बटन मशरूम कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate button mushroom.

अगेरिकस बाइस्पोरस (लेंगे) सिंग जिसका प्रचलित नाम सफेद बटन खुंभी है, की खेती पूरे संसार में विस्तृत रूप से की जाती है और कुल खुंभी के उत्पादन का बैग प्रतिशत भाग इसी जाति का है । सर्वप्रथम पेरिस (1650) में तरबूजे की खेती करने वाले किसान ने तरबूजे की फसल की खाद पर इसे अचानक उगते हुए देखा ।

गुफाओं में इसकी अंर्तकक्ष खेती सन 1810 में फ्रांस और हॉलेण्ड वालों ने प्रारंभ की । भारतीय कृषि अनुसंधान, परिषद, नई दिल्ली के सहयोग से हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग ने 1961 में सोलन में इसकी खेती प्रारंभ की ।

इसके बाद कई संस्थानों जिनमें राष्ट्रीय खुंभी अनुसंधान और प्रशिक्षण केन्द्र चम्बाघाट, सोलन हिमाचल प्रदेश (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद भी आता है इसकी खेती प्रारंभ की । इस समय भारत में अनुमानत: खुंभी का लगभग 20,000 टन उत्पादन हुआ है ।

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इतनी कम पैदावार का कारण है किसानों में जागरूकता का अभाव, गुणवत्ता वाले स्पान की कम उपलब्धता, देश में बनी बडी मशीनों का अभाव, खुंभी का उत्पादन केवल एक दो प्रजातियों तक सीमित, घरेलू बाजार में खुंभी की सीमित उपलब्धता एवं खपत, खुंभी के संसाधन पैकिंग तथा गुणवत्ता मापन की विधियों की कमी, विपणन एवं मूल्य संरक्षण सुविधाओं की कमी, उत्पादन से संबंधित प्रशिक्षित जनशक्ति की कमी आदि ।

भारत वर्ष में इस खुंभी के उत्पादन की अतुलनीय क्षमता है क्योंकि यहाँ यह विभिन्न प्रकार के कृषि अवशिष्टों की विशाल मात्रा उपलब्ध है जो कि खाद का मुख्य अवयव है ।

खेती की तकनीक:

सफेद बटन खुंभी अगेरिकस बाइस्पोरस की खेती की प्रक्रिया जटिल है और सफल फसल उत्पादन के लिए विशेष तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है । इसकी वृद्धि के लिए दो भिन्न-भिन्न तापक्रम की आवश्यकता होती है ।

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वानस्पतिक वृद्धि के लिए 22-280 से.ग्रे. एवं फलनकाय रचना बनाने के लिए 12-180 से.ग्रे. तापमान आवश्यक रहता है । विशिष्ट तापक्रम के अलावा खुंभी की पैदावार के समय आपेक्षित आर्द्रता 85-95 प्रतिशत और शुद्ध हवा का संचालन होना चाहिये ।

सफेद बटन खुंभी की उत्पादन तकनीक को निम्न भागों में बांटा जा सकता है :

 

1. खाद का माध्यम बनाना

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2. फसल उत्पन्न करना

1. खाद का माध्यम बनाना:

अन्य कवकों की तरह भी एक परपोषित जीव है । इसे पोषण के लिए सूक्ष्मजीवों द्वारा बनाये कार्बनिक यौगिकों की आवश्यकता होती है । सूक्ष्म जीवों द्वारा धान्य अवशेषों के किण्वन से ये कार्बनिक यौगिक बनाते हैं । इस क्रिया को कम्पोस्टिंग कहते हैं ।

ये यौगिक ही खुंभी कवक का पोषण का मुख्य आधार रहता है । इसके अतिरिक्त इसे पोषण के लिए नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, गंधक, पोटेशियम, लौह तत्व और थायमिन व बायोटिन जैसे विटामिन की भी आवश्यकता होती है । इस माध्यम पर अगेरिकस बाइस्पोरस का कवकजाल सफलता पूर्वक बढता है और प्रतिस्पर्धा करने वाले जीवों से बचा रहता है ।

खाद एक किण्वित वरणात्मक क्रियाधार है जिस पर खुंभी का कवकजाल वृद्धि करता है और बाद में खुंभी पैदा करता है । खाद्य वायवीय अपघटन की क्रिया का अंतिम पदार्थ है । अपघटन की क्रिया में कार्बनिक यौगिकों का सुक्ष्म जीवी अपघटन, सूक्ष्मजीवी प्रोटीन का बनना व रेशेदार पदार्थों को नमी सोखने योग्य बनाना आता है । इसके अलावा सूक्ष्मजीवी खाद के यौगिक गुणों को बदलकर इसे प्रतिस्पर्धात्मक कवकों की वृद्धि के लिए प्रतिकूल बना देते हैं ।

(i) खाद बनाने की सामाग्री:

(a) आधार पदार्थ:

खाद बनाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के कृषि उपउत्पाद जैसे अनाजों का भूसा (गेहूँ, धान, जौ, जई, राई) मक्के का डंठल, सूखी घास, गन्ने की सीठी या अन्य सेल्युलोज वाले व्यर्थ पदार्थ उपयोग में लाये जाते है । फिर भी केवल गेहूँ का डंठल या इसके साथ मिली घोडे की लीद से सबसे उत्तम खाद बनती है ।

प्रयोग में लाया जाने वाला डंठल या भूसा ताजा या एक साल पुराना, चमकीला पीला, कडा, मिट्‌टी रहित और मोल्ड कवक रहित होना चाहिये । खाद बनाने वाले पदार्थ का मुख्य कार्य खुंभी की वृद्धि के लिए उपयोगी सेज्यूलोज, हेमी सेल्युलोज और लिग्निन का भंडार बनाना होता है ।

इसके अलावा ये पदार्थ सूक्ष्म वनस्पतिजात की वृद्धि के लिए खाद के मिश्रण की भौतिक बनावट को इस प्रकार बनाते हैं जिससे सूक्ष्मजीवों को सही मात्रा में वायु मिलती रहे ।

धान और जी के डंठल नर्म होते हैं और खाद बनाने में जल्दी ही निम्नीकृत हो जाते हैं साथ ही साथ गेहूँ के डंठल की तुलना में ज्यादा पानी सीखते हैं । अतः इन दो आधार पदार्थों को उपयोग में लाने पर पानी की गुणवत्ता, पल्टाई करने का समय और अन्य पूरक पदार्थों का प्रकार और मात्रा पर सावधानी अपनानी चाहिये ।

