कुँदरू कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate ivy gourd.
कद्दूवर्गीय सब्जियों में यह एकमात्र सब्जी है, जिसका प्रयोग सब्जी, सलाद एवं अचार के लिए किया जाता । यह एक बहुवर्षीय पौधा है । जिसको यदि एक बार लगा दिया जाए तो यह कई वर्ष तक उपज देती रहती है । इसके फल परवल की तरह होते हैं ।
कुँदरू अप्रैल से नवम्बर तक लगातार मिलते रहते हैं । इसके फल से मिठाई चटनी एवं कलौंजी बनाने के प्रयोग में लाते हैं । इसके फल पककर लाल हो जाते हैं और पके फल खाने में खट्टे और मीठे होते हैं । कुँदरू के फलों में पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं ।
विभिन्न घटकों की मात्रा निम्नलिखित है- इसमें जल 90 प्रतिशत, प्रोटीन 6 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 1.7% कैल्शियम 2.7 प्रतिशत, फॉस्फोरस 3.8 प्रतिशत एवं खनिज लवण 0.1 प्रतिशत । आयुर्वेदिक ग्रंथों में वर्णन के अनुसार कुँदरू रुचिकर अग्निप्रदीपक, तिक्त गरम तथा वात, कफ और पित्तनाशक है ।
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इसका फल कफ, कुष्ठ, खाँसी प्रमेह, श्वास, ज्वर, लाल स्राव, अरुचि, बात एवं हृदय-शूल में लाभ पहुँचाता है । इसकी पत्तियों के प्रयोग से कृमिक्षय, हिचकी व बवासीर में लाभ मिलता है, इसकी पत्तियाँ रुचिकारक, वीर्यवर्धक होती हैं, इसके फल छोटे गोलाकर अथवा दोनों सिरों पर नुकीले एवं लम्बे होते हैं ।
उन्नत किस्में:
कुँदरू की अभी तक कोई विकसित प्रजाति नहीं हुई है, केवल स्थानीय किस्में ही उगाई जाती हैं ।
इनके फलों के आधार पर दो प्रकार की किसे हैं:
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1. गोल अथवा अंडाकार फल वाली किस्में:
इस किस्म के फल अंडाकार एवं हरे पीले रंग के होते हैं । ये आकार में अपेक्षाकृत छोटे होते हैं इसका व्यास 4-6 से॰मी॰ तक होता है । यह किस्म कम उपज देने वाली होती है ।
2. लम्बे आकार वाली किस्में:
इस किस्म के फल आकार में अपेक्षाकृत बड़े होते हैं, इसका व्यास 8-10 से.मी. तक होता है । यह किस्म अधिक उपज देने वाली होती है ।
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जलवायु:
कुँदरू की सफल खेती एवं उत्तम पैदावार नमी वाले एवं गर्म स्थानों में होती है । ठंड के दिनों में कुँदरू की लतायें सूख जाती है । जब ठंड समाप्त होने लगती है तब इनमें नई पत्तियाँ आनी शुरू हो जाती हैं । बीज का अंकुरण 30० सेंटी.ग्रेड से 32० सेंटी॰ ग्रेड तापमान पर ज्यादा होता है । पौधों की वृद्वि हेतु उपयुक्त तापमान 35-38० सें.ग्रेड. तक होता है ।
भूमि के प्रकार एवं तैयारी:
कुँदरू की खेती प्रायः हर तरह की भूमि में की जा सकती है यद्यपि पौधों की वृद्धि एवं पैदावार की दृष्टि से दोमट भूमि जिसमें सिंचाई एवं जलनिकास की उचित व्यवस्था हो एवं किसी भी प्रकार की कड़ी परत नहीं हो ऐसी भूमि को कुँदरू की खेती के लिए उचित माना गया है । अधिक पैदावार एवं पौधों की वृद्धि के लिए अधिकतम पी.एच. मान तक होना चाहिए । पौधों की वृद्धि सबसे अधिक बलुई दोमट में होती है, परंतु उपज उतनी अच्छी नहीं होती है ।
खाद एवं उर्वरक:
खेत की तैयारी के समय गोबर की सडी हुई खाद करीब 150-200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में अंतिम जुताई के समय मिलाया जाता है, तत्पश्चात पौधे लगाने से 10-12 दिन पहले 25 किलोग्राम नत्रजन, 40 कि॰ ग्राम फॉस्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश युक्त उर्वरक को प्रति हैक्टेयर की दर से मिलाया जाता है ।
अप्रैल महीने में थालों की खुदाई करके 2 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद के साथ 50 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सुपर फॉस्फेट एवं 25 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति थालों की दर से मिलाया जाना चाहिए । तत्पश्चात हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए । यह कार्य प्रत्येक वर्ष करना पड़ता है ताकि पौधों को उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलता रहे ।
