ककड़ी कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate cucumber.
खीरावर्गीय सब्जियों में खीरे का प्रमुख स्थान है । खीरे को जायद एवं खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जाता है । आमतौर पर खीरे के फलों को कच्चे अथवा सलाद के रूप में उपयोग करते हैं । खीरे को मुख्य रूप से रायता सलाद, अचार के निर्माण हेतु प्रयोग किया जाता है । इसके अलावा चाट के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है ।
छोटे फलों से अचार बनाया जाता है जबकि इसके बड़े फलों का प्रयोग सलाद एवं सब्जी के लिए किया जाता है । विदेशों में खीरे की भारी माँग बनी रहती है, अतः इसका निर्यात भी किया जाता है, परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा अर्जित होती है । खीरा कददूवर्गीय सब्जियों के अंर्तगत आता है ।
खीरे में पीले रंग के फूल आते हैं । इसका पौधा उभयलिंगी होता है अर्थात एक ही पौधे पर नर एवं मादा दोनों प्रकार के फूल आते हैं । इसके फल मोटे लम्बे बेलनाकार और कई रंग रूप एवं आकार के होते हैं । कुछ किस्मों के फल 25-40 से॰मी॰ लम्बे एवं 8 सेमी॰ व्यास वाले होते हैं । इस प्रकार के फलो का छिलका मोटा होता है ।
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फलों का रंग सफेदी लिये हुए हल्के हरे रंग से लेकर गाढ़ा हरे रंग का होता है । ये फल पकने पर पीला और बाद में भूरे रंग का हो जाता है । खीरे को उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में उगाया जाता है । इसके फलों में 0.4 प्रतिशत प्रोटीन, 2.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट 1.5 मि॰ग्रा॰ लोहा एवं 2 मि॰ग्रा॰ विटामिन सी, 100 ग्राम खाद्यांश भाग में पाए जाते हैं ।
खीरे के फल कब्ज पीलिया एवं अपच आदि बीमारियों से प्रभावित व्यक्तियों के लिए अच्छे होते हैं । इसके फलों का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों में भी किया जाता है । भारत में इसका व्यावसायिक उत्पादन राजस्थान पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र एवं उत्तर, पूर्वी राज्यों में किया जाता है ।
भूमि:
खीरे को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जाता है, इसके सफल उत्पादन हेतु उचित जल निकास वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है । इसकी अगेती फसल लेने के लिए हल्की मृदाएँ जो जल्दी गर्म हो जाती हैं, उत्तम रहती हैं । भूमि में प्रचुर मात्रा में जैविक खाद अथवा पदार्थ प्रचुर मात्रा में होना चाहिए ।
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भूमि का पी॰एच॰ मान 55 से 68 तक होना उत्तम माना गया है । इससे अधिक पी॰एच॰ मान वाली मृदा में खीरा उगाना सम्भव नहीं हैं । नदियों के किनारों की भूमि में इसकी अगेती फसल उत्पादन करना अधिक लाभदायक है ।
खेत की तैयारी:
खीरे की खेती करने के लिए खेत की प्रथम जुताई मिट्टी पलट हल से करनी चाहिए । इसके बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरों से खेत की जुलाई करनी चाहिए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएँ ताकि खेत की भूमि समतल एवं भुरभुरी हो जाए ।
खाद एवं उर्वरक:
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खीरे की खेती सफलतापूर्वक करने हेतु खेत की जुताई के समय 100 क्विंटल कम्पोस्ट भूमि में डालते हैं एवं साथ में 100 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 50 किलोग्राम पोटाश को प्रति हैक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में डालते हैं ।