(b) संपूरक (सप्लीमेंट्‌स):

उपरोक्त आधार पदार्थों में किण्वन क्रिया के लिए आवयश्यक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पौटेशियम व अन्य तत्वों की कमी को दूर करने के लिए इनमें नाइट्रोजन और कार्बोहाईड्रेट युक्त पूरक पदार्थ डाले जाते हैं । जिससे सडाने, गलाने की प्रक्रिया में तेजी आती है ।

इनको निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है:

(अ) पशु खाद:

इसमें घोड़ा, मुर्गी व सूअर की खाद आते हैं । इनमें नाइट्रोजन की मात्रा एक से पांच प्रतिशत तक होती है । पौष्टिक तत्वों के अतिरिक्त ये सामग्री खाद की भौतिक बनावट तथा अम्बार के भूसे के साथ प्रमुख अवयव भी बनाती है । गाय की खाद उपयुक्त नहीं मानी जाती है ।

इन खादों में नाइट्रोजन और कार्बोहाइड्रेट का निकास धीरे-धीरे होता है । खाद बनाने के लिए घोडे की लीद के साथ उसके बिछावन व पेशाब अति उत्तम सामग्री है । इसमें अन्य पूरक पदार्थों को मिलाने की आवश्यक नहीं होती ।

छोटी विधि से बनने वाली खाद में मुर्गी की खाद मिलायी जाती है परंतु कुछ किसान लंबी अवधि द्वारा बनने वाली खाद में इसे मिलाते हैं ।

लेकिन मुर्गी की खाद से लंबी अवधि द्वारा खाद बनाने में इसमें कई प्रकार के रोगजनक, सूत्रकृमि और हानिकारक कवक जैसे सेपीडोनिकम महेश्वरियम, स्ट्रेकीबोट्राइस अट्रा और वर्टीसीलियम फंजीकोला आदि आश्रय पाते हैं । ये रोगजनक खुंभी के वृद्धि करने वाले कवकजाल के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं जिससे उपज में कमी आती है । इस खाद को बेविस्टिन (0.05 प्रतिशत) या डी.डी.वी.पी. (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करना चाहिये या मुर्गी की खाद का पाश्चरीकरण करना चाहिये या मुर्गी की खाद को आधार पदार्थों से मिलाने से पहले डी.डी.वी.पी. (0.4 प्रतिशत) से उपचारित कर लेना चाहिये ।

(ब) कार्बोहाइब्रेट वाले पोषक तत्व:

ये पदार्थ प्रायः गीले ब्रुअर्स दाने, माल्ट इस्प्राउट्‌स, सीरा, आलू की व्यर्थ, सेव व अंगूर की पोमेस आदि होते हैं । ये पदार्थ कार्बन-नाइट्रोजन के अनुपात को ठीक करते हैं और खाद में जीवाणु को स्थापित करने में सहायक होते हैं । इन पदार्थों में नत्रजन 1.5 प्रतिशत से कम रहता है ।

(स) रासायनिक खादें:

खाद बनाने की प्रक्रिया में सूक्ष्म जीवों की क्रिया जल्द प्रारंभ करने के लिए रासायनिक खाद जैसे अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम, अमोनियम नाइट्रेट और यूरिया सहायक होते हैं । इन खादों में नत्रजन की मात्रा प्राय: बहुत अधिक (25-46 प्रतिशत) होती है ।

(द) खनिज तत्वों के पूरक:

इसमें पोटाश व फॉस्फोरस उर्वरक जैसे म्यूरेट ऑफ पोटाश और सुपर फॉस्फेट खाद आते हैं जो खाद में खनिज अवयवों की पूर्ति करते हैं । इसके अतिरिक्त जिप्सम और कैश्लियम कार्बोनेट आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं । इससे निलंबित कोलायडल पदार्थों का अवक्षेप बन जाता है और चिकनाहट दूर हो जाती है ।

(इ) सांद्र खाद्य:

ये पदार्थ प्रायः जानवरों की खुराक के लिए उपयोगी है । इनमें गेहूँ या धान का चोकर, सूखे बुआ दाने, कपास, सोयाबीन, अंडी और अलसी की खली आते हैं । इनसे नत्रजन और कार्बोहाइड्रेट्‌स धीरे-धीरे निकलते हैं ।

नत्रजन की मात्रा 3-12 प्रतिशत तक होती है । इनमें से कुछ अवयवों जैसे तेल और खनिज तत्वों की उपस्थिति का खुंभी के पोषण में महत्व रहता है । प्रत्येक श्रेणी में पदार्थों का चुनाव उनकी लागत और स्थानीय उपलब्धता पर निर्भर करता है ।

(ii) खाद का सुत्रीकरण:

खाद बनाने में उपयोगी अवयवों की मात्रा समय-समय पर और विभिन्न स्थानों और संगठनों में उनकी उपलब्धता के आधार पर निर्भर करती है । सूत्रीकरण का मुख्य ध्येय है कि खाद में देर लगाते समय नाइट्रोजन की मात्रा शुष्क भार का 1.5-1.75 से 1-2.2 प्रतिशत तक हो और कार्बन-नाइट्रोजन का अनुपात शुरू से 25-30 प्रतिशत और अंत में 16-18 प्रतिशत तक हो । घोडे की लीद से बनी खाद को प्राकृतिक खाद और गेहूँ का भूसा और दूसरे पदार्थों से बनी खाद को कृत्रिम खाद कहते हैं ।

खाद बनाने के अनेक सूत्र नीचे दिये गये हैं:

 

(iii) खाद बनाने का सिद्धांत:

खुंभी की खेती के लिये खाद बनाने के निम्नलिखित प्रयोजन है:

1. खाद की उष्णता की प्रवृत्ति का निष्कासन करना जिससे कवकजाल की वृद्धि को नुकसान न हो ।

2. खाद को श्वेत बटन खुंभी के लिए एक चयनात्मक माध्यम बनाना, जो प्रतिस्पर्धी कवकों की वृद्धि के लिए प्रतिकूल हो ।

