सीताफल कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate custard apple.
कद्दूवर्गीय सब्जियों में सीताफल का प्रमुख स्थान है । इसको काशीफल, लाल कुम्हड़ा, मीठा कद्दू, लाल फूल वाला कद्दू, कुष्मांड आदि नामों से भी जाना जाता है । भारत में सीताफल की खेती प्राचीनकाल से की जा रही है । उत्तर भारत में विवाह आदि शुभ अवसरों पर इसकी सब्जी बनाने की प्रथा है ।
इसके पके फलों को सामान्य तापमान पर बहुत अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है । इसकी कोमल पत्तियों एवं फूलों से भी सब्जी बनाई जाती है । इसके बीज चीनी में मिलाकर फीताकृमि से पीड़ित व्यक्तियों को खिलाया जाता है ।
इसके पके हुए फलों से मीठा हलुवा बनाया जाता है । इसके फूलों को बेसन में मिलाकर पकौड़े बनाए जाते है । इसके फलों का गूदा पुल्टिस के रूप में फोड़ों पर बाँधा जाता है । हाल के दिनों में इसके बीजों से कीटनाशक तैयार किया गया है ।
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इस कीटनाशक में क्यामोसीन-2 नामक रसायन पाया जाता है । जो कीटों के लिए जहरीला होता है । जिसका प्रयोग भिण्डी पर जैसिड चने की सूँडी, कपास की घेंटी को खाने वाली सूँडी इत्यादि के नियंत्रण के लिए किया जा सकता है । सीताफल की पत्तियाँ भी जहरीली होती हैं उनसे रस निकालकर कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ।
इस सब्जी की विशेषता यह है कि इनके एक या दो पौधों से इतनी अधिक फलतः मिल जाती है कि पूरे परिवार के लिए पर्याप्त होती है । इस सब्जी की एक विशेषता है कि उनकी तुड़ाई के बाद कई दिनों तक कमरे के सामान्य तापमान पर बिना नुकसान के रख सकते हैं ।
पोषण की दृष्टि से भी विटामिन ए, शर्करा एवं अन्य खनिज तत्वों का बहुत अच्छा स्रोत है । आयुर्वेद की दृष्टि से भी इसकी सब्जी दस्तावर एवं पाचक होती है । इसके नियमित सेवन से मूत्र विकारों में लाभ होता है ।
प्रजातियाँ:
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अर्का चन्दन:
इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म का जीवनकाल 115-130 दिनों तक होता है । इसके फल आकार में गोल तथा दोनों सिरों पर थोड़े दबे होते हैं । फल मध्यम आकार का 30 किलोग्राम औसत वजन के होते हैं । इसके फलों का गूदा मीठा ठोस एवं अत्यंत मधुर गन्ध वाला होता है । प्रत्येक बेल में 2-3 फल आते हैं । विटामिन ए से भरपूर होता है । इसकी उत्पादन क्षमता 325 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
अर्का सूर्यमुखी:
इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा किया गया है । इस किस्म के पौधों का जीवनकाल 112 दिनों का होता है । इसके फल छोटे, गोल, चपटे, नारंगी रंग के होते हैं । औसतन प्रति फल एक किलोग्राम तक होता है ।
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इस फल का गूदा सुगंधित एवं अधिक विटामिन सी वाला होता है । प्रत्येक लता में 8 से 10 फल लगते हैं । यह किस्म फल मक्खी के लिए अत्यंत प्रतिरोधी होती है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 335 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
पूसा विश्वास:
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किया गया है । इसकी लतायें काफी बढ़ने वाली तथा पत्तियाँ गहरे रंग की होती हैं । जिन पर कहीं-कहीं सफेद रग के धब्बे होते हैं । फल हल्के भूरे रंग के और गोल आकार के होते हैं । फल का गदा मोटा एवं पीले रंग का होता है । प्रत्येक फल का औसत वजन 5 किलोग्राम तक होता है । इसके फल को पकने में 120 दिन का समय लगता है ।
पूसा विकास:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । इसके फल छोटे आकार के, गोल चपटे एवं पीले गूदे वाले होते है । प्रत्येक फल का वजन 25 किलोग्राम तक होता है । यह किस्म गृह वाटिका एवं व्यावसायिक उत्पादन हेतु उपयुक्त है । इसकी उत्पादन क्षमता 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
अम्बीली:
यह एक फैलने वाली किस्म है । इसके फल चपटे गोल और हरे रंग के होते हैं । प्रत्येक फल का औसत भार 6 किलो तक होता है । गूदा 4-3 से॰मी॰ मोटा होता है । प्रत्येक पौधे से 15-18 किलोग्राम तक उपज मिलती है ।
पूसा हाइब्रिड-1:
इस संकर किस्म के फल गोल एवं चपटे होते हैं । यह सीताफल की पहली संकर किस्म है । इसकी लता 4 मीटर तक लम्बाई में होती है । प्रत्येक फल का वजन 4-5 किलो तक होता है । इस किस्म के फल 120 दिन में लगने शुरू हो जाते हों । इसकी उत्पादन क्षमता 450 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है । इस संकर किस्म को पंजाब, केरल एवं दिल्ली में उगाने के लिए संस्तुति की गई है ।
कोयम्बटूर-1:
इस किस्म को तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित किया गया है । इसके फल आकार में बड़े होते हैं एवं इसका वजन 7-8 किलोग्राम तक होता है । इसके फल आकार में गोल होते हैं एवं एक बेल पर 8-9 फल लगते हैं । फल पकने में 175 दिनों का समय लगता है ।
कोयम्बटूर-2:
इस किस्म को तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित किया गया है । इसके फल छोटे आकार के होते है एवं प्रत्येक फल का वजन 20 किलोग्राम से ज्यादा नहीं होता है । प्रत्येक बेल पर 10-12 फल लगते हैं । इसका फल हरे रंग का होता है ।
अर्ली येलो प्रोलिफिक:
यह एक अगेती किस्म है । जिसके पौधे झाड़ीनुमा होते हैं । इसके फल मध्यम आकार के एवं हल्के पीले रग के होते हैं एवं गुदा मुलायम होता है । इसमें बुआई के 55-60 दिन बाद फल मिलना आरम्भ हो जाता है ।
पैटीपैन:
इस किस्म के पौधे छोटे एवं झाड़ीनुमा होते हैं । इस किस्म के फल चपटे, सफेद रंग के एवं आकर्षक होते हैं । यह एक अगेती किस्म है ।
आस्ट्रेलियन ग्रीन:
यह एक अगेती किस्म है । इसके पौधे छोटे झाडीनुमा होते हैं । इस किस्म के फल हरे रंग के होते हैं, जिन पर सफेद धारियां होती हैं । इसके फल बहुत मुलायम होते हैं । इसके फल बुआई के 55-60 दिन बाद मिलना शुरू हो जाते हैं ।
पंजाब चप्पन कद्दू:
इस किस्म के फल आकर्षक हरे रग के एवं प्यालीनुमा होते हैं । इसका गूदा सफेद मक्खन के रंग का होता है जो पकने के बाद चमकदार पीले से नारंगी रंग का हो जाता है । इसमें बोआई के 50-55 दिनों बाद फल तोड़ने योग्य हो जाते हैं ।
पूसा अलंकार:
यह एक जल्दी तैयार होने वाली संकर किस्म है । इसकी बेलों पर एक समान हरे रग के फल लगते हैं । फलों के ऊपर हल्की सी धारियां होती हैं । गूदा मुलायम होता है । इसमें बोआई के 45-50 दिन बाद फल लगना शुरू हो जाता है ।
एन॰डी॰पी॰के॰-24:
इस किस्म को उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली इत्यादि में उगाने की संस्तुति की गई है ।
आजाद कददू:
उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में उगाने की संस्तुति की गई है ।
नरेन्द्र अग्रिम:
इस किस्म को उत्तर प्रदेश में उगाने की संस्तुति की गई है ।
सी॰एम॰ 350:
इस किस्म को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल इत्यादि में उगाने की संस्तुति की गई है ।
जलवायु:
सीताफल, चप्पन कद्दू एवं विलायती कदर के लिए गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है, फिर भी इस पर पाले का प्रभाव कम पड़ता है । वैसे कम गर्म एवं अधिक नमी वाले क्षेत्रों में ये फल अधिक फलते हैं । इसके सफल उत्पादन के लिए 18-21० डिग्री॰सेंटी॰ग्रेड तापमान सर्वोत्तम पाया गया है । इसकी उचित बढवार एवं विकास के लिए 4 माह पाले रहित मौसम रहना अनिवार्य है ।
भूमि एवं भूमि की तैयारी:
इन फसलों के लिए विभिन्न प्रकार की मृदाओं की आवश्यकता होती है, परंतु उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट से दोमट भूमि आदर्श मानी जाती है । इसको थोड़ी अम्लीय मृदा में भी उगाया जा सकता है । भूमि का पी॰एच॰ मान अनुकूलतम माना जाता है । भूमि की तैयारी लौकी की तरह से ही करते हैं । एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिए एवं इसके बाद 3-4 बार हैरी चलाकर खेत को तैयार करते हैं । खेतों में पाटा चलाकर खेत को समतल बना लेते हैं ।