थालो में दी गई खाद के अलावा 100 किलोग्राम यूरिया टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालते हैं इसको खुर्पी की सहायता से मिट्टी में मिला देते हैं और बाद में सिंचाई कर देते हैं । इस प्रकार से खेत की तैयारी कर लेनी चाहिए ।
जलवायु:
खीरा विश्व के उष्णकटिबंधीय एवं उपउष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाता है । खीरे की फसल अल्पकालीन होती है इसका कालचक्र 60-80 दिनों का होता है । यह पाले को सहन करने में असमर्थ होती है । विशेषकर जाडों में इसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । अधिक वर्षा, आर्द्रता एवं बादल रहने से कीट एवं रोगों का प्रभाव अधिक पड़ता है ।
खीरे की फसल प्रकाश एवं तापमान के कम या ज्यादा होने से बहुत अधिक प्रभावित होती है । प्रकाश एवं तापमान में वृद्धि एवं लम्बे प्रकाश अवधि होने से नर फूल का निर्माण अधिक होता है एवं मादा फूलों में बहुत हद तक कमी आ जाती है, जिसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । खीरे में एक लम्बी मूसला जड़ प्रणाली पाई जाती है ।
प्रजातियाँ:
खीरे की देशी एवं विदेशी किस्में उगाई जाती हैं ।
कुछ प्रमुख किस्मों का वर्णन निम्नलिखित है:
1. जापनीज लाँग ग्रीन:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र, कटराई द्वारा अनुमेदित किया गया था । यह एक अगेती किस्म है, जो मात्र 45 दिनों में फल देना शुरू कर देती है । इसके फलों की लम्बाई 30-40 सेमी. तक होती है एवं फल लम्बे तथा हरे रग के होते हैं । गूदे का रंग हल्का हरा एवं कुरकुरा होता हैं यह किस्म पर्वतीय क्षेत्रों एवं निचली पहाड़ियों, ठंडे प्रदेशों हेतु उपयुक्त होती है ।
2. प्याइनसेट:
यह किस्म बाहर से लाई गयी है जिसको चालेस्टान नामक स्थान से विकसित किया गया है । इस किस्म के फल 20-25 से॰मी॰ लम्बे एवं गहरे हरे रंग के होते हैं । यह किस्म मृदुरोमिल असिता, चूर्णी फफूँदी, श्यामवर्ण एवं कोणीय पत्ती धब्बा की प्रतिरोधी किस्म है । फलों का आकार बेलनाकार होता है । जिन पर छोटे-छोटे सफेद रोंये पाए जाते हैं ।
3. स्ट्रेट एट:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का क्षेत्रीय केन्द्र कटराई द्वारा अनुमोदित किया गया है । इस किस्म के फल 2530 से॰मी॰ लम्बे, मोटे, बेलनाकार एवं हरे रंग के होते हैं । जिस पर सफेद पट्टियाँ होती हैं । यह अगेती किस्म हैं ।
4. पूसा संयोग:
इस किस्म को जापानी कागा ओमेगा पुशी नावी एवं इतालवी किस्म ग्रीन लैंड अफनेपल्स के संकरण से विकसित किया गया है । इस किस्म के फल 22-30 से॰मी॰ लम्बे, बेलनाकार एवं हरे रंग के होते हैं । जिन पर पीले रंग के काँटे पाए जाते हैं । इस किस्म का गूदा कुरकुरा होता है । यह एक संकर किस्म है जो 50 दिनों में तैयार हो जाती है । इसकी उत्पादन क्षमता 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
5. शीतल:
इस किस्म का विकास कोंकण कृषि विश्वविधालय, डपोली (महाराष्ट्र) द्वारा किया गया है । इसके फल हल्के हरे रंग के, बेलनाकार एवं मध्यम आकार के होते हैं । इसके प्रत्येक फल का औसत वजन 300-350 ग्राम तक होता है । इस किस्म को अधिक वर्षा वाले पहाड़ी क्षेत्रों में खरीफ के मौसम में आसानी से उगाते हैं ।
6. पूसा उदय:
इस किस्म के फल हल्के हरे करीब 13-15 से॰मी॰ लम्बे एवं चिकने होते हैं । इस किस्म को बसंत एवं वर्षा ऋतु दोनों में उगाया जा सकता है । इसकी उपज प्याइनसेट से 35 प्रतिशत ज्यादा होती है । इसकी उत्पादन क्षमता 10.5-11 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
7. बालम खीरा:
यह किस्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश की प्रचलित किस्म है । इसके कच्चे फलों के छिलके का रंग हरा होता है जो कि पकने पर हल्के भूरे रंग में बदल जाते हैं । इस किस्म के फल छोटे एवं मुलायम होते हैं ।
8. स्वर्ण शीतल:
इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केन्द्र राँची द्वारा किया गया है । इस किस्म के फल मध्यम आकार के हरे एवं ठोस होते हैं । यह किस्म चूर्णी फफूँदी एवं श्याम वर्ण प्रतिरोधी किस्म है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
9. स्वर्ण पूर्णा:
इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केन्द्र रांची (झारखंड) द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म के फल मध्यम आकार के ठोस एवं हरे रंग के होते हैं । यह किस्म चूर्णी फफूँदी के प्रति सहनशील होती है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 300-350 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
10. प्रिया:
इस किस्म को इंडो-अमेरिकन हाइब्रिड सीड कंपनी ‘बंगलौर’ कर्नाटक द्वारा विकसित किया गया है । यह अधिक उपज देने वाली संकर किस्म है ।
11. हिमांगनी:`
यह एक अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है जो जल्दी ही विकसित हो जाती है ।
12. खीरा-75:
इस किस्म का विकास डा॰ यशवंत सिंह परमार उद्यान एवं वानिकी, विश्वविधालय सोलन द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म के फल हल्के हरे रंग के बेलनाकार चिकने एवं 10-15 से॰मी॰ लम्बे फल होते है । इसकी पहली तुडाई, बुआई के 75 दिन बाद करते है । यह किस्म पर्वतीय क्षेत्रों में मध्यम ऊँचाई वाली जगह के लिए उपर्युक्त है ।
13. खीरा-90:
इस किस्म को डा. यशवंत सिंह परमार उघान एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन द्वारा विकसित किया गया है । इसके फल चिकने, हल्के हरे रंग के, बेलनाकार एवं 15-20 से॰मी॰ लम्बे होते हैं । इसकी पहली तुडाई बुआई के 90 दिन बाद कर सकते हैं । यह किस्म पर्वतीय क्षेत्रों में मध्यम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में उगाने हेतु उपयुक्त है ।
भूमि की तैयारी:
प्रथम जुताई मिट्टी पलट हल से करना चाहिए तत्पश्चात 2-3 बार कल्टीवेटर अथवा हैरो से जुताई करना चाहिए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं ताकि खेत की मिट्टी भुरभुरी एवं समतल हो सके ।
खाद एवं उर्वरक:
खीरे की सफल खेती के लिए 100 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 50 किलोग्राम पोटाश की प्रति हैक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है । जिसकी पूर्ति के लिए अन्तिम जुताई के समय 100 क्विंटल कंपोस्ट खेत में मिलाते है एवं थालों में दी गई खाद के अलावा 100 किलोग्राम यूरिया टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालते हैं एवं खुर्पी की सहायता से भूमि में मिला देते हैं और बाद में सिंचाई कर देनी चाहिए ।
बीज दर:
खीरे में बीज की मात्रा 2.5-4.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बोआई करते हैं । खीरे को फफूँदी जनित रोगों से बचाने हेतु बीजों को बोने से पहले एग्रोसन जी.एन. (2.5 ग्राम किलो बीज) से उपचरित करके बोआई करनी चाहिए बीज में जल्दी अंकुरण के लिए पानी अथवा 0.1 प्रतिशत बाविस्टिन के घोल में कुछ घंटों तक भिगोकर रखना चाहिए ।
बोआई का समय:
दक्षिणी एवं मध्य भारत में खीरे की बोआई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है । उत्तरी पूर्वी भारत के मैदानी क्षेत्रों में खीरे की बोआई मार्च से नवम्बर माह में की जाती है । जब मौसम अपेक्षाकृत गर्म हो जाता है । पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल-मई में उगायी जाती है । उत्तर भारत में खीरा ग्रीष्म एवं वर्षा मौसम में फरवरी-मार्च एवं जून-जुलाई के महीने में क्रमशः उगाया जाता है । वर्षाकालीन फसल में अधिक उत्पादन मिलता है ।