3. किण्वन के लिए आवश्यक मध्य रागीय (मिजोफिकिल) और ऊष्मास्नेही (थर्मोफिलक) फ्लोरा के लिए विद्यमान खाद्यान्नों को अधिक स्वीकार्य रूप में लाना । ये सूक्ष्मजीवी खुंभी के कवकजाल के लिए पोषण प्रदान करते है ।

4. खुंभी के कवकजाल की बाढ के लिए आवश्यक पोषण व पानी की मात्रा तथा पी.एच. मान का समायोजन करना ।

5. स्पान को फैलने से पहले की वातावरणीय घुटन दम घोंटू होने से बचाना ।

खाद बनाना एक जटिल प्रक्रिया है । जिसको पूर्णरूपेण नहीं समझा गया है । बनाने में सबसे पहले आधारभूत पदार्थों को गीला करके ढेर बनाया जाता है । प्रारंभ में ढेर का तापक्रम कम रहता है अत: मध्य ताप रागीय वनस्पति का बढना शुरू हो जाता है और ये डंठल को मुलायम बना देती है ।

ये कवकें आधार में उपस्थित कार्बोहाइड्रेट्‌स को सरल पदार्थों में तोड देती है । इस क्रिया से गर्मी उत्पन्न होती है । अतः ढेर का तापक्रम बढता है जिसके कारण मध्यतापरागीय वनस्पतियों का स्थान ऊष्मस्नेही जीव ले लेते हैं ।

जीवाणु और एक्टिनोमाइसिटीज (फायर फेंग) जीवों द्वारा खाद के वायवीय किण्वन से खाद का तापक्रम और बढता है । प्रोटीन के विघटन से उत्पन्न होने वाली अमोनिया ढेर का तापक्रम और बढा देती है और भूसे को नरम बना देती है ।

2. खुंभी उत्पादन:

भारत में खुंभी की खेती लगभग तीन दशक पहले शुरू की गयी थी । अधिकांश व्यावसायिक कृषक इसे ठंड में प्राकृतिक परिस्थितियों में लगाते है । अधिकांश छोटे और मध्य श्रेणी के किसान खाद बनाने के लिए दीर्घविधि का उपयोग करते हैं ।

जबकि कुछ बडे किसान खाद बनाने के लिए अल्पविधि से खाद तैयार करते हैं । कई खुंभी निर्यातक फार्मों में उच्च आयातित तकनीकियों, किस्मों और वातानुकूलित कक्षों का उपयोग किया जा रहा है ।

(i) शैय्या बनाना:

(अ) शेल्फ विधि:

खुंभी घर को टांड सहित बनाते हैं, जिन पर खुंभी की शैथ्या बनायी जाती है । दो टांड की दूरी 05 मीटर रहती है तथा सबसे नीची वाली टांड जमीन से 20 सेमी ऊपर होती है । ये टांड लकडी, बस, स्टील या कोणीय लोहे के बने फ्रेम की होती है जिसमें लकडी के तख्ते लगे रहते हैं ।

हरियाणा और पंजाब में मौसमी किसान कच्चे घर में खुंभी उगाते हैं । इसमें बाँस के ढांचे के ऊपर मोटी पॉलीथीन की चादर फैलाकर टांड बनायी जाती है । खाद में बीजाई करके इन टांड को 4-6 इंच तक भरा जाता है ।

इस विधि में एक ही कक्ष में बीजाई और उत्पादन होता है । आधुनिक खुंभी फार्मों में टांड कोणीय लोहे की बनी रहती है जिसमें टांड की 5 कतारें रहती हैं । इनमें दो टांडी के बीच की दूरी 60 से.मी. होती है । इनमें 80-100 किलो खाद प्रति मीटर की दर से 15 से 20 से.मी. तक भरते हैं ।

(ब) पेटी विधि:

इस विधि में लकड़ी की पेटियों को (100x50x15 से.मी.) खाद से भरकर, बीजाई करके, स्पान उगाने वाले कक्ष में एक के ऊपर एक रख देते हैं । बीज फैलने के बाद केसिंग करके इन्हें उत्पादन कक्ष में रखा जाता है । प्रायः 4-5 पेटियां एक के ऊपर एक रखते है । परंतु लकडी महंगी होने, लकडी कटाई पर प्रतिबंध रहने तथा पेटियों पर विभिन्न प्रकार के कीट और बीमारियाँ लगने के कारण अब पॉलीथीन के थैलियों का उपयोग किया जाने लगा है ।

(स) शैली विधि:

 

आजकल थैलियों में खुंभी का उत्पादन प्रचलित हो गया है क्योंकि ये बहुत सस्ती है, इन्हें आसानी से फेंका जा सकता है । हर बार नई थैलियों के उपयोग से संक्रमण का डर नहीं रहता । चूंकि स्पान फैलने के प्रथम 15 दिन तक इन थैलियों को बद करके रखा जाता है अतः वायवीय सूक्ष्मजीवी द्वारा संक्रमण सबसे कम रहता है ।

थैलियों से अधिकतम उपज लेने के लिए इसमें 30-37.5 से.मी. की गहराई तक की खाद भरते हैं । इससे अधिक गहराई तक भरने से आवायवीय स्थिति बन जाती है, जिससे बीज का फैलाव रूक जाता है और उपज कम होती है ।

 

(ii) बीजाई (स्पानिंग):

खाद में खुंभी के स्पान मिलाने की प्रक्रिया बीजाई कहलाती है । बीजाई के लिए ताजा और पूरी तरह कवकजाल वृद्धि से ढका स्पान लेना चाहिये । बीजाई इस प्रकार करना चाहिये जिससे कवकजाल के फैलाव के बिंदु अधिक मात्रा में हो, इससे स्पान खाद में हर तरफ फैलता है । बीजाई के तरीके से खुंभी की पैदावार प्रभावित होती है ।

बीजाई के निम्न तरीके है:

(a) द्विपरतदार बीजाई:

इस विधि में खाद को थैली या पेटी में आधा भरकर बीज को डालते हैं । इसके बाद खाद भरकर सबसे ऊपरी सतह पर बीज डाला जाता है ।

(b) सतही बीजाई:

इस विधि में खाद को थैली या पेटी में भरा जाता है । पूरा करने के बाद 3-5 से.मी. गहराई तक स्पान को हाथ से अच्छी तरह मिलाया जाता है । जिसके ऊपर खाद की एक पतली परत डालते है जिससे स्पान नहीं सूखता ।

(c) चिन्हित बीजाई:

