लौकी कैसे पैदा करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate bottle gourd.
कद्दूवर्गीय सब्जियों में लौकी का प्रमुख स्थान है । इसको कद्दू या घीया के नाम से भी जाना जाता है । भारतवर्ष में इसकी खेती बहुत बड़े पैमाने पर की जाती है । देश में इसकी व्यावसायिक खेती पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र गुजरात, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में की जाती है ।
प्राचीन काल में लौकी के सूखे खोल का शराब या स्प्रिट भरने हेतु उपयोग किया जाता था इसलिए इसको बोटल गार्ड के नाम से भी जाना जाता है । इसके कठोर खोल को पानी का जग घरेलू बर्तन संगीत यंत्र बनाने के लिए भी उपयोग में लाए जाते थे ।
लौकी के हरे फल सब्जी के अलावा मिठाइयाँ, रायता, कोफता, कपूरकन्द इत्यादि बनाने में प्रयोग किए जाते हैं । लौकी की खास विशेषता यह है कि इसके प्रति पौधे पर बहुत ज्यादा मात्रा में फल लगते हैं परिणामस्वरूप किसान भाइयों को उत्पादन अधिक मिलता है । लौकी का पोषण की दृष्टि से विशेष महत्व है ।
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यह खनिज तत्वों का अच्छा स्रोत है और शरीर में इसका पाचन जल्दी होता है । इसलिए यह अस्वस्थ व्यक्ति के लिए विशेष रूप से संस्तुत किया जाता है । लौकी के विभिन्न प्रकार के औषधीय गुण भी हैं । इसकी पत्तियों को चानी के साथ काढ़ा बनाकर पीलिया रोग में दिया जाता है ।
इसके बीज से तेल निकलता है जिसे काफी ठंडा माना जाता है और सिर दर्द में बहुत उपयोगी बताया जाता है । सुपाच्य होने के कारण चिकित्सक रोगियों को इसकी सब्जी खाने की सलाह देते हैं । लौकी की खेती के लिये गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है ।
दिन में 30-35० से.ग्रे. और रात में 18-22० से.ग्रे. तापमान इसकी वृद्धि एवं फलन के लिए उपयुक्त माना जाता है । लौकी पाला सहन नहीं कर सकती है, इसलिए लौकी को गर्मी एवं वर्षा दोनों मौसम में उगाया जाता है । अधिक वर्षा और बादल वाले दिन रोग एवं कीटों के प्रकोप में सहायक होते हैं ।
भूमि की तैयारी:
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लौकी की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जाती है । परंतु उचित जल निकास वाली जीवांश युक्त हल्की दोमट भूमि इसकी सफल खेती हेतु सर्वोत्तम मानी जाती है । उदासीन पी.एच.मान वाली भूमि इसकी खेती के लिए उतम मानी जाती है ।
किस्में:
हमारे देश में लौकी की अनेक किस्में पाई जाती हैं । कुछ किस्मों के फल लम्बे कुछ किस्मों के गोल फल एवं लम्बोतर पाये जाते हैं । पिछले कुछ समय से कुछ निजी कंपनियों एवं सरकारी अनुसंधान केन्द्रों की सहायता से लौकी की अनेक संकर किस्मों को विकसित किया गया है ।
कुछ प्रमुख उन्नतशील किस्मों का वर्णन निम्नलिखित है:
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i. पूसा समर प्रालिफिक लॉग:
यह किस्म बहुत प्रचलन में है, जिसको भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान । नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । इसके फलो की लम्बाई 60-80 सेमी. होती है । इस किस्म के फलों का रंग हल्का हरा होता है । इस किस्म को गर्मी तथा बरसात दोनों मौसम में उगाया जा सकता है । इसकी औसत उपज प्रति हे. 150 क्विंटल होती है ।
