कोंहड़ा फसल खेती के लिए जलवायु आवश्यकताएं | Read this article in Hindi to learn about the climate requirements for cucurbit crop cultivation.
कद्दूवर्गीय सब्जियों में पौधों की वृद्धि एवं फलो के बनने, उनके आकार, उत्पादन एवं पकने के समय पर विभिन्न प्रकार के जलवायु संबंधी कारकों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । यह प्रभाव न केवल विभिन्न सब्जियों में भिन्न-भिन्न होता है ।
ऐसे विभिन्न महत्वपूर्ण कारक निम्न प्रकार हैं:
1. प्रकाश:
विभिन्न फसलों में प्रकाश संबंधी अनेक प्रकार के प्रभाव विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये हैं, जिनसे इस महत्वपूर्ण कारक के विभिन्न प्रभाव स्पष्ट हुए हैं । डेनीलसन (1944) ने खीरे के पौधों को 8, 12 एवं 16 घंटे प्रकाश दिया । उन्होंने बताया कि सबसे अधिक लम्बे पौधे 8 घंटा प्रकाश देने पर पाये गये उसके बाद 12 घंटे प्रकाश देने पर एवं सबसे छोटे पौधे 16 घंटे प्रकाश देने पर पाये गये ।
ADVERTISEMENTS:
लेकिन फूल एवं फल सबसे पहले 16 घंटे प्रकाश पाने वाले पौधों में बने, उसके बाद 12 घंटे प्रकाश देने पर एवं सबसे बाद में 8 घंटा प्रकाश पाने वाले पौधों में बने । प्रयोग के आधार पर पता चलता है कि कद्दू, तरबूज, ककड़ी एवं खरबूजे के पौधों की सबसे अच्छी वृद्धि 12 घंटे से 14 घंटे प्रकाश पाने वाले पौधों में होती है तथा उत्तम प्रकार के फल 14 घंटे प्रकाश पाने पर मिलते हैं ।
परवल एवं कुंदरू में 14 घंटे से अधिक प्रकाश मिलने पर न केवल फल आकार में छोटे हो जाते हैं बल्कि पौधों की वृद्धि भी अवरुद्ध हो जाती है । फूट के फल 12 घंटे प्रकाश मिलने पर सबसे उत्तम प्राप्त होते हैं । लौकी को 12 घंटे से अधिक प्रकाश दिए जाने पर पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा फलो का आकार भी घटना शुरू हो जाता है ।
16 घंटे प्रकाश देने पर लौकी में फल आना बद हो जाता है । प्रकाश की तीव्रता का भी फलों के बनने तथा उनकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है । ग्रीष्म ऋतु में विशेषकर बलुई भूमि में (मई के आखिर व जून में) खरबूज, तरबूज एवं ककड़ी के पौधों पर फल बहुत कम बनते हैं तथा उन पर सन-स्केल्ड नामक रोग का आक्रमण होता है जिससे उनकी बाहरी परत सफेद हो जाती है और वे खाने योग्य नहीं रहते हैं । ऐसा प्रकाश की अधिकता के कारण होता है ।
2. तापमान:
कद्दूवर्गीय पौधों की वृद्धि, फलों के बनने एवं उनकी वृद्धि पर तापमान का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । गीगोरी (1928) ने खीरा के पौधों को क्रमशः 12.2०, 20.6०, 23.5०, 28.5०, 32० से तापमान का उपचार दिया जिसमें उन्होंने पाया कि पौधों की सबसे अच्छी वृद्धि 23.5० से. तापमान पर होती है ।
ADVERTISEMENTS:
तापमान बढ़ने पर पत्तियों का आकार घट गया एवं फलो की संख्या प्रति पौधा भी कम हुई । साथ ही फल आकार में छोटे एवं भार में भी कम रह गए । इसी तरह से 23.5० से. कम तापमान पर भी पौधों की वृद्धि सही ढंग से नहीं हो सकी एवं फलो की संख्या में भारी कमी आई ।
आमतौर पर यह देखने में आया कि उत्तर भारत में यदि अक्टूबर-नवम्बर में लौकी, तोरई, करेला एवं ककड़ी खरबूज एवं तरबूज बो दिए जायें तो उनके पौधों में फरवरी तक वृद्धि नहीं होती है । फरवरी के बाद जब तापमान बढ़ता है तो पौधों में वृद्धि तेज हो जाती है एवं उन पर फूल एवं फल भी बनने लगते हैं ।
परीक्षणों से यह भी ज्ञात हुआ है कि पौधों एक विशेष उपयुक्त तापमान पर ही जमीन से पानी एवं पोषक तत्वों की अधिकतम मात्रा ग्रहण करता है । न्यूनतम तथा अधिकतम तापमान पौधे के पोषक तत्व व पानी ग्रहण करने की क्षमता को घटा देते हैं ।
फूल बनना, खिलना एवं परागण की क्रिया भी एक विशेष तापमान पर ही सम्पन्न होती है, जिसके आधार पर कद्दूवर्गीय फसलों को तीन समूहों में बाटा गया है:
ADVERTISEMENTS:
(i) कद्दू, चप्पन कद्दू – परागण के लिए न्यूनतम तापमान 8.8० – 10० से. और इष्टतम तापमान 10०-13.2० से.
