करेला कैसे पैदा करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate bitter gourd.
करेला की खेती भारतवर्ष में लगभग प्रत्येक स्थानों पर की जाती है । कद्दूवर्गीय सब्जियों में करेले का प्रमुख स्थान है । करेले की खेती विश्व के उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्ण कटिबंधाय क्षेत्रों में की जाती है । भारत में इसकी खेती प्राचीनकाल से होती आ रही है ।
इसकी जंगली प्रजातियाँ आज भी हमारे देश में उगाई जाती हैं जिनको स्थानीय भाषा में अनेक नामों से जाना जाता है । इसके फलों को विभिन्न प्रकार के व्यजनों, कलौंजी एवं अचार बनाने में प्रयोग करते हैं । इसके कच्चे फलों को काटकर धूप में सुखाकर भी प्रयोग में लाते हैं ।
करेला सामान्यतया दो प्रकार के होते हैं । पहला छोटा करेला एवं दूसरा बड़ा करेला । छोटा करेला पोषण की दृष्टि से अच्छा होता है । करेला अपने विशिष्ट औषधीय गुणों के लिए विश्व प्रसिद्ध है । इसका सेवन मधुमेय रोगियों, रक्तरोगों, दमा इत्यादि के लिए लाभकारी होता है ।
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इसके सेवन से पेट के कीड़े दूर होते हैं तथा गठिया रोग में आराम मिलता है । इसकी बेल एवं पत्तियों का जूस विभिन्न प्रकार के त्वचा रोगों एवं अस्थमा में लाभकारी पाया गया है । फलों का रस छालों, जलने से उत्पन्न फफोलों एवं फोड़ा आदि में आराम देता है ।
करेला की विदेशों में भारी मांग है, अतः प्रत्येक वर्ष भारत से इसका निर्यात किया जाता है जिससे विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है । करेला का निर्यात चीन को भी किया जाता है । करेले के फल अत्यंत पोषक होते हैं तथा इसमें प्रोटीन, खनिज और लोहा, विटामिनों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाए जाते हैं ।
इसके फलों के खाद्य भाग में लगभग 83.2 प्रतिशत जल, 2.9 प्रतिशत प्रोटीन, 9.8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 1.0 प्रतिशत वसा, 1.7 प्रतिशत रेशा, 1.4 प्रतिशत खनिज, 0.05 प्रतिशत कैल्शियम, 9.4 प्रतिशत लोहा, 0.14 प्रतिशत फॉस्फोरस एवं मैग्नीसियम एवं विटामिनों की सूक्ष्म मात्राएँ पाई जाती हैं ।
भूमि की तैयारी:
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करेले की फसल को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है, परंतु अच्छे जल-निकास और उच्च जीवांश युक्त दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम रहती है । खेत को हैरो अथवा पाटा चलाकर भूमि को अच्छे प्रकार से तैयार किया जाता है । खेत में से पिछली फसल के सभी अवशेष निकाल देने चाहिए । करेले की बढ़वार एवं अधिक उपज के लिए मृदा का पी॰एच॰ मान 6.7 तक होना चाहिए ।
खेत की तैयारी के समय मिट्टी में सड़ी हुई गोबर की खाद 200-250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से अच्छी प्रकार से मिलाकर जुताई कर देनी चाहिए एवं समतल कर लेना चाहिए । उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में करेले की फसल गर्मी एवं बरसात की दो फसल लेते हैं ।
गर्मी वाली फसल को सहारे की आवश्यकता नहीं होती है जबकि बरसात की फसल को सहारा देकर चढ़ाने की आवश्यकता होती है । अतः गर्मी की फसल की बुआई सामान्य समतल खेत में की जा सकती है, जबकि बरसात की फसल के लिए मचान या सहारे की आवश्यकता होती है ।
खाद एवं उर्वरक:
