लहसुन कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate garlic (lahsun).

प्याज कुल के सदस्य लहसुन का वानस्पतिक नाम ‘एलियम सेटाइवम’ है । लहसुन एलिएसी कुल का सदस्य है । लहसुन मसाले की एक महत्वपूर्ण फसल है । लहसुन का उपयोग सम्पूर्ण विश्व में मसालों एवं विभिन्न दवाइयों के निर्माण में किया जाता है ।

यह देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करता है । लहसुन का निर्यात काफी मात्रा में किया जाता है । राजस्थान में इसकी खेती सभी जगह होती है, परन्तु चित्तौड़गढ़, बारां, जोधपुर, झालावाड़, झुंझुनूं जिलों में प्रमुख रूप से की जाती है ।

उपयोगिता:

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लहसुन एक नकदी फसल है, जिसका मसालों में उपयोग किया जाता है । इसका उपयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है । सब्जी में इसका उपयोग सुगन्ध एवं स्वाद के लिए किया जाता है । इसका उपयोग चटनी, आचार एवं केचअप में किया जाता है । लहसुन का उपयोग सब्जी में मसाले के रूप में या चटनी के रूप में होता है । यह न केवल गुणकारी है अपितु यह सब्जी को जायकेदार बनाता है । लहसुन में विटामिन ए, बी एवं सी, फास्फोरस तथा अन्य प्रमुख पौष्टिक तत्व पाये जाते हैं । इसमें औषधीय गुण होते हैं । लहसुन में पाया जाने वाला ”एल्लीसिन” आदमी के खून में जमे ”कोलेस्ट्रोल” को कम करने की क्षैमता रखता है । लहसुन हृदय रोग में बड़ा गुणकारी है ।

जलवायु:

लहसुन की खेती सभी मौसम में की जा सकती है । इसकी खेती के लिए अत्यधिक गर्म या अत्यधिक ठंडा मौसम अनुकूल नहीं रहता है । गर्म एवं बड़े दिन पौधों की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव डालते हैं अतः वृद्धिकाल में ठंडी एवं नम जलवायु चाहिये ।

परन्तु कन्द बनने के लिए लम्बे व तुलनात्मक दृष्टि से शुष्क गर्म दिन फायदेमंद हैं । इसकी अच्छी खेती के लिए 29.76 से 35.23 डिग्री सेल्शियस तापमान 10 घण्टे का दिन और 70 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता सर्वोतम है । शल्क-कंद बनते समय पानी की अधिकता इसको नुकसान पहुँचाती है ।

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भूमि:

लहसुन की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है, लेकिन उपजाऊ दोमट या मध्यम काली दोमट मृदा जिसमें जीवांश पदार्थ तथा पोटाश प्रचुर मात्रा में हो, अच्छी रहती है । सुचारु जल-निकास की व्यवस्था वाली मृदाएँ खेती के लिए अच्छी होती है ।

लहसुन की प्रमुख उन्नत किस्में:

अब तक अधिकतर किसान स्थानिक किस्में ही बोते आ रहे हैं । स्थानीय नाम के आधार पर किस्मों का नाम दिया जाता है । गाँठों के आधार पर एक गाँठ वाली एवं अनेक गाँठों वाली किस्मों के नाम से इन्हें जाना जाता है तथा नाम के आधार पर जामनगर लहसुन, नासिक लहसुन, पूना लहसुन आदि के नाम से पुकारा जाता है ।

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रंग की दृष्टि से सफेद एवं लाल लहसुन होता है । लाल तीखा होता है तथा औषधीय उपयोग में आता है तथा सफेद खाने के उपयोग में आता है । छोटी गाँठ वाली-तहीली टाइप 56-4, तथा बड़ी गाँठों वाली – रजाली गद्दी, फावरी, सोलन किस्में प्रचलित हैं ।

एग्रीफाउन्ड व्हाइड (जी-41):

यह 1989 में सामूहिक चयन विधि द्वारा विकसित की गयी किस्म है । इसमें कलियाँ बड़ी तथा संख्या में 20-15 होती है । इसके कंद (गांठें) बिल्कुल सफेद ठोस (गठीली) एवं मध्यम आकार की 3.5 से 4.5 सेन्टीमीटर वाले होते हैं । छीलने पर कलियाँ पीलापन लिए हुए सफेद होती हैं । इसकी उपज 130 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है यह किस्म 160-165 दिन में तैयार होती है । यह किस्म पर्पल ब्लाच एवं स्टेनफालियम झुलसा रोग के प्रति सहिष्णु है ।

यमुना सफेद (जी-1):

यह किस्म राष्ट्रीय बागवानी एवं अनुसंधान प्रतिष्ठान द्वारा विकसित किस्म है जो सम्पूर्ण भारत में उगाने हेतु सिफारिश की गयी है । इसके कंद गठीले व बाहरी त्वचा का रंग सफेद चांदी की चमक लिये होता है । कंद का औसत व्यास 4 से 4.5 से.मी. एवं एक गाँठ में 26 से 30 कलियों की चमक लिये होती है । यह किस्म 150-160 दिन में पकती है तथा परपल क्लोज एवं स्टेमफाईलीयम बीमारी के प्रति सहनशील है ।

