अदरक कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate ginger (adrak).
अदरक जिन्जीबरेसी कुल का पौधा है । इसका वानस्पतिक नाम ”जिन्जीबर ऑफीसिनेल” है । प्राचीन काल से इसके तीखे चटपटे स्वादिष्ट स्वाद के कारण इसका उपयोग होता आ रहा है । इसका उपयोग घरेलू मसालों व औषधियों के रूप में प्रचुर मात्रा में किया जाता है ।
शुष्क रूप में इसका उपयोग गांठ के रूप में किया जाता है । प्राचीन आयुर्वेद चिकित्सक चरक द्वारा रचित चरक संहिता में इसे बलबर्द्धक कहा गया है । अदरक की फसल वर्ष भर चलने वाली औषधीय फसल है । अदरक का उत्पत्ति- स्थान दक्षिण-पूर्व एशिया माना जाता है ।
विश्व के कुल अदरक उत्पादन का 30 प्रतिशत उत्पादन भारत में होता है । भारत में अदरक की खेती मुख्यतः केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, सिक्किम, मेघालय, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में होती है । प्रदेश के उदयपुर, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ व झालावाड जिलों में इसकी पैदावार होती है ।
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उपयोगिता:
अदरक का उपयोग प्रमुख तथा मसालों के रूप में पाचन शक्ति बढ़ाने व उदर रोगों में किया जाता है । देश में इसका उपयोग प्रमुखत: सब्जी सलाद मुरब्बा अचार, चूर्ण दवाओं आदि में किया जाता रहा है । इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 0.5 से 2.3 प्रतिशत ओलियोरेजिन की मात्रा 4.9 से 10.5 प्रतिशत एवं रेशे की मात्रा 3.4 से 6.4 प्रतिशत होती है । अदरक की महक इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा पर निर्भर करती है । इसमें चरपरापन जिन्जीरोल, शागाओल नामक पदार्थों के कारण होता है । अदरक में उपलब्ध जिंजारिन के कारण पेय पदार्थें को सुगन्धित किया जाता है ।
जलवायु:
अदरक के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है । वर्षा की अधिकता व सिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती आसानी से होती है । बोते समय वर्षा का होना इसके अंकुरण, पौधे के जमाव तथा वृद्धि के लिए अच्छी रहती है । उचित बढ़वार के लिए अर्द्ध-छायादार क्षेत्र उपयुक्त रहता है । इसकी खेती बगीचों में, बैगन, टमाटर, शकरकन्द के साथ की जा सकती है । पकने के समय शुष्क व कम तापमान इसकी गुणवता बढ़ाता है । पाला इस फसल के लिए हानिकारक है ।
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भूमि:
इसके लिए अच्छे जल निकास वाली अधिक जीवांशयुक्त दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है । बलुई दोमट भूमि जिसमें पर्याप्त जीवांश व सिंचाई का पूरा प्रबन्ध हो, अच्छी मानी जाती है । अधिक जैविक पदार्थ इसकी पैदावार बढ़ाने में सहायक है ।
खेत की तैयारी, खाद व उर्वरक:
इसकी खेती के लिए भूमि की गहरी व अच्छी जुताई होनी चाहिए । पलटने वाले हल से मृदा को भुरभुरी कर लेनी चाहिए । भूमि में 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से गोबर की खाद खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए । इसके अतिरिक्त 75 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए ।
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कृषि प्रक्रिया:
अदरक की बुवाई के लिए अप्रैल से जून तक का समय उपयुक्त माना गया है । बुवाई सही समय पर करनी आवश्यक है ताकि सर्दी आने से पहले फसल बढ़ने के लिए पर्याप्त समय मिल सके । बुवाई के लिए डेढ से दो इँच आकार के अंकुरित गांठों वाले लगभग 25 ग्राम के टुकड़े उपयुक्त रहते हैं । इसकी बुवाई के लिए 18 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है बीज बोने से पूर्व राईजोक्स को 0.2 प्रतिशत बावस्टीन के घोल से उपचारित करना चाहिए ।