इस विधि से स्पान को छोटे टुकडों में तोडा जाता है । सबसे पहले खाद को थैली या पेटी में भर लिया जाता है । फिर खाद की सतह पर 20-25 से.मी. की दूरी पर 5 से.मी. गहरे छेद बनाकर उसमें स्पान के टुकड़े डालते हैं । बाद में इन छेदों को खाद से ढंक देते है ।

(d) संपूर्ण बीजाई:

संपूर्ण खाद को थैली या पेटी में भरने के पहले आवश्यक मात्रा में स्पान को अच्छे प्रकार से मिलाया जाता है ।

(e) सुपर बिजाई:

इसमें खाद पर पूरी तरह फैले खुंभी के कवकजाल को अन्य थैलियों/पेटियों में स्पान के रूप में मिलाया जाता है । हालांकि इस विधि में संक्रमण की संभावना अधिक होती है ।

(f) शेक अप बीजाई:

बीजाई के 7 दिन बाद खाद को भली प्रकार से हिलाया जाता है । निवेश द्रव्य के फैलने से खुंभी का कवकजाल तेजी से फैलता है और खराब खाद में अमोनिया को फैलाता है ।

बीजाई के पश्चात पेटियों से खाद की सतह को अखबारी कागज से ढक देते है, जिससे नमी बनी रहे । स्पान के फैलाव के समय खाद में सीधे पानी नहीं डाला जाता । यदि थैलियाँ उपयोग में लायी गयी हैं तो थैली के बचे खाली भाग को इस प्रकार की अंदर की तरफ मोड़ा जाता है, जिससे यह खाद को पूरी तरह से ढक ले । यदि थैलियों को अन्दर की तरफ मोडने की जगह न हो तो उसे

अखबारी कागज से ढक देते हैं । इस कागज पर 0.5 प्रतिशत फार्मेलिन के घोल का छिडकाव किया जाता है ।

(iii) बीजाई की दर:

अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिये उपयोग में आने वाली स्पान की मात्रा बहुत महत्वपूर्ण होती है । स्पान की मात्रा इतनी होना चाहिए जिससे कि कवकजाल शैया पर तेजी से फैलकर उसे ढके । खाद के ताजे भार के अनुसार स्पान की अनुकूलतम मात्रा 0.5 से 0.75 प्रतिशत पायी गयी । जितनी अधिक मात्रा में स्पान उपयोग में लाया जायेगा उतनी ही जल्दी यह आधार पदार्थ को उपनिवेशित (कोलोनाइज) करेगा । इस कारण से प्रतिस्पर्द्धी कवकों की वृद्धि में रूकावट आती है, और नियमित उपज मिलेगी जो इस प्रतिस्पर्धा से अप्रभावित रहेगी । बहुत ज्यादा मात्रा में स्पान के उपयोग से खाद का तापमान असाधारण रूप से बढ जाता है और खाद के तापमान को नियंत्रित करना कठिन हो जाता है, जिसके कारण स्पान मर जाता है ।

(iv) उद्भवन (इन्क्यूबेसन):

फसल में बीजाई के पश्चात वातावरण के मुख्य घटक जैसे तापमान, नमी, हवा, संवातन (हवादारी), हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा आदि फसल की उपज, गुणवत्ता, समय आदि को नियंत्रित करते हैं ।

(a) तापमान:

बीजाई की गई खाद में कवकजाल की वृद्धि 23±02 से.ग्रे. पर अधिक रहती है । इससे ज्यादा तापमान रहने पर कवकजाल द्वारा उत्पन्न उपापचयी ताप तापमान को और बढाता है और 300 से.ग्रे. अधिक तापमान कवकजाल के लिये हानिकारक रहता है ।

शुरू में खाद ज्यादा सक्रिय नहीं रहती अतः तापमान: धीरे-धीरे बढ़ता है । जबकि 7 वें और 9 वें दिन के बीच तापमान बहुत तेजी से बढता है और इस समय तापमान को कम करने के लिए शीतलन और संवातन की आवश्यकता होती है । यदि खाद का तापमान बाहर के तापमान से ज्यादा है तब कमरे में संवातन के बजाये हवा को पुन: संचरण करना चाहिये ।

(b) आपेक्षित आर्दता:

खाद पर स्पान के फैलाव के समय उत्पादन कक्ष में आपासत आर्द्रता 85 से 90 प्रतिशत तक होना चाहिये । बीजाई की पेटियों की खाद को अखबार द्वारा ढक दिया जाता है । अखबारों को प्रयोग में लाने के एक सप्ताह पूर्व 4 प्रतिशत फार्मेलिन घोल से अथवा वाष्प द्वारा 20 पौंड दाब पर आधा घटा निजीर्वीकृत कर लेना चाहिये ।

दिन में दो बार कमरे के फर्श, दिवारें और अखबार पर स्प्रे पम्प की सहायता से पानी छिड़कने से नमी बनी रहती हे । पॉलीथीन की थैलियों का मुंह बंद करके या खाद पर पॉलीथीन की चादर डालकर उपयुक्त नमी बनाये रखी जा सकती है । पॉलीथीन के अंदर की तरफ संघनन होने से खाद गीली रहती है ।

कभी-कभी गर्मी में इस कारण से शैया का तापमान बढ जाता है, इस कारण से कवकजाल अपूर्ण रूप से या पूरी तरह मर जाता है । पानी के छिडकाव द्वारा साधारतः खाद की सतह को गीला करने के बजाय सूखने से बचाया जाता है ।

(c) कार्बन डाई ऑक्साइड:

स्पान फैलने के समय कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा भी कवकजाल की वृद्धि को नियंत्रित करती है । कार्बन डाई ऑक्साइड बनने की दर और तापमान के बीच सीधा सबध है । 100 से.ग्रे. तापमान बढने से कार्बन डाई ऑक्साइड का बनना तीन गुना बढ जाता है ।

स्पान फैलने के लिए थोडी अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड की आवश्यकता होती है । इस समय इसकी मात्रा कुल वातावरण का 0.1-0.5 प्रतिशत होना चाहिये । इस समय संवातन सबसे कम रखा जाता है । खुंभी का कवकजाल अधिकतम 30 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड सहन कर लेता है ।