बोआई की विधि:
भारत वर्ष में खीरे के उत्पादन की प्रमुख तीन विधियाँ अपनाई जाती हैं जैसे-कुंड, क्यारी एवं गड्ढे में उगाते हैं । ये गहरे, उथले एवं ढेर के रूप में हो सकते हैं । कुंड में बोआई करने हेतु 1.0-1.5 मीटर की दूरी पर कुंडों का निर्माण किया जाता है । इस विधि में बीजों को कुंड की ऊपरी सतह पर बोया जाता है ।
जिसमें लताओं को भूमि पर फैलने दिया जाता है । यह विधि बसंत/ग्रीष्मकालीन फसल के लिए उत्तम रहती है, क्योंकि इस विधि में कम पानी की जरूरत पड़ती है । एक स्थान पर 5-6 बीज प्रत्येक गड्डे में बोये जाते हैं और बाद में दो पौधों को बढने के लिए छोड़ दिया जाता है ।
सिंचाई:
खीरे की सिंचाई अनेक बातों पर निर्भर करती है, जिनमें प्रमुख रूप से भूमि के प्रकार, जलवायु, फसल उगाने का मौसम प्रमुख है । ग्रीष्मकालीन फसल में खरीफ फसल की तुलना में अधिक सिंचाइयों की आवश्यकता होती है । सामान्यतः ग्रीष्मकाल फसल के लिए अंकुरित बीज बोए जाते हैं अतः उनके जमाव तक खेत में पर्याप्त नमी का रहना अत्यंत आवश्यक है ।
आमतौर पर गड्डों क्यारियों एवं मेडों पर बीज बोने से पहले 1-2 हल्की सिंचाई करनी चाहिए । दूसरी सिंचाई 4-5 दिन बाद करते हैं । भूमि पर किसी प्रकार की पपड़ी नहीं होनी चाहिए । ज्यादा एवं कम सिचाई दोनों ही परिस्थितियों में खीरे में नुकसान होने की संभावना बनी रहती है । खीरे की सिंचाई करने के लिए टपक विधि एक प्रभावशाली विधि है । इस विधि द्वारा 40 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है एवं इस विधि द्वारा मृदा लवणता में कमी की जा सकती है ।
पादप नियंत्रण का प्रयोग:
खीरे की फसल में नेप्थेलीन एसिटिक एसिड 100 पी.पी.एम., ट्राइआयडो बेन्जोइक एसिड एवं एथ्रेल को 2-3 पत्तियों वाली अवस्था में छिड़काव करने से खीरे में मादा फूल बढ़ जाते हैं एवं विकसित हो जाते हैं । खीरे के फल 10-15 दिन पहले तैयार हो जाते हैं एवं उपज भी अधिक प्राप्त होने लगती है ।
खरपतवार नियंत्रण:
खीरे की फसल के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार उग जाते हैं जो कि पौधों के विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं । अतः इनकी रोकथाम के लिए आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए । ऐसा करने से लताओं की वृद्धि एवं बढ़वार अच्छा होता है फलतः उपज भी अच्छी होती है ।
फलों की तोड़ाई:
बोआई के लगभग 50 दिन बाद फलों की तोड़ाई प्रारम्भ कर देते हैं । फलों को पूर्ण वृद्धि प्राप्त करने से पहले ही तोड़ लेना चाहिए । खीरे की तोड़ाई 2-3 दिनों के अन्तर पर करनी चाहिए । खीरे की कुल अवधि में 10-15 बार तुडाइयाँ की जाती हैं ।
उपज:
खीरे की उपज अनेक बातों पर निर्भर करती है जिनमें प्रमुख रूप से भूमि की उर्वरा शक्ति उगाई जाने वाली किस्मों के प्रकार एवं फसल की देखभाल इत्यादि प्रमुख कारण हैं । ग्रीष्म/बसंत कालीन फसल की तुलना में वर्षाकालीन फसल से अधिक उपज मिलती है । देशी किस्मों की तुलना में संकर किस्मों से उत्पादन ज्यादा होता है । प्रति हैक्टेयर 150-200 क्विंटल फल प्राप्त हो जाते हैं ।
प्रमुख कीट:
एफिड, फल मक्खी, पत्ती खाने वाली सूँडी, लालभृगु कीट इत्यादि कीट प्रमुख हैं ।
रोग:
आर्द्र विगलन, मृदुरोमिल आसिता, फल विगलन, चूर्णी फफूँदी एवं श्यामवर्ण इत्यादि प्रमुख रोग खीरे में पाए जाते हैं ।