बुवाई पंक्तियों में 30 से 45 से.मी. दूरी पर बनी डोलियों पर 20-20 से.मी. की दूरी पर 3-4 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए । बुवाई के बाद पर्याप्त नमी के लिए दुसरी पत्तियाँ, पुआल, भूरना या कम्पोस्ट खाद को जमीन की ऊपरी सतह पर बिछा देना चाहिए ।
उन्नत किस्में:
राजस्थान में स्थानीय किस्मों की पैदावार की जाती है । इनमें कच्चे अदरक के लिए रियोडिजिनेरो, चाइना, वायनाड तथा नदिया प्रमुख उन्नत किस्में हैं । अदरक परियोजना कृषि अनुसंधान केन्द्र, अम्बाला, व्याल वैनाद, केरल में अधिक उपज देने वाली, कम रेशे, अधिक वाष्पशील तेल व ओलियोरेजिन वाली किस्मों का अध्ययन किया जाता है ।
अखिल भारतीय समन्वित मसाला परियोजना द्वारा सोंठ की निम्न किस्में विकसित की गई हैं:
1. सुप्रभा:
इसकी फसल की समयावधि 229 दिन तथा पैदावार 3 से 4 टन प्रति हैक्टेयर होती है । इस किस्म में 8.9 प्रतिशत ओतियोरेजिन, वाष्पशील तेल 1.9 प्रतिशत, रेशे 4.4 प्रतिशत तथा सूखी अदरक सोंठ 205 प्रतिशत होती है ।
2. सुरुचि:
इस फसल की समयावधि 218 दिन है । इसकी पैदावार 2.72 टन प्रति हैक्टेयर होती है । इस किस्म में ओतियोरेजिन 10 प्रतिशत, वाष्पशील तेल 2 प्रतिशत, रेशा 3.9 प्रतिशत तथा सूखी अदरक या सोंठ 235 प्रतिशत होती है ।
सिंचाई:
बुवाई के समय अंकुरण से सिंचाई प्रकंदों के लिए हानिकारक होती है । अंकुरण के बाद शीघ्र सिंचाई करनी चाहिए । इसके पश्चात् वर्षा होने तक 10-10 दिन अन्तराल पर सिंचाई कर देनी चाहिए । अदरक की फसल को पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है अतः वर्षा के मौसम के बाद जल्दी-जल्दी सिंचाई करनी चाहिए ।
निराई-गुड़ाई:
प्रकन्दीं का अंकुरण 15 से 25 दिन में हो जाता है अतः आवश्यकतानुसार खेत में निरा-गुड़ाई करनी चाहिए तथा जब पौधे 20 से.मी. ऊँचे हो जाए तो उन पर मृदा चढ़ानी चाहिए ।
खुदाई व उपज:
अदरक की फसल पूर्ण रूप से पकने में 8 माह लगते हैं लेकिन अदरक 8-10 माह तक खोदा जा सकता है । सोंठ बनाने के लिए फसल को पूर्ण रूप से पकने पर ही खोदते हैं । नवम्बर माह में पत्तियाँ पीली पड़ जाने पर इसकी खुदाई की जाती है । खोदने के बाद इनमें लगी हुई मृदा को झाडू लिया जाता है । इन्हें पानी में धोकर एक दिन धूप में सुखाया जाता है । इन्हें हरी अदरक के रूप में बेचा जाता है या उनसे सूखी अदरक अर्थात् सोंठ बना ली जाती है ।
बीज संग्रहण:
बीज संग्रहण के लिए अदरक को पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर कन्दों को इस प्रकार रखते हैं कि उसमें हवा आती रहे । इसके पश्चात् उसे लकड़ी के तख्ते से ढककर मृदा और गोबर से पोत दिया जाता है । कुछ स्थानों पर हवादार कमरों में बालू के ढेरों के ऊपर प्रकन्दीं को सुरक्षित रखा जाता है । कभी-कभी फसल का ऊपरी हिस्सा काटकर प्रकन्द जमीन में छोड़ दिए जाते हैं और कटी हुई पत्तियों से ढक दिये जाते हैं ।
प्रमुख कीट एवं रोग तथा उनका नियन्त्रण:
1. तना छेदक:
इस कीट द्वारा प्रकंद में छेद करके उसे नुकसान पहुंचाता है । इस कीट के नियन्त्रण के लिए फोरेट 10 जी 10 किलोग्राम या कार्बोफ्यूसन 3 जी. 33 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से जमीन में डालना चाहिए ।
2. कद गलन:
इस रोग में पत्तियों के ऊपरी भाग पीले पड़ जाते हैं, धीरे-धीरे पूरी पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा प्रकन्द गल भी सकता है । इसके नियन्त्रण के लिए प्रकंद को लगाने के पूर्व मेंमोजेब घोल 2.5 ग्राम प्रति लीटर या 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से बावस्टीन का जलीय घोल में डुबोकर लगाना चाहिए ।
राजस्थान में अदरक खरीफ की सिंचित फसल है । परन्तु वर्ष 2001-04 में इसका औसत फसली क्षेत्र 192 हैक्टेयर है अतः इसका स्थानिक वितरक अवस्थिति निर्धारक द्वारा निर्धारित किया गया है ।