मेथी कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate fenugreek (methi).

मेथी का वानस्पतिक नाम ”ट्राइगोनेला फोनमग्रकम” और ट्राइगोनेला कार्निकुलाटा है । यह लेग्यूमीनेसी फेमिली की फसल है । सामान्य मेथी ”ट्राइगोनेला फोनम” है तथा दूसरी किस्म ”आइगोनेला कार्निकुलाटा” है जो कसूरी या चम्पा मेथी भी कहलाती है । इन दोनों प्रकार की मेथी के पौधों की बनावट वृद्धि तथा उपज में कुछ भिन्नता होती है ।

उत्पादन क्षेत्र:
भारत के अतिरिक्त अर्जेन्टाइना, मिस्र, दक्षिणी फ्रांस, मोरक्को तथा लेबनान इसके प्रमुख उत्पादक देश हैं । राजस्थान मेथी-उत्पादन का प्रमुख राज्य है । भारत वर्ष में कुल क्षेत्रफल का लगभग 85 प्रतिशत भाग राजस्थान में है ।

राजस्थान के अतिरिक्त मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र तथा पंजाब में इसकी खेती होती है । उत्तरी भारत में इसकी व्यावसायिक स्तर पर खेती होती है । कोटा, सीकर, चित्तौड़गढ़, जयपुर, नागौर, झुंझुनूं, पाली जिलों में इसकी खेती सर्वाधिक होती है । अब कोटा, बारां, झालावाड़ जिलों में भी इसकी कृषि बहुतायत से की जाने लगी है ।

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जलवायु:

मेथी ठंडे मौसम की फसल है । इसमें शीत लहर व पाला सहन करने की अपेक्षाकृत अधिक शक्ति होती है ।

भूमि:

प्रायः मेथी को सभी प्रकार की भूमि में उत्पादित किया जा सकता है परन्तु दोमट मृदा इसके लिए उपयुक्त रहती है । भारी मृदा तथा जलोढ़ मृदा वाली भूमि में मेथी सफलता पूर्वक पैदा की जा सकती है ।

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उपयोगिता व महत्व:

मेथी का पत्तियों तथा दाने दोनों ही रूप में उपयोग किया जाता है । पत्तियों का उपयोग हरी सब्जी के रूप में किया जाता है । हरी पत्तियों में विटामिन ‘ए’ तथा ‘सी’ और खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं । मेथी के बीजों के औद्योगिक उपयोग के अन्तर्गत इनके विभिन्न एल्केलाइट तैयार किए जाते हैं ।

इनको रंग रोगन बनाने का मसाला बनाने के काम में लिया जाता है । इसकी फसल के निर्यात से विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है । खाड़ी देशों और जापान को काफी मात्रा में इसका निर्यात होता है । पिछले 8-10 वर्षों में इसके निर्यात में लगातार वृद्धि हो रही है ।

मेथी की उपयुक्त किस्में:

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राजस्थान में एस.के.एन. कृषि महाविद्यालय, जोबनेर द्वारा परीक्षित कुछ उन्नत किस्में शोध एवं परीक्षण के पश्चात्र निकाली गयी है ।

आर.एम.टी. 1:

सर्वप्रथम विकसित की गई किस्म है जिसे ‘प्रभा’ नाम दिया गया है । यह प्रदेश भर के लिए उपयुक्त है । सभी स्थानीय किस्मों की तुलना में यह अधिक उपज देती हे । इसके दाने चमकीले, आकर्षक व पीले रंग के होते हैं । जड़ गलन व छाछया रोग के प्रति कुछ प्रतिरोधकता रखती है । यह 140-150 दिन में पककर तैयार हो जाती है ।

आर.एम.टी. 143:

यह किस्म चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, झालावाड़ एवं जोधपुर जिलों के भारी मृदा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है इसके दाने मोटे व पीले रंग के होते हैं । यह रोग प्रतिरोधी किस्म है । इसकी समयावधि 140-150 दिन व औसत उपज 16 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन सीड स्पाइसेज तबीजी (अजमेर) द्वारा विकसित किस्में:

एन.आर.सी.एस.एस-एम.एस.1:

इस किस्म के पौधे मध्यम ऊँचाई के चौड़ी पत्तियों वाले कम तीखापन लिए हुए होते है । फलियाँ मोटे आकार की, बीज कड़े व कम स्वाद वाले होते हैं । एक फली में 17-20 बीज होते हैं । फसल लगभग 137 दिन में परिपक्व हो जाती है । औसत उपज 20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक प्राप्त होती है । उपज हरी पत्तियों के रूप में तीन कटिंग में ली जाती है ।

एन.आर.सी.एस.एस-ए.एम.2:

इस किस्म के पौधे मध्यम ऊँचाई के, पत्तियाँ चौड़ी तथा कम तीखापन लिए होती हैं । छोटे-छोटे बीज स्वाद में कड़े होते हैं । फसल लगभग 138 दिन में परिपक्व हो जाती है । हरी पत्तियाँ तीन बार तक कटिंग कर प्राप्त की जाती है ।

अन्य किस्में:

1. पूसा अलीबर्चिग:

यह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली द्वारा विकसित किस्म है । इसके पौधे तेजी से बढ़ते हैं । पत्तियाँ हरी व गुच्छों के रूप में होती हैं । फूल सफेद व बीज बड़े आकार के होते हैं । यह 156 दिन समयावधि वाली किस्म है ।

2. राजेन्द्र क्रान्ति:

यह राजेन्द्र कृमि विश्वविद्यालय, बिहार द्वारा विकसित की गई किस्म है । इसके पौधे मध्यम ऊँचाई के झाड़ीनुमा होते हैं । यह अधिक पैदावार देने वाली शुद्ध व मिश्रित दोनों रूपों में बोयी जाती है । यह चिकनी दोमट मृदा व कम वर्षा क्षेत्रों के लिए अच्छी किस्म है । यह 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । यह पत्ती धब्बारोग के प्रति प्रतिरोधी है । दानों की उपज 12-14 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है ।

मेथी की खेती के विभिन्न चरण:

i. खेती हेतु आवश्यक तैयारी एवं बुवाई:

मेथी की अच्छी फसल लेने के लिए खेत की उपयुक्त तैयारी आवश्यक है । इसके अन्तर्गत मृदा पलटने वाले हल से एक जुताई तथा देशी हल से 3-4 जुताई करके मृदा को नरम एवं भुरभुरी बना लेनी चाहिये । इसमें पाटा चलाकर नमी का संरक्षण करना चाहिए ।

मेथी की 30 से.मी. की दूरी पर कतारों में बुवाई अच्छी रहती है । इससे निराई-गुड़ाई में सुविधा रहती है तथा पौधों की समान बढ़वार होती है । अन्तिम जुताई के समय दीमक व भूमिगत-कीट-नियन्त्रण हेतु प्रति हैक्टेयर 25 किलोग्राम एण्डोसल्फान, 4 प्रतिशत क्यूनालफास, 1.5 प्रतिशत चूर्ण भूमि में मिला देना चाहिए ।

मेथी की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है । बुवाई प्रायः कतारों में 20-25 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर की दर से की जाती है । बीज की गहराई लगभग 5 से.मी. रखनी चाहिये । बुवाई से पूर्व ट्राईकोडर्मा 4 से 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना लाभदायक रहता है ।

ii. बुवाई व बीज की मात्रा:

मेथी की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है । बुवाई 30 से.मी. दूर कतारों में करते हैं । इसमें प्रति हैक्टेयर 20-25 किलोग्राम बीज काम में लिया जाता है । बीज की गहराई 5 से.मी. तक रखनी चाहिए । बुवाई से पूर्व ट्राईकोडर्मा 4 से 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना लाभदायक रहता है ।

iii. खाद एवं उर्वरक:

अच्छी फसल के लिए एक माह पूर्व 10-15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद डालकर खेत तैयार करना चाहिए । इसके अतिरिक्त 40 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर मृदा में अच्छी तरह मिला देना चाहिए । आवश्यकता पड़ने पर 5 किलोग्राम जस्ता एवं 10 किलोग्राम गंधक चूर्ण प्रति हैक्टेयर देना लाभकारी रहता है ।

iv. सिंचाई:

इसकी फसल के अंकुरण के लिए खेत में पर्याप्त नमी रहनी चाहिये । नमी कम होने पर पहली सिंचाई बुवाई के तत्काल बाद करनी चाहिए । सामान्यतः 7 से 10 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ।

v. निराई-गुड़ाई:

फसल की आरम्भिक अवस्था में खेत में खरपतवारों को हटाकर निराई-गुडाई से पौधों की वृद्धि अच्छी होती है । बुवाई के 30 दिन बाद फसल की निराई-गुड़ाई कर सघन पौधों की छटनी कर देनी चाहिए । रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरिलिन 0.75 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर या पेण्डामिथोलिन 0.75 सक्रिय तत्व अर्थात् 2.5 मिली. प्रति लीटर पानी में, इनमें से किसी एक को 750 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के दूसरे दिन छिड़काव कर भूमि में मिला देना चाहिए । छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए ।

vi. कटाई व उपज:

मेथी की फसल बुवाई के 25-30 दिन पत्तियाँ तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है । प्रायः 11 से 15 दिनों के अन्तर पर कटिंग की जा सकती है । एक बार कटिंग करने के बाद पौधों को फली आने के लिए छोड़ दिया जाता है ।

जब फसल की पत्तियाँ झड़ने लगती है और पौधे पीले रंग के हो जाए तो पौधों को उखाड़कर छोटी-छोटी ढेरियों में रखा जाता है । सूखने के बाद फलियों को कूट कर दाने अलग कर लिए जाते हैं । साफ दानों को पूर्ण रूप से सुखाने के बाद बोरियों में भरा जाता है । एक हैक्टेयर में 15 क्विंटल तक दानों की औसत उपज प्राप्त की जा सकती है ।

मेथी का फसलोत्तर प्रबंध:

a. कटाई:

फसल की बुवाई के लगभग तीन माह बाद पत्तियों व फलियों का रंग पीला पड़ जाने पर कटाई शुरू कर देनी चाहिए ।

b. सुखाना:

बीजों को धूप में सुखाकर नमी को कम किया जा सकता है लेकिन मौसम की निर्भरता कम करने के लिए यांत्रिक विधि से भी सुखाया जा सकता है । सूखे हुए बीजों में से अन्य पदार्थ हटाने के लिए साफ पानी से धोकर ग्रेडिंग करनी चाहिए ।

c. भण्डारण:

मेथी को ठीक ढंग से भण्डारित नहीं करने पर लम्बे समय बाद इसका रंग व खुशबू खराब होना शुरू हो जाते हैं अतः इसे प्लास्टिक लगे बोरों में भरकर सुरक्षित स्थान पर भण्डारित करना चाहिए । सामान्यतः इसको टाट के बोरों में भरकर रखा जाता है लेकिन व्यापारी स्तर पर इसे कोल्ड स्टोरेज में भी रखा जा सकता है । कभी-कभी भण्डारण से पूर्व गंधक के धुएं से भी उपचारित किया जाता है । इससे भण्डारण क्षमता लगभग दो महीनों तक बढ़ जाती है ।

d. पैकिंग:

सामान्यतया मेथी टाट के बोरों में बिना प्लास्टिक की लाइनिंग के भरा जाता है लेकिन प्लास्टिक लगे टाट के बोरों में भरने से बीज नमी के सम्पर्क में आने से बच जाते हैं जिससे परिवहन व भण्डारण के दौरान कीट-व्याधि का प्रकोप नहीं होता है ।

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