ii. पूसा नवीन:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म के फल पूसा समर प्रालिफिक लॉग की अपेक्षा छोटे होते हैं, लगभग 20-25 से.मी. आकार के होते है एवं प्रत्येक फल का वजन लगभग 800-900 ग्राम तक होता है । इस किस्म का औसत उत्पादन 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होता है ।
वर्तमान समय में छोटे आकार की लौकी के फलों को अधिक पसंद किया जाता है, क्योंकि इसका भंडारण एवं यातायात सुगम होता है । इस प्रकार के फली का निर्यात भी ज्यादा होता है । क्योंकि विश्व के अनेक देशों में छोटे फलों की माँग अधिक होती है । इस किस्म को दोनों मौसम में उगाया जा सकता है ।
iii. पंजाब लॉग:
इस किस्म के फल लम्बे हरे होते हैं । इसकी भंडारण क्षमता अधिक होती है । इसकी बेल बढ़ने वाली होती है । इसकी औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है । इस किस्म को पंजाब में उगाने के लिए संस्तुति की गयी है । यह किस्म खीरा मोजैक विषाणु के प्रति सहिष्णु है ।
iv. पंजाब कोमल:
इस किस्म के फल लम्बे अँगूरी रंग के एवं अधिक भंडारण क्षमता वाले होते हैं । इस किस्म का औसत उत्पादन 500 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होता है । इस किस्म को भी पंजाब में उगाने के लिए संस्तुति की गयी है । यह किस्म खीरा मोजैक विषाणु के प्रति सहिष्णु है ।
v. अर्का बहार:
इस किस्म के फल लम्बे चमकदार एवं आकर्षक होते हैं ।
vi. राजेन्द्र चमत्कार:
इस किस्म के फल लम्बे, हरे कोमल प्रकार के होते हैं । इस किस्म को बिहार एवं झारखंड में उगाने के लिए संस्तुति की गयी है ।
vii. एन.डी.बी.जी.:
इस किस्म के फल लम्बे, हरे एवं कोमल होते हैं । यह किस्म ग्रीष्म ऋतु में उगाने के लिए उपयुक्त है । इस किस्म का विकास नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कुमारगंज, फैजाबाद द्वारा किया गया है ।
viii. आजाद हरित:
इस किस्म के फल लम्बे, हरे एवं मुरझान प्रतिरोधी होते हैं । इस किस्म को उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में उगाने के लिए संस्तुति की गई है । इस किस्म का विकास चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय कानपुर, द्वारा किया गया है ।
ix. आजाद नूतन:
यह अगेती किस्म है । इसके फल बोआई के 55-60 दिन बाद उपलब्ध होने लगते हैं । यह किस्म दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त होती है । इस किस्म को भी उतर प्रदेश एवं उत्तराखंड में उगाने के लिए संस्तुति की गई है । इस किस्म का विकास चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा किया गया है ।
गोल फलो वाली किस्में:
मूसा समर प्रालिफिक राउंड:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । इसके फल गोल आकार के और हरे रंग के होते हैं । इसको भी गर्मी एवं बरसात दोनों मौसम में उगाया जा सकता है ।
I. पंजाब राउंड:
यह किस्म पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है । इसके फल गोल आकार के होते हैं एवं चपटे होते हैं । इसकी पत्तियाँ हरे रंग की होती हैं । फलों का रंग ऊपर से हल्का और गूदा सफेद रंग का होता है ।
II. पूसा संदेश:
यह अगेती किस्म होती है एवं इसके फल गोल हरे रंग के होते हैं । इस प्रकार की किस्म दोनों मौसम में उगायी जाती है ।
III. हिसार सलेक्शन गोल:
इस किस्म के फल गोल, चिकने एवं हरे होते हैं । यह किस्म वर्षा ऋतु में उगाने हेतु उपयुक्त है ।
IV. संकर किस्में:
पूसा मेघदूत, पूसा संकर-3, एन.डी.बी.जी-1, बी.पी.ओ.जी-1 आजाद संकर, पूसा मंजरी इत्यादि ।
खाद एवं उर्वरक:
मृदा जाँच के आधार पर खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए ।
यदि किसी कारणवश मृदा जाँच न हो सके तो उस स्थिति में प्रति हैक्टेयर निम्न मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का उपयोग अवश्य करें:
गोबर – 100 क्विंटल
नाइट्रोजन – 60 किलो
फॉस्फोरस – 60 किलो
पोटाश – 100 किलो
अन्तिम जुताई से 3 सप्ताह पूर्व गोबर की खाद भूमि में समान रूप से डाल देनी चाहिए । नाइट्रोजन की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटोश की पूरी मात्रा का मिश्रण बनाकर अन्तिम जुताई के समय भूमि में डाल देनी चाहिए ।
नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बाटकर दो बार में देना चाहिए-प्रथम जब पौधों पर 4-5 पत्तियाँ निकलने पर और दूसरी जब फूल निकलने प्रारम्भ हो जाए उपरिवेशन (टॉप डैसिंग) के रूप में पौधों के चारों तरफ देनी चाहिए ऐसा करने से उच्चगुणवत्ता वाली अधिक उपज मिलती है ।
बोआई:
भारत के मैदानी क्षेत्रों में लौकी की बोआई गर्मी एवं वर्षा दोनों मौसमों में की जाती है । ग्रीष्मकालीन फसल को फरवरी-मार्च में और वर्षाकालीन फसल को जून-जुलाई में बोते हैं ।
I. बीज की मात्रा:
गर्मी वाली फसल के लिए 40-60 किलो और वर्षाकालीन फसल के लिए 30-40 किलो बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है ।
II. बीजोपचार:
फसल को फफूँदी जनित रोगों से बचाने हेतु बीज को बोने से पूर्व एग्रोसन जी.एन. (2 ग्राम दवा प्रति 1 किलो बीज) से उपचारित करके बोना चाहिए ।
बोने की विधि:
लौकी की बोआई निम्न दो प्रकार से की जाती है:
नालियों में बोआई करना:
चूंकि ग्रीष्कालीन फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है; अतः इस समय फसल की बोआई नालियों में करनी चाहिए । इस विधि में 3 मीटर फासले पर लगभग एक मीटर चौड़ी नालियाँ बनाते हैं और इन्हीं नालियों के दोनों किनारों पर दो थालों की निकटतम दूरी एक मीटर रखते हुए थालों में बीज बोये जाते हैं । एक थाले में 4-5 बीज बोये जाते हैं । ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु बीजों को बोने से पूर्व भिगोकर गीले कपडे में लपेटकर किसी गर्म स्थान पर रखकर अंकुरित कर लेते हैं । ऐसा करने से फसल कुछ अगेती तैयार हो जाती है ।
अगेती फसल के लिए बीज 15 सेमी. व्यास और 15 सेमी. ऊँचाई वाली पोलीथिन की थैलियों में भी उगाए जा सकते हैं । इन थैलियों में गोबर की खाद एवं मिट्टी का बराबर मिश्रण भरकर लगभग 3 किलो मिश्रण प्रति थैली के हिसाब से भर देते हैं प्रत्येक थैली में 4-5 बीज बोते हैं । उचित जमाव हेतु समुचित तापमान की आवश्यकता होती है ।
इसके लिए शैलियों को दिन में धूप और रात में किसी कमरे या छप्पर आदि के नीचे एवं बीजों का अंकुरण हो जाने पर भी पौधों की इसी प्रकार लियो में ही तब तक देखभाल करनी चाहिए । जब तक पाले का भय समाप्त न हो जाए । पाले का भय समाप्त हो जाने पर इन पौधों को 3 मी. की दूरी पर बनी कतारों में एक मीटर के फासले से थालों में लगा दिया जाता है ।
पौधों को रोपने के लिए सावधानी से चीरा लगाकर शैलियों में अलग कर लेते हैं ताकि जड़ के विकास में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो । ध्यान रहे कि पोलीथिन हटाते समय मिट्टी की पिडी न टूटे । सामान्यतः वर्षा ऋतु फसल की बोआई समतल खेत में 3 मीटर की दूरी पर कतारें बनाकर छोटे थालों में करते हैं । थालों की आपसी दूरी 1-5 मी. रखी जाती है ।