यमुना सफेद 2 (जी-50):

इस किस्म का अनुमोदन वर्ष 1993 में हुआ है । यह सभी प्रान्तों के लिए अनुमोदित है । इसकी गांठें सफेद, ठोस, गठीले, आकर्षक 3.5 से 4 सेन्टीमीटर व्यास वाले होते हैं । एक गाँठ में 20-30 कलियाँ होती हैं । यह 160-165 दिन की अवधि वाली किस्म है । कलियाँ छीलने पर मलाई जैसी सफेद एवं उत्पादन 150-200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होता है ।

जी-282:

इसकी पत्तियाँ अधिक चौड़ी, कंद बड़े, गठीले एवं कलियाँ सफेद एवं मोटी होती है । कंदों का व्यास 5-6 सेन्टीमीटर होता है । औसत उपज 175 से 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होने के कारण यह किस्म प्रसिद्ध है ।

टाइप (56-4):

यह किस्म आकार में छोटी एवं सफेद रंग की होती है । प्रत्येक गाँठ में 25-30 कलियाँ होती हैं । औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है ।

खेत की तैयारी:

लहसुन की जड़ें भूमि की ऊपरी सतह से 15-20 सेन्टीमीटर की गहराई तक ही सीमित रहती है अतः खेत की 3-4 जुताई करके 15-20 सेन्टीमीटर की गहराई तक भूमि को भुरभुरा बना लेना चाहिये ।

बुवाई का समय:

इसकी रोपाई का समय अकबर से नवम्बर है । सर्वोत्तम समय अक्टूबर द्वितीय सप्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है । अगर बुवाई उपयुक्त समय अवधि के बाद की जाती है तो फसल की उपज में कमी आ जाती है अतः फसल की सही समय पर बुवाई करना आवश्यक है ।

बीज की बुवाई का तरीका व बीज की मात्रा:

लहसुन की बुवाई कलियाँ (क्लोव्स) से सीधे खेत में की जाती है । बुवाई के पूर्व इन कलियों को गाँठ से अलग कर लिया जाता है । प्रत्येक गांठ में 18 से 25 कलियाँ होती हैं । बुवाई के लिए 8-10 मिलीमीटर की रोगरहित सुगठित और बड़े आकार की कलियों का चुनाव करें ।

गाँठ के बीच की सीधी, चपटी कलियों का उपयोग नहीं करें । इन्हें छाँटकर अलग कर देना चाहिये । बुवाई के लिए 5-7 क्विंटल लहसुन की कलियाँ आकार अनुसार पर्याप्त होती है । बोते समय इसके लिए कतार से कतार की दूरी 15 सेन्टीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेन्टीमीटर रखनी चाहिये ।

बुवाई 2 से 4-5 सेन्टीमीटर गहरी करें । लहसुन की बुवाई तीन प्रकार से की जाती है, ये हें-छिटकवाँ विधि, डिबलिंग विधि तथा कुंडों में लगाना । इनमें से कुंडों में लहसून की बुवाई करना सबसे अच्छा होता है । बुवाई के लिए खेत में हल से 15- 15 सेन्टीमीटर की दूरी पर 4-5 सेन्टीमीटर गहरी कूँड बना लेना चाहिए ।

कूँड में कलियों की बुवाई के बाद दताली से कुंडों को समतल करके क्यारियाँ बना लेना चाहिए । बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये । नमी कम हो तो बुवाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देना चाहिए ।

बीजोपचार:

बुवाई के पूर्व कलियों को बावस्टीन या डायथेन एम. 45 ग्राम प्रति लीटर पानी में बने घोल में 30 मिनट तक डुबोकर रखना उपयुक्त रहता है ।

 

खाद एवं उर्वरक:

मृदा-परीक्षण की सिफारिशानुसार खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना चाहिये । सामान्य आवश्यकता को देखते हुए खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर के हिसाब से देनी चाहिये । इसके अलावा 160 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलो फास्फोरस व 100 किलो पोटाश कलियाँ लगाने से पहले देना चाहिए । 60 किलोग्राम नत्रजन बुवाई के एक माह बाद देनी चाहिये ।

सिंचाई:

लहसुन एक उथली बड़ों वाली फसल है जिसकी अधिकांश जड़ें भूमि की ऊपरी सतह (15 सेन्टीमीटर) पर फैली रहती है, जहाँ से अपनी आवश्यकतानुसार पानी व अन्य पौषक तत्त्वों को ग्रहण करती है अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि प्रत्येक सिंचाई में मृदा के इस भाग में नमी नहीं रहें ।