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करेले से सर्वोत्तम पैदावार प्राप्त करने हेतु 200-250 क्विंटल गोबर की खाद अच्छी प्रकार से सड़ी हुई को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए । करेले की खेती के लिए 30 किलोग्राम नत्रजन युक्त उर्वरक 60-80 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 50-60 किलोग्राम पोटाशधारी उर्वरक की आवश्यकता पड़ती है । इसके बाद प्रति हैक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजनधारी उर्वरक को बुआई के 3-4 सप्ताह बाद प्रत्येक पौधों के चारों तरफ टॉपड़ेसिंग के रूप में दिया जाना चाहिए ।
बुआई का समय:
मैदानी क्षेत्रों में करेले की दो फसलें ली जाती हैं । गर्मियों और बरसात के मौसम में इसकी बुआई करते हैं । ग्रीष्मकालीन फसल की बुआई फरवरी-मार्च के महीने में की जाती है एवं वर्षाकालीन फसल की बुआई जून-जुलाई में की जाती है । पर्वतीय क्षेत्रों में करेले की केवल एक ही फसल ली जाती है, जिसके लिए बुआई का समय अप्रैल-मई का महीना उपयुक्त होता है ।
बुआई की विधि:
करेले की बुआई के लिए खेत में 1.5 मीटर की दूरी पर कुंड बना लेते हैं । इन कुंडों के दोनों तरफ 1-1 मीटर की दूरी पर बीज को बोया जाता है । यह विधि खासतौर से ग्रीष्मकालीन फसल के लिए उपयुक्त होती है । बरसात में करेले की बोआई समतल खेतों में की जाती है एवं इसके लिए उपयुक्त दूरी पर ही (1.5×1.0 मीटर) बोआई की जाती है ।
बीज दर:
करेले की बुआई के लिए 80-90 प्रतिशत अंकुरण वाले बीज को 4-5 किग्रो॰ प्रति हैक्टेयर की दर की आवश्यकता पड़ती है ।
सिंचाई एवं जल निकास:
सिंचाई के बीच में अंतराल एवं सिंचाई जल की मात्रा मौसम एवं मृदा के प्रकार पर निर्भर करता है । यदि वर्षा समय पर हुई हो तो बरसाती फसल में सिंचाई की आवश्यकता होती है । बरसात के मौसम में खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । फरवरी-मार्च में बोई गई फसल को 7-8 दिनों के अंतराल पर नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है ।
प्रजातियाँ:
करेले की किस्मों एवं प्रजातियों में बहुत हद तक विभिन्नता पाई जाती है । इसकी प्रजातियों में फलों के आकार, फलों के रंग इत्यादि में भी विभिन्नता पाई जाती है । उपरोक्त आधार पर कुछ फल बहुत छोटे, कुछ फल एक फुट से लम्बे होते हैं एवं कुछ मध्यम आकार के होते हैं । इसी प्रकार से कुछ फलो के रंग गहरे हरे होते हैं एवं कुछ प्रजातियों के फल हल्के हरे रंग के एवं सफेद रंग के होते हैं ।
करेले की प्रजातियों का वर्णन निम्नलिखित है:
i. पूसा दो मौसमी:
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है । इस किस्म के फल गहरे हरे रंग के लम्बे एवं मध्यम आकार के होते हैं । फलो के ऊपर 8-9 लम्बी धारियाँ पाई जाती हैं और 8-10 फलों का वजन 1.0 किलोग्राम तक होता है । यह किस्म गर्मी एवं बरसात दोनों ही मौसमों में उगाने के लिए उपयुक्त है । इसके फल बुआई के 50-60 दिनों में तैयार होने आरम्भ हो जाते हैं ।
ii. पूसा विशेष:
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किया गया है । इस किस्म के पौधों की बेल कम बढवार वाली होती है जिससे कम जगह में भी अधिक पौधे लगाए जा सकते हैं । फल मुलायम, हरे रंग के एवं मध्यम लम्बाई के होते हैं । इसके फल से सब्जी, अचार तथा कलौंजी इत्यादि के लिए बहुत हद तक उपयुक्त होते हैं ।