बीज की बुआई एवं रोपाई:
बीज द्वारा:
कुँदरू के बीज को पौधशाला में या पॉलीथीन की थैलियों में जिनमें खाद एवं मिट्टी का मिश्रण हो, उसमें बोते हैं । बुआई के समय खेत में नमी का होना आवश्यक है । बुआई के 6-8 दिन बाद बीज में जमाव शुरू हो जाता है ।
जब पौधे 10 से 15 से॰मी॰ लम्बे हो जाएँ तब उनको उचित स्थान पर प्रतिरोपित कर दिया जाना चाहिए । इस तरह से पौधे तैयार करने का उचित एवं सर्वोत्तम समय जून-जुलाई का महीना है । इसके लिए बीज दर 4-5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक होना चाहिए ।
कलम द्वारा:
4-5 महीने पुरानी शाखाओं को काट दिया जाता है एवं उसकी पत्तियाँ तोड़ दी जाती है । इन शाखाओं से 40-50 से॰मी॰ लम्बी कलमें काट ली जाती हैं । इन कलमों को जमीन में दबा देते हैं । मात्र 5-8 से॰मी॰ कलम को भूमि की ऊपरी सतह पर रखते हैं । रोपाई के 60-70 दिन बाद इनमें जड़ें निकल आती हैं । इस तरह से तैयार पौधों को मिट्टी सहित उठाकर उचित स्थान पर लगाया जाता है । खेत में पौधों को 2 × 2 मीटर की दूरी पर लगा दिया जाता है ।
सिंचाई एवं जल निकास:
कुँदरू की कलम लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई की जाती है तथा बाद में सिंचाई आवश्यकतानुसार करते रहते हैं । खेत में नमी हमेशा बनाये रखना जरूरी होता है । जब पौधे मुख्य खेत में लगाए जाते हैं तो उस समय तुरत सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है । बरसात के मौसम में अतिरिक्त पानी निकालना आवश्यक होता है ।
सर्दी के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है । बरसात में अतिरिक्त पानी निकालना आवश्यक होता है अन्यथा पौधे सड़ने लगते हैं एवं सूख जाते हैं । जल निकास के लिए प्रत्येक दो कतार के बीच में एक नाली बना लेनी चाहिए । ग्रीष्म काल में एक-एक सप्ताह के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ।
निराई एवं गुडाई:
पौधों की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार के लिए समय-समय पर निराई करना आवश्यक होता है। थालों में जब भी खरपतवार दिखाई दें, तुरंत निराई कर देनी चाहिए । समय-समय पर हल्की गुड़ाई भी करना आवश्यक होता है, परंतु गुड़ाई करते समय ध्यान रखना चाहिए की पौधों की जड़, को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचे । ग्रीष्मकाल में 3-4 बार एवं वर्षा ऋतु में 5-6 निराइयाँ करना पर्याप्त होता है ।
सहारा देना:
अधिक पैदावार हेतु पौधों को सहारा देना अत्यंत आवश्यक होता है । किसान भाइयों को खेत में 1-15 मीटर ऊँचाई का मचान बनाना चाहिए, जिसे इस ऊँचाई के चार खम्भे लगाकर बनाया जाता है और उस पर कुँदरू की लता को चढ़ा दिया जाता है । यदि मचान बनाना सम्भव न हो तो सहारा देने के लिए अरहर की लकड़ियों का प्रयोग भी कर सकते हैं ।
उपज:
कुँदरू की उपज अथवा उत्पादन क्षमता भूमि के प्रकार जलवायु एवं किस्मों पर निर्भर करती है । सामान्यतौर पर इसका औसत उत्पादन 150-300 क्विंटल फल प्रति हैक्टेयर तक होता है एवं इसका उत्पादन प्रत्येक वर्ष होता है ।
विपणन:
तुड़ाई के बाद रोग एवं कीट से ग्रस्त फलों को निकाल देते हैं । शेष अच्छे फलों को साफ पानी से धोकर एवं पोंछकर टोकरियों में भरकर बाजार में भेज देते हैं ।
भंडारण:
सामान्य तापमान पर यदि फलों को ढककर रखा जाए एवं उन पर पानी का छिड़काव करते रहें तो उन फलों को 72 से 96 घंटे तक सुरक्षित रख सकते हैं । प्रशीतन गहों में 7 से 8 डिग्री से॰ तापमान एवं 80 प्रतिशत आर्द्रता पर फलों को 12-15 दिनों तक सुरक्षित रख सकते हैं ।