उपयुक्त वातावरण में 14 दिन बाद खाद पर फैला सफेद कवकजाल रंग बदल कर हल्के नारंगी भूरे रग का हो जाता है इससे कवकजाल की गंध आने लगती है । यदि किसी कारण कवकजाल खाद पर पूरी तरह से फैल नहीं पाता तब थोडा सा नया बीज लेकर फिर से खाद और बीज को मिला लेते हैं । फसल कक्ष में उपयुक्त तापमान, नमी और कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा के अलावा स्वच्छता बनाये रखने से संदूषण और अनचाहे जीवों के फैलाव में कमी होती है ।

(v) केसिंग (आवरण मृदा):

खाद पर फैले कवकजाल को ढकने के लिये उपयुक्त पदार्थ का स्तर आवरण मृदा कहलाता है । इस स्तर के कारण से खुंभी कवकजाल की वानस्पति वृद्धि रूक जाती है और फलनकाय बनने लगता है ।

आवरण मृदा विभिन्न प्रकार के कार्य करती है । जैसे वह विकसित खुंभी को भौतिक आधार देती है, खाद में नमी बनाये रखती है और खुंभी के विकास के लिए पानी देती है । यह तापमान को भी नियंत्रित करती है ।

अचानक तापमान में कमी लाने से भी फलन बढता है । मृदा से पानी का वाष्पीकरण होता है और प्रत्येक बार पानी छिडकने से एक शीतल स्तर बन जाता है जो कि गर्मी चाहने वाली खुंभी की क्रियाशीलता को धक्का देता है ।

आवरण मृदा पिन हेड बनाने के लिए उत्तरदायी घटकों को बढाती है । खुंभी का कवकजाल 2 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड मात्रा पर सबसे अच्छा फैलता है परंतु फलन के समय इसे 0.08-0.15 प्रतिशत या इससे कम कार्बनडाई ऑक्साइड की ही आवश्यकता होती है ।

केसिंग मिट्‌टी के उपयोग से केसिंग मिट्‌टी की कुछ जगहों पर कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर 0.15 से 0.10 प्रतिशत या इससे कम हो जाता है । इस बिंदु पर कवकजाल की वृद्धि रूक जाती है और अन्य परिस्थितियों के अनुकूल रहने पर फलन शुरू हो जाता है ।

केसिंग माध्यम में कुछ जीवाणु जैसे स्यूडोमोनास प्युटिडा और बेसिलस समूह की संख्या अधिक रहती है जो खुंभी के फलन को प्रेरित करते है । पिनिंग अवस्था जल्दी प्रारंभ करने और अधिक उपज लेने के लिए निर्जीवीकृत आवरण मृदा में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु जैसे राइजोबियम समूह, एजोस्पाइरिलम समूह और एजेटोबेक्टर क्रोकोकम का कल्चर मिला दिया जाता है ।

(a) केसिंग पदार्थों के गुण:

एक उत्तम केसिंग पदार्थ में निम्न गुण होना चाहिए:

1. इसमें पानी को सोखने की क्षमता अधिक होना चाहिए । यह पानी जल्दी सोख ले पर धीरे-धीरे निर्मुक्त करें । भारत में स्पेगनम मोस में 75.5 प्रतिशत पानी सीखने की क्षमता पायी जाती है ।

2. आवरण माध्यम का पी.एच. मान उदासीन या हल्का क्षारीय (7.0-7.7) होना चाहिए । अम्लीय मृदा (जिसका पी.एच. मान 7.0 से कम हो) में प्रतियोगी कवक जैसे ट्राइकोडरमा समूह की वृद्धि अधिक होती है ।

दूसरी तरफ पी.एच. मान अधिक होने पर श्वेत बटन खुंभी के कवकजाल की वृद्धि कम होती है या कोई वृद्धि नहीं होती । केसिंग मिश्रण का पी.एच. मान नापने के लिये 1 ग्राम केसिंग मिट्‌टी को 10 मि.ली. आसक्ति पानी में घोलकर थोडी देर के लिए छोड देते हैं । ऊपर निथरे पानी का पी.एच. मान लिटमस पेपर या पी.एच. मीटर की सहायता से लिया जाता है । इस माध्यम की विद्युत चालकता कम होना चाहिए ।

3. एक अच्छे केसिंग माध्यम की जल ग्रहण क्षमता और सरंध्रता अधिक होना चाहिये । इन दोनों गुणों को प्राप्त करने के लिए मृदा का मिश्रण उपयोग में लाया जाता है । पानी देने से इस मिश्रण के सभी छिद्र पानी से भर जाते हैं ।

जिसके कारण से हवा की मात्रा कम हो जाती है । और आवरण मृदा के नीचे बढने वाले खुंभी के कवकजाल के लिए स्वतंत्र गैसों का आदान प्रदान नहीं होता ।

चूंकि हल्की मिट्‌टी में जल ग्रहण क्षमता होती है अत: यह केसिंग पदार्थ के रूप में अयोग्य है । ऐसी मिट्‌टी जिसका घनत्व 0.75-0.8 मिली1 हो, पर्याप्त मात्रा में जल ग्रहण करती है ओर खुंभी की अच्छी वृद्धि के लिए अधिक सरंध्र रहती है ।

4. अकार्बनिक अयन की अधिक मात्रा (जिससे विद्युत चालकता बढ़ती है) के कारण उपज कम पैदा होती है । अतः केसिंग मिश्रण की चालकता नापनी चाहिये । यदि चालकता अधिक हो तो बहते पानी से निक्षालन (लीचिंग) करने से खनिज तत्व कम हो जाते हैं ।

5. केसिंग मिश्रण का पोषण मान खाद से बहुत कम होना चाहिये । केसिंग मिश्रण का पोषण मान ज्यादा होने से केसिंग आवरण पर खूंभ कवकजाल फैलता रहेगा और खुंभी उत्पादन नहीं होगा ।

(b) केसिंग सामग्री:

विभिन्न देशों में उनकी उपयुक्तता और उपलब्धता के आधार पर अनेकों प्रकार के केसिंग पदार्थों का उपयोग किया जाता है । कुछ शीतोष्ण भागों में प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली माँस का अवशेष पीट कहलाता है ।

संसार में पीट के साथ चूने का मिश्रण एक आदर्श केसिंग पदार्थ पाया गया है । भारत में पीट माँस उपलब्ध न होने के कारण खेती की मिट्‌टी के विभिन्न मिश्रण केसिंग के लिये उपयोग में लाये जाते हैं ।