iii. अर्का हरित:
इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा राजस्थान के स्थानीय संग्रह से चयन करके विकसित किया गया है । इस किस्म के फल आकर्षक, हरे रंग के, छोटे तर्कुल आकार के होते हैं । इसके फलों पर चिकनी धारियाँ बनी होती हैं । इसके फलों में बीज की मात्रा कम होती है । यह किस्म गर्मी एवं बरसात दोनों मौसम के लिए अनुकूल होती है ।
iv. कल्याणपुर बारामासी:
इस किस्म का विकास चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर का सब्जी अनुसंधान केन्द्र, कल्याणपुर द्वारा किया गया है । इस किस्म की बेल गहरे हरे रंग की होती है । इसके फल 20-25 सेमी॰ लम्बे पतले गहरे हरे रंग के होते हैं । फल के दोनों किनारे चपटे एवं नुकीले होते हैं ।
प्रति फल 8-10 बीज पाए जाते हैं । इस किस्म पर फल मक्खी एवं मोजैक रोग का प्रकोप कम होता है । इस किस्म में फल बुआई के 60 दिन बाद आने लगते हैं । नाम के आधार पर इसकी बेले वर्ष भर हरी बनी रहती हैं । परिणामस्वरूप इसमें थोड़े बहुत फल आते रहते हैं ।
v. प्रिया:
यह करेले की किस्म केरल कृषि विश्वविद्यालय, वेल्लानीकेरा द्वारा विकसित की गई है । इसके फल बहुत लम्बे (लगभग 40 से॰मी॰) तक के होते हैं एवं प्रत्येक फलो का औसत वजन लगभग 200 ग्राम के करीब तक होता है । इस किस्म के फल हल्के हरे रंग के होते हैं ।
vi. पंजाब-14:
यह किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित की गई है । इसकी लताएं ज्यादा बड़ी नहीं होती हैं । इस किस्म के फल हल्के हरे रंग के होते हैं एवं प्रत्येक फल का वजन लगभग 30 ग्राम तक होता है । बुआई के लगभग 65 दिनों के उपरान्त आधी फसल मिलने लगती है । यह किस्म दोनों मौसम अर्थात् गर्मी एवं बरसात के लिए उपयुक्त मानी जाती है ।
vii. एम॰डी॰यू-1:
इस किस्म का विकास कृषि कॉलेज एवं शोध संस्थान, मदुरै, तमिलनाडु द्वारा किया गया है । इस किस्म को एम॰सी॰ 103 किस्म पर गामा किरण से प्राप्त किया गया है । इसके प्रत्येक बेल में 15-20 फल लगते हैं । फल आकार में काफी लम्बे (40 से॰मी॰ और मोटे (14 से॰मी॰) होते हैं ।
इस किस्म के फल बुआई के 60 दिन बाद पहली तोडाई के लिए तैयार हो जाते हैं । प्रत्येक फल का वजन औसत 400 ग्राम तक होता है एवं कुल उत्पादन 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होता है । फलों में बीज की मात्रा कम होती है ।
viii. एम॰सी॰ 23:
इस किस्म के फल प्रथम तोड़ाई के लिए बीज बोने के 60 दिन बाद तैयार हो जाती है । इसकी लताओं की लम्बाई 2 मीटर तक होती है । इस किस्म के फल लम्बे, बहुत पतले एवं हरे रंग के होते हैं । प्रत्येक फल का औसत भार 62 ग्राम तक होता है ।
सफेद रंग के फल वाली किस्में:
उत्तर प्रदेश एवं बिहार में सफेद रंग की किस्म प्रचलित है एवं यहाँ उगाई जाने वाली किस्म निम्नलिखित है:
i. कोयक्बटूर लाँग:
यह किस्म कृषि अनुसंधान संस्थान, कोयम्बटूर द्वारा विकसित की गई है । इस किस्म के फल लम्बे मुलायम एवं सफेद रंग के होते हैं । यह किस्म बरसात के मौसम में उगाने के लिए सर्वोत्तम है । इसके प्रत्येक फलों की लम्बाई 40-45 से॰मी॰ तक होती है एवं इससे औसत उपज 80-100 क्विंटल/हैक्टेयर तक मिल जाती है ।
ii. अन्य किस्में:
कल्याणपुर सोना, पी॰वी॰आई-1, कोंकण तारा, सी-26 हिसार सलेक्शन, फैजाबादी बारामासी इत्यादि प्रमुख किस्म हैं ।