खाद एवं उर्वरक:
इन फसलों की 500-550 क्विंटल तक उपज लेने हेतु खेत तैयार करते समय 500-600 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, फिर 50 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 60 किलो फॉस्फेट देना लाभकारी सिद्ध होगा । पौधों की प्रारम्भिक बढ़वार के समय 0.9-1.37 क्विंटल अमोनियम सल्फेट पौधों के चारों तरफ घेरे में देना लाभदायक सिद्ध होगा, अतः किसान भाइयों को यह तकनीक अवश्य अपनानी चाहिए ।
बोआई का समय:
उपर्युक्त सब्जियों को उत्तरी भारत में जायद (जनवरी से मार्च) एवं वर्षाकालीन (जून-जुलाई) में बोआई करते हैं । उत्तरी भारत में इसको अधिकतर आलू की फसल में अक्टूबर-नवम्बर में बोते हैं । इस समय बोआई करने से सर्दियों में लतायें सुसुप्ता अवस्था में बनी रहती हैं और जैसे ही बसंत ऋतु का आगमन होता है इनमें वृद्धि होना आरम्भ हो जाता है । जबकि दक्षिण भारत में इसको अगस्त एवं दिसम्बर-जनवरी में बोते हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बोआई अप्रैल-मई में करते हैं । नदियों के किनारे इसकी बोआई दिसम्बर में की जाती है ।
बीज दर:
इन सब्जियों को प्रति हैक्टेयर क्षेत्र में बोआई करने के लिए 5-6 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है ।
बोआई की विधि:
ग्रीष्मकालीन बोआई हेतु इनके गुड्ढों को 25 मीटर की दूरी पर बनी पंक्तियों को एक-दूसरे से 75 से॰मी॰ की दूरी पर बनाया जाता है । वर्षाकालीन बोआई करने हेतु 15 मीटर की दूरी पर और पौधे की आपस में दूरी 1.0-1.25 मीटर की दूरी पर लगाए जाते हैं । एक स्थान पर 3-4 बीज 2.5-5.0 से॰मी॰ की गहराई में लगाए जाने चाहिए । बीज अंकुरित होने पर केवल स्वस्थ पौधों को छोड्कर शेष पौधों को उखाड़ देना चाहिए ।
सिंचाई:
इन सब्जियों की सिंचाई इस बात पर निर्भर करती है कि उसको किन मौसमों में उगाया जा रहा है । ग्रीष्मकालीन फसल में 5-6 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए । वर्षाकालीन फसलों में आमतौर पर सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है ।
यदि बहुत समय तक वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देनी चाहिए । जब इन फसलों को आलू या अन्य फसलों के साथ भेड़ों पर उगाया जाता है तब मुख्य फसल में दी जाने वाली सिंचाई इसके लिये पर्याप्त होती है ।
खरपतवार नियंत्रण:
इन सब्जियों से अच्छी उपज लेने के लिए खेत में खरपतवारों को नहीं पनपने देना चाहिए । ग्रीष्मकालीन फसल में 2-3 बार एवं वर्षाकालीन फसल में 3-4 बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है । खुर्पी या फावड़े की सहायता से निराई-गुड़ाई का कार्य किया जा सकता है । इससे खरपतावारी पर नियंत्रण हो जाएगा साथ ही भूमि में वायु का समुचित संचार होने लगता है परिणामस्वरूप पौधों का विकास एवं बढ़वार दोनों भली प्रकार से होता है ।
फलों की तोड़ाई:
इन सब्जियों के फलों की तोड़ाई बाजार की माँग पर निर्भर करती है । सामान्यतया बीज बोने के 75-180 दिनों के बाद हरे फल तोड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं । ये सभी फल अधिकतर पकने पर ही तोड़े जाते है । क्योंकि कच्चे फलों को ज्यादा समय तक भण्डारित नहीं किया जा सकता है ।
उपज-इन सब्जियों की उपज अनेक बातों पर निर्भर करती है जिसमें प्रमुख रूप से भूमि की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली सब्जियों की किस्मों का चयन इत्यादि प्रमुख हैं । औसतन 250-400 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन मिल जाता है ।
भंडारण:
इन सब्जियों के पके हुए फलो को 4-5 माह तक भंडारित किया जा सकता है । भंडारण हेतु 10-150 सेंटी.ग्रेड तापमान एवं 75 प्रतिशत आद्रता होनी आवश्यक है ।
रोग नियंत्रण:
अन्य कद्दूवर्गीय सब्जियों के समान रोग एवं नियंत्रण पाया जाता है ।
कीट नियंत्रण:
अन्य कद्दूवर्गीय सब्जियों के समान कीट एवं नियंत्रण पाए जाते हैं ।