नदियों की कछारी भूमि में दिसम्बर में नालियाँ बनाकर लौकी के बीजों की बोआई की जाती है । ये नालियाँ 1 मी. गहरी और 60 सेमी. चौड़ी होती हैं । नालियाँ खोदते समय नाली के ऊपर की आधी बालू एक ओर हटाकर ढेर लगा देते हैं और शेष आधी बालू को खोदकर उसमें गोबर की खाद भली-भांति मिलाकर उसे लगभग 30 सेमी गहराई तक भर देते हैं इन्हीं नालियों में 1.5 मीटर की दूरी पर छोटे थाले बनाकर प्रत्येक थाले में 4-5 बीज बो देते है ।
वहाँ भी दो नालियों के बीच की दूरी 3 मीटर रखते हैं । पाले से बचाव हेतु नालियों के किनारे एक ही बालू का सहारा लेकर उत्तर-पश्चिम दिशाओं में पट्टियाँ बाड़ का निर्माण किया जाता है । इससे बीजों के अंकुरण हेतु उचित गर्मी भी मिल जाती है और साथ ही उगे हुए छोटे पौधों की तुषार से रक्षा भी हो जाती है । इस विधि से लौकी की अगेती फसल प्राप्त हो जाती है जिसका बाजार भाव अच्छा मिल जाता है ।
फसल को सहारा देना:
लौकी की भरपूर उपज एवं स्वस्थ प्राप्त करने हेतु वर्षाकालीन फसल को सहारा देना नितांत आवश्यक है; जबकि कृषक इस और तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं इसके लिए बास की पट्टियों को रस्सी से बाँध कर छत बना ली जाती है और लताओं को उस पर चढ़ा दिया जाता है ऐसा करने से लौकी के फल भूमि के सम्पर्क में आने से बच जाते हैं और खराब नहीं होते हैं । इस प्रकार स्वस्थ फल प्राप्त होते है और उपज भी अधिक मिलती है । ग्रीष्मऋतु में प्रायः फसल को जमीन पर फैलाते हैं ।
i. पादक निंयत्रकों एवं रसायनों का प्रयोग:
लौकी की फसल में नर एवं मादा फूल एक ही पौधों पर निकलते है । प्रयोगों से पता चला है कि ट्राईआइडोवेंजोइक एसिड के 50 पी.पी.एम. या मैलिक हाइड्रोजाइड 50 पी.पी.एम. (2.5 ग्राम दवा प्रति 50 ली. पानी) के घोल को यदि लता की 2 या 4 पत्तियों की अवस्था में छिड़काव किया जाए तो मादा फूलों की संख्या में वृद्धि हो जाती है और उपज भी अधिक मिलती है ।
ii. नोट:
मैलिक हाइड्रोजाइड का घोल बनाने हेतु सर्वप्रथम इसे गर्म पानी में मिलाकर घोले और उसके उपरान्त पूरी मात्रा में मिला देना चाहिए इस घोल में चिपचिपाहट लाने वाला पदार्थ जैसे सेल्वेट ट्रिट्रान, टयून 20 आदि में कोई एक मिला लें । बोरान का 30 पी.पी.एम. और कैल्सियम के 20 पी.पी.एम. के घोल का छिड़काव करने से भी उपज में वृद्धि हो जाती है ।
iii. फलों की तोड़ाई:
फलों की तोड़ाई उसकी उगाई जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है । फलों को तोड़ने में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है । इसके फलों को कोमल अवस्था में ही तोड़ना चाहिए अन्यथा कठोर होने पर खाने योग्य नहीं रहते हैं । फल को तोड़ने की सही अवस्था में तब तोड़ना चाहिए जब फल का छिलका कोमल चमकीला या रोये वाला हो साथ में बीज भी कच्ची अवस्था में हो ।
iv. उपज:
लौकी की उपज अनेक प्रकार की कारकों पर निर्भर करती है जिनमें प्रमुख रूप से भूमि की उर्वरा शक्ति, उगाई जाने वाली किस्मों का चयन तथा उचित देखभाल होती है । लौकी की औसत उपज में प्रति हैक्टेयर लगभग 150-200 क्विंटल फल मिल जाते हैं । पूसा संकर एवं अर्का बहार इत्यादि किस्मों से 400-500 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक की उपज आसानी से प्राप्त कर सकते हैं ।