समतल भूमि में बोआई:
इस विधि में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.0-1.5 मीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 60-90 सेमी॰ तक रखते हैं । एक स्थान पर 3-4 बीज बोते हैं । बाद में केवल दो स्वस्थ पौधे छोड़ देते हैं । करेले का बीज कठोर होता है, अतः अंकुरण में बहुत समय लगता है ।
करेले को बोने से पहले बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोना पड़ता है ताकि अधिक से अधिक बीज अंकुरित हो सके । नालियों में बोआई-करेले की बोआई नालियों में भी करते हैं इसके लिए 60 से॰मी॰ चौडी नालियाँ बनायी जाती हैं । इन नालियों के साथ में 45×45×45 से॰मी॰ के आकार के गड्डे बना लिए जाते हैं ।
पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.5-2.0 मी॰ और पौधे से पौधे की दूरी 1 मीटर तक रखते हैं । प्रत्येक गड्डे में 4-5 बीज बोए जाते हैं । बाद में 2-3 स्वस्थ पौधे छोड़ दिये जाते हैं । प्रतिरोपण के लिए 15 दिन पुराने पौधों को 2 पौधे प्रत्येक गड्डे में रोप दिए जाते हैं ।
निराई-गुड़ाई:
करेले की फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक होता है । इसके लिए ग्रीष्मकालीन फसल में 2-3 बार एवं वर्षाकालीन फसल में 4-5 बार निराई-गुड़ाई करते हैं । करेले की फसल के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार उग जाते हैं जो फसल के साथ नमी, पोषक तत्वों, धूप, स्थान आदि के लिए प्रतिर्स्पधा करते हैं ।
इसके अलावा कीट एवं रोगों को आश्रय प्रदान करते हैं, अतः इसकी समय पर रोकथाम करना अत्यंत आवश्यक है । लताओं के फैलने से पहले एक-दो बार निराई गुड़ाई करनी चाहिए वैसे लताओं के फैलने के बाद वे खरपतवार को पनपने नहीं देते ।
सहारा देना:
करेले से अच्छी उपज एवं अधिक उत्पादन लेने के लिए पौधों को सहारा देना अत्यंत आवश्यक है । सहारा देने से फल गुणवत्ता युक्त प्राप्त होते हैं । विशेष रूप से बरसाती करेले में सहारा देना जरूरी होता है ।
इसके लिए सूखी हुई टहनियाँ, अरहर के डंडों एवं बाँस इत्यादि का किसान भाई प्रयोग कर सकते हैं । सहारा देने से करेले की कुछ किस्में उदाहरण स्वरूप झल्लरी प्रकार के करेले इसके लिए उपयुक्त होती हैं ।
फलों की तोड़ाई:
करेले के फलों की तोड़ाई उचित अवस्था में करना अत्यंत आवश्यक है । अतः फलों की तोड़ाई छोटी एवं कोमल अवस्था में करनी चाहिए । सामान्य तौर पर करेले की तोड़ाई बोने के 60-70 दिन बाद करनी चाहिए अन्यथा फल पककर पीले रंग के हो जाते हैं । करेले के फलों की तोड़ाई 3 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ।
उपज एवं विपणन:
करेले की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिनमें प्रमुख रूप से भूमि की उर्वरा शक्ति । उगाई जाने वाली किस्म एवं फसल की देखभाल इत्यादि प्रमुख होते हैं । यदि उपरोक्त वर्णित विधि से करेले की खेती की जाए तो प्रति हैक्टेयर 100-150 क्विंटल उपज प्राप्त की जा सकती है । तोड़े हुए फलों में से क्षतिग्रस्त, बहुत छोटे या पके हुए फलों को अलग कर लिया जाता है फलों को टोकरियों में बाँधकर बाजार भेज दिया जाता है ।
भंडारण:
फलों को सामान्य तापमान पर किसी छायादार स्थान पर बीच-बीच में पानी का छिड़काव करके 3-4 दिन तक रखा जा सकता है । प्रशीतन गृह में 5-8 डिग्री॰ से॰ग्रेड॰ पर उन्हें 15-20 दिन तक भंडारित किया जा सकता है ।