भारत में केसिंग के लिये निम्नलिखित उपलब्ध मिश्रण में से किसी भी एक मिश्रण का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है:

 

1. पुरानी खाद (2 वर्ष पुरानी) + गोबर की खाद (1-2 वर्ष पुरानी) + दोमट मिट्‌टी (2:1:1)

2. पुरानी खाद + रेत (2:1)

3. सडी गोबर की खाद (1-2 वर्ष पुरानी) + दोमट मिट्‌टी (1:1)

4. बगीचे की दोमट मिट्टी + रेत मिश्रण (4:1)

5. पुरानी खाद (2 वर्ष) + रेत + चूना (4:1:1)

इस मिश्रण के अलावा कई पदार्थ अकेले या दूसरे पदार्थ के साथ मिलकर उपयोग में लाये गये जैसे जानवरों की खाद, पुरानी खाद, पेड की छाल, जंगल के अवशेष, गन्ने की खोई, पेपर मल्च, धान की भूसी और राख, स्फेगनम मॉस+दोमट मिट्‌टी मिश्रण (2:1) ।

इनमें से कुछ मिश्रण ने अच्छी उपज दी पर इनका व्यवसायीकरण नहीं किया गया है । केसिंग आवरण मृदा को इस प्रकार छाना जाता है जिससे एक सेंटीमीटर से बडे टुकड़े इसमें न रहें । जहाँ मिट्‌टी को उपयोग में लाया जाता है वहाँ मिट्‌टी इतना गहरा गढ़वा करके ली जाती है जिसमें कि सूक्ष्मजीव उपस्थित न हों ।

(c) केसिंग मिट्‌टी का उपचार:

आवरण मृदा में अनेकों प्रकार के बीमारियों के कीटाणु प्रतियोगी कवक, कृमि व कीट होते हैं । इनको नष्ट करने के लिए आवरण मृदा को पहले उपचार करना आवश्यक है ।

आवरण मृदा के उपचार के लिए निम्नलिखित विधियाँ उपयोग में लायी जाती हैं:

1. रासायनिक उपचार:

यह सबसे पुरानी और प्रचलित विधि है जिसके द्वारा मौसमी किसान आवरण मृदा का निर्जीवीकरण करते हैं । धूमन के लिए 2 प्रतिशत फार्मेलिन (40 लीटर पानी में 2 लीटर फार्मेलिन (40 प्रतिशत सक्रिय तत्व) का उपयोग किया जाता है । पक्के फर्श पर आवरण मृदा की 15 से.मी. मोटी तह बिछाकर 3 लीटर फार्मेलिन प्रति घन मीटर की दर से सिंचित किया जाता है ।

दूसरी, तीसरी और चौथी 15 से.मी. की आवरण मृदा की परत को इसी प्रकार उपचारित करते हैं । इस ढेर को पॉलीथिन या तारपोलिन की चादर से चारों ओर ढक देते हैं और इसे 2-3 दिन के लिए इसी प्रकार रखते हैं । यह उपचार केसिंग प्रक्रिया शुरू करने के 15 दिन पहले करते हैं ।

अच्छे परिणाम के लिए मिट्‌टी में ढेले, पत्थर नहीं होना चाहिये और इसे बहुत अच्छे से सिंचित करना चाहिये । उपचार के बाद पॉलीथिन की चादर हटा देते हैं और एक साफ बेलचे की मदद से सघनता से वातित करते हैं जिससे फार्मेलिन की गंध का अवशेष न रहे ।

2. वाष्प निर्जीवीकरण:

वाष्प निर्जीवीकरण ऑटोक्लेव में भाप द्वारा दाब के साथ किया जाता है जिससे हानिकारक जीव के साथ-साथ उपयोगी जीवाणु भी मर जाते हैं । यह विधि उपज पर विपरित प्रभाव डालती है ।

जिन उत्पादकों के पास भाप के द्वारा खाद के पाश्चरीकरण की सुविधा होती है वहीं पर केसिंग माध्यम को भी 65-700 से.ग्रे. पर 8 घण्टे तक रखकर पाश्चरीकरण किया जा सकता है । इसके कारण अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं ।

केसिंग मिट्‌टी को कभी भी बी.एच.सी या डी.डी.टी. से उपचारित नहीं करना चाहिये । इससे विकृत खुंभी पैदा होती है । थैली या पेटी पर केसिंग मिट्‌टी बिछाने के पहले यह गीली होना चाहिये ।

इसके लिए हथेली परीक्षण करना चाहिये । हथेली पर केसिंग मिट्‌टी रखकर जोर से दबाने पर मिट्‌टी अच्छी तरह बंध जाये पर इससे पानी नहीं निकलना चाहिये ।

यदि मिट्‌टी अधिक गीली होगी तो इसे बिछाने में कठिनाई आयेगा और यदि सूखी होगी तो बाद में सावधानी पूर्वक गीला करना होगा जिससे कि स्पान इसके अंदर ठीक प्रकार से फैल सके ।

खाद पर पूरी तरह से फैले स्पान कवकजाल के ऊपर केसिंग की जाती है । इसके लिए थैली या पेटी पर से कागज हटा देते हैं । यदि शैली अंदर की तरफ मुडी तो उसे खोल देते हैं । खाद की ऊपरी सतह को दबाकर समतल किया जाता है । खाद की ऊपरी सतह को थोडा खुरचने से इसकी सतह पर कवकजाल का स्ट्रोमा टूट जाता है जिसके कारण से फसल जल्दी आती है ।

केसिंग मिश्रण की प्राय: 3-4 से.मी. एक समान मोटी तह बिछायी जाती है । इससे कम मोटी तह बिछाने से कवकजाल केसिंग के ऊपर आ जाता है और इससे अधिक मोटी परत बिछाने पर जो खुंभी उगती है उनके तने बहुत लंबे होते हैं ।

केसिंग डालने के पश्चात सतह पर 0.5 प्रतिशत फार्मेलिन का हल्का सा छिडकाव करते हैं । खाद पर केसिंग परत बिछाने के पश्चात उसे दबाते नहीं है जिससे कि उपयुक्त वायवीय अवस्था बनी रहे ।

(d) केसिंग का आवरण:

जब खाद पर स्पान का कवकजाल पूरी तरह स्थापित हो जाता है तभी केसिंग की जाती है । यह खाद की गहराई, बीजाई की मात्रा और उस समय के वातावरण के अनुसार परिवर्तनशील होती है । कुछ केसिंग के दौरान कुछ सस्य क्रियाएं अपनाने से खुंभी की पैदावार एक समान, अधिक और जल्दी आती है ।

1. स्पाण्ड केसिंग (केकिंग):

इस विधि से केसिंग के समय केसिंग मिट्‌टी में ऐसी खाद मिलाते हैं जिसमें खुंभी कवकजाल अच्छी तरह फैल चुका है । प्रायः केसिंग के बाद खुंभी का कवकजाल 7-10 दिनों में केसिंग मिट्‌टी पर पूरी तरह स्थापित होता है, परंतु स्पाण्ड केसिंग का उपयोग करने से यह अवधि कम हो जाती है और खुंभी का कवकजाल केसिंग मिट्‌टी पर अच्छी फैल जाता है और उत्तम फसल मिलती है । इससे खुंभी उत्पादन भी जल्द शुरु होता है ।

केसिंग मिट्‌टी में खुंभी कवकजाल वाली खाद मिलाने की दर 1.5 कि.ग्रा./वर्ग मीटर होती है । इसके ऊपर केसिंग मिट्‌टी की बहुत पतली तह डालते हैं । केसिंग मिट्‌टी की कुल मोटाई 3-4 से.मी. से ज्यादा न हो ।

2. खनिज मिलाना:

केसिंग मिट्‌टी में विभिन्न खनिज जैसे लोहा, जिंक या तांबा मिलाने से उपज ज्यादा होती है ।

3. रफलिंग:

इस विधि में केसिंग से पहले खाद के ढेलों को तोडकर अलग-अलग कर लेते है । इस कारण से खुंभी की पैदावार जल्दी शुरू हो जाती है । दूसरी विधि में केसिंग तह मिलाने के 4-7 दिन बाद केसिंग को तोड देते हैं । यह विधि रफलिंग कहलाती है । इसके कारण से भी कवकजाल केसिंग सतह पर जल्दी फैलता है और उपज जल्दी मिलती है ।

(vi) संपूरकता:

खाद के पूर्ण रूप से बनने के पश्चात खाद में कुछ पोषक पदार्थ मिलाये जाते हैं जिसका उपयोग कवकजाल अपनी वृद्धि के लिए करता है । ऐसे पदार्थ संपूरक कहलाते हैं और यह क्रिया संपूरकता कहलाती है । इस कारण से कवकजाल की वृद्धि अच्छी और स्वस्थ रहती है और ज्यादा उपज प्राप्त होती है ।

संपूरक पदार्थों को प्रायः बीजाई के समय या केसिंग के पहले मिलाया जाता है । कार्बोहाइड्रेट युक्त संपूरक की तुलना में प्रोटीनयुक्त संपूरक अच्छा परिणाम देते है ।

भारत में सोयाबीन का चूरा और कपास के बीज का चूरा सबसे अधिक प्रचलित संपूरक है । अल्फा-अल्फा आहार, मक्का गुलूटेन आहार, तेल निकली सोयाबीन, मूंगफली की खली, कपास की खली आदि भी संपूरक के रूप में उपयुक्त पाये गये । इसके अलावा यीस्ट का सत, सोडियम क्लोराइड (नमक), अमोनियम सल्फेट और विटामिन बी कॉम्पलेक्स भी उपयोगी पाये गये ।

संपूरक के रूप में इन पदार्थों को मिलाने के पहले इन्हें फार्मेल्डीहाइड (4000-5000 पी.पी.एम.) से निर्जीवीकृत करते हैं जिससे अनेको खरपतवार कवक मर जाते हैं । प्राय: खाद के सूखे भार के अनुसार 2-3 प्रतिशत संपूरक मिलाने से सबसे अच्छे परिणाम प्राप्त हुए ।

संपूरक पदार्थों को थैलियों (10-12 इंच गहराई) या पेटियों (6-8 इंच गहराई) में भी सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है । इसके उपयोग से 20-30 प्रतिशत तक उपज में वृद्धि होती है । कम नमी की अपेक्षा अधिक नमी के साथ संपूरक पदार्थ अच्छे परिणाम देते हैं ।

(vii) केसिंग के पश्चात वातावरणीय कारकों और फसल का प्रन्धन:

केसिंग के पश्चात तीन वातावरणीय कारक तापक्रम, नमी और वायु फसल को प्रभावित करते हैं:

(a) तापक्रम:

केसिंग के ऊपर कवकजाल को अच्छे से व समान रूप से फैलने के लिए तापक्रम 25-270 से.ग्रे. होना चाहिये । केसिंग की परत एक कंबल की तरह कार्य करती है और खाद से निकलने वाली ऊष्मा को बाहर निकलने से रोकती है ।

केसिंग के पश्चात कुछ दिनों तक तापक्रम ज्यादा बढता है । कमरे का तापक्रम नीचे (22-230 से.ग्रे.) लाने व कमरे में ताजी हवा प्रवेश कराने के लिए संवातन दिया जाता है । इस तापक्रम पर 7 दिन में केसिंग मिट्‌टी पर कवकजाल पूरी तरह फैल जाता है ।

केसिंग के समय कम्पोस्ट स्पान मिलाने से यह समय घटकर 2-3 दिन का हो जाता है । केसिंग मिट्‌टी पर कवकजाल के स्थापित हो जाने के बाद फसल क्ख का तापमान 16±20 डिग्री से.ग्रे. तक नीचे ले आते हैं ।

इस कारण से केसिंग सतह पर कवकजाल का बनना बद हो जाता है । यदि सतह पर स्ट्रोमा बन गये हों तो इन्हें खुरचकर केसिंग मिट्‌टी की एक पतली परत डाल देते हैं ।

(b) कार्बन डाइ ऑक्साइड:

केसिंग के बाद प्रथम सप्ताह में कवकजाल की क्रियाशीलता के कारण ऊष्मा उत्पन्न होती है जिसके कारण तापक्रम और कार्बन डाइ ऑक्साइड की सान्द्रता बढती है । बढे तापक्रम और कार्बन डाइ ऑक्साइड की सान्द्रता को कम करने व उपयुक्त अवस्था बनाये रखने के लिए हवा के सवातन और पुन: संचरण की जरूरत पडती है ।