लहसुन की बुवाई के तुरन्त बाद सिचाई अवश्य करनी चाहिये, ताकि कलियों का अंकुरण अच्छा हो सके । दूसरी सिचाई एक सप्ताह में करनी चाहिये । इसके बाद 8-10 दिन के अन्तर या मृदा के प्रकार एवं मौसम के अनुसार सिंचाई करनी चाहिये । पौधों की आरम्भिक अवस्था में नमी की कमी नहीं रहनी चाहिये अन्यथा पौधों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।

लहसुन की कोशिकाएँ बड़ी एवं पतली होने के कारण इसके पौधों का जल-उत्सर्जन अधिक होता है अतः पौधों से हुई जल की कमी की पूर्ति के लिए जल्दी-जल्दी सिंचाई करने की आवश्यकता होती है । इसी प्रकार जिस समय गांठें बन रही है उस समय सिंचाई जल्दी-जल्दी करें अन्यथा गांठें छोटी रह जायेंगी, परन्तु लहसुन के कंद पक जाने के बाद लगातार सिंचाई करने पर उसकी जड़ों एवं कंदों के छिलके सड़ जाते हैं, साथ ही उनमें अंकुरण भी हो सकता है जिसके कारण कंदों का रंग खराब हो जाता है और उनका बाजार मूल्य कम मिलता है ।

इसी प्रकार लहसुन की फसल में लम्बे समय तक पानी की कमी रहने पर यदि बाद में सिंचाई की जाती है तब कैद फटकर बिखर जाते हैं अतः लहसुन में सिंचाई समय पर एवं आवश्यकतानुसार ही करना लाभप्रद होता है ।

निराई-गुड़ाई:

प्रथम गुड़ाई 25-30 दिन बाद तथा इसके एक माह बाद अर्थात् बुवाई के 55-60 दिन बाद (पाँचवीं, छठी सिंचाई के बाद) निराई अवश्य करनी चाहिये । इससे नमी संरक्षण होगा तथा कंदों के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा । इसके बाद निराई-गुड़ाई नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह फसल काफी सघन बोयी जाती है, अतः इसके तने कट जाते हैं ।

रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए अंकुरण से पूर्व प्रति हैक्टेयर एक किलोग्राम पेडीमिथालिन (3.3 किलोग्राम स्टॉम्प 34) अथवा 150 ग्राम आक्सीफ्ल्यूरफेन (600 ग्राम घोल) छिड़कने के पश्चात् 40 दिन बाद फसल में एक बार गुड़ाई करनी चाहिये ।

कीट एवं रोग नियंत्रण:

इसका प्रकोप तापमान में वृद्धि के साथ बढ़ता है तथा मार्च में अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगता है । यह कीट पत्तियों का रस चूसता है जिससे पत्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं तथा उन पर सफेद चकते पड़ जाते हैं । नियंत्रण हेतु फसल पर मैलाथियान 50 ई.सी. या मिथाइल डिमेटोन 1.0 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव किया जाता है ।

तुलासिता एवं गंगमारी रोग:

इस रोग के प्रकोप से पत्तियां पीली पड जाती हैं और रोग पत्तियों की निचली सतह पर दिखाई देता है । इसके नियन्त्रण हेतु फसल पर जाइनेब या मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है । घोल में ट्रिटोन या सेंडोविट या साधारण गोंद जरूर मिलाना चाहिये इससे दवा ज्यादा प्रभावी होती है ।

कटाई एवं सुखाई:

सामान्य लहसुन की गांठें 160-170 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । अक्टूबर-नवम्बर में बोयी गयी फसल की खुदाई मार्च-अप्रैल में की जाती है । कंदों की उपयुक्त अवस्था होने पर पत्तियाँ पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं । पकने पर कंदों को सावधानी से खुदाई करके पत्तियों सहित निकाल कर 3-4 दिन छाया में सुखा लेना चाहिये ।

आमतौर पर भण्डारण के समय लहसुन की कलियों के सड़ने, सूखने व सिकुड़ने से भारी नुकसान होता है अतः कंदों का भण्डारण करें । भण्डारगह नमीरहित एवं हवादार होने चाहिये । भण्डारगह में कंदों का भण्डार नहीं लगाना चाहिये । कंदों को पत्तियों द्वारा बांधकर ऊपर बँधी रस्सियों से लटका दें या इन्हें बाँस की टोकरियों में रखें ।

उपज:

लहसुन की कंदों की उपज लगभग 100-125 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक हो जाती है ।

भण्डारण:

अच्छी तरह क्योरिंग किए हुए लहसुन के कन्द हवादार सामान्य कमरों या भण्डार गृहों में रखे जाते हैं । कन्दीं की भण्डारण क्षमता 0 से 16 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 66-75 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर इन्हें कोल्ड स्टोरेज में भण्डारित करके बढ़ाई जा सकती है ।

इनको 9 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 65 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर 28 से 36 सप्ताह तक आसानी से भण्डारित किया जा सकता है । बोरिक एसिड से उपचारित करने पर भण्डारण में होने वाली बीमारियों में लहसुन को बचाया जा सकता है ।

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