की फसल है जो 160 से 170 दिन में पककर तैयार होती है ।
बीज की मात्रा व बुवाई का तरीका:
अजवायन की बुवाई छिटकना विधि से या कतारों में की जाती है, लेकिन कतारों में बुवाई करना अधिक उपयुक्त है । एक हैक्टेयर बुवाई के लिए 2 से 4 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है । कतारों में बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-40 सेन्टीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 से 25 सेन्टीमीटर रखनी चाहिये ।
बीजों की गहराई एक से डेढ़ सेन्टीमीटर से अधिक नहीं होनी चाहिये । बीज को छिटक कर बोने से अंकुरण अच्छा होने से जमाव में कठिनाई नहीं होती है । इसके लिए बीज को 8 से 10 गुना बारीक मृदा से मिलाकर बीज छिटक कर हल्की दताली चला देनी चाहिए ताकि मृदा की हल्की परत चढ जावे । सिंचित फसल के लिये पहले क्यारियाँ बनाकर उनमें बुवाई करना ठीक रहता है । क्यारियों में बीजों को छिड़क कर हल्की दताली चलाकर मृदा में मिला देते हैं ।
खाद एवं उर्वरक:
बुवाई के कम से कम एक माह पूर्व 20-25 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद डालकर एकसार बिखेर कर खेत की तैयारी करनी चाहिये । गोबर की खाद के अतिरिक्त 20 किलोग्राम नत्रजन, 30 किलो फास्फोरस तथा 20 किलो पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से डालना चाहिये ।
फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई पूर्व खेत में आखिरी जुताई के समय डाल देनी चाहिये । नत्रजन की शेष इतनी ही मात्रा बुवाई के 25 दिन बाद खड़ी फसल में डालकर सिंचाई कर देनी चाहिए ।
सिंचाई:
वैसे अजवायन एक सूखारोधी फसल है । इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों से संरक्षित नमी के होने पर की जाती है फसल में 2 से 5 सिंचाई की आवश्यकता होती है । फूल आने के बाद फसल में पानी की कमी नहीं रहनी चाहिये । सिंचित खेती में पानी का निकास अच्छा होना चाहिए ।
निराई-गुड़ाई:
पौधों की ऊँचाई जब 20 से 25 सेन्टीमीटर हो जाए तब निराई-गुड़ाई करके खरपतवार निकाल देना चाहिए तथा पौधों की छटाई भी कर देना चाहिए । आवश्यकता हो तो एक माह बाद दूसरी निराई-गुड़ाई करनी चाहिये ।
कीट एवं रोग नियन्त्रण:
1. चेंपा:
अजवायन की फसल पर मुख्यतः फूल आते समय या उसके बाद चेंपा का आक्रमण होता है । ये कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूसते हैं जिससे उपज में अत्यधिक कमी आ जाती है । नियन्त्रण हेतु फसल पर मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. या डाईमिथोएट 30 ई.सी. या मैलाथियान 50 ई.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना।
2. छाछया रोग:
इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है । नियन्त्रण हेतु घुलनशील गंधक दो ग्राम या केराथिआन एल.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करना चाहिये ।
3. झुलसा:
इस रोग से पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बनते हैं व अन्त में पत्तियाँ झुलस जाती हैं । नियन्त्रण हेतु मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये ।
कटाई एवं उपज:
करीब 140-150 दिन में फसल तैयार हो जाती है । बीजों के गुच्छों का रंग जब भूरा हो जाये तो फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है । फसल कटाई के बाद इसकी छोटी-छोटी पूलियाँ बनाकर खलिहान में सूखने के लिए इकट्ठा कर देते हैं ।
समय-समय पर पूलियों को उलटते रहें ताकि नमी के कारण दाने खराब न हों तथा सूख भी जायें । सूखी हुई पूलियों को जहाँ तक सम्भव हो पक्के फर्श पर छिटक कर या डंडी से पीटकर दाने अलग कर लेते हैं ।
भण्डारण:
दानों को भण्डारण से पहले अच्छी तरह सुखा लेना चाहिये । दानों को अच्छी तरह साफ कर बोरियों में भरकर नमी रहित भण्डार में संग्रह करें या बाजार में बेचने के लिए भेज देते हैं । राज्य में वर्ष 2001-04 में मसाला फसलों के अन्तर्गत 0.05 प्रतिशत क्षेत्र पर अजवायन का उत्पादन किया गया ।