संवातन की दर हवा और शैया के तापक्रम के अतर के ऊपर निर्भर करती है । यदि यह तापक्रम समान है तो निम्नतर दर की आवश्यकता होगी । उत्पादन के समय कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा 0.08 से 0.15 प्रतिशत तक होनी चाहिये ।

यदि कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा ज्यादा होती है तो कवकजाल लगातार वृद्धि करके स्ट्रोमा बनाता है । जिसके कारण से बनने वाले खुंभी की वृद्धि धीरे होती है । कार्बन डाइ ऑक्साइड की अधिकता से लंबे तने वाली खुंभी बनती है ।

(c) नमी:

पिन हेड बनते समय कमरे में लगभग 90-95 प्रतिशत नमी की आवश्यकता होती है । इतनी नमी बनाये रखने के लिए शैया की सतह, दिवार और जमीन पर पानी का छिडकाव करना चाहिये । जब पिन हेड बढकर मटर के दाने के बराबर हो जाते हैं तो कमरे में पुन: संचरण बढाकर आपेक्षित आर्द्रता 85 प्रतिशत तक ले आते हैं । फसल कक्ष में कम नमी रहने से खुंभी के फलनकाय से नमी का वाष्पन होने लगता है । इस कारण से खुंभी शल्कीय हो जाती है और पिन हेड मर जाते हैं ।

(viii) फसल के दौरान वातावरणीय फसल प्रबंध:

पिन हेड बनने की अवस्था पूर्ण होने के बाद फसल की वृद्धि केवल हवा में होती है । इस समय कमरे की वातावरणीय अवस्था स्थिर रखी जाती है । कमरे का तापक्रम 180 से.ग्रे. रखने से फसल जल्दी बढती है जबकि कम तापक्रम पर वृद्धि घटती है ।

साधारण अवस्था में केसिंग के 25 दिन के अंदर प्रथम फ्लश तोड़ लिया जाता है । तोडने के समय खाद का तापक्रम 18-200 से.ग्रे. रहना चाहिये । लंबे प्रथम या द्वितीय फ्लश कार्बन डाइ ऑक्साइड बढ़ जाता है और नमी की कमी होती है जिसके कारण मोटे तने और छोटी टोपी वाली खुंभी निकलती है । इस समय हवा के संवातन और पुन: संचरण के द्वारा तापक्रम 240 से.ग्रे. से नीचे रखा जाता है ।

यदि खाद का तापक्रम 160 से.ग्रे. से नीचे आ जाता है तो दूसरे फ्लश की तुडाई में देरी होती है और बहुत अधिक संख्या में पिन हेड बनते हैं । प्रत्येक तुड़ाई के पश्चात् पानी का छिडकाव किया जाता है । बहुत कम आपेक्षित आर्द्रता रहने पर फसल कक्ष में दो-तीन बार छिडकाव करके नमी बनाये रखते हैं ।

(ix) खुंभी की तुड़ाई:

खुंभी जब पूरी तरह बढ जाती है तभी तोडना चाहिये । इस समय खुंभी के गिल एक झिल्ली (वेल) से ढके रहते है बटन (अवस्था) । इस अवस्था में टोपी का आकार 3-5 से.मी. होता है । झिल्ली टूट जाती है तब बीजाणु बनने के कारण गिल्स का रंग भूरा हो जाता है । बटन अवस्था की खुंभी ही ज्यादा उपयोग में लायी जाती है । खुली खुंभी निम्न कोटि की मानी जाती है और इसका शेल्फ जीवन भी कम रहता है ।

खुंभी को अगले और पहली उंगली के बीच हल्के से पकड़कर पहले घडी कि दिशा में फिर विपरीत दिशा में घुमाकर धीरे से बाहर खींचकर तोड लेते हैं । खुंभी के तने के निचले सिरे पर लटके कवकजाल के धागे और मिट्‌टी के कण को तेज चाकू से काटकर अलग कर लेते हैं और ऊपरी भाग खाने के काम में लेते हैं ।

खुंभी को चुनने की दूसरी विधि में तेज चाकू की सहायता से मिट्‌टी के पास से खुंभी को काट लेते हैं मिट्‌टी में बचे खुंभी के अवशेष भाग को सावधानी पूर्वक निकाल लेते हैं और इन छिद्रों को ताजी निर्जीवीकृत केसिंग मिट्टी से भर देते हैं । खुंभी तोडने के बाद ही पानी का छिडकाव करना चाहिये ।

खुंभी को तोडने के पश्चात् परिपक्वता आती है जिसके कारण सूखा द्रव्य तने से टोपी में जाता रहता है जिसके कारण टोपी खुल जाती है, झिल्ली (वीलम) टूट जाती है, गिल्स बढकर गहरे रग के हो जाते है और बीजाणु झडने लगते हैं ।

इन परिवर्तन के साथ-साथ खुंभी का वजन कम होने लगता है । तोडते समय इसमें 90 प्रतिशत तक नमी रहती है । कवकजाल के बीच उपस्थित जगह से नमी खुंभी के अंदर से निकलकर बाहरी वायु में आ जाती है । पानी की कमी के कारण खुंभी की स्फीति (टर्जीटिडी) कम होने लगती है, टोपी और तना सिकुडकर कडे हो जाते है जिससे खुंभी ताजी दिखाई नहीं पडती ।

इस कारण से भी खुंभी के वजन में कमी आती है । खुंभी को 150 से.ग्रे. पर 96 घण्टे तक भंडार करने से इसके प्रारंभिक भार में 25 प्रतिशत तक कमी हो जाती है । खुंभी की तुडाई रोज होती है । छोटे पिन हेड्‌स अगले दिन परिपक्व और तोड़ने योग्य हो जाते हैं । दूसरे नये पिन हेड्‌स आते हैं और परिपक्व होते हैं । यह क्रिया ब्रेक आने तक चलती रहती है ।

यह समय या अंतराल पलश अंतराल कहलाता है । इसके बाद खुंभी की दूसरी फसल आती है । दो पलश के बीच 8-10 दिन का अंतराल रहता है । इस प्रकार 8-10 सप्ताह में खुंभी के 5-6 फ्लश उपलब्ध हो जाते हैं । प्रथम या द्वितीय फ्लश से सबसे अधिक उपज मिलती है । उसके बाद उपज धीरे-धीरे अन्य फ्लशों में कम होती जाती है ।