(ii) तरबूज, खीरा, हारकिनस – परागण के लिए न्यूनतम तापमान 14.6० -15.5० से. तथा इष्टतम तापमान 18.2०-22.2० से.
(iii) खरबूज – परागण के लिए न्यूनतम तापमान 18.2० से. एवं इष्टतम तापमान 20०-22.2० से.
पौधों में नर एवं मादा फूलों का अनुपात भी तापमान पर निर्भर करता है । जब तापमान, इष्टतम से कम होता है तो नर फूलों की संख्या अधिक होती है । इष्टतम से अधिक तापमान होने पर मादा फूलो की संख्या अधिक होती है । पौधों की कई अन्य महत्वपूर्ण क्रियायें भी तापमान पर निर्भर करती है ।
जब तापमान इष्टतम से अधिक होता है तो फल बनने के तुरत बाद झड़ना शुरू हो जाते हैं । अधिक तापमान के इस कुप्रभाव से बचने के लिए शीघ्र सिचाई करनी लाभकारी रहती है । अधिक तापमान होने पर फल छोटी अवस्था में ही पक जाते हैं अथवा कड़े हो जाते हैं, जिनसे बाजार में उनकी अच्छी कीमत नहीं मिलती है ।
जमीन का तापमान भी पौधों की वृद्धि एवं जल की अवशोषण क्षमता को प्रभावित करता है । अधिकांश कद्दूवर्गीय फसलों में 22.2० से. का भूमि तापमान उनकी उत्तम वृद्धि के लिए आवश्यक है । इस तापमान पर जड़े पूर्ण रूप से क्रियाशील रहती हैं एवं अधिक मात्रा में पानी एवं पोषक तत्वों को ग्रहण करती हैं । भूमि का तापमान अधिक होने पर उसको ठंडे पानी से सिंचाई करके कम किया जा सकता है । पलवार डालकर भी भूमि के तापमान को कम किया जा सकता है ।
3. आर्दता अथवा नमी:
कद्दूवर्गीय सब्जियों की वृद्धि फलों के बनने एवं कीटों व रोगों पर आर्द्रता अथवा नमी का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । जब तापमान एवं आर्द्रता दोनों की ही अधिकता होती है, तब फलो एवं पौधों पर तरह तरह के रोगों का आक्रमण होता है और कभी-कभी तो पूरी फसल ही नष्ट हो जाती है ।
यदि जून में वर्षा हो जाए तो तापमान अधिक होने तथा आर्द्रता बढ़ जाने से ककड़ी, खरबूज एवं तरबूज की फसलों पर चूर्णिल फफूँदी रोग का भारी प्रकोप हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप लता सूख जाती हैं एवं फल नष्ट हो जाते हैं ।
आर्द्रता की कमी होने पर फल बनने के तुरत बाद झड़ जाते हैं, उनका आकार छोटा रह जाता है तथा ये छोटी अवस्था में ही पक जाते हैं । आर्द्रता अधिक होने पर फलों में सदन शुरू हो जाती है और वो काले रंग के हो जाते हैं जिससे ऐसे फल क्रय-विक्रय के योग्य नहीं रह पाते हैं ।
4. वर्षा:
ग्रीष्मकालीन कद्दू वर्गीय सब्जियों पर वर्षा का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है । यदि दो-तीन दिन तक लगातार बादल छाये रहे या वर्षा हो जाए तो इन सब्जियाँ में रोगों का गंभीर आक्रमण हो जाता है और फल सड़ना शुरू कर देते हैं । लेकिन जो सब्जियाँ खरीफ में उगाई जाती है, उन पर वर्षा का प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता है ।
इन सब्जियों के लिए कम अन्तर से हल्की वर्षा होना हितकर होता है । लगातार वर्षा होना और सब्जियों में जल निकास की समुचित व्यवस्था का नहीं होना सब्जी की खेती के लिए अत्यंत हानिकारक होता है । ज्यादा वर्षा होने से करेले के फलों में फल-मक्खी का एवं लौकी व तोरई में एपीलेक्ना बीटल कीट का भारी प्रकोप होता है । लगातार वर्षा होने पर लताओं में फूल तो आते हैं लेकिन फल नहीं बनते हैं । कभी-कभी फल बनने के बाद काले होकर नष्ट हो जाते हैं ।